रश्मि भारद्वाज की नयी कविताएँ

कविताएँ: रश्मि भारद्वाज 

छूट गयी स्त्रियाँ


वे छूट गयी स्त्रियाँ हैं

जिनकी देह से पोंछा जा रहा है

योद्धाओं का पसीना

एक सभ्यता के ख़ात्मे के बाद

उनकी रक्तरंजित कोख से

मनवांछित नस्ल उगाई जाएगी


वे छूट गयी स्त्रियाँ

अपने स्वप्न में

नदी, समुद्र, पहाड़ लांघती

बेतहाशा भागी जा रही हैं

उनके गोद मे भूख से बिलबिला रहे शिशु हैं

दूध के लिए चिचियाते

लेकिन स्तनों से रक्त की धार निकलती है

वे शिशु उनकी अजन्मी इच्छाएँ हैं

जिन्हें लेकर वे निकल भागी हैं

और अब उन्हें दफ़नाने के लिए

थोड़ी सी ज़मीन तलाश रही हैं


वे स्त्रियाँ

अपनी माँ की भाषा के साथ

अपने पिता के देश में

अपने मालिक की

दीवारों में चुन दी गयी हैं

उनका सूरज आख़िरी बार जाने

किस शहर, किस गली, किस मकान में अस्त हो गया है


वे अपनी क़ब्र से झाँककर देखती हैं

वह सड़क जिसपर पिछली बार

अकेली खिलखिलाती निकल गयी थीं


उन्हें पहली बार फूल थमाने वाले हाथ

काटकर फेंक दिए गए हैं

रौशनी में चूमा था जिसने उनका माथा

उसका सिर चौराहे पर टँगा है

अंतिम बार उनके बचपन के नाम से

पुकारने वाली आवाज़ का

गला रेत दिया गया है


वे याद करती हैं

वह आख़िरी दिन

जब हवा में लहराए थे उनके केश

जब धूप ने उनके चेहरों को चूमा था


वह याद करना चाहती हैं

वह अंतिम क्षण

जब उन्होंने उस देश को

अपना घर बुलाया था।

मिलने को तो मैं


मिलने को तो मैं

दूसरे तल के दो कमरों वाले घर में भी मिल जाऊंगी

जहाँ बीती बारिश सीली स्मृतियों के साथ

सीलन ने भी अपनी जगह बना ली है

दूसरी गली में रहने वाली एक कुतिया को 

किसी ने जहर दे दिया है

मैं उसमें अक्सर अपना अक्स पाती थी

अपनी जन्मना की रक्षा के लिए 

अकारण ही शंकित 

ख़तरे को सूँघकर सड़क पर खदेड़ती हुई 

एक अकेली, कटखनी औरत


अवशेष मेरे बिखरे हुए हैं उस शहर की गलियों में भी

जो प्रमाणपत्र में मेरे जन्मस्थान की तरह दर्ज है

मेरे होने का लेकिन कभी 

जहां बहुत उल्लास नहीं रहा

पहला हृदय भंग उसी ने किया 


मिल सकती हूँ मैं उन तमाम जगहों पर

जहां घूमते-टहलते 

दृश्य में मैं भी कहीं छूट गयी होऊँगी

जहाँ का कुछ अंश मैं भी चुरा लायी थी 

हम दोनों ही जानते थे

यह अवकाश में मन बदलने भर को लगाया गया मोह है 


शेष शायद बचा हो मेरा

उन लोगों में भी 

जिन्हें मैंने अपना हृदय दिया था 

भेंट में दिया गया सामान अक़्सर मामूली हो जाता है

किश्तों में वापस आता गया

लौटता हुआ कुछ भी

हालांकि पूरा नहीं लौटता है


अभी इस रिहाइश के नगर में

मैंने पाने से अधिक खोया है 

चीजों, जगहों, लोगों को नहीं

सिर्फ़ ख़ुद को 

यहाँ मेरी तलाश व्यर्थ है


मेरी खोज में जुटे कुछ पुरातत्वविद

जिन्हें व्यक्ति का इतिहास खोदना भाता है 

जग-कही, जग-सुनी में मुझे गढ़ते रहे हैं 

यदि कोई मेरे लिखे से मुझे नहीं जान सके 

तो संसार के किसी अन्य पते पर 

मुझे खोज पाना असम्भव है



तुम उस मृत्यु के बारे में क्या जानती हो


मैं लिखने से ज़्यादा लिखने के बारे में सोचती हूँ

ठीक यही बात प्रेम के लिए कही जा सकती है

और ज़िन्दगी के लिए भी

और ठीक यही बात 

कि सब कुछ अधूरा ही छूट जाता है


पृथ्वी के उस छोर से तुम्हारी आवाज़ 

मैंने नींद में सुनी थी

पृथ्वी के इस सिरे पर जगते हुए 

अब मुझे यक़ीन है

मैं अकेली नहीं

हमारे बीच कुछ साढ़े आठ घन्टे का फ़ासला है

यह गूगल ने बताया 

ट्रेन से जाऊँ तो

अपने शहर जाते हुए भी पूरा एक दिन लगता है

वह शहर जो मेरे साथ ही चलता है

और तुम भी 

तुम्हें लेकर तुमसे ही मिलने 

कहाँ जाया जाए


रात के अंतिम प्रहर

मैं अपनी मीठी गर्म कॉफ़ी के साथ 

सोच रही हूँ 

नाज़ियों के उस देश में 

एक बीथोवन भी रहता था 

एक मार्क्स, एक नीत्शे भी 

अपनी पहचान से नफ़रत करती सिल्विया प्लाथ 

की कथा आज सुबह ही पढ़ रही थी

उसी देश में कहीं 

अपने दोस्तों के साथ

आख़िरी पैग़ लेती तुम इस समय

उस छूट गए देश

छूट गए लोगों के बारे में सोच रही हो

जिनसे तुम दूर भाग जाना चाहती हो


अब तक तो तुम्हें यह जान लेना चाहिए 

कुछ चीज़ें हमें खोज ही लेती हैं 

उनसे छिप सकने की कोई जगह नहीं बनी 

तुमने कहा था कभी 

कोई समानांतर ब्रहांड भी है

जहाँ हम एक और ज़िन्दगी जी रहे होते हैं 

मैं सोचती हूँ 

इसी दुनिया में

यह हमारा कौन सा जीवन चल रहा है


एक जीवन जिसके बारे में तुम्हारा दावा है

तुम सब जानती हो 

मैं सोचती हूँ 

तुम उस जीवन के बारे में क्या जानती हो

जो न लिखने के बारे में सोचता था

न प्रेम के बारे में 


तुम उस मृत्यु के बारे में क्या जानती हो


हो राम! चुन-चुन खाए


उस घर से जाते हुए अंजुलि भर अन्न लेना

और पीछे की ओर उछाल देना

पलट कर मत देखना पुत्री, बँध जाओगी

तुम अन्न बिखेरो, पिता-भाई को धन-धान्य का सौभाग्य सौंपो

और आगे बढ़ जाओ

ख़ुद को यहाँ मत रोपना

हमने तुम्हें हृदय में सहेज लिया है


जिस घर आओ

दाएँ पैर से बिखेरना अन्न का लोटा

रक्त-क़दमों की छाप छोड़कर प्रवेश लेना

श्वसुर-पति को धन-धान्य, वंश-वृद्धि का सौभाग्य सौंपना

ताकि हृदय में तुम्हें रोप लिया जाए


जब तक स्वामी के अधीन हो

लक्ष्मी, अन्नपूर्णा 

राजमहिषी हो

आँगन में बँधी सहेजती रहो अनाज

तुम्हें आजीवन मिलता रहेगा

पेट भर अन्न, हृदय भर वस्त्र-शृंगार

परपुरुषों से सुरक्षा

तुम्हारे निमित्त रखे गए हर अन्न के दाने पर यही सीख गुदी है


तुम इसे भूली

कि हृदय से उखाड़ी गईं 

अपने खूँटे से खुली कहलाईं

खुली हुई स्त्री पर सब अधिकार चाहेंगे

वे चाहेंगे तुम्हारे हृदय में अपनी छवि रोप देना

तुम कभी किसी घर में नहीं रोपी जाओगी

किसी हृदय पर तुम्हारा अधिकार नहीं होगा


पूर्व कथा : यथार्थ या दुःस्वप्न


दादी की कथा की गोलमंती चिड़ैया

चौराहे पर खड़ी कहती थी

मेरा खूँटा पर्वत महल पर बना है

मुझे मेरे बच्चों सहित वहाँ से निकाल दिया गया

मैं और मेरे बच्चे भूखे मर रहे थे

जिसके हिस्से का अन्न खा लिया मैंने

भूख से बिलखते बच्चों को खिलाया

वह मुझे पकड़ कर ले जाए

हो राम! चुन-चुन खाए

ज्यों मैंने उनका अनाज चुन-चुन कर खाया था

बड़ी होती लड़की 


विद्रोह की पहली रसद उसने ग्रहण की होगी नाभिनाल से 

जब एक स्त्री अपने एकांत में बुनती होगी संसार भर की आशंकाएँ

और उन्हें अपने गर्भ में सहेज लेती होगी 

वह उस तिमिर- तरल में बहती भी जान चुकी थी 

बाहर रौशनी बंटी हुई है कई खांचों में 

जहाँ शामिल हर नए रूदन पर नहीं मनाया जाता उत्सव 


वह निरापद अंधेरा तब डराता नहीं था

थपकियाँ देता समेट लेता था

अब इस स्याही से बचने की हिदायत उसकी तालीम में शामिल है


वह उपालम्भ से देखती है उन्हें 

जो जूते की नोक पर उछालते रहते हैं पृथ्वी

उनकी उड़ाई गयी धूल उसकी सपनीली आँखों में आ चुभती है 

वे जितनी आज़ादी सिगरेट के धुएं में फूंक कर उड़ा देते हैं

वह अपने सौ सौ सवालों के साथ उसे गटकती जाती है

वह नशा अब उसके रक्त में स्वप्न बन तैरता है


ककहरे में ही दे दी गयी थी उसे

अपने होना बचाए रखने की तहज़ीब

बारहखड़ी के अक्षरों को उलटती बिखेरती वह 

एक पक्षपाती भाषा को उसका विस्मृत संस्कार सिखाना चाहती है


बड़ी होती लड़की अकेली नहीं बड़ी होती

उसके साथ बड़ी होती है 

कोई अधजली इच्छा

पेड़ से लटकी कोई कामना

संदूक में बंद एक प्रार्थना

ये आँच बन उसकी आँखों में कौंधती रहतीं हैं 

बहुत कुछ है जिसे बदल देने का 

ख़्वाब देखती हैं



कौन है भारत भाग्य विधाता


कौन है भारत भाग्य विधाता

किस अधिनायक की जयगाथा गानी है

वह जो मेरा भाई था

कल उसकी पीठ लाठियों से तोड़ दी गयी

वह जो मेरा अन्न दाता था

उसे गोलियों से भून चौराहे पर टाँग दिया गया

वह जो मेरा प्रेमी हो सकता था

उसे आतंकी बना जेल में ठूंस दिया गया 

मेरी हज़ारों बेटियों की नुची हुई लाशें

मेरी छाती पर धरी हुई हैं

मेरे हज़ारों बेटों को भीड़ रोज़ कुचलती है

मैं अपनी सारी ताक़त बटोर कर खड़ी होना चाहती हूँ

कहना चाहती हूँ जय… हे!

मेरी आवाज़ गले में ही घुटकर रह जाती है

अमंगलदायक मेरी देह 

रक्त श्यामल भूमि पर लोट जाती है

वे उसपर नाचते- उल्लास से गाते हैं

सुखदां वरदां मातरम्!

वन्दे…….


mail.rashmi11@gmail.com

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