हर
समय की अपनी कहानी होती है। हम अपने समय में उसे सुनते हैं। कई बार उन कहानियों में
हमारी दिलचस्पी नहीं होती, क्योंकि वहां समय की एक दीवार खड़ी होती है। लेकिन वही कहानी
जब किसी कला के जरिए हमारे पास आती है तो फिर, उस समय की दीवार में कई खिड़कियां खुलती
हैं… आस्था की खिड़की, जिज्ञासा की खिड़की, कुछ कही गई बातों की खिड़की और कुछ अनकहे
दास्तानों की खिड़की। ऐसी ही कई खिड़कियां हम पाते हैं, मशहूर चित्रकार अर्पणा कौर
की कला में, जो बिना किसी परदे की हैं और हमें जिंदगी को लेकर कई तरह की नई बातें बताती
हैं।
फ्रेंच उपन्यासकार बाल्जाक के उपन्यासों से अगर आप परिचित हैं, तो उनके यहां आपको करीब–करीब हर पात्र का अपना अतीत मिलेगा। वर्तमान
होगा। उनके यहां भविष्य में जो होनेवाला है, उसके सूत्र और संकेत भी आप देख सकते हैं।
ठीक इसी तरह वरिष्ठ चित्रकार अर्पणा कौर की कला में भी आपको अतीत, वर्तमान और भविष्य के रंग मिलते हैं। उनकी कलाकृतियों
को एक निश्चित परिस्थिति और समय के परिवेश में देखा जा सकता है।
अक्सर हमारे समकालीन कलाकारों के आकार, बिंब और रंग अपने अतीत या भविष्य के बारे में बहुत
कुछ भी नहीं कहते। कुछ कलाकारों के यहां अगर थोड़ा बहुत अतीत या भविष्य के बारे में
कथन है, तो वह इतना अमूर्त होता है कि कोई भी दर्शक शायद ही उसे
अपने वर्तमान के साथ जोड़कर देख सके। लेकिन अर्पणा कौर के यहां हर कलाकृति की अपनी
एक नियति है, जो लोगों को अपनी ओर खींचती है।
यहीं आकर यह सवाल भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम
किसी कलाकार की कला यात्रा से खुद को जोड़कर कैसे देखते हैं? क्या सिर्फ अतीत, वर्तमान और भविष्य के सूत्र मिल रहे
हों, इतना ही काफी है? शायद
नहीं। किसी चित्रकार की कला यात्रा से लोग जुड़ें, इसके लिए और
भी कई बातें महत्वपूर्ण हैं। कलाकार की आकांक्षा और दृष्टि बड़ी हो। उसकी कला में हमारा
समाज अपनी विविधता के साथ मौजूद हो। उसके यहां के रंग और आकार हमें वहां तक लेकर जाते
हों, जहां पर पहुंचकर हमें एक सुखद नएपन का अहसास हो। साथ ही
उसकी कला में समय की जटिलताओं का चित्रण हुआ हो। कलाकार की कल्पना में साहस हो। अर्पणा
कौर इन अपेक्षाओं में एक और बात जोड़ती हैं– ‘उसकी
कला ने इंसान की आजादी, बराबरी और इंसाफ पर बात भी कही हो।‘
और
अगर यह कला यात्रा वरिष्ठ चित्रकार अर्पणा कौर की हो तो? तो आप यहां इंसाफ पर ‘दो टूक’ बात होते देख सकते हैं। यहां कई बार बिगाड़ के डर के बावजूद ईमान की बात मिलती
है।
अब
तक की पांच दशक से ज्यादा की कला यात्रा में अर्पणा कौर की देश और विदेश में लगभग 45 एकल प्रदर्शनी आयोजित हो चुकी हैं। 55 से ज्यादा सामूहिक प्रदर्शनी में उनकी सक्रिय हिस्सेदारी रही है। इसके अलावा
पुस्तकों के लिए आवरण –रेखांकन, म्युरल
और स्कल्पचर की वह अद्भुत दुनिया भी है, जिसने इस कला यात्रा
को समृद्ध किया है। वरिष्ठ चित्रकार अर्पणा कौर की चार दशक की कला यात्रा को रेखांकित
करती हुई एक प्रदर्शनी बंगलूरू के ‘नेशनल गैलरी
ऑफ मॉडर्न आर्ट’ में लगी थी। फिर वही प्रदर्शनी
नोएडा के ‘स्वराज आर्ट गैलरी’ में लगी। यहां यह बात भी गौर करने की है कि प्रदर्शनी और पेंटिंग की संख्या
के भौतिक तथ्य से अलग अर्पणा कौर अपनी आकांक्षा में हमेशा बड़ी रही हैं।
अर्पणा
कौर दिल्ली में रहती हैं। दिल्ली में कोई भी चीज आसान नहीं है। न गरीबी आसान है, न अमीरी। न रास्ता आसान है, न मंजिल। न संघर्ष की गाथा
आसान है और न ही सफलता के बाद की कहानी। जाहिर है, इस चालीस साल
की कला यात्रा में कई तीखे मोड़ भी हैं। और अगर कलाकार ने खुद से सीखने की शुरुआत की
हो, तो शायद मुश्किलें बढ़ जाती हैं। लेकिन कौर ऐसा नहीं मानतीं–
‘मैंने ‘वुमन रीडिंग ए न्यूजपेपर‘ नाम की एक पेंटिंग बनाई थी 1979 में। यह एक औरत के बारे
में थी। इसमें दिखाया था कि कैसे एक खिड़की खुलती है और एक महिला दुनिया को पढ़ने
की कोशिश करती है। इसके लिए मैंने अपनी मां से अखबार पढ़ने के लिए कहा और पेंटिंग
बनाना शुरू किया। जब भी कोई कुर्सी पर बैठा होता, मैं पेंटिंग
बनातीं। मैं लगातार बनाती रही। यह एक तरह का रियाज ही है। इसके बाद आप अपनी खुद की
परंपरा और स्टाइल विकसित करते हैं। आलोचना की भाषा में कहें तो ‘अपना मुहावरा’। अगर हम अपने मन को साध लें, तो ऐसी कई चीजें हैं, जिनसे हम सीख सकते हैं।‘
कला
में यह मन ही है, जो आपको वहां तक ले जाता है,
जहां आप पहले कभी न गए हों। अर्पणा कौर कहती हैं, ”सच्ची कला में आपका मन जानी–पहचानी जगह को भी अप्रत्याशित
ढंग से देखने का सुख बटोरता है। जानी-पहचानी जगह के बीच यह जो ‘अनजाने’ का अहाता है, वह मेरी कला
का प्रांगण है।”
कला
के इसी प्रांगण में बसा है 50 साल की कला यात्रा का सार। अगर
देखा जाए, तो इस यात्रा की शुरुआत उस दिन हो गई थी, जब नौ साल की उम्र में पहली बार अर्पणा कौर ने मशहूर चित्रकार अमृता शेरगिल
पर एक पेंटिंग बनाई थी। बचपन से ही अमृता शेरगिल के चित्रो΄
को पसंद करने वाली अर्पणा खुद अपना नाम अमृता रखना चाहती थीं। ये उन दिनों की बात है, जब वह लाड़–दुलार में कई घरेलू नाम से पुकारी जाती थी΄।
मां चाहती थीं कि बेटी खुद नाम चुने। मां सभी धर्मों का आदर करती थीं और जरूरी नहीं
था कि नाम सिख धर्मों के अनुरूप ही हो। तब उन्होंने अपना नाम अमृता रख लिया था। लेकिन
कुछ दिनों के बाद ही उन्होंने अपना नाम बदल लिया। आज उन दिनों को याद कर उन्हें खुद
पर हंसी आती है– “मुझे बाद में अपराध
बोध होने लगा कि एक महान कलाकार की बराबरी कर रही हूं। मेंने अपना नाम अर्पणा कौर रख
लिया।“
चौतरफा
निगाह डालने पर आज हमारे समाज का जो दृश्य उभरता है, इनके चित्र
उसी के बीच से अपना रास्ता बनाते हैं। यहां कबीर हैं। गुरु नानक हैं। सोहनी महिवाल
की अमर प्रेम कहानी है। हिरोशिमा में परमाणु बम का दंश है। बुद्ध का मौन है। वृंदावन
की विधवाओं का विलाप है। फिल्म ‘श्री 420’ की बारिश में छाते के नीचे खड़े राजकपूर और नरगिस हैं। अरावली, के पहाड़ों की श्रृंखलाएं हैं। महानगर का अकेलापन और पर्यावरण का विनाश भी।
इनकी
कला यात्रा में हर जीव और प्राणी एक-दूसरे से जुड़े हुए लगते हैं। आदमी पेड़ों से, पेड़ बारिश और हवा से, बारिश और हवा वनस्पति से,
वनस्पति आकाश से, आकाश मन से और मन आदमी के शरीर
से। उनकी पेंटिंग देखकर इसी मन में उपजते हैं कई सवाल। चांद सबके लिए है, फिर भी इस घरती पर रहने वाले हर एक आदमी के लिए चांद का मतलब क्यों बदल जाता
है? गरीब और लाचार लोगों के लिए एक अलग चांद….अमीरों के लिए एक अलग? हवा, पानी,
आसमान, सूरज और प्रकृति पर हक सबका है,
अधिकार की बात सब करते हैं, कर्तव्य की बात अक्सर
भूल जाते हैं क्यों? उनकी कला मनुष्य की अस्मिता की, श्रम की, औरत की आजादी की पहचान का एक जरिया बनती है
और एक ऐसे सेल्फ के दरवाजे खोलती है, जिसके भीतर व्यक्ति का मन
ईगो और सुपर ईगो जैसे तहखानों में बंटा नहीं है। वहां मन आत्मा और देह एक संपूर्ण सृष्टि
के मिनिएचरों में स्वयं मनुष्य के भीतर मौजूद है। उन्होंने आदमी होने के इस अहसास को
ऐसे कलात्मक स्पेस में अभिव्यक्त किया है, जो स्मृति भी है,
इतिहास भी। आने वाला कल भी है और आज का पल भी।
नई दिल्ली के ‘एकेडेमी ऑफ
फाइन आर्ट ऐंड लिटरेचर’ के अपने स्टूडियो में बातचीत के दौरान
अर्पणा कौर कह रही थीं, “खुशकिस्मत हूं कि मेरे घर के पास सोलहवीं
शताब्दी में निर्मित सीरीफोर्ट है। जब मैं सुबह की सैर के लिए इस ऐतिहासिक स्थल के
पास से गुजरती हूं, तो यह एहसास मुझे रोमांचित कर देता है।”
इस कलाकार को इतिहास बार–बार आवाज देता है। चाहे
वह ऐतिहासिक प्रेम कहानी को सुनाने के बहाने हो, परमाणु बम के
हमले के बाद तबाह हो चुके जापान की दारूण दशा को दिखाने के बहाने हो या फिर किसी संत
की जिंदगी को पवित्र किताब की तरह पढ़ाने के बहाने… बीता हुआ
कल हमेशा इनके यहां आज में मुखर है और आने वाले कल की तरफ देख रहा है।
इस
कला यात्रा में ‘कैंची’ की बात
भी जरूरी है। इनकी कला में कैंची कई बार कई अंदाज में आया है। इस कैंची का राज उन्हीं
से- “ कैंची का इस्तेमाल में 1988 से कर
रही हूं। जब ‘समय‘ श्रंखला बन रही थी,
तो प्रतीकात्मक रूप से कैँची का प्रयोग करना शुरू किया था। शास्त्रों
में वर्णन है कि जब उम्र पूरी हो जाती है, तो यमराज उम्र के धागे
को कैंची से काट देते हैं। वह स्थिति , वह प्रकिया मुझे अजीबो–गरीब लगती है। तब मैंने महसूस किया कि आम जनजीवन में कैंची की उपयोगिता कितनी
है और इसका प्रयोग किन–किन कार्यों के लिए होता है। कैंची के
इस महत्वपूर्ण गुण के कारण उसे प्रमुखता दी। मैंने कैंची का चित्रण इतना किया कि बाबा
(भवेश चंद्र सान्याल) जब कभी मुझसे मिलते
थे, तो कैंची कहकर ही बुलाते थे। उन्होंने मेरा नाम ही कैंची
रख दिया था। ”
इस
कला यात्रा को करीब से महसूस करने के बाद लगता है कि मानो इनके यहां कैनवास पर एक खास
किस्म का आंदोलन चल रहा हो। जिसे बहुत मुखर नहीं कहा जा सकता। लेकिन दिल को छूने वाले
संदेश के साथ। इसे अर्पणा कौर कुछ इस तरह से व्यक्त करती हैं-“ मैंने हमेशा अपने चित्रों में यह कहने की कोशिश की है कि जिंदगी एक हारी हुई
लड़ाई तो कतई नहीं है। रही बात कला के जरिये आंदोलन की, तो मैं
इसे एक संदेश भर मानती हूं और अपना कर्तव्य भी समझती हूं। कई बार लोग मुझे सनकी भी
समझ लेते हैं। जब कॉमनवेल्थ के बड़े आयोजन के दौरान दिल्ली के कई कलाकार अपनी–अपनी कला के प्रदर्शन की योजना बना रहे थे, तब मेरी सबसे
बड़ी चिंता यह थी कि कुछ परिदों के घोसलों को कैसे बचाया जाए। कुछ पेड़ों को कटने से
कैसे बचा लिया जाए।
मुझे
लगता है कि पेड़ बचेंगे तो ही कैनवास पर दिखेगी हरियाली और तभी मन को भी मिलेगा सुकून।
रचने की प्रेरणा आखिर पेड़–पौधे, फूल–पत्ती भी तो देते हैं। अब जो जीया…वही तो रंगों में
भी खिलता है। अगर इसे कोई आंदोलन माने, तो मेरी जिंदगी में ऐसे
आंदोलन बार बार आए हैं। एक कलाकार भी तो आखिर इंसान ही होता है। शुरू से ही सामाजिक
विषयों को मैंने अपने कैनवास पर ज्यादा महत्व दिया है। चलते–फिरते
सामाजिक स्थितियां, परिस्थितियां जब हमें संवेदित करती हैं,
तो बरबस ही उसका चित्रण होने लगता है। जैसे उदाहरण के तौर पर माया त्यागी
रेप कांड पर बनाई गई मेरी पेंटिग्स को लें। मेरठ में जब यह वीभत्स घटना हुई थी,
तो उस पर मैंने एक सीरीज बनाई थी। एक बार मैं वृंदावन म्यूजियम घूमने
गयी। वहां रहने वाली विधवाओं को जब मैंने देखा, तो मुझे उनके
हालात पर रोना सा आ गया। उनकी त्रासदियों ने मुझे अंदर तक हिला दिया। में वापस आई,
तो मैंने ‘विडोज‘ पर चित्र–श्रंखला बनाई। आप मेरे ‘मेडसरवेंट‘ पेंटिंग को लें या ‘मिसिंग ऑडियेंस‘ को देखें, एक सामाजिक संदेश तो आपको मिलेगा। इसे मैं
‘आंदोलन‘ जैसे भारी–भरकम शब्द की परिधि में नहीं देखती। एक कलाकार होने के नाते यह मेरा सहज और
सामान्य कर्तव्य है कि मैं अपने कला–कर्म के जरिए समाज को कुछ
पॉजिटिव संदेश दे सकूं।” ऐसे संदेश
जब कई बार लोक कला के कुछ बिंबों और रंगों के साथ इनकी कला में खिलते हैं, तो पेंटिंग को देखने का सुख बढ़ जाता है। वार्ली, गोंड
,चंबा, मधुबनी, पट
चित्रकथा जैसी लोक कलाओं के साथ जो प्रयोग इनके यहां दिखता है, वह अन्यत्र दुर्लभ सा है। अपनी मां अजीत कौर, जो पंजाबी
की मशहूर साहित्यकार हैं, के सहयोग से अर्पणा कौर ने लोक और आदिवासी
कला के साथ–साथ इंडियन मिनियेचर पेंटिंग्स का एक बहुमूल्य संग्रहालय
बनाया है। देश के कोने–कोने में पनपी कला परंपराओं का एक ऐसा
संगम, जिस पर चाहे, तो कोई भी कला प्रेमी
गर्व कर सकता है। और आप चाहें तो इसे एक चित्रकार की सनक भी कह सकते हैं।
यह
सनक,
यह जिद या यह जिजिविषा ही है, जो इस कलाकार को
आम आदमी के बीच भी लेकर जाती है। इसलिए एक आम आदमी का संसार इनकी कला में खिलता है।
1980-81 के आसपास रची गई ‘शेल्टर्ड वुमेन’,
‘स्टारलेट रूम’, ‘बाजार’ आदि चित्र श्रृंखलाएं एक आम भारतीय नारी की उस दुनिया में हमें लेकर जाते हैं,
जहां हमलोग बार–बार जाते रहे हैं, लेकिन बहुत कम बार ऐसा होता है कि हम उस दुनिया को जानने की भी कोशिश करते
हैं। वर्ष 1983 की उनकी चित्र श्रृंखला में लोगों ने स्त्री–पुरूष संबंधों की एक नई व्याख्या को महसूस किया। 1984 के दिल्ली में सिख विरोधी दंगे ने अर्पणा को मानो झकझोर कर रख दिया। ‘वर्ल्ड गोज’ और ‘आफ्टर द मैसकर’
चित्र श्रृंखला उसी त्रासद समय की कहानी है । ऐसा नहीं है कि जिंदगी
के उदास और निराश चेहरे ही इनकी कला में दिखते हैं। खुशी भी है। चिड़िया भी है। फूल
भी हैं। प्रेम भी है और परंपरा भी। कह सकते हैं कि पचास वर्ष की यह यात्रा जीवंत आत्मा
को खोजने की यात्रा भी है।
मैंने
पहले भी कहा है, अर्पणा कौर प्रदर्शनी और पेंटिंग की संख्या के भौतिक
तथ्य से अलग अपनी आकांक्षा में हमेशा बड़ी रही हैं। इस कला यात्रा पर लिखते हुए मुझे
इस बात का जिक्र करने में खुशी हो रही है कि वर्षों से नए कलाकारों को बिना किसी शुल्क
के गैलरी उपलब्ध कराने का जो जोखिम वह लेती रही हैं, वह अद्भुत
है।
बहरहाल, उनकी कला यात्रा जारी है। अपने समय के साथ हैं वह। ब्रेख्त की तरह उन्हें मालूम
है कि जो हंसता है, उसे भयानक खबर की जानकारी नहीं है। उनकी इस
कला यात्रा पर उन्हें शुभकामनाएं, साथ में ‘वार
एंड पीस’ की कुछ पंक्तियां–
“आधी
यात्रा पर पीछे छूटे हुए शहर की स्मृतियां मंडराती हैं, केवल आधा फासला पार करने के बाद ही हम उस स्थान के बारे में सोच पाते हैं,
जहां हम जा रहे हैं।”
क्या
कला यात्रा और भूगोल की यात्रा में कोई साम्य है?
परिचय-
देव प्रकाश चौधरी
मूलतः
चित्रकार, पेशे से पत्रकार।
देश–विदेश के
प्रकाशन संस्थानों के लिए एक हजार से ज्यादा बुक कवर डिजायन किए। कई किताबों के लिए
इलेस्ट्रेशन। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की ओर से फैलोशिप और दो रिसर्च प्रोजेक्ट।
एनएफआई फैलोशिप।
कला
पर कई किताबें। बिहार की मंजूषा लोककला पर लंबे शोध के बाद लिखी गई किताब ‘लुभाता इतिहास
पुकारती कला‘ बेहद चर्चित। मशहूर चित्रकार अर्पणा कौर की कला यात्रा पर
लिखी किताब ‘जिसका मन रंगरेज’ की भी लोकप्रियता।एक किताब मशहूर सामजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे पर और अलकायदा
के सरगना ओसामा बिन लादेन पर भी एक किताब– ‘एक था लादेन‘। आकाशवाणी
और दूरदर्शन के लिए लगातार नाटक और डॉक्यूमेंटरी। फीचर फिल्मों के लिए भी लिखा। संथाल
संस्कृति पर आधारित फिल्म ‘कपूरमूली के फूल पनघट पर‘ के लिए संवाद
|
फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘रसप्रिया‘ पर आधारित
फिल्म के लिए भी संवाद लेखन ।
और
नौकरी, कभी प्रिंट मीडिया में तो कभी टीवी मीडिया में।
संपर्क– deop.choudhary@gmail.com
——————————————
Deo
Prakash Choudhary
N-207,Officer City-1, Rajnagar Ext.
Ghaziabad-201010
Mo.9910267170