आउशवित्ज़ :एक प्रेमकथा -उपन्यास अंश -गरिमा श्रीवास्तव (अप्रकाशित उपन्यास )

“वह एक बड़ी भारी गझिन काली रात थी ,दिन में हरियाले मैदानों की कालिमा,  जले हुए मांस के बदबू के साथ जैसे हवा में घुल-मिल गयी थी ।
लगभग पाँच दिन और रात की थकान भरी यात्रा ,जो हमने  स्टेशन वैगन में की थी ,उसके बाद अब ट्रेन रुक गयी थी ,जिसके रुकने का इंतज़ार करते हुए जैसे हमें सदियाँ हो गयी थीं।ट्रेन में बैठने की कोई जगह नहीं थी ,भारी सामान और पशुओं  को ले जाने के लिए इस ट्रेन का इस्तेमाल किया जाता होगा ,भीतर घुटन और बदबू ही बदबू भरी हुई थी ।भारी-भारी कपड़ों ,बूटों की गंध ,बीमार लोगों की उल्टी की गंध ,और सबसे ज़्यादा पेशाब की गंध ,उस ठिठुरती सर्दियों में स्टेशन वैगन में निवृत्त होने की कोई जगह नहीं थी ,कई बूढ़े और बीमार लोग थे ,और लोग बीमार हो रहे थे,हमें कहाँ ले जाया जा रहा है ,कुछ पता नहीं था ।रास्ते में दो बार बंदगोभी का बास मारता सूप हमें पीने के लिए दिया गया था।भूख से अंतड़ियाँ ऐंठ रही थीं ।छोटे बच्चे अब रो भी नहीं पा रहे थे ,रोने के लिए जो ताकत चाहिए थी वह क्षीण बहुत क्षीण हो चुकी थी।
 
 
हम ऐसे यात्री थे जिन्हें यात्रा के बारे में कोई जानकारी नहीं थी ,हम ऐसे राही थे जिन्हें  आगे –पीछे की राह मालूम नहीं थी। सब लोग भयभीत थे ,हमारे साथ क्या होने वाला है  हम में से किसीको को कोई अंदाज़ा नहीं था ,या यों कहें कि हम सबको पूरी तरह अंदाज़ा था ,कि अब शायद हम अपनी धरती ,आकाश देख नहीं पाएंगे।मुझे चिंता थी कि क्या मेरे दोस्तों को पता होगा कि मैं कहाँ हूँ ,क्या मेरी खोज कोई करेगा ,क्या मैं कभी उनको देख पाऊँगा ,क्या पहले सी सांस ले पाऊँगा। 
 
 
खैर ,इस समय तो ऐसा ही लग रहा था कि कोई सूखी रोटी का एक टुकड़ा ,कच्चे मांस का भी एक टुकड़ा मिल जाये तो खा ही लूँ ।पेट की आग सबसे पहले सोचने –समझने की क्षमता को सुन्न करती है ।
ट्रेन पता नहीं कबसे चलती आ रही है ,भीतर डब्बे में अंधेरा है ,हालांकि घने जंगलों से जब ट्रेन बाहर आती है तो भीतर रोशनी की हल्की – सी गोलाई सी फ़ैल जाती है ,कुछ साँसों की घरघराहट सुन पड़ती है बस ,कोई बातचीत नहीं कर रहा । ट्रेन चलते ही कुछ बच्चों ने रोना शुरू कर दिया था ,अब कमजोरी और भूख से वे चुप हैं ,नवंबर के महीने की ठंड में औरतों ने बच्चों को छाती से लगाकर गरम रहने का उपक्रम कर लिया है। एक तरफ़ पुरानी ,टुटही लोहे की बाल्टी है ,लोग उसीमें पेशाब करते जा रहे हैं ,इसलिए वह ट्रेन के धचके के साथ कुछ छलक जाती है ,बदबू बहुत है लेकिन कोई इस बारे में बात नहीं कर रहा .मुझे लोगों से बात करने में हमेशा से परेशानी सी महसूस होती है ,लिख लेना मुझे बेहतर लगता है । लिखे बिना मैं रह नहीं सकता । जैसे कोई कलाकार चित्र बनाता है वैसे ही मैं ब्रश की जगह पेंसिल का इस्तेमाल करता हूँ ।मेरी माँ हमेशा कहती थी क्या लिख लिख कर कूड़ा इकट्ठा करते हो। लिखना जैसे मुझको ,मुझसे परे ले जाता है ,मुक्त करता है। पाकेट में हमेशा छोटी डायरी   और एक पेंसिल रखना मेरी आदत में शुमार है।लेकिन आजतक मैंने अपना लिखा  हुआ किसी को दिखाया नहीं। इस ट्रेन -यात्रा को कलमबंद करना कोई ज़रूरी नहीं फिर भी लिखता जा रहा हूँ ,किसके लिए ,कौन पढ़ेगा इसे ,बच गया तो माँ को दिखाऊँगा  ।वहाँ क्राकोव की हवा में दुश्वारियोंऔर साज़िशों की गंध थी ,हम सब कब मनुष्य के दर्जे से नीचे गिरकर सिर्फ़ यहूदी होकर रह गए थे मालूम नहीं .लोग आपस में बातें करते थे कि हमें जर्मन पकड़ कर मिल –मजदूर  या खेत मजदूर बना देंगे।अब जबतक ये  युद्ध खत्म नहीं होता तबतक हम मजदूर रहेंगे ,या कुछ दिन रखकर हमें छोड़ दिया जाएगा ,कुछ अंदाज़ा नहीं।  ट्रेन कहाँ रुकी है कुछ अंदाज़ा नहीं है जो लोग खिड़कियों से चिपके खड़े थे वे डब्बे के भीतर दुबक गए हैं ,बाहर ढेर सारे कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आ रही है ।
मेरे कोट का एक सिरा पीठ झुकी हुई बुढ़िया ने पकड़ रखा है ,जिसे मैंने कहा है–डरो मत कुछ नहीं होगा ।अपनी आवाज़ के खोखलेपन से मैं खुद ही सिहर उठा हूँ । मेरे कोट पर कपड़े का मढ़ा पीला सितारा है जो मेरे यहूदी होने की पहचान है ।ऐसे सितारे लगभग सभी के ऊपर चस्पाँ हैं। पिछले कई वर्षों से हम यहूदियों को अपनी पहचान के लिए नए पहचान पत्र और ये सितारा दिया गया ,इससे पहले हम पोलैंड के नागरिक थे अब सिर्फ यहूदी हैं ।क्या होता है यहूदी होना यह उस बच्चे से पूछा जाना चाहिए जो स्कूल जाता है और एक दिन उसपर दोस्त थूकने लगते हैं कि तुम ‘ज्यू ‘हो गंदे हो –वह नासमझ बच्चा अभी धर्म और सियासत के समीकरण को नहीं जानता वह तो सिर्फ जानता है स्कूल ,खेल और दोस्त …मैं वही खोया हुआ बच्चा हूँ ,न…न …सिर्फ यहूदी हूँ।जिसे जीने ,खाने ,सांस लेने का अधिकार नहीं। मेरे परिवार के लोग तितर –बितर हो चुके हैं ,मुझे मालूम ही नहीं कि मेरे पिता  को कहाँ ले जाया गया।उनकी हालत क्या होगी ,जिस रात वे पकड़े गए ,वे हमारे लिए राशन का इंतजाम करने गए थे.जब सब नावें डूब जाएँ तो भी कोई एक नाव बच रहती है क्या .एक अजीब- सी दार्शनिकता में डूबता चला जाता हूँ ।जो कुछ भी मेरे साथ हो रहा है ,उसका भोक्ता भी मैं हूँ ,दर्शक भी मैं ।
 
 
…लगता है मेरे व्यक्तित्व के दो हिस्से हो गए हैं –एक वह जो मार खाता है,गालियाँ सुनता है ,ये जर्मन भी बड़े निर्मम हैं ,बेवजह हमको पीट डालते हैं ,यहाँ तक कि महिला अधिकारी भी बहुत क्रूर हैं ,मेरा ‘मैं’धारीदार मोटे कपड़े की कैदी पोशाक पहने लाशों को खींच –खींच कर दफन करता है ,खून सने फर्श पर पोंछा लगाता है ,और दूसरा ‘मैं ‘जो यहाँ से मुक्ति के सपने देखता है ,ओलिविया को गले लगाकर दुनिया को नयी रोशनी में देखता है  ,मई महीने की धूप में नयी ताज़ा सांस लेती हुई कोंपलों को दुलारता है ,अपने छोटे से घर सजाता –संवारता है। कल ही एस .एस .(Schutz Staffelश्चुट्ज़ स्टाफेल) के एक सैनिक ने मुझे ज़ोर का थप्पड़ मारा,गलती क्या थी याद नहीं, इतना याद है कि उस झन्नाटेदार थप्पड़ से पूरा ब्रह्मांड मेरी आँखों के आगे और नाच गयीं  नीली -पीली रोशनियाँ  ।
 
 
 
यहाँ आने के पहले मुझे कहाँ मालूम था कि दूसरे विश्वयुद्ध का परिणाम हमें यूं भुगतना पड़ेगा ।नात्सी जर्मनी ने यह तय कर लिया था कि पूरा यूरोप यहूदियों से शुद्ध कर देना है ।मुझे यह समझ नहीं आता कि हममें गन्दा क्या है,क्या अशुद्ध  है.दादी हमेशा कहती थी बहुत बुरे दिन आने वाले हैं ।इससे बुरे दिन क्या हो सकते हैं।जानवरों की तरह हमें स्टेशन -वैगन में भरकर यहाँ इस अंधेरे ,डरावने स्टेशन पर उतार दिया गया ।अरे! हमसे काम ही कराना था तो ज़रा इज्ज़त से तो बोलते .हम तो इनके सामने ऐसे थे जैसे भेड़ियों के समूह के सामने मासूम भेड़ें .हम सब निहत्थे और उनके पास राइफलें,पिस्तौल ,कोड़े और जर्मन शिकारी कुत्ते .ट्रेन से उतारते ही औरतों ,मर्दों की अलग -अलग लाइनें बनवा दी गईं ,मेरे पीछे वाली बूढ़ी औरत  तो कई बार गिर गयी ,जर्मन शिकारी कुत्ते हम पर लगातार भौंक रहे थे ,लगता था मौका पाएँ तो यहीं चींथ डालें। 
 
तब तो समझ नहीं आया था कि हम सबको ट्रेन से उतार कर पंक्तियों में क्यों खड़ा कर दिया गया था ।गोद के बच्चों की रोने की समवेत आवाज़ ,बूढ़े –बूढ़ियों की कलप भरी आवाज़ और लगातार भौंकते कुत्ते ,सर्द और निस्पृह आकाश ,ट्रेन के इंजन से निकलती धुएँ की अंतिम रहस्यभरी सांस  ,सुबकियाँ –इन सबने मिलकर यह अहसास करा दिया था कि यह वो जगह है जहां पहुँचना अंतिम है ,यहाँ आया जा सकता है ,पहुंचा जा सकता है वापस नहीं जाया जा सकता ।स्टेशन पर लंबे कोट पहने फौजी थे ,हम सबके साथ सामान उतारने में जो लोग मदद कर रहे थे वे सभी गंजे ,भूखे और बेजार दीख रहे थे ,फौजी वर्दी के लोग उन्हें जर्मन भाषा  मेँ आज्ञा दे रहे थे ,धारीदार कपड़े पहने ये लोग हमारे जैसे ही थे हो हाथ पकड़ –पकड़ कर औरतें ,बच्चों ,मर्दों को लाइन मेँ खड़ा कर रहे थे ।एक बुजुर्ग औरत चीख -चीख कर रो रही थी ,राइफल के बट के बल पर  उसे अपने पति से अलग किया जा रहा था ,एक औरत अपने बेटे का हाथ छोड़ने के लिए राज़ी नहीं थी दरअसल उन दोनों को अलग –अलग लाइनों में  जाना था ।जब ट्रेन यात्रा के दौरान ही  लोग बातें कर रहे थे कि हमें मजदूरी के लिए ले जाया जा रहा है ।लेकिन तब भी मेरे मन मेँ सवाल उठा था मजदूरी के लिए छोटे दुधमुंहे बच्चों की क्या ज़रूरत । ट्रेन के डब्बों से बहुत सारी औरतें उतारी जा रही थीं ।अच्छे –भले घर की ,हर उम्र की औरतें ,छोटी बच्चियाँ ,किशोरियाँ सब कतार मेँ खड़ी की जा रही थीं । मेरे साथ खड़े एक कमजोर से आदमी को अलग कतार मे खड़ा रहने को कहा गया ,देखते ही देखते उस कतार मेँ बहुत सारे और लोगों को खड़ा कर दिया गया ।कतारें चलने लगीं ,कहाँ जा रहे हैं हम लोग कुछ अंदाज़ा नहीं ,मैदान के भीतर कारखाने जैसे कमरे लाइन से बने हुए थे।ओह ,तो हमें इन कारखानों मेँ काम करना होगा ,दूर चिमनियों से काला धुआँ निकल रहा था जो पूरे वातावरण को जले हुए मांस की गंध से भर रहा था ,भूखे ,ठंड से कांपते हुए लोग दाहिनी और बाईं कतारों मेँ चलते चले जा रहे थे …” 
 
डायरी का इतना हिस्सा सुन  कर ही मेरी रूह कांप उठी है .शाम को सबीना ने टहलने चलने को कहा है .टहलना वैसे भी मुझे पसंद है .भारत में मुझे हमेशा दीघा के तट पर टहलना अच्छा लगता है ,शान्तिनिकेतन का खोवाई मुझे टहलने के लिए सबसे माकूल जगह लगती है .ऊँचे लम्बे खड़े बहुत से पेड़ जो आपस में ही बतियाते रहते .आप वहां जाएँ तो लगता है बस खुद भी पेड़ हो जाएँ ,चुप ,शांत, सतर.हम लौट रहे हैं ,ढलान के रास्ते जहां घास का मखमली लिबास पहने धरती का सौंदर्य करवट ले रहा है ,आसमान का रंग मुझे तांबई –सा दीख रहा है ,पार्क में कुछ बच्चे  खेल रहे हैं ।हम दोनों चुप हैं और भीतर कई  संवाद चल रहे हैं किसी एक बात पर जी ठहरता नहीं .सबीना को जीने का बहाना मिल गया ,हम सब किसी न किसी बहाने से ही तो जीते हैं ,जी जाते हैं ।किसी के प्रेम की आकांक्षा न हो ,किसी से मिलने की आस न हो तो आदमी जिये क्यों ।तमाम विपरीत परिस्थितियों में कोई जी लेता है तो उसके पीछे सबसे बड़ा तत्व प्रेम का है ।प्रेम क्या है सिर्फ एक दूसरे के साथ हँसना और रोना ,नहीं तो …तो फिर … क्या एक व्यक्ति या किसी भाव के प्रति मधुर होना ,उसके प्रति सद -व्यवहार क्या यही प्रेम है ,सबीना का कहना है प्रेम और घृणा का उत्स एक ही है –घृणा प्रेम की विकृत अवस्था है ।प्रेम  वह ऊर्जा देता है जिससे जीवन के दुखों का सामना  हम कर पाते हैं ।प्रेम व्यक्ति को मुक्त करता है –कि वह अपनी अनंत संभावनाओं की तलाश कर सके ।प्रेम व्यक्ति से कुछ भी करवा सकता है । सबीना की थियरी से पूरी तरह सहमत या असहमत होने का मन  नहीं है ,दरअसल ,प्रेम बौद्धिक विश्लेषण से दूर रहकर ही बचा रह सकता है .
 
 
प्रेम की तलाश अनंत होती है ,यही तो समझा है अपना पूरा जीवन जीने के बाद .मैंने झेले हैं विश्वासघात और फ़रेब और इतने सालों में यदि किसी को परखा है तो अपने धैर्य को ,ठोकरें खा -खा कर अपने जीवन में गलत और सही का भेद करना सीखा है .देखा है रोशनी के हर चमकते दायरे के पीछे छिपे गहन अन्धकार को .जीवन में जहाँ विश्वास किया ,जहाँ भी उंगली पकड़कर अँधेरे गलियारे पार करने की कोशिश की वहां से चलकर रोशनी के मुहाने पर आते ही पता चला कि मैं उससे भी गहरे भीषण अँधेरे दायरों की गिरफ्त में खड़ी हूँ अकेली और चुप्प ! 
 
 
 
अपने बारे में लिखते हुए डर लगता है कि मेरा लिखा हुआ कहीं कोई शोकगीत न बन जाए . अतीत, जिससे जुड़ी है-अनदेखी  मां,अम्मा  और अभिरूप – वह तो पीछा छोड़ता नहीं मेरा , किताबों के साथ स्मृतियों का काफिला यूँ ही चलता रहता है अनवरत. बर्बर और हन्ता समय के गलियारों से गुज़रते हुए एक लम्बा सफ़र तय हो चला है .
 
 

Name :  Dr. Garima Srivastava
Designation:  Professor
Name of School /Centre   : Centre of Indian languages, School of Language, Literature and Culture Studies,JAWAHARLAL NEHRU UNIVERSITY,New Delhi
Qualifications: M.A. Hindi literature (Hindu college, D.U.) M.Phil & Ph.D. (University of Delhi)
Areas of Interest/specialization    : Gynocriticism, Colonial and Post-Colonial Indian Literature and Women Autobiographical writing.
E-mail        :  garima@mail.jnu.ac.in, drsgarima@gmail.com