गोपीकृष्ण गोपेश द्वारा अनूदित ओल्गा मार्कोवा की कहानी ‘ताज़ी हवा का झोंका’

अनिस्का, १९२६, ऑइल ऑन कैनवास, डेविड पेत्रोविच श्टेरेनबर्ग विकिमीडिया कॉमन्स

पहिये नपे-तुले ढंग से चर्र-मर्र करते रहे। गाड़ी एक लय-तान से हिचकोले खाती रही। गाड़ी लोगों से ठसाठस भरी रही। खिड़की से सटा खड़ा वसीली सिगरेट पीता और बाहर देखता रहा। एक मोटा सा बक्सा उसके पैरों के पास रक्खा रहा और खिड़की से आने वाली गरम हवा सिगरेट का धुआँ डिब्बे में वापिस ठेलती रही।

             गाड़ी नौजवानों से भरी थी। सभी किसी कान्फ्रेंस जैसे आयोजन से लौट रहे थे। लेकिन, खैर, यह तो कोई बात न थी। उनकी मंजिल यानी सरकारी फार्म आने ही वाला था। पर, उसका सिर तो गरमी से बोझल हो रहा था…

              सोन्या अपने पति के पास से जरा दूर हट गयी और अपने विचारों में डूब गयी- तमाम चीजों के बावजूद आखिरकार हम चल ही पड़े। तीन वर्ष बराबर कोशिश की मैंने इसके लिए। अन्त में कामयाब हो गयी।

              घर पर सोन्या फ़र के एक व्यापार-केन्द्र में काम करती रही थी। शिकारी कच्चे चमड़े लाते थे, और बदले में तमाम दूसरी चीजें ले जाते थे। सो, उसका काम था इन चमड़ों को देखना-भालना और समझना कि कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं है। किसी शिकारी की क्या मजाल कि उसकी आँख में धूल झोंक दे और खराब चमड़े दे जाये।

              पर, वसीली जब भी आता और उसके काउंटर पर खालों से भरा बोरा उलटता तो वह जरा भी चिंतित न होती, बल्कि पूरी तरह आश्वस्त रहती कि इन्हें बहुत देखने-भालने की जरूरत नहीं। ये खालें तो हर तरह ठीक-ठाक होंगी ही। यह शिकारी गिलहरियों का शिकार करता तो गोली सीधे आँख में मारता। नतीजा यह कि खालें बेदाग होतीं।

              वसीली इन खालों के बदले जो और जिस तरह की चीजें चुनता, उनसे सोन्या हमेशा ताज्जुब में पड़ जाती। वह जो कुछ चुनता वह अच्छे से अच्छा होता।

              ऐसे-ऐसे एक बार सोन्या बोली,

              ‘‘तुम चीजों को चुनने में जैसी होशियारी बरतते हो, अगर ऐसी ही होशियारी तुमने अपनी दुलहिन के चुनाव में बरती तो खाक छानते रहोगे, लड़की नहीं मिलेगी।’’

              ‘‘खैर, यह दिन-दो दिन की बात तो होती नहीं- जिन्दगी भर का मामला होता है- इसमें गलती या भूल-चूक हो जाती है तो आदमी दिक्कत में पड़ जाता है।’’

‘‘ताजी, ठंडी हवा का झोंका- यह मिलेगा हमारे बेटे को विरासत में।’’

              एक बार वहाँ से बाहर आते समय बोला, ‘‘तुम जानती हो, हीरा हो तुम… हीरा!’’

… थोड़े समय बाद ही सोन्या को लगने लगा कि वसीली कहीं दूर चला जाता है तो उसका समय काटे नहीं कटता और बड़ी बेचैनी होती है।

              … वसीली 14 वर्ष की उम्र में शिकारियों के संघ का सदस्य बना था, और साल-ब-साल उसकी खालों की गिनती बढ़ती गयी थी।

              पर, वह जब भी आता, सोन्या यों ही उससे पूछ बैठती, ‘‘क्यों, अपने लिए कोई दुलहिन खोज ली या अभी तक कोई मन की लड़की नहीं मिली?’’

              ‘‘अभी नहीं मिली – मामला टेढ़ा है – अक्ल से काम लेना चाहिए,’’ – वह उत्तर देता है।

              पर, एक दिन ऐसा हुआ कि सोन्या के सवाल करते ही वसीली ने तत्क्षण जवाब दिया, ‘‘हाँ, दुलहिन खोज ली।’’

              सोन्या को अपना सारा बदन ठंडा होता लगा। उसके हाथ तक पीले पड़ गये, और दिमाग कहीं और चला गया। बिना मतलब गिलहरी की खाल के रोयें जहाँ-तहाँ से नोचने लगी। वसीली ने खाल उसके हाथ से ले ली और बहुत समझदारी के साथ शांत भाव से बोला, ‘‘पहिले इसे मेरे हिसाब में चढ़ा दो। फिर इसे चौपट करो या जो चाहे सो करो।’’

              लड़की ने छोटी, नीली खाल एक ओर से लोकाई और हाँफते हुए पूंछा, ‘‘कौन है वह लड़की?’’

              वसीली ने अपनी काली आँखें उसकी आँखों में डालीं और दृढ़ता से बोला, ‘‘तुम!’’ और, बात खत्म हो गयी।

              बात सोन्या के साथ काम करने वालियों से सुनी तो एक बोली, ‘‘देख लो, सोन्या, उसकी माँ बड़ी कंकाला है। बड़ी मुसीबत होगी तुम्हें।’’

              शादी की तैयारियाँ शुरू हुई तो वसीली ने बस्ती में एक पुराना मकान खरीद लिया और अपनी माँ को गाँव से ले आया। माँ का कद लम्बा और चेहरा बड़ा सूखा-सूखा सा था- गिरजे में बसने वाली किसी नन के जैसा। काले कपड़े भी वह नन की तरह ही पहिनती थी।

              सोन्या अपने पति के घर आयी तो बुढ़िया ने अपनी गढ़ों में धँसी, सिकुड़ी हुई आँखों से उसे सिर से पैर तक गौर से देखा, और होंठ लगभग भींचे ही भींचे बोली, ‘‘तुम ब्याह कर जिस घर में आयी हो, उसमें हर काम बहुत हाथ दबाकर किया जाता है … याद रखना हमेशा।’’

              सोन्या के वैवाहिक जीवन का श्रीगणेश हुआ, पर, यह बिल्कुल दूसरी ही तरह की जिन्दगी निकली। घर ऊँची, मोटी दीवार से घेर दिया गया और अंधेरी, गीली गली के अंत में एक सँकरा सा फाटक लगा दिया गया। वातावरण में उमस, और सन्नाटा- घर में तमाम अंगड़-खंगड़, और एक मुँहचढ़ी मालकिन- और … और, प्यार।

अब वसीली जब भी शिकार के लिए बाहर जाता तो सोन्या उसका बेसब्री से इन्तजार करती और सोचती कि उसके आते ही सब कुछ ठीक-ठाक हो जायेगा, हर चीज बदल जायेगी, और घर हँसी के ठहाकों से भर उठेगा। पर, असलीयत में बदलता कहीं कुछ नहीं। वे अक्सर ही सिनेमा देखने चले जाते, पर माँ को यह सैर-सपाटे खलते और बुरे लगते। बड़बड़ाती, ‘‘बाबा, हमारे ज़माने में ये सारे सिनीमा-ठठेर नहीं थे… हमारे जमाने में तो खिड़कियों के सामने घर का अहाता होता था … क्या मजाल थी कि किसी की आँख तो पड़ जाये … इस सिनीमा-ठठेर से तो कहीं अच्छा है कि तुम अपने घर में रहो, और अपनी कसीदाकारी करो…’’

              वसीली अपनी माँ से डरता और पंजों के बल घर से इधर-उधर आता-जाता। अपनी पत्नी से साधारण बातें या प्यार की बातें करता तो ऐसे कि आवाज न हो। उस पर सोन्या कभी आम ढंग से बोलने की कोशिश करती और स्वर चढ़ाती तो वसीली सहम जाता और आशंका से दरवाजे की ओर देखने लगता। दरवाजे पर एक लम्बी, काली छाया हमेशा मंडराती रही।

              ‘‘यह सूंघासाँघी क्यों कर रही हैं?’’ सोन्या गुस्से से पूछती।

              ‘‘चुप रहो… वे मेरी माँ हैं,’’ वसीली जवाब देता है।

              मगर, एक दिन सोन्या कमरे में बैठी कसीदाकारी कर रही थी कि सास कमरे में आ गयी, कहने लगी, ‘‘देवता की मूर्ती के सामने की मोमबत्ती की तरह वहाँ मत बैठा करो … इधर सुनो … यह बतलाओ कि तुम्हें इस बात से कोई दिलचस्पी नहीं है क्या, कि हमारे घर में क्या है, और क्या नहीं है?’’ … और उसने ऐसे श्रद्धा भाव से पतोहू को सारे घर का चक्कर लगवाया, जैसे कि वह घर न होकर गिरजा हो। यहीं नहीं, उसने बड़े-बड़े बक्सों, देव-मूर्तियों और शीशों से भरे बड़े कमरों के ताले खोले और सब कुछ उसे दिखलाया।

              ‘‘पर, यह सारा कुछ है किसके लिए?’’ सोन्या ने अचरज से पूंछा।

              ‘‘मेरे पोते-पोतियों के लिए,’’ बुढ़िया ने बड़े दर्प से उत्तर दिया। ‘‘वे हमारी तरह की जिन्दगी बसर न करेंगे … यह मकान कभी धनी व्यापारियों का था, पर अब मेरा है … मेरे पोते-पोतियों के पास अपनी जरूरत की हर चीज होगी…’’

              बच्चे … हाँ, बच्चे तो सोन्या भी चाहती पर इस सम्भावना से उसे थोड़ा डर लगता, और लार्च की ठोस लकड़ी के इस घर की मोटी-मोटी दीवारों में जन्म लेने वाली सन्तानों की बात सोचते ही वह सिहर उठती। कल्पना करती तो मुस्कराते, गुलाबी गालों वाले, फूल से नन्हें-मुन्ने उसकी आँखों के आगे न आते, बल्कि आते धँसी आँखों, उदास चेहरों वाले, दुबले-पतले मरियल बच्चे। मात्र अपने पति के प्रति प्यार, और एक अवर्णनीय उत्सुकता के कारण वह इस घर में बनी रहती, और सारा दंशन चुपचाप सहती रहती। अपने दफ्तर में भी प्रायः गुमसुम सी रहती और चुपचाप, आज्ञाकारिणी की भाँति काम करती रहती। अब शिकारियों से पहिले की तरह बहस न करती, और जिन दोयम दर्जे की खालों को देखते ही पहिले लेने से इन्कार कर देती, वे भी अब अक्सर ले लेती। इस पर एक बार कुछ मुसीबत उठ खड़ी हुई तो सासने सलाह दी, ‘‘अफसरों से बिगाड़ नहीं करना चाहिए… उनसे बनाकर ही रखनी चाहिए… और, ये लोग थोड़ी चापलूसी पसंद करते हैं।’’

दरवाजे पर एक लम्बी, काली छाया हमेशा मंडराती रही।

यह परिस्थिति दो वर्ष तक चलती रही। अब उसकी सास की भावनाहीन अस्वीकृति स्पष्ट संदेह का रूप धारण करने लगी।

              उसकी सास उसमें बराबर एक तरह की हीन-भावना सी भरती रही थी, पर उसके पैर भारी हुए तो जहाँ उसमें एक तरह का अभिमान जगा, वहीं शक्ति भी आयी। उसने इस घर में इस बीच बहुत कुछ सहा था, झाड़ दे और जिन्दगी नये सिरे से शुरू कर दे। सो, उसने शामों को वसीली को जोर-जोर से अखबार पढ़कर सुनाने शुरू किये, और उनमें छपी अपीलें तो वह और भी ध्यान से सुनाने लगी। इन अपीलों में पूर्व के नये इलाके की चर्चा होती, और तरुणों से वहाँ आकर बसने का आग्रह किया जाता।

              एक दिन रात को सूखी, जलती हुई आँखों से रात के अंधकार में निगाहें गड़ाते हुए सोन्या अपने पति से फुसफुसाते हुए बोली, ‘‘हम भी वहाँ क्यों न चलें?’’ और, वह पूर्व के उस इलाके के सुखद भावी जीवन के आकर्षक नक्शे खींचने लगी। पर, वसीली को उस ओर इस समय जो चीज खींच रही थी, वह थी वहाँ बड़ी रकमें बनाने की अफवाह। फिर भी सोन्या ने सोचा, ‘‘कोई बात नहीं, धीरे-धीरे मैं उसे रास्ते पर ले आऊँगी … वसीली को यहाँ से तो, जैसे भी हो, निकालना ही है।’’

              वह कहती, ‘‘सुनो, तुमने लड़ाई के जमाने में टैंक चलाये हैं … तुम मशीनों के बारे में सब कुछ जानते हो … फिर, पहिले-पहल जाने वालों को वहाँ जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ा, वे तो अब हैं भी नहीं … उस इलाके का श्रीगणेश हुए चार साल हुए हैं, और इस बीच वहाँ अच्छे खासे शहर बस गये हैं। लेकिन, श्रम-शक्ति की कमी वहाँ अब भी है।’’

              … और, होते-होते वह दिन आया कि पति-पत्नी उस इलाके के लिए रवाना हो गये। ऐसे में सोन्या अपने पति से बोली, ‘‘वास्या, बैठ जाओ … पैर थक गये होंगे खड़े-खड़े।’’

              वसीली खिड़की से हटकर उसके पास आ बैठा। इस बीच डिब्बे की भीड़ छँट गयी थी, और शोरगुल भी थोड़ा कम हो गया था।

              ‘‘इस वक्त हमारे यहाँ 77 कम्बाइनें और एक सौ ट्रैक्टर हैं, और गाँव के मकानों की गिनती पचास है।’’

              सोन्या अपने पति के कंधे से सिर टिकाये सारी बातचीत सुनती रही। जहाँ तक वास्या का सवाल है, उसके मन में कुछ और भी भाव उठते रहे। उसे लगता रहा कि इस प्रकार अनजाने, अनदेखे परदेस के लिए एकदम रवाना होकर उसने अच्छा नहीं किया। सोन्या ने उसके मन के भाव समझे, आँखों में आँखें डालीं, और फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘वास्या, एक रहस्य की बात बतलाऊँ तुम्हे? तुम जल्दी ही पिता होने वाले हो … मेरा ख्याल है कि बेटा होगा…’’

              पति चौंक गया और उसकी आँखों से उत्सुकता के साथ-साथ चिन्ता झाँकने लगी।

              ‘‘अगर ऐसा है तो हम यहाँ कौन सा झाड़ झोकेंगे। क्या करोगी तुम?’’

              ‘‘तुम फिक्र मत करो… सब कुछ ठीक-ठाक हो जायेगा। वहाँ भी तो औरतों के बच्चे होते हैं,’’ और फिर आँख बन्द कर भावना में डूबते हुए बोली, ‘‘वहाँ उसे हमसे वसीयत में सामान से भरे बक्सों के बजाय और कुछ मिल सकेगा…’’

              अब तक स्तेपी के अनन्त पसार के बीच से गुजरती हुई गाड़ी ठीक इसी समय कुछ इमारतों की परछाइयों के बीच से धँसी हवा का एक ठंडा झोंका लहराता हुआ डिब्बे में आया, और मुसाफिरों के पसीने से तर चेहरों पर पंखा सा झलने लगा। मुसाफिरों ने चैन की साँस ली और थके हाथ-पैर सीधे किये। सोन्या ने खिड़की की ओर देखकर सिर हिलाया और जवाब में बोली,

              ‘‘ताजी, ठंडी हवा का झोंका- यह मिलेगा हमारे बेटे को विरासत में।’’

              वसीली ने कुछ नहीं कहा। पर, सोन्या को लगा कि पति ने उसकी बात नहीं समझी। पति एक ओर को हट गया और उसके मन के निराशा भरे विचार उसके चेहरे पर झलक आये। आखिरकार बोला, ‘‘हम अगले स्टेशन पर उतर जायेंगे और पहिली गाड़ी से घर वापिस लौट चलेंगे।’’

              सोन्या ने सिर हिलाया और बगल के लाल, सूजी पलकों वाले तरुण से बातें करने के लिए मुड़ी। पूंछने लगी, ‘‘तुम्हारी आँखें ऐसी क्यों हैं, क्या हुआ?’’

              तरुण को जैसे दर्द की याद हो आयी और उसने अपनी खुरदुरी उँगलियाँ पलकों पर फेरीं, ‘‘खार के कारण आँखों की यह हालत है।’’

              ‘‘खार, कैसा खार?’’

              ‘‘हाँ, खार के कारण ही। हमारे फार्म के खेतों में काम करने वाले सभी लोगों को यह तकलीफ है। जहाँ मैं काम करता हूँ वहाँ दलदल के दलदल खार से भरे हुए हैं। इस खार से आँखें लाल हो जाती हैं, सूज जाती हैं।’’

              अचानक ही गाड़ी धीमी हुई। वसीली ने उछलकर अपनी पत्नी का हाथ कसकर पकड़ लिया, ‘‘आओ, चलो, चलें…’’

              सोन्या ने आश्चर्य से कंधे बिचकाये, ‘‘सुनो तो, देखो यह जवान क्या कहता है।’’ और, गाड़ी चल पड़ी। वसीली खीझकर फिर बैठ गया।

              सोन्या पड़ोसी से बोली, ‘‘तुम्हें धूप का चश्मा लगाना चाहिए … जानते हो, कैसा धूप का चश्मा, वैसा जैसा ड्राइवर इस्तेमाल करते हैं। मैं अपने पति के लिए उस तरह का लायी हूँ।’’

              तरुण मुस्करा दिया, “इसी के लिए तो मैं शहर गया था … आप जानती हैं, देश के कोने-कोने से लोग हमारे लिए तोहफे भेजते हैं- पर, धूप के चश्मों की बात किसी के दिमाग में नहीं आयी। … इस समय पाँच सौ धूप के चश्मे लेकर वापिस लौट रहा हूँ। इतने हैं कि सातसाला योजना के अन्त तक चलेंगे।”

              इसी समय एक टिकिट-चेकर की आवाज कानों में पड़ी- ‘‘टिकिट दिखलाइए… टिकिट।” इस बीच वह डिब्बे में आ गया था, ‘‘यह क्या कचरा फैला हुआ है यहाँ?’’

              हर एक की निगाह फर्श पर जा पड़ी। वहाँ छोटी-छोटी पीली गुरियों से बीच बिखरे थे।

              ‘‘इसका मतलब यह है कि किसी को जुरमाना भुगतना पड़ेगा।’’ टिकिट-चेकर चीखा। सोन्या की बगल से गुजरते समय उसने उस पर और उसके पास बैठी, औंघाती हुई बुढ़िया पर सन्देह की नजर डाली। झुका तो सीट के नीचे से एक बोरा बाहर की ओर उभरा हुआ दिखलाई पड़ा। बात समझ में आयी कि बोरे का मुँह खुल गया था, इसीलिए उसके अन्दर के बीज फर्श पर बिखर गये थे।

              ‘‘किसका बोरा है यह?’’ टिकिट-चेकर ने पूछा।

              बूढ़ी चौंककर उठी, झुकी, और दूसरे ही क्षण उसकी निगाह सीट के नीचे दौड़ गयी। मुँह से कराह निकल गयी।

              ‘‘तुम्हारा है?’’

              ‘‘जी हाँ, भगवान आपको सलामत रक्खे, बोरा मेरा है।’’ बूढ़ी ने इधर-उधर बेचैनी से देखते हुए गलती मान ली।

              ‘‘दादी, क्या है तुम्हारे इस बोरे में?’’ सोन्या ने पूंछा।

              ‘‘बेटी, बड़ी कीमती चीज … चीड़ के बीज थे इसमें। अपने बेटे के पास ले जा रही हूँ। पूरे पतझड़ भर जमा किये, और यह यहाँ कुल के कुल बिखर गये। मेरा बेटा कितने मन से स्तेपी में चीड़ के पेड़ उगाना चाहता था …’’

              ‘‘इसके लिए कोई तुम पर जुरमाना नहीं कर सकता,’’ सोन्या ने दृढ़ता से कहा।

              टिकट-चेकर गुस्से से सोन्या की ओर मुड़ा, ‘‘तुम इस मामले से दूर रहो। वरना तुम पर भी जुरमाना कर दूंगा।’’

              ‘‘अरे, नहीं, कहाँ की बात करते हैं आप, मुझ पर कोई जुरमाना नहीं कर सकते।’’ सोन्या ने सिर हिलाया- उसका चेहरा क्रोध से तमतमा उठा।

              ‘‘इससे तुम्हारा कोई ताल्लुक नहीं,’’ टिकिट-चेकर ने बात दोहराई, पर बात के पीछे की आस्था कुछ कमजोर पड़ गयी थी।

              ‘‘है मेरा ताल्लुक इससे।’’ सोन्या ने बल देते हुए कहा। ‘‘दादी और मैं यानी हम दोनों मिलजुल कर अभी-अभी बीज बटोरे देती हैं। फिर, आपको बुहरवाने या सफाई करवाने की जरूरत न पड़ेगी।’’

              इतना कहकर सोन्या डिब्बे के सिरे तक दौड़ गयी, झुकी और मुट्ठी भर भरकर बीज उठाने लगी। दूसरे ही क्षण किसी और ने हाथ लगाया और देखते-देखते सीटों के नीचे से चमकदार, पीले बीजों की कालीन सी उलट दी गयी। सोन्या ने सावधानी से पूरे का पूरा अम्बार बुढ़िया की ओर बढ़ाया। सूजी पलकों वाले तरुण ने बोरे का मुँह खोला और उकड़ूँ बैठ गयी दादी ने सारे बीज अंजली-अंजली कर बोरे में भर लिये।

              ‘‘तो, दादी तुम स्तेपी में चीड़ के पेड़ उगाने जा रही हो? मगर, पेड़ क्या, इतने बीजों से तो पूरे का पूरा जंगल खड़ा हो जायेगा,’’ सोन्या बोली, ‘‘चीड़ बड़े होंगे तो उनकी शाखों पर गिलहरियाँ दौड़ेंगी, और गिलहरियाँ दौड़ेंगी तो शिकारी आयेंगे और उनका शिकार करेंगे…’’

              उसने कनखी से अपने पति की ओर देखा। देखने से लगा कि उसका मन अब भी उसी तरह आगे-पीछे हो रहा है। पर, गाड़ी धीमी हुई और अगला स्टेशन आया तो उसने उठने की, पहिले की तरह, कोई कोशिश न की। उसने खिड़की की ओर तक नहीं देखा। उल्टे, दूसरों के साथ वह भी दादी की राम-कहानी सुनता रहा।

              गाड़ी पटरियों के जोड़ों पर खड़खड़ाती एक स्टेशन पर रुकी।

              ‘‘आ गये हम!’’ स्टेशन का नाम पढ़ते हुए सोन्या बोली। अन्त में जब वे चलने को उठे तो बुढ़िया भी उठी, और सोन्या के सामने पुराने ढंग से झुकते हुए बोली, ‘‘बेटी बहुत-बहुत धन्यवाद। खूब खुश रहो- दूधो नहाओ, पूतो फलो।’’ गाड़ी के बाहर का स्तेपी शांत और स्थिर बना रहा। हवा थम गयी थी।

इतना कहकर सोन्या डिब्बे के सिरे तक दौड़ गयी, झुकी और मुट्ठी भर भरकर बीज उठाने लगी। दूसरे ही क्षण किसी और ने हाथ लगाया और देखते-देखते सीटों के नीचे से चमकदार, पीले बीजों की कालीन सी उलट दी गयी।

गोपीकृष्ण गोपेश

जन्म : 11 नवम्बर, 1925

शिक्षा : इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए., एम.ए. तथा शोधकार्य।

मौलिक रचनाएँ : किरण, धूप की लहरें (गीत-संग्रह); तुम्हारे लिए (कविता-संग्रह); अर्वाचीन और प्राचीन से परे (रेडियो नाटक); सोने की पत्तियाँ (विविध रचना-संग्रह)। पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं संस्मरण प्रकाशित। साथ ही अनेक कहानियों और उपन्यासों का रूसी तथा अंग्रेजी भाषा से हिन्दी में अनुवाद।

पुरस्कार : शोलोखोव के विश्व-प्रसिद्ध उपन्यास ‘तीखी दोन’ के चार खण्डों के हिन्दी अनुवाद ‘धीरे बहे दोन रे’ पर 1973 में सोवियत भूमि नेहरू अवार्ड से सम्मानित।

मृत्यु : 4 सितम्बर, 1974