माँमुनि- श्रीमाँ शारदा के जीवन पर आधारित उपन्यास / किश्त- ४

 






खंजनाक्षी अपराह्न होते ही घर आ जाती थी। उस काल और भूगोल में विधवाओं से सौभाग्यवती अधिक बोलचाल नहीं रखती थी। खंजनाक्षी बालविधवा थी किन्तु श्यामसुन्दरीदेवी की परम सखी थी। कैशोर में किसी रोग के कारण उसके नेत्र नष्ट हो चुके थे।
वह बंधोपाध्यायों की दूर की सम्बन्धी थी। घर घर जाकर गंगाफल, परोरी, तरोई, कुनरी की लताएं लगा जाती, उनकी बढ़त के लिए बाँस बाँध देती, जल, गोमय आदि की व्यवस्था कर देती। ऐसे वह अपना समय व्यतीत करती और भोजन के लिए उसे किसी का मुख नहीं देखना पड़ता था। अगस्र के फूलों के पकौड़े और सूरन बहुत अच्छे बनाती थी। गन्ध से परिचय पा जाती कि सिद्ध हो गए है या नहीं। स्वयं लवण का सेवन तक न करती थी।
श्यामसुंदरीदेवी के यहाँ ठाकुरमणि से मिलकर उसे अनुभव होता अपने अनेक जन्मों की किसी बंधुता से मिल रही हो।
“ठाकुरमणि के निकट आते ही मेरे धूपित कपाल में सुगन्धित उजास फैल जाता है। सच कहती हूँ, श्यामसुन्दरी, मेरे नयन फूटे है प्रकाश से तिमिर नहीं विलगा पाते किंतु ठाकुरमणि के निकट मेरी कनपटियों में ज्योति ही ज्योति भर जाती है। मैं उसकी तन्वंग देह, मछलियों से नयन और विस्तृत, सदा देने ही वाले करतल निहारकर बहुत तुष्ट अनुभव करती हूँ। अवश्य ही मैंने अपना वैधव्य पुण्य का विचार करते व्यतीत किया है। पाप मेरे मन का स्पर्श भी नहीं कर पाया होगा जो साक्षात् शारदा का नित दर्शन पाती हूँ । धर्मठाकुर के मन्दिर, सिंहवाहिनी के द्वार, काली के मण्डप मैं कहीं नहीं जाती केवल यहाँ आ जाती हूँ। तुझे लगता होगा प्रतिदिन गोधूलि के शुभ मुहूर्त में मैं रांड अपना माथा तेरे यहाँ दिखाने आ मरती हूँ किन्तु मैं क्या करूँ मेरे पग आप ही आप इधर धावन करने लगते है।”
बहुत देर तक खंजनाक्षी इसी प्रकार बड़बड़ाती रही।
श्यामसुंदरीदेवी ने अगस्र में पुष्पों की डंटलें तोड़ तोड़कर खंजनाक्षी की श्वेत, फटी हुई धोती के अंचल में डालकर कहा, “तुम्हारी तो मेरा घरभर प्रतीक्षा करता है, बुआ। ऐसे वचन उचारते कभी ठाकुरमणि ने सुन लिया तो बहुत दुखी होगी।”
इतने में ठाकुरमणि आ गयी। आमोदर नदी के किनारे किनारे लगे झाऊ की डाली पकड़े।
खंजनाक्षी को अचानक सकल भुवन दिखाई देने लगा, बोली, “क्यों री खेमकरी, चल बता और क्या क्या सिखाया है तेरे ठाकुर ने?”
ठाकुरमणि का मुख खंजनाक्षी के अंचल में अगस्र के पुष्प देखकर आलोक से भर गया, “बुआ, पकौड़े का आयोजन कर रही हो क्या?”
“पहले तू बता, तेरा ठाकुर क्या क्या कहता है? कुछ घरगृहस्थी की बात तेरी सास ने तुझे सिखाई भी कि नहीं!” खंजनाक्षी अगस्र के पुष्प छुपाते हुए बोली।
“सिखाया क्यों नहीं! बहुत सिखाया है मेरे स्वामी ने मुझे। दीपक की बाती कैसे काढ़ी जाए इसका बहुत अभ्यास कराते थे वे।” ठाकुरमणि खंजनाक्षी के पाँव के निकट बैठ गई और अंचल के पुष्प देखते हुए कहने लगी।
“दीपक की बाती काढ़ने में कौन सी विद्या है, बता तो या तेरा ठाकुर केवल तुझे मूरख बनाता रहता है” खंजनाक्षी ने आँचल खोल दिया। अगस्त्य के पुष्प धोती से लेकर भूमि तक बिखर गए।
“बहुत बड़ी विद्या है यह। किसी पोथी से प्राप्त नहीं होती। केवल मेरे स्वामी को पता है” ठाकुरमणि पुष्पों के मध्य खंजनाक्षी की गोद में लेटते हुए बोली।
श्यामसुन्दरी अब तक मौन यह लीला देख रही थी उससे रहा न गया, “हम दोनों तुझसे हाथ जोड़कर निवेदन करतीं है हमें भी यह विद्या प्रदान कर। तू हमारी गुरु हो जा। हम गुरुदक्षिणा में तुझे अपने प्राण भी अर्पण कर देंगे ।”
“हाँ हाँ मैं तुम्हें यह विद्या अर्पित करूँगी किन्तु गुरुदक्षिणा में तुम्हें अगस्र के पकौड़े देने होंगे” ठाकुरमणि लेटे हुए ही बोली।
“हाँ, हम स्त्रियों के प्राण इतने स्वादिष्ट कहाँ जितने इन फूलों के पकौड़े। तू हमें यह विद्या दे दें मैं तेरे लिए पकौड़े बना दूँगी”। श्यामसुन्दरीदेवी बेसन भरकर परात ले आई और खंजनाक्षी उसमें जल और पुष्प डालकर पकौड़े का घोल बनाने लगी। एक बालुकी नोन लगाकर श्यामसुन्दरीदेवी ने ठाकुरमणि के हाथ में दे दी और दूसरी स्वयं खाने लगी। श्यामसुन्दरीदेवी गर्भवती थी।
ठाकुरमणि खंजनाक्षी के लिए चूल्हे की लकड़ी ले आई। खंजनाक्षी चूल्हा फूँकती थी।
“हटो बुआ, मैं फूकूँगी” ठाकुरमणि आगे बढ़कर बोली।
“मेरे नयनों के स्थान पर तालमखाने दिए है हरिठाकुर ने। न धूम्र का प्रभाव न कभी इनमें मैंने कभी अश्रु आते देखा। मुझे करने दे। तू तो बस हमें अपने ठाकुर की दी दीपक की बाती काढ़ने की विद्या के विषय में बता।” चूल्हे की अग्नि स्वाहा स्वाहा फूफकारती प्रकट हो गई थी।
तैल में फूल के पड़ते ही सुवास पुण्यपुकुर तक जाने लगा किंतु इससे नितान्त अप्रभावित खंजनाक्षी और श्यामसुन्दरीदेवी के मन में केवल ठाकुरमणि की बातें सुनने की इच्छाएँ ही उद्भिद हो रही थी।
“पहले पकौड़े तो खा लूँ तब दूँगी तुम्हें यह विद्या।” काँसे की थाली में खौलते तैल से निकलते सुनहले पड़ गए अगस्त्यपुष्पों को देखते हुए ठाकुरमणि ने कहा।
मुकुंदपण्डित बंधोपाध्यायों का भांजा था, खंजनाक्षी उसकी मौसी थी। वह पहलवान था और बहुत रूढ़िवादी। पता नहीं कहाँ से वह घर में प्रकट हो गया।
भुजाओं की मछली फड़काते हुए बोला, “विधवास्त्री यों पराए गृह में जाकर लौनभरे पकौड़े खाए, क्या यह उचित है मौसी!”
“बेटा, लौन तजे तो मेरी पूरी आयु बीत गई।यह तो मेरी ठाकुरमणि के लिए बना रही थी।” खंजनाक्षी ने निर्दोष मन से कहा।
“पूरी आयु हो गई बिना लौन चखे तब भी तुम मरी नहीं। किसे मूर्ख समझती हो!” मुकुंदपण्डित उज्जडमति था।
ठाकुरमणि हाथ में थाली पकड़े खड़ी हो गई, “ऐ दादा, जब जानते नहीं बुआ के तप के विषय में तब अधिक कहते क्यों हो?”
“बित्तेभर की कन्या ने अगस्र के पकौड़े खाकर ही जिह्वा गजभर की है?”
मुकुंदपण्डित ने व्यंग्य किया। वह अकारण झगड़ा कर रहा था।
अपने बमबम भोलेबाबा को भोग लगाकर ठाकुरमणि ने कहा, “मेरे स्वामी कालीमन्दिर के पुरोहित है। वह कहते है भोग लगाने से भोजन सब प्रकार से शुद्ध हो जाता है” यों कहकर फूल का पकौड़ा खंजनाक्षी की ओर खाने को बढ़ाया।
खंजनाक्षी मुख झुकाए बैठी हुई थी। उसने प्रतिवाद नहीं किया किन्तु पकौड़ा खाने को मुख आगे भी नहीं बढ़ाया।
श्यामसुन्दरीदेवी ने कहा, “ठाकुरमणि उचित ही कहती है, बुआ, तुम पकौड़ा खा लो।”
खंजनाक्षी ने पकौड़ा खा लिया। मुकुंदपण्डित की आँखों से स्फुलिंग छूटने लगे किंतु स्थिति अपने मान के अनुकूल न पाकर वह जाने लगा।
“स्त्रियों के सम्मुख बात बनाने को मैंने पहलवानी नहीं की न शास्त्र पढ़े है। विधवा का ऐसा आचरण रहा तो नाश होते देर न लगेगी ” कहते हुए बाहर निकल गया।
खंजनाक्षी के नयन देर तक टपकते रहे। तालमखाने जैसे सूखे नयनों में जल न जाने कौन स्त्रोत से बह निकला था वह स्वयं नहीं जानती थी।
“रे ठाकुरमणि नमक इतना मीठा होता है मैं कहाँ जानती थी; गुड़ से भी मीठा” खंजनाक्षी ने कहा।
ठाकुरमणि खीखी करने हँसने लगी, “बुआ कितनी जड़मति है नमक को मीठा कहती है, खीखीखी”।
“गुरु माना है तो क्या गुरुजन का अपमान करेगी!” श्यामसुंदरीदेवी ठाकुरमणि के पीछे डंडा लेकर मारने दौड़ी।
पीछे से खंजनाक्षी ने चिल्लाते हुए कहा “अरे कहाँ भागती है, अपने ठाकुर की बताई दीपक की बाती काढ़ने की विद्या तो देती जा”।
“दीपक की बाती काढ़ने की विद्या पीछे बताऊँगी, पहले मुझे कामारपुकुर ले चलो” एक माध्यन्दिन ठाकुरमणि ने हठ ठान लिया। महानुभाव मुखोपाध्याय शर्करा देकर उसे बहलाने का यत्न कर रहे थे। श्यामसुन्दरीदेवी प्रसवपीड़ा सहन करती सौरी में पड़ी थी।
“मेरी राजामणि तू देखती नहीं तेरी माँ कितने कष्ट में है; उन्हें छोड़कर तू कामारपुकुर क्यों जाना चाहती है?” रामचन्द्र मुखोपाध्याय ने ठाकुरमणि को समझाते हुए पूछा।
“क्या मेरे जन्म के समय भी माँ को इतना ही कष्ट हुआ था?” ठाकुरमणि ने पूछा। उसके अकलंक चन्द्रमा जैसे मुख पर विस्मय छा गया था।
“कष्ट के कारण मुख श्वेत पड़ गया था। माँ “जननी जननी” कहकर चीख रही थी” रामचन्द्र मुखोपाध्याय ने कहा।
“संतान को जन्म देने में क्या सबको इतना कष्ट होता है पिताजी?” ठाकुरमणि पिता की गोदी में बैठकर पूछने लगी।
“जन्म और मृत्यु में कष्ट ही कष्ट है” रामचन्द्र मुखोपाध्याय दार्शनिक हो गए थे।
“किन्तु मैं फिर भी सात सात संतानों को जन्म दूँगी। चार पुत्रियाँ और तीन पुत्रों को” ठाकुरमणि ने अंगुलियों पर गिनते हुए कहा।
रामचन्द्र मुखोपाध्याय हँसते हँसते दुहरे हो गए।
उस दिन श्यामसुन्दरीदेवी ने पुत्र को जन्म दिया और उसके पश्चात् आनेवाले दिनों में ठाकुरमणि को असंख्य जन की जननी होना था।
गदाधर ठाकुर हो गए थे। जब भी ठाकुर कामारपुकुर आते शारदा को बुला भेजते थे। पुण्यपुकुर नौका से पार करके शारदा पाँव पाँव कामारपुकुर आती। तेरह की होते होते शारदा की सब सखियों को संतानें हो गई थी। शारदा ही शेष थी जिसकी कोई संतान न थी। तेरह की वय में सन्तान खिलौने की भाँति ही होती है किन्तु हाड़माँस का प्राण पड़ा पुतला खिलौना तो होता नहीं।
नित्य रात्रि स्वामी-स्त्री में झगड़ा होता, प्रातः होते ही शारदा दाल छौंकने के मसालों तैयार करती और ठाकुर दँतुअन चाबते आँगन से खड़े खड़े बड़बड़ाते।
“जयरामबाटी की बेटी, तुझसे क्या अपनी माँ का कोई दुख लुका है। कोई बरस नहीं जाता जब उसने किसी संतान को जन्म नहीं दिया या उसकी कोई सन्तान मरी नहीं! केले का पात गिरने से जैसे चींटियाँ मर जाती है उससे मानुषजाति कोई अलग है क्या! आज पेचिश कल मरन। लो, मकरकुण्डल को आज ज्वर और सूरज डूबने तक आँख उलट गई। ऐसे प्रतिदिन मरनेवाले गुड्डे-गुड़ियाओं को जन्म देकर, दूध पिलाकर बढ़ाकर यमदूतों की दाढ़ में हड्डी का टुकड़ा रखने से क्या लाभ!”
घर के सब बालक ठाकुर को घेरकर हँसते हुए ताली पीटते। शारदा निशब्द सुनती रहती। सिल-बट्टे पर सरसों धमधम करके कूटने लगती।
“जयरामबाटी की तेरी सखी जिससे तेरी दाँतकाटी रोटी थी, क्या नाम था उस अभागिनी का- अघोरा। उन्नीस वर्ष के पति से चौदह तक चार बार माँ बनी और पाँचवे पर ढेर। अब बताते है पति कामरूप से कोई सुन्दरी ला रहा है ब्याहकर। कामविद्या का फल विष की बेल पर लगता है। झोली में गिरा तो सगेसम्बन्धी खूब नाच-गाते है। मूरख जानते नहीं इस फल पर दाँत लगते ही नाश है।” चबे-चबाए दातुन को खाते हुए ठाकुर कहते।
चौदह वर्ष की शारदा का अब मौन रहना असम्भव हो जाता। हाथ हिला हिलाकर कहती, “ऐसा संसार के सब जनक-माँऐ विचार ले तो भूमि और आकाश का भेद नहीं मिट जाएगा। जैसा शून्य आकाश वैसी ही शून्यवती भूमि। फिर जब सन्तान को जन्म देना ऐसा गरलघट है तो सब योनियों में मतिमान मनुष्य इसे माथे पर उठाए क्यों फिरते है!”

कुल्ला करके ठाकुर चौके में आ जाते। शारदा की कलाई कसकर कहते, “मेरी शारदामणि, जन्म जन्म के संस्कारों की पोटली ढोते यह जन काँचनकामिनी में छोह लगाए जीवन गँवाते है और अन्त में क्या? बस छूँछ, शेष लोटाभर के फूल। पहले किसान महाजन से उधार लेकर बीज लाता है, बोकर मेघ टोहता है। अँखुए फूटने पर खरपतवार उखाड़ता है। खेती कीटपतंगों से बचाता है और तब कपास का फूल होता है। ऐसा कोमल कि धूप में जल जाए। बीज विलगाकर तब उसकी बाती काढ़ी जाती है। तब कालीमन्दिर का ब्राह्मण उसे माँ के कलेवर के सम्मुख जलाकर धरता है। समझी, तू सब भाँति तपकर यहाँ तक पहुँची है। फिर से बीज होकर माटी में पड़कर और और बीज होने में कौन सा सुख है, बता!”


शारदा दाल छौंकती थी, ठाकुर नासा वायु में इधर उधर उठाकर सरसों का परिमल लेते नाचते थे।

चन्द्रामणिदेवी पूजा करके तब तक लौट आई थी। बहू को सन्तति की कामना है तो कोई नूतन-अप्राप्य रत्न तो नहीं माँग रही। चन्द्रामणिदेवी ने स्त्रियों के जीवन की यही रीति जानी थी। स्वर्ण और सन्तति का भार कौन स्त्री को लगता है! कौन वधू इनका भार नहीं उठा सकती।

 

भगवान के उतारे बासे पुष्प डलिया से उठा उठाकर सूंघते ठाकुर माँ को अपने पक्ष में करना चाहते थे, “माँ मेरी माँमणि, समझाओ, मेरी बहू को कि सन्तान से कौन सा सुख है! दुख की डगाल है यह तो जिसमें केवल अश्रु के फूल खिलते है”।

 

चन्द्रामणिदेवी अपने पुत्र को देर तक देखती रही ; फिर कहा, “बता तू नहीं होता तो कहाँ जाती मैं! सही कहती है बहू, सन्तान चाहती है तो यह रीति है”।
शारदा लज्जा के कारण भीतर भाग गई । दाल जल गई और ठाकुर दिनभर उलाहने देते रहे, “दक्षिणेश्वर की मोहनभोग से भरी थालियाँ ठुकराकर यहाँ क्या जली दाल खाने आया है गदाईठाकुर!”
“हाँ, मैं सुनवीन समय की नारी हूँ। मुझे अपराधबोध से भरना इतना सरल नहीं ठाकुरजी। जलने के लिए बना शरीर यदि जली दाल खा भी ले तो क्या हानि है!” नयन मटका मटकाकर शारदा उत्तर देती।
“सोलह वर्ष की कुमारी राधागोविन्द के दर्शन करने आती है बृहस्पतिवार के बृहस्पतिवार। अद्वितीय खीरकदम्ब बनाती है। उससे दूसरा ब्याह करूँगा। जली दाल की तुलना खीरकदम्ब से हो सकती है भला!” ठाकुर विनोद किया। अर्धनिशा होते होते घर में सोता पड़ गया था। दो बजे रात को किसी ने साँकल बजाई। ऐसे गदौली पीट पीटकर किवाड़ बजाता कौन अभागा इस काल आया है।
शारदा भीत अचानक उठकर बैठ गई। अवश्य ही मेरे ही किसी सहोदर का देहावसान हुआ है। किवाड़ नहीं खोला किन्तु किवाड़ की ओट खड़ी हो गई। ठाकुर ने किवाड़ खोला तो जयरामबाटी का ही मुकुंदपण्डित था। शारदा अड़गड़ थामकर खड़ी हो गई।
“गदाधरपण्डित का निवासस्थान यहीं है क्या?”
आगंतुक ने पूछा। वर्षा में उसका शरीर सराबोर हो गया था।
“क्या हो गया, मुकुंददादा ?” शारदा ने पूछा।
“खंजनाक्षी काकी को गंगा किनारे ले गए है। प्राण आऊँ-जाऊँ हो रहे। शारदा को भेज दीजिए। काकी दीपक की बाती काढ़ने की विद्या जानना चाहती है” मुकुंदपण्डित ने ठाकुर को सम्बोधित करते हुए कहा और अंधकार में खो गय
“चलो चलो मुकुंदपण्डित के संग ही निकल चलते है” ठाकुर ने गमछा-बटुआ सम्भाल लिया और चमरौंधा पहनने लगे।
“हाथ को हाथ नहीं सूझता ऐसा गाढ़ा अन्धकारा है, घटा ऐसी बरस रही है कि आज ही सब बरसेगी।क्या सूर्यनारायण निकलने तक की प्रतीक्षा नहीं कर सकते?” चन्द्रामणिदेवी जाती बेला टोकने के भय से अपने नाती ह्रदयराम से बोलीं। सीधे ठाकुर और शारदा को सम्बोधित नहीं किया।
शारदा छाता और ठाकुर के कपड़े की पोटली बाँधे जाने को उद्धत किवाड़ से लगी खड़ी थी।
“तिमिर की गठरी माथे पर धरे मामा को अपनी भार्या चलायमान दीपोत्सव जो प्रतीत होती है” ह्रदय ने शारदा पर व्यंग्य किया। ठाकुर भीतर ऐसी रात में जाने से पूर्व दहीचिवड़ा चाब रहे थे।
“मैं भी उन्हें नहीं ले जाना चाहती। रोगदशा में उनके विश्राम में बाधा डालकर उनका क्लेश बढ़ेगा ही, कम न होगा। मैं अकेली ही मुकुंददादा के संग चली जाऊँगी। वह सम्बन्ध से मेरे बड़े भाई है” शारदा ने कहा।
“शारदा, तू तो बड़ी दीठवंती है, यहाँ आकर मेरे लिए लौन का एक डल्ला ढूँढ दे” ठाकुर ने भीतर से चिल्लाकर कहा।
“ऐसी गहन निशा में हम कोई अपनी इच्छा से दादुर-नागों से भरे धान के खेतों में चल रहे है क्या! सब कालीमाई का खेला है। तू पग धरते भीत मत हो, शारदा। आँख मूँदकर चलती जा” जल से भरे हुए धान के खेतों की मेड़ मेड़ चलते ठाकुर ने शारदा से कहा। आगे आगे मुकुंदपण्डित चल रहा था पीछे शारदा और ठाकुर बतियाते बढ़ते जाते थे। चन्द्रामणिदेवी ने अन्तत: ठाकुर को भेज ही दिया। उनकी किशोरी बहू इतनी रात गए एकाकी जाए यह उन्हें असहनीय था।
अचानक पुन्नागतरु में विश्राम करते धौरों का झुण्ड कूजता मेघों की ओर उड़ा।
“देख, ध्रुवमहाराज घटा की ओट विराजे है तो क्या हुआ! माँ ने धौरों का झुण्ड भेज दिया मार्ग दिखाने को” ठाकुर अनिमेष आकाश को देखते हुए बोले। शारदा का मन खंजनाक्षी बुआ के निकट पहुँच चुका था, यह तो केवल कलेवरी यात्रा थी।
“ऐसे ही धौरों की पाँत देखकर मुझे यहाँ प्रथम महाभाव हुआ था। दक्षिणेश्वर की काली सम्मुख आ ठाढ़ी हो गई थी। लगता है जैसे कल की ही बात है” ठाकुर मुड़ मुड़कर परेवे देखते हुए चल रहे थे। महाभाव से शारदा बहुत घबराती थी। उसका मन ठाकुर के कीच में धँसते-उठते चरणों में अटक गया। कुछ क्षणों के लिए वह स्थिर खड़ी रह गई। ठाकुर बोलते आगे बढ़ते जाते थे।
“थक गई क्या शारदा?” ठाकुर ने पलटकर देखा। शारदा को उस क्षण लगा जैसे उसके अन्धेरे मार्ग पर दीपस्तम्भ खड़ा हुआ है। वह अभिभूत ठाकुर को देखती रही। ठाकुर ने भी दृष्टि नहीं फेरी। थोड़ी देर पश्चात् मौन टूटा।
“जानता हूँ ह्रदय सच कहता है, तू चलायमान दीपोत्सव ही तो है। पहली बार शिऊड़ में तुझे अपनी माँ की गोद में देखा था। वैसे ही कालीमाई के नयनों जैसे कुरंगनयन। उसी क्षण उस कृष्णकाया माई से कह दिया था कि विवाह करूँगा तो जयरामबाटी के महाशय रामचन्द्र मुखोपाध्याय की बड़ी बेटी से ही” ठाकुर की बातें सुन सुनकर शारदा का मुख अव्यक्तराग होता रहा था।
बीच बीच में मुकुंदपण्डित पलटकर देख लेता था किन्तु एक शब्द भी नहीं कहता उसकी प्राणप्रिया पत्नी का देहान्त गई अमावस को ही हुआ था और अब मौसी मृत्युशय्या पर थी। मौसी से उसकी कभी न पटती थी। मौसी की भ्रष्ट वैधव्यचर्या से वह चिढ़ता था किन्तु पत्नी की मृत्यु के पश्चात् ह्रदय के स्थान पर जो विकलता केवल शेष रह गई थी उससे वह मौसी का मन पूजा की पोथी की भाँति पढ़ने लगा था। मौसी के प्राण छूटने से पूर्व वह मौसी को शारदा से एक बार मिलवा देना चाहता था।
शारदा से बात करना रोक, ठाकुर अपनी निर्बल काया घसीटते मुकुंदपण्डित के किनारे किनारे चलने लगे। मुकुंदपण्डित के बलिष्ट पहलवान शरीर और तेज गति का संग देने में ठाकुर हाँफते हाँफते दौड़ते जा रहे थे। मुकुंदपण्डित यह जानकर धीमे चलने लगा तब ठाकुर ने मित्रोचित स्वर में कहा, “अब मिथ्योपचार करने से क्या लाभ, रे पहलवान। पंचभूतों की इस गागरी का धर्म ही नाश है। लौन की लाटाई समुद्र में कब तक नाचेगी, बता!” मुकुंदपण्डित ने उत्तर नहीं दिया। वह और अधिक तेज चलने लगा।
आमोदर नदी पर एक नौका बँधी थी, उसी में तीनों सवार हो गए। मुकुंदपण्डित खेने लगा। नीचे नीचे नदी में घड़ियाल भी चलते थे। ठाकुर उन्हें बहुरि देखते और गमछे में बँधे मुड़मुड़े खिलाते जाते “देखो तो जिस शरीर को राम छोड़ दे वह कितना अपवित्र हो जाया है कि देख भी लो तो नहाओ। मुड़मुड़े अशुद्ध होकर श्मशान में नष्ट हो इससे अच्छा है ये घड़ियाल आज निरामिष भोजन का आनन्द ले”।
सुनकर शारदा रोने लगी। दूर कहीं कोकिल बोलती थी। ब्रह्ममुहूर्त हो चुका था। उस पार मुकुंदपण्डित का छह-सात वर्ष का बालक खंजनाक्षी के मुख में गंगाजल डाल रहा था। जल पलकर मुख के दूसरे छोर से बह रहा था। बालविधवा के सब संस्कार उसके भर्ता की मृत्यु पर ही हो जाते है। अब कौन आता!
“दादा लोग चले गए क्या हरिहर?” मुकुंदपण्डित ने अपने बालक से पूछा।
“दोनों दादाओं ने मौसी को ठठरी पर बाँधा। जल में तीन डुबकी दिलवाई और स्वयं नहाकर चले गए” बालक ने कहा।
“ठठरी पर बाँध गए!” मुकुंदपण्डित ने मूँज खोलकर अपनी खंजनाक्षी मौसी का शीश अपनी गोद में रख लिया। प्राण ने देह छोड़ा न था।
“तू आ गई, पारो? क्या संग में अपने पागल पति को ले आई। पारो और भोलेनाथ का संग संग दर्शन हो गया री।” खंजनाक्षी बड़बड़ाई किन्तु शारदा को छोड़ किसी को समझ नहीं आया।
“मौसी, दीपक की बाती काढ़ने की विद्या देने आई है, ठाकुरमणि। पूछ लो पूछ लो न मौसी।” मुकुंदपण्डित रोने लगा।
“हाँ, तू बता भोलेनाथ। मुझे दीपक की बाती काढ़ने की विद्या बता। बछड़ेवाली काली गौ के शुद्ध घी से दीपक जलाकर अपने स्वामी को देखूँगी मैं। मुझे मोक्ष नहीं चाहिए रे। मुझे तो गृहस्थी का लोभ है। मैं तो लग्न करूँगी, शारदा” खंजनाक्षी ने कहा और प्राण नयन के रास्ते से निकल गए।
“मैं बुआ का संस्कार पूर्ण होने पर ही यहाँ से जाऊँगी। क्या अन्त में चार कन्धे भी उन्हें प्राप्त न होंगे?” शारदा का स्वर दृढ़ था भले आँखों से जल टपटप गिर रहा था।
“तू पागल हो गई है क्या, ठाकुरमणि। युगों की रीति है, इसका उल्लंघन करना सम्भव है क्या” सूखी काष्ट ढूँढते मुकुंदपण्डित ने कहा।
“पहलवान, ऐसे समय में भी तेरे माथे पर शास्त्रविद्या सवार है! शारदा तू यही रह किन्तु किसी को भी कहना मत” ठाकुर ने कहा और एक घने पार्श्वपिप्पल के नीचे दीपक जलाने को बाती काढ़ने लगे।
“नववधू है। सन्तति भी नहीं हुई। इसे भय न लगेगा! जगत से वैराग्य हो गया तो?” मुकुंदपण्डित ने कहा।
“ऐसे जगत से क्या मोह करना जो वर्षा की एक रात्रि जब अग्नि का कहीं चिह्न न हो तब भी जल जाता है”  शारदा के मुख से जैसे यह शब्द अनायास निकल गए। ठाकुर शारदा को देखते रहे।

 

दाघ होने के पश्चात् शारदा जयरामबाटी में अपने पिता के घर लौट गई किंतु ठाकुर दिनभर खंजनाक्षी की ऊष्ण चिता के निकट बैठे रहे, “बता तो जब प्राण नहीं रहा तब भी इतनी ऊष्मा कैसे आती है! मृतक से प्रेम कम क्यों नहीं होता?” उन्होंने मुकुंदपण्डित से पूछा जो वहाँ नहीं था।


(क्रमश:) 


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अम्बर पाण्डेय 
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