प्रवीण चन्द्र शर्मा की पाँच कविताएं

 



    मेरी भूमिका

पूर्व
निर्धारित है मेरी भूमिका

लिख कर रखे हुए
हैं

मेरे संवाद

मुझे केवल इन्हें याद रखना है

और इस तरह अदा करना है

कि सुनने या देखने वालों को लगे

कि- नदी अपनी स्वाभाविक गति से

बह रही है

आसमान पूरी तरह साफ़ है

एक-एक करके –

छिटके हुए सारे तारे

गिने जा सकते हैं

उस छोर से इस छोर तक

हवाओं में एक सौंधी गन्ध है

जिसके झोंके

उन तक पहुँच रहे हैं

जो चाहते हैं कि सब कुछ इसी तरह चले

एक जादू की पिटारी खुले

जिसमें उन्हें तरह-तरह के रंग दिखें

मैं चाहता हूँ

कि अपने संवादों को

थोड़ा-सा बदलूँ

अपने चेहरे की भंगिमा में वह

सब कुछ आने दूँ

जो मेरे भीतर खौल रहा है

उस लावे को बाहर आने दूँ

मैंने यह संवाद माँगे तो नहीं थे?

मैंने यह नाटक चुना तो नहीं था?

अभिनय मेरे जीवन का लक्ष्य तो नहीं था?

पूर्व निर्धारित है मेरी भूमिका

लिखकर रखे हुए हैं मेरे संवाद1 


२. 

    हत्या का रहस्य

खुल जाएगा

हत्या का रहस्य

सोकर उठने से पहले

निर्मल शीतल जल से

मिटा देंगी कविताएँ स्वयं

पराजय के सारे अवशेष

अपमानित चेहरों पर

चमकेगी

स्वाभिमान की धूप

सोकर उठने से पहले

शांत हो जाएगा

कोलाहल

सोकर उठने के बाद

मेरे साथ होगी-

पिघली हुई बर्फ़

निकली हुई धूप

निरभ्र आकाश में

पक्षियों की उन्मुक्त उड़ान-

सोकर उठने के बाद1 

 

३.

 वह
शहर

वह शहर कोई भी हो सकता है

वह जगह कहीं भी

प्लेटफार्म पर

चलने को तैयार खड़ी

गाड़ी कहीं भी जा सकती थी-

हर तरफ तो एक शहर था

मैं किसी भी शहर से

कहीं भी जाने वाली

कोई भी गाड़ी पकड़ सकता था

और अपनी मनचाही जगह पर

किसी भी वक़्त

उतर सकता था

सामने वाले मोड़

से थोड़ी दूर जाकर

आगे की ओर निकला हुआ

जो एक पीला-सा मकान दिखायी दे रहा है-

या सड़क पार करके

एक पतली-सी गली

जहाँ उत्तर की ओर मुड़ी है

उससे जरा दूर

भूरे रंग के घर के सामने

खड़ा होकर मैं

किसी भी खिड़की से भीतर झाँक सकता था

कोई भी दरवाजा

खटखटा सकता था

बिना पूछे अन्दर जा सकता था-

मुझे लौटते पाँव

वापिस भी तो आना था-

विपरीत दिशाओं को

जाते हुए लोग

क्या एक ही जगह जा रहे थे?

या एक साथ इकट्ठे होकर

इसी ओर आ रहे थे!

वह जगह कोई भी हो सकती थी

वह शहर कहीं भी

 

४.

     स्पन्दन

नहीं उड़े मेरे साथ-

वे हजारों पक्षी

जो मेरे भीतर

उड़ाने भरते रहे

फूट कर बाहर

नहीं निकले-

वे असंख्य झरने

जो मेरे भीतर

दबे स्वरों में

रोते रहे

वे बन्दी पक्षी-

जो फड़फड़ाते रहे

वे अवरुद्ध झरने-

जो कुलबुलाते रहे

कहीं वही तो नहीं थे

स्पन्दन जीवन के!

५.

    शेष यात्रा

सभी मार्ग

वहीं तक आते हैं

सभी रास्ते

यहाँ आकर चलते-चलते

रुक जाते हैं

सभी मार्ग

केवल यहीं तक पहुँचाते हैं

ऐसा नहीं कि

रास्ता थोड़ी देर के लिए

या कुछ दिनों के लिए

बन्द हुआ हो- और

मौसम खुलने पर फिर

चलने लगेगा

तुम इस समय जहाँ हो

वहीं खड़े-खड़े

आगे की ओर देखकर

पता लगाने की कोशिश करो-

आगे घाटी है, झाड़ी हैं

खाई है, कोई निर्जन द्वीप

या केवल एक महाशून्य

यहाँ खड़े होकर

तुम याद कर सकते हो

फिसलन भरी उन चट्टानों को

जिन पर गिरते-गिरते

तुम बचे थे

सोच सकते हो

उन आघातों के बारे में

जो किसी दबी हुई चोट की तरह

तुम्हारी पोरों में अब भी कराहती हैं

तुम्हारे पूर्व संचित संस्कार

तुम्हारे संकल्प

तुम्हारी निष्ठाएँ, तुम्हारे विश्वास

तुम्हारी मान्यताएँ, तुम्हारी आस्थाएँ

तुम्हारे सम्बन्ध, तुम्हारी प्रार्थनाएँ

तुम्हें यहीं तक ला सकती थीं

जहाँ सब कुछ ठहरा हुआ है

शेष यात्रा के

इन बचे हुए क्षणों में

इस निस्तब्ध प्रहर में

न कोई पथ है न पथ प्रदर्शक

तुम ही अपना पथ हो

तुम ही अपना सम्बल हो

अब कोई दिशा संकेत नहीं है

तुम केवल-

अनन्त प्रतीक्षा हो|

    अंग्रेजी के उन ख्यातिलब्ध प्राध्यापकों में एक जिन्होंने भारतीय प्रशासनिक सिवा के अपने प्रोज्ज्वल शासनकाल में भी लगातार ‘पोएटिक जस्टिस’ ही की और ईमानदारी तथा अदर्शनिष्ठा के नए प्रतिमान कायम किए!

Leave a Reply