आइनार गाछ केनो होए ना (आईने के पेड़ क्यों नहीं होते) — रामेश्वर द्विवेदी




कार्यालय में आवेदन पहुँचाने के लिए ट्राम का किराया देकर पिता बाहर निकल गए। दो दिन बाद लौटकर सागर से पूछा तो सागर अवाक। पिता के निकलते ही उसने बैग फेंके और भाग निकला। सपना घोष से मिलने को तो समंदर तैर जाता, हुगली पार करने को न सही मिट्टी का भी कच्चा घड़ा तो न सही, कहाँ कोई फिकर थी। पिता ने घर में कदम रखे तो सागर आईने के पास खड़ा स्वयं में डूबा था। पिता ने पैसे वापस मांगे तो कह दिया – “खर्च हो गए “। पिता ने मारा। आईना तोड़ दिया – “साला, सिपाही का बेटा है नेटुआ बनेगा। कहाँ गया था बोल। अभी से एतना बेकहल क्यों है ? कोयले के धुँआते चूल्हे में उचकुन के लिए माँ ने लोहे का छड़ लगा दिया था। पिता ने जैसे छड़ खींचा, सागर ने उत्तर उगल दिया – “विक्टोरिया पार्क“। पिता ने तपता छड़ बाँह पर मार दिया। चीख और चिरायंध गंध एक साथ उभरी। जमीन पर औंधा गिरा, सागर ने खड़ा होते हुए पिता की क्रुद्ध आँखों में अपनी आँखें डाल दी। “आँखें तरेर कर देखता है। ढीठ ! चोरी और सीनाजोरी। बाप से अधिका कीमती हो गई तुम्हारे लिए वह लौंडिया। एक सांझ की रोटी भी ईमानदारी से कमाकर ला तो जानूं कि असल बाप की बूंद का है। “मां दौड़ती हुई पिछवाड़े से निकली और आँखों  पर तलहथी का पर्दा कर दिया – “नजर नीची कर अहमक। जमीन ताकते जीवन गुजार दिया।“ फिर पति की तरफ मुड़ी – “का आते ही आपे से बाहर हो गए। बच्चा है उसे का पता कि खर्चे की मार से आपका दिमाग चढ़ा रहता है। ऐसे तो जल्लाद भी अपनी औलाद को नहीं जलाता। “सागर को अपने पीछे खड़ा किया और रोती हुई चिनके फर्श पर बिखरे आईने के टुकड़े चुनने लगी। “बाप बोलता रहा। माँ शीशे  के टुकड़े उठाती रही। सुबकता हुआ सागर पीछे के दरवाजे से निकल गया। डर से दुबके दो छोटे भाइयों में से प्रभु को बुलाकर माँ ने शीशे से भरा ठोंगा पकड़ाया “जा गटर में फेंक आ। बाहर मत फेंकना, लोगों के पांव घवाहिल हो जाएंगे।“ प्रभु को भागते देखा तो सागर ने भाग कर उसे पकड़ा – “कहाँ ले जाता है रे ? चल इधर अमरूद के नीचे रोप। जब पेड़ हो जायेगा, देखूंगा कौन केतना आईना फोड़ेगा।“  उसका मन हुआ, स्वयं सरापा आईना हो जाए। पृथ्वी पर उग आएँ आईनों के असंख्य पेड़ जिसमें नफरत और हिंसा करने वालों को अनचाहे भी अपनी शक्ल दिखे तो लगे कि गालियाँ देता कोई किस तरह परीकथा के राक्षस-सा कुरूप हो जाता है और जो कोई चाहे तो तोड़ कर दिखाए कि कितना तोड़ पाता है आईना। सपना की बातें अम्मा की माया जैसी मीठी है मरे तो मर जाए, कभी मिलना न छोड़ेगा।

अगले दिन स्कूल जाता सागर सैलून में घुस गया। सफेद चेहरे का काला निशान श्याम हो गया था। जली बाँह पर माँ ने नीली स्याही उड़ेल दी थी। दाग बाकी था। न आज स्कूल न जाएगा। सपना पूछेगी, वह मुस्कुराए, इसके पहले ही आँखें उमड़ आयेंगी। वह हावड़ा पुल पर पहुँचा। बैग से एक-एक किताब निकाली, पन्ने फाड़े, कभी जहाज बनाकर हवा में उड़ाया, नाव बनाकर नदी में बहायी। बैग हिलाता घर लौट आया। पढ़ा ले उसे कि कोई कैसे पढ़़़ा लेता है। यही गलती कर ली, सोचा था बाप से बदला ले रहा है, अब उम्र भर पछताना है। काश! जिन्दगी लटाइ के माँझा किए धागों की तरह फिर लपेटी जा सकती।

गर्मी की कोई बेहद चिपचिपी शाम थी। घूमते-थकते सागर ने कातर प्यास महसूस की। बैरकपुर के एक गैराज में पहुँच गया – “दादा ! आमार एक टा काज चाइ।“ “तू काज जानिस“ – मालिक ने घूर कर देखा। “काज न पेले क कोरे सिखबो ? काज सिखे तो केउ जन्मे नय न“ – मालिक मुस्कुराया। अंगुली से इशारा किया – “चल ! राजदूतेक तेर पिछोनेर चक्का खोल।“ साँझ घिरे लौटा तो बाहर बरसते मेघ और भीतर बहते शीतल समीर में मन की जलन धीमी पड़ी थी। पिता ने मारा, दागा, आईना तोड़ा, सब सही पर अम्मा को गाली क्यों दी ? सपना को लौंडिया क्यों कहा ? पहली पगार ली तो घर भर के लिए सामान और अपने लिए पीतल के मोरपंखी फ्रेम का आईना ले आया। रुद्राक्ष का माला थमाते हुए पिता से बोला – “पहनिए ! गुस्सा कम आयेगा तो आईना नहीं फोड़ेंगे।“ पिता की हिरण्यकष्यपु-मुद्रा में मुस्कुराहट उतर आयी।  लाल चूड़ियों को आँखों से लगाती माँ को पुकार कर पिता ने कहा – “सुन ! एकदम बावला है तेरा बेटा।“

ट्राम-मेट्रो क्या, उससे तेज भागती रही सागर की यायावरी। पार्क स्ट्रीट, महात्मा गाँधी की आदमकद मूर्ति से शुरू होकर फ्री स्कूल स्ट्रीट लोअर सर्कुलर रोड में जुड़ जाने वाली सड़क पर वह सपना के साथ घूम रहा था। धूप में नोंके निकल आयीं थीं। घर लौटने की नीयत से पसीने से लथपथ सपना ने पूछा – “कैमुन लागछे अमा के।“ “भालो! मिष्ठी मधुर झरना जलेर मतो, तुमि माता दुर्गा“- सपना का चेहरा लियोनर्दा-द-विंची के बिना बनाए मोनालिसा के चेहरे में बदल गया।

अगली शाम विशाल पार्क के मौलश्री की जड़ में बैठी सपना की अंजुली में लाल फल चुनकर गिराते सागर ने पूछा – “सपना ! आइनार गाछ केनो होए ना।“ वह हंसी कि छत में टँगा कीमती फानूस फर्श पर गिरकर चकनाचूर हो गया – “माटी जेतोइ भालो होक ना केनो किन्तु, बीचि मद्ये उठार शक्ति नाई, जेकेनो किछु कि भावे होवे ? सुनो ! ऐसा हुआ होगा कि पहली बार जल में अपनी हिलती परछाई देखकर आदि मानव भय और अचरज से भर गया होगा। कितने युगों तक पीतल पर पॅालिस कर आईने का काम लिया गया। शायद सोलहवीं सदी में कांच के आविष्कार के बाद वेनिस के लोगों ने कांच पर पॉलिस कर आईना बनाया। बहुत दिनों तक इस उद्योग पर वेनिस का एक मात्र आधिपत्य था। इस हुनर के दक्ष लोगों को एक अलग टापू पर रखा गया था। वहाँ से भागने वाले के लिए मृत्युदंड। फ्रांस के जासूस ने चोरी से इस टापू पर पहुँच कर आईना बनाने की कला सीखी और आईना उद्योग पूरे विश्व में फैल गया। 

“तुमि माता सरस्वती “- सपना हंसती रही – “सागर कहीं वह जासूस तुम तो नहीं थे? या फिर टापू पर रहते लोगों में से एक रहे होगे। वरना कोई आईना के पेड़ लगाने की बात सोचता है ?

“कोई सरस्वती-सी सपना से प्यार भी तो नहीं करता।“ “तुम आगे क्यों नहीं पढ़ते ? तुम पढ़ी, हम पढ़े बात तो एक ही।“ ”ना दोनों बात एकदमे दू।“

आसमान पर उगे इंद्रधनुष की तरफ सागर ने अंगुली उठायी – “ताप छींटने के दंड में, वह देखो, सूरज से सात रंग आसमान ने वसूल लिए।“ सपना ने सागर की तर्जनी मुठ्ठी में बांध ली – “ना अंगुली नहीं दिखाते पुरखों की पांत ठाकुर के चंदोवे में बैठी है। पुरखे हमारे अच्छे-बुरे का हिसाब कर रहे हैं। आदमी गलत करे तो पुरखे श्राप  देते हैं सही करे तो आशीष। अम्मा कहती है कि देवता मुस्कुराता है तो इंद्रधनुष उगते हैं।“

सपना ! वह कभी टूटकर गिरता तो तुम पर चादर की तरह लपेट देता और उसमें गूथ देता ढेर-सारे चमकते सितारे।“ सपना खड़ी हो गई – “ऐसा नहीं बोलते ठाकुर नाराज हो जाएगा। जब हम अच्छे कर्म करते हैं, पुरखों का चंदोवा ही तो सम्भाले चलते हैं। पुरखों का मान ओढ़कर मैला करने की नहीं, संभालकर  स्वच्छ रखने की वस्तु है।“ 

आवारगी से उबकर पिता ने आई. जी. साहब से पैरवी करायी और सिपाही में भर्ती करवा दिया। शिलौंग जाने के दिन निर्धारित हो गए तो बचे हुए दिन सपना को समर्पित कर दिए। मंगल पाण्डेय उद्यान से लौटकर जैसे ही घर में घुसा पिता ने बॉह पकड़ ली – “ये लौंडियों जैसे केश नहीं चलेंगे, चल सैलून चल।“ माथे पर गोल कटोरा औंधा कर अमिताभ कट बाल कतरवा फेंके। दो रुपये में जैसे मलेट्री मैन बना दिया। उसके वश में होता तो महिवाल की मिट्टी बदल कर उसे हरक्युलिस बना देता। सामान बाँधती माँ पास आयी और सर सहला दिया – “बड़ा हो गया अब। पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी तो जा अपने काम में जी लगा कि जीवन जाएगा। पेट सौ पाप कराता है। दो भाई नौकरी में लगे हैं, माँ-बाप को न पूछते, तुम्हें पूछेंगे ? भाई और बांस जिस दिन जन्मा, तभी से अलग। बिना किसी राह के कौन घाट लगेगा ? किस जादूगरनी के फेरे में पड़ा है रे ? बालपन की बात और थी, पर उसने तो अब तक तुम्हें पिछलगुआ भेड़ा बना कर रख दिया है। बाइस बरस हो गए बैरकपुर में तेरे बाप के खिलाफ बोलने को किसी के मुँह में जीभ नहीं है, तू तो जात कुजात कुछ भी नहीं देखता। 

“बस करो अम्मा, ऐसा कुछ भी नहीं कि कोई बोलेगा। “सागर छटपटा गया। सागर और आसमान दोनों ही डबडब। कब बरस पड़े ठिकाना नहीं। कलकत्ता छूट जायेगा। सपना छूट जायेगी। बाल भी खराब काट दिया। बिस्तर पर एक तरफ आईना एक तरफ सपना घोष की ताजा तस्वीर। पायताने मेज पर उमकते घोड़ों की पेंटिंग – “न ययौ न तिश्ठौ। “शिलांग जाये या छोड़ कर भागे – वह द्वंद में रात भर जागा। आधी रात को माँ ने आकर बिस्तर से फोटो उठा लिया- “ऐसी कौन सी इंद्रासन की परी है? चल रख दे, आईना नहीं देखेगा तो कल तेरी सूरत पुरानी नहीं हो जाएगी और न बूढ़ा जाएगा यह फोटो। रात चढ़ आयी चल सो जा, सुबह सात बजे की गाड़ी है।“

मौरिशस भेजे जाने वाले मजदूरों की तरह सागर भेजा गया था। कालापानी की सजा जैसी जिन्दगी। सपना के बिना जिन्दगी का कौन-सा रंग बचता था ? असमिया में पिता को देउता कहते हैं – देने वाला। पर पिता ने क्या दिया ? भगतसिंह-सी समर्पित एक जिन्दगी फांसी चढ़ गई। फाँसी ने भगत सिंह को पूरी ब्रितानिया से बड़ा बना दिया पर उसे अपनी स्वतंत्रता की शहादत की कीमत मिली, नेपा की एक छोटी नौकरी। अंग्रेज मजिस्ट्रेट की तरह पिता ने सागर को कलकत्ता छोड़ कर शिलांग आने का दंड दिया, इसका दुख न था, दुख था तो यह कि उसकी स्वतंत्र जिन्दगी की फाँसी के विरुद्ध इरविन की गुप्त वार्ताओं में माँ ने भी गाँधी जैसी कोई सतर्क और निष्ठावान पहल न की। 

नेपा इंस्पेक्टर, सब इंस्पेक्टर का प्रशिक्षण केन्द्र। यहाँ उत्तर-पूर्व के छह राज्यों के प्रशिक्षु हर वर्ष फरवरी तक आते और दिसंबर बीतते चले जाते। सागर यहीं सिपाही था। छह-सात मील का परिसर जंगल में जिन्दगी की जुटाई गयी तमाम सुविधाएँ। आदमी का स्थायी बास हो गया था तो किन जंगली पशुओं की मजाल कि वहाँ रह जाते। जिन्दगी, कभी-भी भड़क जाने वाले दंगों के अलावा किसी भय की गिरफ्त में न थी, सिवा एक और बात के कि यहाँ भी अन्य जगहों की तरह फैले जंगली कानून के विरुद्ध कोई चीख न पड़े या सच बोलकर शहीद होने का चौक किसी पर सागर की तरह दीवानगी से न चढ़ आया हो। यहाँ भी आजकल न्याय नौ महीने आकस्मिक अवकाश पर चल रहा था, अन्ततः एक झूठ जनकर मर जाता था, इस बात पर असहमत होने की मूर्खता जिनके मूल्य थे, वे बार-बार मरते रहते थे।

शिलांग में फिर दंगे शुरू थे। तनाव आम जीवन में प्रत्यंचा-सा तना था। सागर को शिलांग जाने का मौका बड़ी मुश्किल से मिलता, अतः निराश लौटने पर वह क्रोध और दुख के मिले जुले रूप में बेहद बेचैन हो जाता। आजकल उसका काम गैराज में था। गैराज भी नेपा की तरह एक मिनी भारत। सागर यहाँ सबसे अलग था। खतरनाक होने की हद तक स्पष्टवादी, शहादत की हद तक ईमानदार, मूर्खता की हद तक भावुक, सिपाही की नौकरी और नवाबों के चौक। गैराज और अफसर मेस के बीच आवास। मिथिला-मधुबनी के अलावा सपना की दी हुई पेंटिंग, घोड़े पांव उठाकर पायताने खड़े रहते -“न ययौ न तिश्ठौ।“ फर्श इतना साफ कि कभी ओढी़ हुई हंसी रुमाल की तरह गिर पड़े तो  बिना झाड़े-पोंछे उठा कर फिर ओढ़ लो तभी किसी लड़ने आने वाले को भी दो घड़ी बैठने का मन हो जाता।

शाम होते नेपा के पीने वाले पास जमा होने लगते। महफिल देर तक चलती। रिंदो में फूट पड़ती। कोहराम मचता। शीशे टूटते, खिड़कियाँ भी। अगले दिन सागर की पेशी होती तो उसका भोलापन उसकी आवाज में उतर जाता -“एक्सक्यूजमी  सर ! थोड़ी जादा हो गई थी। आगे कभी हो तो जो चोर की सजा वह सागर सिपाही की भी।“ माफी के बदले कुछ अधिकारियों के बेगार उसे बहुत करने होते थे।

         कल शनिवार है। सोनिया से मिलने का दिन। गरीब के घर मांस पकने की तरह वह तीन दिन खुश रहता। आज आउटडोर ड्राइविंग में उसका काम नहीं था। गैराज से छूटते ही बांहों की कजरी अंगुलियों का तेल-मोबिल, पेट-पीठ के ग्रीस और चेहरे की थकान को मांज-मांज कर धोया। क्रीज वाले कपड़े निकाले। जूता पॅालिस किया। बीस किलोमीटर शिलांग जाने के लिए ताला बंद कर ही रहा था किसी ने आकर एक लिफाफा पकड़ाया – “संयुक्त निदेशक ने दिया है, साइन कर दो।“ हस्ताक्षर कर लिफाफा मोड़ा, चमड़े के जैकेट में संभाला। बाहर निकला तो मोर के पंखों में जादू समा गया था। बॉस का प्रशंसा-पत्र और सोनिया से मुलाकात की शाम। आज पुलिस अकादमी में वह सबसे अमीर था।

रिलबौंग पहुँचा तो ट्यूशन पढ़ाती सोनिया, बुआ के घर ही मिल गई। बॉस का दिया पत्र उसकी गोद में फेंका – “जिया ! जरा पढ़ना इसे। मैं भी पढ़ लूं पर इतना समझ तो नहीं सकता न।“ – “खाब मेम का देखते हो ? सोनिया ने खाकी लिफाफा खोलते उसे क्रुद्ध पर उदास नजर से देखा। पढ़ने लगी – “इन रिकोगनिशन ऑफ हिज हाई-सेंस ऑफ डिवोशन एण्ड डिस्प्ले ऑफ यूनिटी एण्ड इंटेग्रीटी ऑफ वेरी हाई लेवल।“ बॉस ने उसकी ईमानदारी और भोलेपन को भांपने की उदारता दिखायी थी। कुछ दिन पहले लाखों के सामान से भरे ड्राइ-कैंटीन के खुला रह जाने की सूचना, बॉस तक पहुँचा कर, रतजगे सागर ने विभाग को एक बड़ी चोरी की दुर्घटना से उबार लिया था – यह पत्र पुरस्कार था।

बच्चे दोनों को टुकुर-टुकुर देख रहे थे। सोनिया ने संची की खुली कॉपी समेट दी। वे बाहर निकल गए तो सागर ने पुकारा – “जिया ! चल, बाजार चलते हैं। कुछ जरूरी बात करते हैं। कुछ कपड़े-गहने भी खरीद ले या फिर पैसे रख लें, अपनी पसंद से ले लेना।“ – “बहुत कर चुकी, नहीं करनी मुझे कोई बात। वह अपना बैग और छाता सम्भालती खड़ी हो गई।

“देखो तो, शिलांग का ऐसा मौसम नसीब से मिलता है, बाहर तो निकलो जिया। “- “अभी बदल जायेगा मौसम। और सुनो! यह जिया मत पुकारा करो, मुझे अच्छा नहीं लगता।“ – “आग लगी है जिया मैं जल जाऊँगा।“ – “बारिस में भींग जा। आग बुझ जाएगी।“ – “देखो आज तुम जो नहीं आयी मेरे साथ तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।“ सोनिया विद्रूप-सी हंसी – “वाहे गुरु की सौगंध, तुझसे बुरा कोई आयेगा भी नहीं मेरी जिन्दगी में।“ सागर गिड़गिड़ाया – “क्या हो गया तुम्हें ? मैं जल रहा हूँ जिया।“ -“होश सम्भालो ! बहुत आग लगी है तो नेपा में समेट कर ले जाओ, उस पर अपनी दाल पका लेना” – हाथ झटक कर बाहर निकल गई।“ मैं मर जाऊँगा जिया।“ “तो मर जा ! झूठा, बेसुरा, फाँकी बाज। वह सीढ़ियाँ चढ़ती निकल गई। पर्दा पकड़े हक्का-बक्का देखता रहा सागर। उफ ! सच ही कहते हैं लोग – फूल खुशबूदार नहीं, मौसम का एतबार नहीं, और औरत ? शायद यहाँ वह भी वफादार नहीं। होती तो उलूपी अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ न गई होती।

सोनिया के अप्रत्याशित बर्ताव और फैली अशांति एवं हिंसा से भिन्नाया वह ड्यूटी चार्ट पढ़ने गैराज में पहुँचा तो तैनात दो सिपाही गाड़ियों से पेट्रोल निकाल रहे थे। सागर ने टोक दिया – “अरे ! तू सिपाही का वर्दी पहन के चोरी करता है। मांस के पथार पर गिद्ध रखवाला। माय के दूध पीने से पेट नहीं भरा त बाप का जाँघ चाटने से भरेगा ? काश ! ऐसा कोई आईना होता जिसमें हर गद्दार को ईमान की बदचलनी दिखाई पड़ती। “ठीक ही कहता है पूरा नेपा। साला पागल है पठकवा। तू दुसाध से मरा के आ रहा है त बड़ा अकलमंद बाभन है ? तुझे पचाने का जिगरा नहीं है तो मत खा, मगर खाने तो दे। जानता है तू जिस ज्वाइंट डायरेक्टर को तेल लगा के आता है, कम्बल की खरीद में उ केतना खाया है ? हम पर आँख तरेर रहा है। कोई हवाला-घोटाला कर दिए हैं जे तहलका मचाता है। दस-पाँच लीटर पेट्रोल के बदले तू हमें गदहा पर चढ़ा के बस्ती में घुमायेगा ? सब करता है।“ “गाँव का गुमास्ता मराएगा त तू भी मरा लेगा का“ ? “तू बड़ा अपने ईमान का तिरंगा फहरा रहा है। चुप रह। जिसे जहाँ मौका मिल रहा है, खा रहा है। हम तो दारू-शराब का खर्चा भर निकाल लेते हैं। जो अफसर आ नेता रातों-रात कोठी बना लेता है, उन्हें तो माला पहनाते हो। हम का हैं, बड़-बड़ खरही में झंटहि लवाई? तू अपनी दुसाधिन को छोड़ दे, हम पेट्रोल निकालना छोड़ देंगे।

रात को सागर घने सुरूर में भी पीता रहा। सोनिया यादों में घूमती रही। उमरोई कैंट हवाई अड्डा…. झरने…. चीड़ की छाँह में पत्थर पर भागती…. कुट्टुस चुनती। सुदूर फैले पहाड़ और सावधान उतरते चीड़ के पेड़ों की पाँत-पर-पाँत। बीच में सदियों से बैठे पत्थर। दंगों के कारण जाना वर्जित था पर न मानती, लवर्स पैराडाइज, आदमकद पत्थरों को गोद में सम्भाल कर बहती पहाड़ी नदी, पानी का सुगम संगीत, नयी धुन, तराश की नई शैली और शब्दों को सलीका बाँटती प्रकृति, अनथकी, न जाने कितनी सदियों से गाती और पेड़ ताल देते थे। भीगा शरीर लेकर पत्थरों के पीछे छिपती सोनिया की छुअन में प्रकृति की ताजगी…. लहू में असंख्य सितार झनझना जाते…. देह की भाषा, शिराओं का संगीत…. कितने-कितने लोग भाषा विहीन और बहरे मर जाते हैं। खुलती हुई गांठें….जकड़न से मुक्त होते क्षण….लहू में जीभ उगती, अंगों के आदिम अर्थ खुलते। अच्छा हुआ कि आईने के पेड़ न हुए। नदी में आधा-धड़ से झुके हुए पेड़, हवाओं से हिलते तो, पत्तियाँ पानी उठाकर बादल में छिपे कंजूस सूरज को अर्घ्य दे देती।

वह लौटता तो लहू से निकलकर कोई जहरीला जानवर उन पत्थरों में समा गया होता। मन था कि शरद का खुला आकाश? मगर दिन भी न बीतता कि जाने कैसे वह जहरीला जानवर पानी की तरह अपना रास्ता तलाशता मस्तिष्क में “कैवेज लूपर्स“ की तरह चढ़ जाता। फिर वह एमनेजिया का मरीज। भूलने लगता, झा सर की सलाह, अम्मा के उपदेश और सपना। नौकरी के प्रति लापरवाही आने लगती। दंगों के कारण वह महीनों नहीं जाता पर सोनिया क्षण भर भी उससे अलग न रहती। वह उसकी देह दुहराता…. एक तल फन….. पत्तों पर ओस चमकती, वह होंठों से उठाने को मचलता। गुलाब की पंखुरियाँ दांतों से कुतर देता। जब मौका मिलता दिन-भर-दिन संग, घनी रात तक घाटियों में गुजार कर बाहर निकलता – फिर वही बेचैनी – मृग कस्तूरी के लिए क्या बेचैन होगा…. मृग तृष्णाओं का चेहरा नहीं होता कि आईने में उगे। अच्छा हुआ कि आईने के पेड़ न हुए। पर झा सर की बातें आइनें की तरह खड़ी हो जाती हैं। सब के सामने कहीं न कहीं जरूर खड़े होते हैं आईने पर अकसर हम आँखें मूंदे रहते हैं या अपना आईना उलट कर रख लेते हैं। आईना सिर्फ चेहरे का थोड़े ही होता है ? अजीब नया दौर शुरू हुआ…. नया दम्भ देखता, घुमड़ते बादल, नारंगी-कमला के पेड़, लाइपत्ता के लहराते खेत, दालचीनी के जंगल की भटकती खुशबू, चीड़ के पौधे, बोतलब्रश की लचकती डालियों में सोनिया समायी थी। चाँद कभी जमीन पर उतरता तो उसे निचोड़ कर देखता कि उसमें किस कामधेनु का दूध भरा है। भंगरिया का रस अम्मा ताजे चोटों पर निचोड़ती थी। कभी मसली जा सकती चाँदनी तो, सारा अर्क उठाकर पी जाता कि पानी-की तरह पहुँच कर बेपता घावों को सुकून दे जाए। कितना अच्छा होता कि साँप और आदमी जुआने के साथ जहरीले न होते जाते। मगर नहीं। न मिले बेचैनियों को चैन, चाँद भी कहीं निचोड़ने की चीज है। दर्द आता तो आँख मूँदकर भी देखने का सलीका ले आता है। न जाने सागर कब सो गया। दरवाजा खुला भी रह जाए – चोर और भिखारियों से यहाँ अब भी खतरा नहीं था। 

खिड़कियों पर दस्तक देते बादलों-से धुँओं के गुबार में उड़ते-हिनहिनाते घोड़े, काटे जाते हुए आईने के जंगल, विशाल पंडाल, घुटे सिर केसरिया चोंगाधारियों की भीड़, प्रवचनकर्ता मंच से उतरता, चेहरा उतार कर दीवार पर टंगता, हमलावरों में शामिल हो जाता। नेपा के प्रशिक्षु तलवार, तीर, बन्दूक चलाने का प्रशिक्षण लेते, जनेऊधारी बच्चों के रूप में बदल जाते, खड़ाऊ से रौंदते आईने, चिड़ियों को निशाना  बनाते, पेड़ में लगे आईनों पर गोलियां चलाते, घोंसले नोचते, जनेऊ से सेंध की माप दीवारों पर बनाते, चेहरा उतारते, पहनते।

हवन के बीच चिरायन गंध महकती, कुछ साधु किसी आदमी को हवन कुण्ड में ढ़ाह देते, अधजले होम की सामग्रियाँ नदी में बहाते और नंगे होकर नहाने लगते। ऊँ भूर्भुवस्वः तत्सवितुर….. यज्ञोपवीतं परमं पवित्रम…… देवी पवित्रम् कुरू चासनम्……. की लय के बीच चीखों के शोर से पंडाल गूंजता। कोल्हू में जुते आदमी, कुछ सुंदर हाथ, कटते हुए पशुओं का रक्त चाँदी के कटोरे में जमा करते। अजीब जगह है। नंगे वस्त्रधारियों पर ठहाके लगाते हैं। प्रदर्शन के बीच कोई इतना अमीर नहीं कि अन्तर मन का आईना खरीद पाए। कितनी गरीब है यह धरती, बधिक, मदारी, नट, सपेरों का समय-साक्ष्य।

जूठे पत्तलों को फटे आंचल में झारती, धूप में पथार सुखाती स्त्रियाँ, झपटते कुत्तों पर डंडा फेंकती, मिट्टी की फूटी हाड़ी से गाढ़ा सफेद द्रव बह जाता, कुत्ते चाटते, बच्चों का विलाप, स्त्री और कुत्ते सपने में रोते। अतीत का काला धुआँ नींद में पसरता चला आता। लाख पिघलाया जाता देखकर सागर चीखता है – “सोनिया ! चल भाग हम बहेलियों के मायावी संसार में भटक आए हैं, सब तुम्हें कुजात कहते हैं, चेहरा जला देंगे।“ सपना चिल्लाती है – “ऐ शीशे सपने देखने वाली आँखों में भरे जाते हैं। हम आक्रमणकारियों के द्वीप पर बहक आए हैं। सागर भाग।“ अम्मा आँधी-सी आती, सोनिया का हाथ छुड़ा कर सागर को बाँहों में संभालती, छिप जा बाबला, यहाँ उठे हुए हाथ, बोलती हुई जीभ काटी जाती है। यहाँ आत्मा के कहा,ँ चेहरे के आईने भी नहीं होते। ये आईने के विरोधी नस्ल के लोग हैं। अम्मा हाथ खींचती,  भागती तो सागर जमीन पर गिर पड़ता – धम्म। झा सर पास बिठाते हैं तो सोने के घड़े का ढक्कन खुलता है – सत्य भीतर छिप कर बैठा है।

“अरे उठ जा! रात भर डेक चिल्ला रहा है।“ सागर उठ कर बैठ गया। “जोगिया दुख भी उठाया त स्वीपर के लिए। जा घर से छुट्टी काट के आ। बिजली मेघालय सरकार की है, डेक तो तेरा है। ऐसे तो मोटर जल जाएगा। तेरे लिए जात या कुजात सोनिया सही पर तेरी घरवाली ? आदमी मधु नहीं होता। पानी को घेर कर छोड़ दो तो सड़ने लगता है। वह देवी है कि उसके देह का कोई धरम ही नहीं, न हारी-न्यारी, न दुख-बीमारी। जा घर घूम आ, मन बदल जाएगा। कुआँ उड़ाह दो तो पानी फरिछा जाता है।“ पौ फट रही है। सामने मेजर रावत खड़ा है।

पेंटिंग के घोड़े पाँव उठाए खड़े थे – “न ययौ न तिश्ठौ।“ ये घोड़े मायावी नस्ल के लोगों की सवारी कैसे उठाएंगे ? कैसे रौंदेंगे आईने ? उसके अपने हैं। सागर उठकर खड़ा हो गया – मन तो तेरा अपना ही है सागर, फिर कैसे बिन पूछे भागता है सपना की याद…. सोनिया की देह के पीछे ? जिनके हाथ लगाम, ये घोड़े भी उसी के, मन भी।

वह दूध का बर्तन लिए डेरी फार्म निकल गया। आई. जी. त्रिपुरा के पद पर, पदोन्नति पाकर निदेशक के. के. झा चले गए थे, कोठी खाली थी। बाहर बने शीशे के घर में ऊँघता संतरी, पहरे पर बैठा था – “अरे ओ मोमिन ! ड्यूटी में तू जाग रहा है न क्या ? एतना सुथर मौसम है ससुर सो क्यों नहीं जाता ? काना को काना कहने के दुःख से मोमिन गुस्सा गया – “जा बे बकवास करता है, शिलांग में तेरा दुसाध छोकड़ी पंजाब ले जाने को तुझे बुला रहा है।“ सागर निरीह मुस्कान लिए कोठी की ओर मुड़ गया। अभी वर्ष भर पहले झा सर के कारण यह जगह कैसी गुलजार हुई रहती थी। नशा के विरुद्ध चौक-चौक केन्द्रीय विद्यालय के छात्रों से तैयार कराया नुक्कड़ नाटक, साम्प्रदायिक सद्भाव के गीत, जातिवाद उन्मूलन और मानवीय एकता के प्रयासों में उनका सम्पूर्ण बचा वक्त गुजरता। सैकड़ों सुविचारों से नेपा की चप्पा-चप्पा जमीन भरी थी। रविवार के प्रवचन में सारे जहान के उपदेश। सब सुन के भी मोमिन जैसे लोग बहरे ही बने रहे। कहता है दुसाध छोकड़ी। उसे क्या पता, जात पूछ के कहीं प्यार होता है। 

मर्सी कीलिंग के प्रतीक्षित घोड़े चढ़ाई चढ़ रहे थे। ऊपर के. वी. नेपा के विद्यार्थी का प्रयाण-गीत पगडंडियों से उतर कर उस तक पहुँचने लगा – “अंधेरा घना छा रहा है, दिन डरा रहा, ये कौन मंजिलों पे मंजिलें गिरा रहा, तुम चलो उधर हो नया रास्ता जिधर, मंजिल के मुसाफिर तुम्हें, किस बात का है डर ? चिराग ले चलो, मशाल ले चलो, मस्तियों में रंग-भरा फाग ले चलो।“ – वह साथ गुनगुनाता डेरी फार्म में उतर गया। साम्यवादी देशों की तरह बतौर कैदी उसे न सोने की सजा मिलती तो भूखा रहकर भी वह उसे गीतों से काट लेता। 

आकाश ब्यूटी पार्लर से निकली लड़की के चेहरे-सा साफ था। हवा झूमकर बह रही थी, उसमें जले जंगल की राख का सोंधापन था। अकादमी के प्रशिक्षु प्रभात-भ्रमण पर थे। ऊपर खासियों का गाँव उमसाव बस्ती। पाइन की पटरियों के छोटे-छोटे घर, गाँव बूढ़ा की दीवार पर मोटे अक्षर में लिखा हुआ दूर से दिखायी पड़ता -“वी आर खासी वाई वर्थ एण्ड इंडियन बाई एक्सीडेंट।“

गैराज के काम पर आते वह बीस मिनट पीछे था। देखते ही प्रभारी एम. स्वेर क्रुद्ध हो गया – “क्या रे हरामी! अब मिली है फुरसत, तुम्हारी स्वीपर लौंडिया से। सब बिहारी एक से हो। तभी कटते हो यहाँ से गुवाहाटी तक। सुधर जा साले वरना बिहार जायेगा तू भी।“ स्वेर खासी था।

“हम किसी के बाप का गुलाम नहीं हैं। चाहो तो एबसेंट लगाओ चाहो तो पेशी कराओ, बाकी माँ को गाली बकने की गलती मत करो, हम किसी की तरह रंडी का औलाद नहीं है कि माँ की गाली खा कर चुप रह जाएगा।“ 

“किसे उल्टा बोलता है ? हरामी !“ 

“देखो स्वेर सर ! हम इज्जत कर रहा है आपका। आप पगार काटो, सस्पेंड कराओ, मुदा गाली देगा तो मुश्किल होगा। हमारे हिंया माँ की गाली के लिए मर्डर होता है।“ “जास्ति बकवास करेगा तू ? इ ठू तेरे बाप का राज है कि अपना मन मरजी करेगा ? तेरा बाप झा गया, सुधर जा।“ 

“बाप का राज तो किसी का नहीं है, जो दिन भर हराम का गाड़ी दौड़ाता है, तेल चुरवाता है, अपनी माँ से पूछना किस बिहारी ने पैदा किया था ?

“चुप ! साला कुत्ता, फालतू भौंकता है।“ स्वेर सागर को मारने दौड़ा, सागर ने दो कदम बढ़ कर हाथ पकड़ लिया – “हाथ उठाने की गलती मत कर लेना। यह रोड देखते हो न, कपार फाड़ दूंगा।“ स्वेर सहम गया। चौबीस घंटे के नशे के कारण झा जी ने उसे सस्पेंड कर रखा था। वह भीतर से खोखला था। वह किसी हिन्दी भाषी की अय्याशी की स्थानीय उपज था।

सागर की पेशी का समय निकल गया। प्रभारी निदेशक उत्तर पूर्वी परिषद की किसी बैठक में गया था। साँझ को सागर बंगले पर गया। साहब सामने थे। दोनों हाथ नीचे की ओर तानकर मुठ्ठी बाँधी और तनकर झुका। यह एक अलसायी सलामी थी जो कार्यावधि के बाद पूरे परिसर में दी जाती थी। “गुड इवनिंग सर ! मैं इंचार्ज का शिकायत ले कर आया है सर।“ बॉस के चेहरे पर गंभीरता बढ़ी -“देर भी जाओगे और शिकायत भी।“ -“सौरी सर !“ – “सुनो पाठक ! तेरी ड्राइविंग अच्छी है, तू ईमानदार है, इसलिए तुम्हें पसंद करता हूँ। पर तुम औकात में रहो। लोकल के मुँह मत लगो।“ 

“मैं मुँह क्यों लगेगा सर ? मुझे अपना स्वाद बिगाड़ना है ।“ -बॉस हंसा। 

“स्वाद नहीं बिगाड़ा तो शिकायत लेकर क्यों आया है ? स्वेर मूडी है। झा सर की सख्ती से वह बिहारियों से चिढ़ता है। उसे प्यार से जीतो।“ – “सौरी सर ! वह माँ बहन की गाली बकता है सर।“ -“तुम उसका तकिया कलाम नहीं समझते। नेहरूजी दो पंक्तियों का गैप जैसे “चुनांचे कि“ – कहकर भरते थे। देखो तुम अच्छे हो। मगर प्राइवेट लाइफ को नौकरी से मिला कर चलोगे तो प्रौब्लेम होगा। एम. स्वेर तुम्हारा इमिडियट बॉस है। तुम्हारी शिकायत भी उसके माध्यम से हम तक आनी चाहिए। तुम नौकरी करना सीख लो पाठक। सर्विस करते पर – इयर तुम्हारे भर्टीब्रेट टूटते नहीं गए तो, तुम पूरी नौकरी नहीं कर सकते। उसका गाड़ी यूज़ करना तुम नहीं खोजोगे – हम हैं न उसके लिए। समझा !“

“एस सर ! सौरी सर “

“क्या समझा ? “

समय पर जाना है काम पर। कोई जो भी कहे बहरा-अंधा हो जाना है। बॉस हंसा “ गुड ! हाँ याद आया। यह रोज किसी एस. सी. लड़की का क्या चक्कर सुन रहे हैं हम ? उसी के कारण काम में तुम्हारा ध्यान नहीं है। बुद्धि से वास्ता रखो।” 

“सौरी सर! बुद्धि से वास्ता रहता तो प्यार कहाँ होता है ? पूरा ही पागल है तू ! अरे प्यार शराब से कर। जाम को गले में लटकाना जरूरी है ? काम करो और चलता बनो। यूं एस. सी. है तो कैसी होगी ? यदि मामला पुरकश है तो हमें भी दिखा कभी।“ “एक्सक्यूज मी सर ! वह हमारे साथ है।“ “ठीक है पहले पेट देखो फिर प्यार। ड्यूटी में एक्सक्यूज तो मिलेगा नहीं। जाओ किसी से बताओ मत कि तुम यहाँ आए थे, और नेपा की कोई खबर ? तुम तो न जाने कहाँ डूबे हो ? बॉस की अपेक्षा थी पर चुगली-चपाड़ी में सागर की रुचि न थी। निकला तो, चाँदनी में चीड़ टहल रहे थे। इतना बड़ा पद पर होकर भी सर कैसा ओछा बात करता है। पूजा में ईमानखोरी? पूछता है – मामला कैसा है ? कह दूँ कि मेमसाहेब से अच्छा तो नाराज हो जाएगा। सर हर जगह अंग्रेज जैसा जुल्मी है। कहता है एस. सी. है। तो मिलना क्यों चाहता है ? कह दूँ आप जैसे ब्राह्मण से अच्छी है तो कौन सहेगा यह सच ? एक ही मुँह से एक ही बार में दो बात, सर कैसे करता है – ज्यादा ऊँची नौकरी की पढ़ाई क्या ऐसी होती है – मुँह दोरंगा, मन दोरंगा – काश ! आईने के पेड़ होते तो सर को अपना दोगला मन दोहरा चेहरा तो हर जगह नजर आता।

इस संयुक्त निदेशक की कुंडली में राजयोग था। तभी राम की खड़ाऊँ को धांग कर पहना। कुर्सी पर लेटा। नंगा होकर राजभवन भोगा। सागर बॉस के गुनाहों की खामोश रातों और नंगे दिनों के विवश पहरेदारों में एक था। वह जब भी पहले से तैयार की गई कोई लड़की लाने गाड़ी ले कर जाता, मन धिक्कार से भरा होता, पर क्या करे, झा सर कहते थे हरिशचन्द्र ने रोहिताश्व का कफन काटा था। आपद्धर्म में ऋशि भी मांस खा लेते थे। मन चाहे जितना धिक्कारे, मुँह से मना करे तो दुनिया में जीने का ठौर कहाँ पाए ? गरीबों का सारा जीवन ही आपद्-जीवन है। अम्मा कहती थी – पेट बड़े-बड़े पाप कराता है।

कमरे के एकांत श्मशान में उसने किसी औघड़ की तरह दारू पी। नशे से सागर का पोर-पोर भरा था। देर रात रामशरण आया। पायताने टंगी पेंटिंग को आँख मींच कर देखा – घोड़े फिर तो नहीं भागे ? घोड़े यथावत खड़े थे- “न ययौ न तिश्ठौ।“ वह निश्चिंत हुआ। रामशरण ने अपनी धूर्तता परोसी- “तू किस कुजात के चक्कर में नौकरी दांव पर लगा रहा है ? घर से औरत को लाकर रख। माँ को ले आ। सारा नेपा में तेरा ही चर्चा  है।“ उठकर बैठ गया सागर। कपड़ों के आलना की तरफ संकेत कर कहने लगा – “देख तो इस स्टैंड को, इसी की तरह तो हैं हम सब। टाँग दो दस-बीस साफ-गंदे कपड़े, उठाए सदियों तक चुप खड़ा रहेगा। अपनी कोई मर्जी नहीं। इस पंखे को देखो, एक दफा बटन दबाया नहीं कि नाचता रहेगा, जबतक जल न जाए। जैसे चिता तक सिर्फ सलाम करने और बेमर्जी जीने को हमारा जन्म हुआ है। एक नौकरी के नाम पर कितना सस्ता बेंच लेते हैं अपने आप को…….।“  रामशरण ने बात काट दी – “बिना मेहनत मिल गया है तो अगराता है। बाप को पानी चढ़ा कि ठौर लगा गया। अभी देखा नहीं, गुवाहाटी में केतना एम. ए., मैनेजमेंट, इंजीनियरिंग किया आदमी इसी छोटी नौकरी के लिए कट मरा है। चार हजार पद पर लाखों आवेदन, नरको में ठेलमठेल।“

कई दिनों से जमे बादलों ने सरंजाम सम्भाला। काले बादलों की दीवार में पहले पीली धूप के रोशनदान खुले, फिर धूप के छोकड़े ने घने बादलों की बिखरी थान समेट दी। गिटार की काँपती धुन के साथ धूप पहाड़ के पीछे से पेड़ों को सरसों का उबटन लगाती हुई आयी और गिरजा के ऊपरी बुर्ज पर अर्घ्य की तरह चढ़कर पानी की तरह घाटियों में बह गई। कमाऊ बेटे-से सीढी़दार खेत, भाई-से पेड़, बेटियों जैसे आर्किड फूल, ईश्वर-सा गिरजा, पुरखों जैसे पहाड़, क्वाय पान चबाती सरसराती जैंसम वाली लड़कियों-सी पहाड़ी नदियाँ और दंगों में छूटती गोलियों जैसे अनसोचे दारू आजमाते नए लड़कों ने जैसे पिघले हुए पीतल के रेडिमेड कपड़े बदल लिए।

कई दिनों से सागर के सोए हुए मलंगपन की तन्द्रा टूटी थी। वह गैराज में गया तो उसकी गाड़ियों और बुलेट पर किसी ने कपड़ा भी न मार था। धोने में मगन हो गया। थापा ने आते ही उसके कन्धे पर हाथ रख दिया – “ला भाई फरिश्ता साबुन, मैं मदद कर देता हूँ पर एक शर्त कि तू कल मुझे अपनी वाली को दिखा देगा।“ सागर चुप “चल अभी बता तो सही कैसी है ? सागर मुस्कुराया – “हंसती है तो सपने झड़ते हैं, मुस्कुराती है तो फूल।“ – पीछे से उठे ठहाकों से चौंक गया वह।“ बोलेगी तो दिल्ली मिष्ठान  का लड्डू झरेगा न क्या ? फिर बेटा होने की खबर के साथ पूरा नेपा में बाँट देना।“ पाइप की धार उसने विक्रम भुइयां की ओर मोड़ दी। पवित वैष्य दूर भागकर खड़ा हो गया। नेपा डाकघर से गैराज की चिट्ठियाँ समेटकर भट्टाचार्य आया – “सागर गाँव से टेलीग्राम है।“ भींगा हाथ पोंछता तार अपने हाथ में लिया – “मदर सिरियस, कम सून।“

गाँव के लिए सामान सम्भाल कर शिलांग के लिए तैयार हो गया। छह-सात दिन से सोनिया न मिली। बिना मिले गया तो तलफेगा। घनी साँझ उतर आयी थी। रतौंधी की गोलियों से दृष्टि पाती आँख-सरीखा, भुक-भुक जलता ट्रक, अघाए नाग की तरह पहाड़ चढ़ता शिलांग जा रहा था। यह तो तीन घंटा में पहुँचेगा। इस पर नहीं बैठना। आदमी के मन और पहाड़ों के मौसम का क्या भरोसा ? शरीर पर पानी नहीं तेजाब गिरता टप-टप। झील का पानी तरंगों में चंचल था। छलांगती मछलियाँ चमकती बिजली में झील में गिरतीं छपाक-छप-छपाक।

अचानक एक बस आकर रुकी। खचाखच भरी थी। वह बस में घुसा तो न नहाये लोगों की गंध के साथ सस्ती शराब का एक भभका लू की तरह आकर लगा। पाइप पीता मामा, आदिम रूप में दूध पिलाती बेफिक्र कौंग, खैनी ठोकती माई, सुपारी के रेशों से दाँत रगड़ती लड़की, “वाट शाह सुन“ (चूना मत पोंछे ) की खासी में लिखित चेतावनी के ऊपर चूना पोंछता लड़का, अलमस्त गपिया रहे थे। कई हाथों में झील से फंसाई गई मछलियों का गुच्छ था। भीड़ के घने जल को मछलियों-सा चीरता कंडक्टर भाड़ा वसूलने लगा। मोड़ पर झटके से मुड़ती बस में टकराते लोगों की खीझ – कोफ्त, नागालैडी, असमिया, उडकार, बाबू मोशाए, मणिपुरी, गारो, हिमाचली, जयंतिया, पंजाबी, तमिल, तेलगू, उड़िया और मलयाली – लोगों की टकराती आवाजें। सागर एक बूढ़े के पीछे खड़ा था। बूढ़े में खीझ कर कहा -“सिर पे चढ़ेगा के ? बूढ़ा गंजा था। सागर ने मजाक किया – “हमें रिपट के मरना है ताऊ ? हंसी का फव्वारा फूटा। बूढा़ नहला पर दहला था। सर के किनारे बचे बालों की तरफ इशारा कर बोला- “अरे रिपटेगा कैसे ? यह बाउंडरी न बना रखी।“ फिर चार-छह लोगों का जोरदार ठहाका। 

हालाँकि बस में जिन्दगी से कम कशमकश थी पर, इस सिरे से उस सिरे तक चलते कंडक्टर को लगातार मेंढक की तरह फूलते-पिचकते रहना पड़ रहा था। यह बस थी कि मिनी भारत ? असम से मेघालय तक की खाली धरती पर दूसरे प्रदेश के लोग अँट नहीं रहे थे। इस बस से अधिक कशमकश से अँटी पड़ी है यह धरती। बस में ठहाके उठते हैं, इतना आसान नहीं है इस धरती पर हंसना। क्योंकि धरती बस नहीं है और सिकंदर के कॅाफिन के सुराख देखने वाले बचे नहीं है। सोनिया के घर ताला पड़ा था, वह पंजाब चली गई थी। वह बक्सर में उतरा तो रात के ग्यारह बजे थे। प्रतीक्षालय के मच्छर-खटमल वर्षों के भूखे। पाँच बजे नियाजीपुर की पहली बस थी, चार बजे ही पैदल भाग निकला। रात को निकल लेता पर लोगों ने चेताया – “भाई कहीं भी छह इंच छोटा हो जाएगा। बस जाती है सुबह चले जाना।“ किसी भी क्षेत्र में इस सदी, उपेक्षित बिहार के कछुआ-विकास का यह सबसे बांझ दौर था, जहाँ सड़कों को कागज पर सितारों जड़ा मफलर बनाकर, हुक्मरान नौकरशाह और दलालों ने अपनी गर्दन में लपेट लिया था। जमीन की तरह जनजीवन भी कूड़ों और गड्ढों से भरा था। गरीब रोटी और अमीर कोठी खोजने दूसरे राज्यों में तेजी से भाग रहे थे। पलायनकर्ताओं का विरोध कई प्रदेशों में होने लगा था।

माँ कुएँ के जगत पर बैठी मूंज की डलिया बुन रही थी। पांव छूते सागर का मुँह बैलून-सा फूल गया। रात आयी पर नींद न आयी। सुबह देर से उठा तो आंगन में चावल फटकती माँ, कूदती गौरैयों से बतिया रहीं थी -“तुम पंछी भी तिनका-तिनका जोड़ कर जाड़ा, बारिश से बचने के लिए घोंसला बना लेते हो। एक हम हैं पांडव की माँ। पर घर अब गिरेगा कि तब। एक कुआँ से सात भर गया, अब सात से एक नहीं भर रहा। सब शंख का संसार अपनी पीठ पर सजाने में लगे हैं। एक इसका बाप बैरकपुर से नियाजीपुर तक अकेले संभाले रखा। सात बच्चे पाले, ठौर लगाया। इन्हें खुद ही पूरा नहीं पड़ता। अपनी डफली अपना राग। कोई समझने को तैयार नहीं कि दस की लाठी एक का बोझा। जाने दो सपना रहा सब कुछ। दब-पींच कर मर जाऊँगी किसी दिन, संताप मिट जाएगा। गंगा में गया हाड़ क्या वापस आएगा देखने। ले जाओ भाई अपनी-अपनी जोड़ू। बहुत किया। अब कूबत न है किसी के लिए। एक पेंशन की पीठ पर कौन-कौन लद कर चलेगा ?

“तुमने जबरदस्ती किया न त हमें कहाँ करना था ब्याह ? ऊपर से दहेज का धौंस देती है माँ-बेटी। क्यों मांगा था दहेज ? बोलती है इतना खट्टा कि कड़ाही का दूध फट जाए। हम तो न रखेंगे कभी अपने साथ। तू जान तेरा काम जानें।“ – सागर पहली बार बोला। माँ नरम पड़ी -“बेटा ! मर्यादा निबाहने में ही है।“ 

“नाटक करूँ ? हमसे बेमन न निभता अम्मा, एकदमे उबारु लड़की है।“ रुआंसी होती अम्मा साफगोई पर हंस पड़ी – “अब रानी विक्टोरिया या रासमोनी कहाँ से चाक पर गढ़ती। तुझ पर तो सपना का साया अब भी सवार है।“ “तूने मेरा जनम बिगाड़ दिया अम्मा।“ “कुछ भी न बिगड़ा है बाबला। न करती त का तुझे छुट्टा सांढ़ बना घूमने देती। एक बात गिरह बांध ले कि खुर बैल के ही पूजे जाते हैं, बिना नाथ-पगहे का सांढ़ जिधर भी जाता है लोग आग की लुकाठी लिए खदेड़ देते हैं।“ सागर तौलिया झटकारता बाहर निकल गया।

लौटा तो मूज की रस्सियों की खाट निकाल कर धूप में बिछायी। यूं तो नींद में भी उसे चित्त होने से नफरत थी पर सीसम की डालियों को चित्त होकर देखने लगा। चिड़ियों की चोंच में कितनी कारीगरी है ? पंजों में कैसा हुनर! कुछ जन्मजात होता है जीवन में, वरना मछलियों को तैरना, पक्षियों को उड़ना, और आदमी को ईर्ष्या  करना कौन सिखाता है ? एक बाबू थे कि उसे छेनी लेकर तराशने बैठ गए थे। फिर हो गया न सागर एक सुघड़ मूर्ति, कलकत्ता के अजायबघर में रखने लायक। सांझ को ये पक्षी उठा कर ले जायेंगे जुगनू और रात-भर नीड़ों में जगमग दीवाली। हर जीव दूसरों को अपने वश में करने में लगा है। सबको अपना सुख, दूसरों की परतंत्रता पसंद है वरना अम्मा मोर को मूज की रस्सियों में बाँधना क्यों चाहती है ?

माँ ने जैसे रूठे सागर की ओर समझौते का हाथ बढ़ाया – “ये ले चादर बिछा ले, देह पर रस्सियों के निशान उग आयेंगे।“ उसने चादर का गोला बना कर सिरहाने रख लिया – “ना अम्मा ! खाली खाट पर सोने दे। बाँह-पीठ पर बने निशान आईने में देखूंगा तो लगेगा बाबा अपना निशान गिनवा कर हमें गिनती सिखा रहे हैं। अम्मा ! अब भी यहाँ लोग बच्चों से सर के पके बाल निकलवा कर उन्हें बतासे बाँटते और गिनती सिखाते हैं ? माँ डबडबा गई – “अब भी आईने का नशा नहीं टूटा रे बाबला। अब किस बच्चे को फुर्सत है बूढ़ों के पास बैठने की, वे हथियार के खिलौनों से गिनती सीखते हैं।“ वह थका था, सो गया।

शिलांग के बादलों की तरह उमड़ते रंगीन धुँओं के गुबार, खुर उठा कर हिनहिनाते और पंख पर उड़ते जाते घोड़े…….. लाल पानी वाली नदी। लोहित है शायद ! लोगों की चीख-पुकार-भागमभाग। सवार आईनों की डाल काटते – उसे रौंदते हैं – वह कमर से झाड़ू, गर्दन से टूटे बर्तन बाँधे भूखे लोगों के बीच दौड़ता है, खीझता है – तुम तन कर क्यों खड़े नहीं होते – यह क्या मैला-गंदला रूप बनाया है – बाबा के चमगादड़ – पंखी मिर्जइ-सा दिखते हो भाई, अपने को बदलो। आईने के सामने खड़े हो। ये तुम्हें जीने का सलीका सिखाएंगे। इन घोड़ों, इन आईने के शत्रुओं को रोको – ये घर जलाते, कत्ल करते, अस्मत लूटते हैं। ये सोनिया को कुजात कहते हैं। भाषावाद, प्रदेशवाद की माला जपते हैं। ये सद्भाव के ढोंग के भीतर जुल्म का जंगल उगाते हैं। आतंक-अलगाव-डर की फसल बोते हैं। ये आईने तोड़ते हैं, सच नहीं बोलते – प्यार नहीं करते। आओ इन आईनों को बचाओ, इनमें अम्मा की चिड़ियाँ घोंसला बुनती है, इनमें मासूम लड़कियाँ सोती हैं, इनमें कौआ उचारती बूढ़ी औरतें बसती हैं, इनमें सपनों से भरी आँखों वाला किशोर जीता है, इनमें जवान लड़कियों के अपाहज बाप बैसाखी लिए भटकते हैं, इनमें दर्प और स्वाभिमान जीती निडर लड़कियाँ अपने पसीने को प्यार करती हैं, इनमें कबूतरों का जोड़ा दाना चुगता है, इनमें इंद्रधनुष की चादर ओढ़े सपना बसती है। इन घोड़ों को पकड़ो – इनकी गर्दन  में लोहा-पत्थर लटका कर इनकी गति तोड़ो – नफरत बोते लोगों के घुटने घवाहिल करो, जैसे बाबा मरखर बैलों की गर्दन में मोटी पटरियाँ लटकाते थे। सागर के साथ अनगिनत लोग घोड़ों को पकड़ते – सवारों को खींच कर फेंकते हैं – कुछ भाग रहे हैं – सागर अनगिनत लोगों के साथ उनके आगे। चारों तरफ आईनों के बड़े-बड़े पेड़ और उनमें प्रतिबिम्बित प्रकृति लोग झील-झरने-नदी……..। “उठ जा ! गदवेरा में नहीं सोते।” – माँ ने झकझोर कर जगा दिया। धूप सुख की तरह उड़ गयी थी।

पर्दे वाली गाड़ी दरवाजे पर रुकी तो सागर का जी धक से रह गया। अम्मा ने आफत बुला ली। वह भीतर भाग कर सामान समेटने लगा – “हम कल शिलांग जायेंगे।“ और कहीं जगह न थी। सोने बिस्तर पर गया। वह दरवाजा खोल कर वरामदे में निकला – “अम्मा ! चंदर भाई ने दीवार से सटा कर गोबर धर दिया का ? महक रहा है।“ माँ चुप रही। लौटकर बैग टटोला। बांटने-खर्चने के बाद एक-अद्धा बचा था। चार घूंट नीट पीने के बाद खाली बोतल में पानी भरा, पीने लगा। पत्नी दरवाजा खोलकर बाहर भागी। चापाकल पर बैठ कर उबकाई करने लगी। सागर के जले पर नमक गिर गया। माँ दौड़ी। बहू की पीठ-कलेजा सहलाती हुई कान में फुसफुसायी -“ढेर पंडिताइन जन बन तू ! जीवन भर सर धुनती रह जायेगी। छुट्टा सांड  है तेरा मरद। जइसे भी बन पड़े उसे बाँध। रोज एक गिलास डाक्टर की सलाह से लेता है – ठंड की दवा है उसकी। कई-कई दुर्गंध जनम भर हम न झेल रहे। पति का, बेटों का, अड़ोस-पड़ोस का, इस जमीन का।“ 

पत्नी लौटकर सागर के पांव के पास बैठ गई – “गुस्सा न हो तो पैर दबा दें, थके होंगे।“ शराब सारे बंधन तोड़ लेता है। नशा चढा़न पर था।“ दिया बुझा दो !“ – सागर ने स्वयं को ढीला छोड़ दिया “तुम्हें कुछ महकता है ? चूहा मरा होगा, पर महकता तो न है।“ – वह ठठाकर हंसा। सुबह सागर का मन पत्थर दबी दूब-सा असहाय था। पत्नी अजीब फुर्ती से घर के काम निपटा चुकी थी। वह सामान सम्भाल कर निकला तो चन्दर भाई की पत्नी आंगन में बैठी थी। पूछा – “इस दफे भी अकेले जाओगे, कबतक सिंग मुड़ाके बछड़ा होना है ? सागर ने पांव छूते गम्भीरता से कहा – “सब दिन अकेला। अन्धा के सोय का आ जगे का ? साथ हो के भी रात भर लाश की तरह पड़ी थी।“ भौजाई उसके पीछे दरवाजे तक आई – “सागर ले जा इसे सिखा देना गामा की पहलवानी, फिर तुमसे कुश्ती लड़ा करेगी।“ वह तेजी से भागा – “भाभी ! औरत तो और भी हो जाएगी नौकरी कहाँ मिलने वाली ?

सागर नेपा पहुँचा तो स्वीकृत छुट्टियों में दो दिन बचे थे। वह सोनिया की सहेली मंदिरा पुरकायस्था से मिलने धान खेती निकल पड़ा। घर स्थानीय कुछ लोगों ने कब्जा कर रखा था। उसके भाई को अगवा करने की धमकी देकर घर खाली करवाया था। पूरा परिवार संबंधी के पास सिल्चर चला गया। उसकी अनुपस्थिति में दंगों का भयानक दौर बीता था। कर्फ़्यू, पिकेटिंग, रोड जाम, कार्यालय बंद, आग जनी लूट और कत्लेआम। इन्हें काम नहीं आता अतः मोची, नाई, धुनिया और स्वीपर को छोड़ कर दर्जनों परिचित हिन्दी भाषी शिलांग छोड़ चुके थे। आठ माह के बच्चे से अस्सी वर्ष के बूढ़ों तक की नृशंस हत्या, गर्भवती महिलाओं से बलात्कार, मरियम मातम में होगी……. ईसा उदास………। राजनीति की विसात पर हिंसा का खेल, सत्ता, भोग, अधिकार की लोलुप, राजनीति का दोहरा चरित्र। चोर से कहती है चोरी कर, साहूकार से जागता रह। धृतराष्ट्रों की अंधी कुर्सियों के लिए भीष्मों की बहरी-गूंगी प्रतिबद्धताएँ…….. दोयम दर्जे की नागरिकता……. मंदिरा के दादा बंगाल के अकाल में यहाँ आकर बसे थे। सौ वर्ष रहने पर भी कोई जमीन परायी ही रहती है। फिर तो भजो – “ब्रह्मसत्यं जगत मिथ्या“ यहाँ बाहरले नहीं टिक सकते। कोई चिड़िया बानायेगी घोंसला। मेंढ़क की अकाल मृत्यु पर जितनी लगा लो पाबंदियाँ – “अहिंसा परमो धर्मः“। प्रकृति का संतुलन सुरक्षित रहेगा। आदमी के मरने का क्या ? घना हो जाए तो किसान खेतों से मक्का के दुबले पौधे स्वयं ही काट देता है। आदमी जी नहीं सकता। अम्मा आयेगी यहाँ ? अगर मर गई – लाश लिए किन गाँव बूढ़ों के पास भटकोगे सागर, कि जलाने की जगह बता दो। हिन्दी भाषिओं पर असम में कहर बरपा है। असम-जमीन सम करते जिनकी पीढ़ियाँ गुजर गई। अब अपने प्रदेश लौट जाएँ। सरकार की घोषणा और आश्वासन के बावजूद अलगाववादी संगठनों की मर्जी परवान चढी़ है। प्रकृति का नियम बदल देगी इनकी ताकत ? पानी ढ़लान और धुआँ आसमान की ओर जाने का अपना स्वभाव छोड़ देगा ? घनी जनसंख्या मंगल ग्रह पर बसेगी। सारा संसार जाने कब एक घोंसला था? यहाँ तो हर व्यक्ति का मन एक अलग नीड़ है और हर नीड़ में कैसी मारामारी मची है ? पता नहीं सोनिया के साथ कब कुछ अघटित घट जाए। वह लहूलुहान हो गया। घायल मन क्या करेगा नाराज सोनिया से मिलकर ? कैसे हो जाए नया नीरो कि आस-पास की जमीन जले और लाशों  की दुर्गंध में वह रास रचाए, बाँसुरी बजाए ? महीना भर गुजरते शिलांग का जीवन सामान्य हुआ। सोनिया महीने भर बाद पंजाब से आयी थी।

दिन भर भींगकर वह कमांडो ट्रेनिंग के साथ लौटा। पहली बार सोनिया मिली थी तो कलकत्ता की बीती जिन्दगी बाढ़-सी उमड़ आयी। वह शरद का चाँद न थी पर भटकता हुआ सागर ही मचलने को बेचैन था। आदमखोर ज्वार-भाटाओं से भर गया। सपना और सोनिया की मिट्टी में कैसा गजब का मेल था। सोनिया के सामने बैठे बच्चों ने सागर को नमस्ते नहीं किया, वह आपे से बाहर – “कैसी टीचर हो जी ? बच्चों का डिसीप्लिन तो एकदमे खराब है। इन्हें सुधारो मैडम, ये तो बर्बाद ही हो जाएंगे। सोनिया मुसकुराई तो सपना झलक गई। “आप तो बहुत अच्छा डांटते हो जी। डांट खा कर भी पत्नी खुश ही होती होगी।“ “आप तो बिला वजह मेरा ब्याह करवा दे रहीं हैं, मेरा हंसता चेहरा आपको अच्छा नहीं लगता ?

घर में फोन किया। सोनिया आठ बजे लौटेगी। सड़क सूनी थी, नो एंट्री के बोर्ड हट गए थे। ट्राफिक पुलिस अपना रुआब समेट कर जा चुकी थी। प्रधान डाकघर से आकाशवाणी के बीच वह भीगता हुआ खड़ा हो गया। अचानक पाइनउड होटल की ओर से आता हुआ मामाओं का झुंड। सबने पी रखी थी। शहर के कोने-कोने में उगे चीड़ और देवदार की फुनगी तक आकर बादल गरुड़-सा पंख फैलाए बिछ रहे थे। एक अंग्रेजनुमा लड़का सामने खड़ा हो गया -“ए मे किधर जाएगा ?- “खुबलाई मामा ! कुमनो ? (नमस्कार भाई कैसे हो)-सागर ने पटाने का प्रयास किया। “भा, भा-भा, फिडिक्या ? (अच्छा हूँ शराब पीओगे)उसने आधा भरा बोतल बढ़ा दिया। चार-पाँच घूँट नीट पी कर सागर ने बोतल वापिस किया। “इतना समय में तुम भींग-भींग के किदर जाएगा, किदर आया ? यू, हम पुलिस अकादमी से आया, इधर मेरा साहब पाइनउड में बैठा तो, हम भी उधर बैठेगा।“ आती हुई जीप की रोशनी में सागर ने देखा पाँच लड़कों के साथ तीन लड़कियाँ थी। वर्दी न होती तो सागर पिट भी सकता था।

असम स्टूडियो, ब्रौडवे, शनि मंदिर घूमता सागर भूटिया मार्केट तक आया। झालूपाड़ा आकर गाड़ी खड़ी कर दी। अरुणाचल सेक्रेट्रिएट की ओर पैदल बढ़ा। क्वार्टर जाने के लिए सोनिया इधर से ही आएगी। हर आदमी में उसे सोनिया का विभ्रम होने लगा। लावान एवं विश्णुपुर जाने वाली चाराली तक जाकर लौटा। उसे नशा होने लगा था। उसे ठंड लग रही थी। देवदार की मोटी जड़ से सट कर कुछ देर पानी से बचा जा सकता था। वहाँ रात का गाढ़ा-भींगा अंधेरा छिपा हुआ था। जैकेट से रॅायल चैलेंज का अद्धा निकाला, पीने लगा, अंजलि सिनेमा की ओर से दो साए निकले तो वह जड़ों से उतर कर सड़क पर आ गया। खिल्ली भर पानी खाइयों में गिरता शोर कर रहा था। वह बैठ गया। सड़क पर बहता पानी उठा कर चेहरा धोने लगा। “कुछ लगेगा न क्या ?- ग्राहक तलाशती दो प्रौढ़ाएँ थी। सागर पच्च से जमीन पर थूका – “चलती रह इधर कुछ नहीं लगता।“ बोतल खत्म करते ही बीच सड़क पर फेंकने को हाथ बढ़ाया फिर वापस खींच लिया। बोतल को हाथ में लिए देर तक नचाता, खेलता रहा। सारे शहर और पहाड़ों का पानी घाटियों में गिरता भयानक शोर कर रहा था। बोतल धीरे से देवदार की जड़ में गिरा दी। पेड़ से पीठ टिका कर अंजुली ऊपर उठाई। पानी भरकर मुँह से लगा लिया। उफ ! सारे जीवन की अतृप्ति कलेजे में धनक गई। कैसी बेपहचानी प्यास है, कैसी अनावृष्टि, घनघोर बरसते बादलों के बीच कैसा सूखा, कैसा अकाल ? वह अंजुली की पानी से बुझेगा ? शराब चाहिए। क्या ही अच्छा हो कि आकाश से पानी की जगह शराब बरसा करे। काश ब्रह्मपुत्र में पानी की जगह शराब भरा होता। वह बुलेट लिए सिविल हॉस्पीटल की तरफ बढ़ा तो पानी के फब्बारे दोनों ओर उड़ते रहे। बावरी मेंसन के शोरूम  के शीशे में गुजरते हुए स्वयं को देखा और खड़ा हो गया, चतुर्दिक कई-कई परछाइयाँ। आस-पास खड़े अनामगोत्र पेड़ों में लटके अनगिनत आईने। आईनों में घोड़े दौड़ रहे थे। मन हुआ नेपा लौट जाए। न सोनिया से मिले बिना न लौटेगा। उतप्त सांसे घाटियों में घुसे बिना ठंडी न होंगी। झंझा वात को बाँध लेना आसान होगा, उच्छृंखल मन को बाँध पाना कितना कठिन है। अच्छा ही हुआ कि आईने के पेड़ न हुए।

वह नन्हे पत्थरों पर बैठ गया। स्वयं पर हंसा, कितना पागल तू, ब्रह्मपुत्र में पानी की जगह शराब बहेगा, उठ कर खड़ा हो गया – धत्त, फिर उगेंगी फसलें ? ओंस भींगी हरी दूब ? कहा पलेंगी सपना की आँखों जैसी छलबल मछलियाँ ? माँ कहाँ से लाएगी गुलाब ? कैसे करेगी चिड़ियों से दोस्ती ? कौन बचाएगा सपना घोष की हरे जंगल-सी पवित्रता और खूबसूरत पहाड़-सा प्यार ? फिर क्या मतलब होगा पूछने का – “आइनार गाछ केनो होए ना।“ अचानक एक मारूति वैन आकर रुकी। सागर की आँखें मुंदी जा रही थी, उसने आँखें मीजीं। दो लोगों ने दो तरफ से उतर कर अपना छाता खोला और जाकर देवदार की जड़ में खड़ा हो गया। दोनों ने छाता जमीन पर रख दिए, दोनों ने छाता उठाए, फिर एक साया सरकता हुआ चढ़ाई चढ़ने लगा। कुछ देर खड़ा रह कर दूसरा वैन तक लौट आया। सागर सोनिया की तरफ भागे या वैन में देखे कौन है, नहीं, क्या देखना ? वह क्या पूरी दुनिया का चेहरा पहनाता है ? वह बढ़ता हुआ ऊपर चढ़ा सोनिया के परिसर का बाहरी गेट बंद था। उसने कॉल बेल बजा दी। सोनिया छाता लिए निकली। घर का दरवाजा खोलकर पूछा – कौन। “जिया मैं हूँ सागर।“ “पागल हो गया है तू ? यह वक्त है किसी के घर जाने का ? फिर तुम यहाँ आए कैसे ?या मुझे वक्त का अंदाज नहीं है, बस चला आया, बहुत परेशान हूँ। तुम बताओ नाराज क्यों हो ? मैं मर जाऊँगा।“ सागर लोहे का गेट खोलकर भीतर आ रहा था। “वापिस जाओ, फिर कभी मत आना, मर गया तू मेरे लिए।“ वापस घर के भीतर जाने लगी। तेज कदम चलकर सागर ने उसकी कलाई पकड़ ली – “बस गुस्से का कारण बता दो, मैं चला जाऊंगा।“ हाथ जख्मी करती कांच की चूड़ियाँ जमीन पर बिखर गईं। “अबे हरामी तू बाभन होने के घमंड में फूला है, मुझे रखैल बना के रखेगा, तू है क्या ? एक अदना सिपाही। छोड़ मुझे।“ सागर की पकड़ ढीली पड़ी, वह हतप्रभ देख रहा था। सोनिया ने छाता चला दिया। सागर ने कलाई छोड़ दी -“तू मेरी माँ को गाली देती है, सती अनसुइया है तू। रंडी भी एक पर्दा चाहती है, तू तो सड़क पर ही शुरु हो जाती है अपने यारों के साथ, शिलांग है यह, एड्स की मरीज हो जाएगी, कोढ़ी भी नहीं थूकेगा तुझ पर, बदचलन ! गाड़ी में सैर करेगी, हाथ उठाती है मुझ पर, माँ को गाली देती है, अपना करम नहीं देखती।“ जख्मी हाथ पर दुपट्टा लपेटती हुई सोनिया चीख पड़ी -“भागता है तू यहाँ से,  अभी पा जी निकल आए तो सारा नशा उतार देगा, टांग ही नहीं बचेगी, करते रहना भांगड़ा। जिस औरत को तूने गाँव में छोड़ रखा है, उसके लिए कितना ईमानदार है तू ? सच्चा बनता है, दिन भर अपनी मनहूस सूरत पच्चास बार आईने में निहारता है, कभी अपनी काली करतूत नहीं देखता ? मेरा पति होता तो थूक कर छोड़ देती तुझे, माँ की गाली दे दी तो आग लग गयी। मुझे धोखा देता रहा तो कुछ नहीं। मैं किसी की बेटी नहीं हूँ ? अकबका गया सागर – “मैंने कब मना किया, ब्याह की बात……।“ “जला दूंगी तुझे, यदि ब्याह का नाम लिया, अपनी औरत की सोच, फूल सूंघ कर पेट भर लेती है, अप्सरा है न वह, तो क्यों कुत्ता हुआ रहता है यहाँ-वहाँ, सती होने का कोई दिखावा नहीं करती मैं, मुझे साबुत गेहूँ की रोटी चाहिए, कुत्ता का कौरा नहीं। मैं नहीं हूँ सड़ने की राह पर, अपनी सोच, हवा पीती-पीती किसी दिन बैठ जाएगी किसी और के साथ, फिर गाते रहना कव्वाली, दहेज के लिए घर में घेर कर औरत को जिबह करता है, पूरा कसाई हो तुम लोग। तू दिन-रात भठता रहा तो कुछ भी नहीं, मुझे किसी ने चूम लिया तो एड्स की मरीज हो गई, चमक झड़ गई मेरी, रोल्ड-गोल्ड का गहना हूँ मैं कि मिट्टी का बर्तन, तुझ जैसे कुत्ते ने छू लिया तो बेकाम ? चल निकल यहाँ से। कभी अपना कमीना चेहरा मुझे मत दिखाना, विश्वास किया, घात हो गया। तुम सब गंगाजल छींट कर पवित्र होते हो न, मैंने भी लोटा भर पी लिया था, ब्रह्मराक्षस है तू, जा जीवन भर जलता घूमेगा, बंडलवाज।“ भाग कर दरवाजा बंद कर लिया।

सागर ठगा-सा देखता रहा। लौटा तो कदम शिथिल थे, भीतर कोई चीख रहा था – बीते जमाने की निर्दोष आत्मा !शीशों का शामियाना ओढ़े पत्थरों के नगर में भाग रहा है तू, अंधो के शहर में आईना बेचेगा ? जा किसी टापू पर जा, वहीं बैठ कर आईना बनाना। वैनेसियन शीशों से ईमानदार जिसमें कुरूप चेहरे की सुंदर छवि नहीं अपने मन की दोगली और बदसूरत शक्लें सही-सही दिखाई पड़ती हो।           

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