‘अनुमति पत्र’ उपन्यास का एक अंश – वैभव सिंह

 

                                   (तस्वीर- भरत तिवारी) 



सामने वाली मेज के दूसरी तरफ बैठा अफसर एक ठंडे दिल-दिमाग का इंसान था जो जिंदगी से शायद उकता गया था। यहां तक कि वह यह भूल गया था कि वह जिंदगी से उकताया हुआ है। उसका शरीर किसी मशीन की तरह अकड़ा हुआ था। इसे संभवतः वह अपनी फिटनेस का प्रमाण बताता होगा। वैसा ही संवेदनहीन-सा चेहरा। ऐसा चेहरा जो अब चेहरा होने के स्थान पर किसी दफ्तर के नियम-कानून, फाइल, कंप्यूटर आदि का रूप धारण कर चुका है। सामने रखे फाइलों के छोटे बंडल को उठाकर अगर उसके चेहरे की जगह लगा देते तो खास फर्क न पड़ता। या फाइल के ढेर में उसका चेहरा रख देते तो भी अंतर न आता। उसे बार-बार रुमाल से अपना माथा पोछने की आदत थी, हालांकि इतना पसीना उसे आ नहीं रहा था। अपनी उंगलियों से वह मेज से खास तरह की ध्वनि निकाल रहा था। खट-खट की। अविनाश को लगा कि वह अफसर जबरन उसे घूरने का प्रयास कर रहा है, जैसे उसकी मानसिक दशा को पढ़ने की चेष्टा कर रहा हो। उसकी आंख, होंठ और चेहरे से कुछ ऐसी चीज उगलवाने की कोशिश कर रहा हो, जिसके बारे में बताया नहीं गया था। उसके घूरने के तरीके में भी सामने वाले को मुश्किल में डाल देने की जिद थी। वह पांच-छह सेकंड तक लगातार अविनाश की आंखों में अपनी आंखें घुसा देता और फिर मेज पर रखे गिलास को देखता या घड़ी में टाइम देखने लगता। उसका काम ही था कि अगर कोई कैडेट किसी समस्या में हो, तो उससे बात करे। अफसर को लगा कि अविनाश ट्रेनिंग संबंधी कठिनाइयों से घबरा गया है और अविनाश को इस बात को गलत सिद्ध करने में काफी मेहनत करनी पड़ी। बहुत सारी इधर-उधर की बातें करने के बाद अफसर ने यहां तक कहा कि फौज की इस नौकरी में ऐसी सुविधाएं मिलेंगी जिसके बारे में तुमने सोचा तक न होगा। और फिर धीरे से एक अजीब ढंग से होठों पर मुस्कान लाते हुए बोला- ‘सो यंग मैन.. लाइफ इज फुल आफ ज्वाय हियर। शुरू में थोड़ी चुनौतियां हैं, फिर तो ड्यूटी के साथ मजे हैं। शराब, पार्टियां खूब हैं। और फिर ब्यूटीफुल वूमेन..। खूब आराम से समय कटेगा।’ यह कहकर वह सीट की पीठ पर टिककर बैठ गया।  
उसकी बातों में अंतिम शब्दों को सुनकर अविनाश के मन में अजीब सी जुगुप्सा पैदा हुई। ‘और फिर ब्यूटीफुल विमेन’ में छिपे अर्थ वह भांप गया था। पिछले ही दिनों उसने सुना था कि नेवी में पत्नियों की अदला-बदली जोरों पर हैं। वाइफ-स्वैपिंग। पर वह इस बात को सुनकर चौंका नहीं बल्कि उस अफसर की बेवकूफी पर हंसी आई। किसी को नौकरी में बनाए रखने के लिए सेक्स का लालच देने का उसका तरीका उसे बहुत मजेदार लगा। कुछ देर पहले तक उसे हर चीज ऊबाऊ और ठहरी हुई लग रही थी, लेकिन कुछ देर के लिए इस बात ने उसे थोड़ा हल्का महसूस करा दिया। उसने मन ही मन सोचा कि वह आगे चलकर कभी सेक्स और सेना के संबंधों पर कोई लंबा लेख लिखेगा जिसमें मर्दों के मन में इस विषय को लेकर मौजूद अतिरिक्त उत्साह पर अलग से कुछ लिखेगा। फिर उसने उसी तरह धीरे से कहा- ‘आई हैव टू गो। प्लीज जल्दी कीजिए।’
उसने फिर पूछा- ‘बट वाई? आई वांट टु नो द रीजन।’
‘आई एम फेड अप। आई कांट सी एनी सेंस इन दिस वर्क।’
‘लेकिन क्यों?’
‘मैं गलत जगह फंसा हुआ महसूस कर रहा हूं।’
फिर वही- ‘लेकिन क्यों’
इस बार अविनाश बुरी तरह से झल्ला गया। बार-बार के ‘क्यों’ से।
‘माफी चाहता हूं। पर मुझे लगता है मेरे पास अब आपके क्यों और वाई के जवाब नहीं हैं।’
लेकिन फिर उस अफसर के मुंह से निकला- ‘लेकिन क्यों?’
अविनाश को हंसी आई अब, साथ ही अपनी ही झल्लाहट की व्यर्थता का अहसास हुआ। 
अफसर को अपनी गलती शायद पता चल गई और जल्दी से बोला
‘ओके.दैट्स ए सीरियस मैटर देन।’
‘मेरे लिए यहां रुकना मुश्किल है अब।’
अफसर को भी लगा कि उसका काउंसलिंग का काम पूरा हो गया है तो उसने अविनाश को जाने दिया। वह ठीक तरह से अपनी नौकरी करते-करते भी ऊब गया था शायद। अब उसका यह उद्देश्य बिलकुल न था कि अविनाश को वहां रुक जाने के लिए प्रेरित करे। वह एक बुरा काउंसलर था जिसे यह पता न था कि केवल हर बात में- क्यों, वाई, बट हाऊ – जैसे अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग के सहारे किसी के मन की बातों को बाहर नहीं निकलवाया जा सकता, न उसके आहत मन को कोई राहत पहुंचाई जा सकती है।
इसके बाद कुछ दिन और। अविनाश को पहरे में रखा जाने लगा। उसकी ट्रेनिंग में शिथिलता बरती जाने लगी पर उसकी हाजिरी पर अधिक ध्यान रखा जाता। फौज में भगोड़े भी होते हैं और उससे फौज की बदनामी होती है।
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उसे अपना एक पुराना कोट बहुत पसंद था। उस गाढ़े भूरे रंग के कोट में वह स्वयं को बहुत शांत-संतुष्ट अनुभव करता था। वह चाहता था कि उसका यह कोट हमेशा उसके शरीर पर मौजूद रहे, जैसे कर्ण का कवचकुंडल था जो उसके शरीर का ही अग जैसा था। कई दिन बाद उसे ही पहनकर निकला तो मां ने कहा- 
‘अब वहां क्या रखा है जो वहां जा रहा। थोड़ी सी जमीन बची है वह भी खाली पड़ी है। उसकी नापजोख करानी होगी। तुम्हारे पिता के गुजरने के बाद हमारा आना-जाना तो वहां रहा नहीं पर तेरा मन करता है तो टहल आ। लोगों से अपने बारे में ज्यादा मत बताना। दूसरों के बारे में पूछताछ कर उन्हीं की जड़ें खोदते हैं।’ उसे यह समझ न आया कि गांव को लेकर मां में और अन्य लोगों के मन में किसी इंट्रोगेशन सेंटर या खुफिया विभाग की छवि क्यों है। क्या भारत के गांवों में बसे लोग इन शहरातियों की निगाह में हमेशा ही संदिग्ध बनाए जाते रहेंगे! पर इन बातों की हकीकत से अलग अविनाश के जीवन में तनाव और आशा, दुःख और संघर्ष, दुविधा और आकुलता, विक्षोभ और शांति जैसे आपस में बुरी तरह उलझे हुए थे। वह रात में सपने देखता तो लगता था कि दुनिया किसी सपने के सिवाय कुछ नहीं है। दिन में उन सपनों को भूल जाता था तो भी लगता था कि कोई सपना है जो उसका पीछा कर रहा है। जीवित रहने के लिए कोई सपना जरूरी था। 
फिर स्मृतियों की लहरें, आगे जाकर स्वयं को मुड़कर देखना, जैसे गगनोन्मुखी अग्नि हो जो जितना ऊंचा उठती थी, उतना उसमें पीछे छूटे काष्ठ से प्रेम उमड़ता हो। जैसे कोई सुर्ख लाल फूल जो वापस मिट्टी को पुकारता है। उस दिन की स्मृति जब करीब चौबीस घंटे बाद ट्रेन दिल्ली पहुंची। स्मृतियां क्रम के नियम की बंधक नहीं होती हैं, वे हर क्रम और बंधन को तोड़ती है। जब लौटा तो उसे अहसास हुआ था कि वह तो ज्यादातर समय सोता ही रहा। साथ के अधिकांश फौजी कहीं रास्ते में उतर चुके थे। दिल्ली से दूसरी ट्रेन लेकर उसे अपने शहर तक जाना था। अब तक वह किसी विचारहीन और भावहीन मनःस्थिति के साथ सफर को पूरा कर रहा था। पर अब उसे जैसे खुद को चौकन्ना बना लेना था। सफर पूरा कर जब वह अपने शहर पहुंचा तो थक चुका था। लग रहा था जैसे एक जीवन को पीछे छोड़कर आया है, पुराने जीवन में फिर लौटने के लिए। पर वह लौटा नहीं था, वह तो बस जिद के दायरों में घूम रहा था। वह वहीं पहुंच जाता था, जहां से चला था। चार माह के बाद भी शहर अपनी जगह हमेशा की तरह किसी भारी जानवर की तरह सुस्त पड़ा, पसरा हुआ था। आसमान में पक्षी वैसे ही निर्द्वंद्व भाव से उड़ रहे थे जैसा वह उन्हें छोड़ गया था। उसे हमेशा से चीलों को बेवजह उड़ता देखना पसंद था, उन्हें देख उसे शांति मिलती थी। उन्हें देखकर उसे लगता था कि आकाश ही केवल निर्दोष है, इतना निर्दोष की कोई भी वहां आसानी से एक लय में उड़ सकता है। रिक्शा जब घर के आगे रुका तो उसे घर में घुसने में अजीब सा डर लगा। घर में बाहर तक छाया सन्नाटा उसके भीतर नश्तर की तरह चुभा। डर इस बात कि मां का सामना कैसे करेगा और नौकरी छोड़कर लौटे बेटे को मां किस निगाह से देखेगी। वह उन आंखों में निराशा को देखने का साहस जुटा रहा था। उसे सुजाता का वाक्य याद आ रहा था कि तुम्हारे जाने से मेरी हिम्मत भी टूट रही है। तो क्या वह अब केवल दूसरों की हिम्मत तोड़ने के लिए रह गया है! उसका जीवन आसपास के लोगों की आशाओं को चकनाचूर करता है! वह ऐसा क्यों सोच रहा था, उसे भी नहीं पता था। फोन पर मां से सारी बात हो चुकी थी पर उसे यह पता नहीं था कि वह कितने बजे आएगा। 
घर, मोहल्ला, सड़कें और रोजाना खुद को दोहराता एक परिवेश। एक परिवेश जिसमें केवल मनुष्य नहीं बल्कि उसके बहुत सारे स्वप्न बंधक बने हुए थे। घर पर बंद ताले ने उसका स्वागत किया। ताले को भी पता था कि जेब में चाबी नहीं है, इसलिए उसने भी करवट पलटकर तक न देखा। मां शायद स्कूल की नौकरी पर गई थी और बहन वीणा अपने कोचिंग सेंटर। लान में लगे फूल पहले की तरह नहीं खिल रहे थे। फर्श पर मिट्टी फैली थी। शायद माली ने आना बंद कर दिया था। पड़ोस में रिश्तेदार थे, पर पिता के गुजरने के बाद उनसे कुछ अनबन थी। इसलिए अविनाश वहां नहीं जा सकता था।.. कुछ देर घर के गेट पर खड़ा रहने के बाद वह उस घर की तरफ बढ़ा जहां मन्नो मौसी थीं, उनका छोटा सा परिवार। वह क्यों वहां जा रहा था, उसे खुद नहीं पता था। पर शायद इसलिए जा रहा था क्योंकि मोहल्ले में केवल उसी घर से अब उसके घर का आत्मीय रिश्ता बचा था। शहर का माहौल बदल चुका था और लोग शहरवासियों की तरह आधुनिक जीवन जीने की ललक में एक-दूसरे से कम बात करते थे। सड़क पर दोस्ताना आवारागर्दियों, अड्डेबाजी और घूमने-फिरने की जगह कार से घर से निकलकर फिर उसी में घर लौट आते थे। लोग पहले की अपेक्षा दूसरों की विफलता और अपनी सफलता के बारे में ज्यादा जानते थे। वह बच्चों को संस्कार देने का मतलब यह समझते थे कि उन्हें अंग्रेजी सिखा दो, बाजार में खरीदारी करना सिखा दो या उनके हाथों में मोबाइल थमा दो। 
वह जब मां की सहेली के घर पहुंचा तो वहां सारे ही लोग घर में मौजूद थे। मन्नो मौसी के पति का बिजनेस था और घर में कम ही रहते थे। महीने में एक हफ्ते ही रह पाते थे घर पर। पीछे मन्नो मौसी पूरा घर संभालती थीं। पति के असहयोग या उनकी कम मौजूदगी ने उन्हें जीवन की हर जिम्मेदारी को उठाना सिखा दिया था। वे मजाक में कहती थीं कि मुझे असहयोग आंदोलन की आदत पड़ गई है। उनकी दो बेटिया अंजली और प्रियंका में अंजली ने बीए पास कर लिया था और प्रियंका दसवीं क्लास में थी। यह परिवार कई वर्ष पहले बाहर से आकर बसा था, और अविनाश के घर से कोई खून का या खानदानी रिश्ता न होने के कारण ही शायद उसकी मां और मन्नो मौसी में अभी तक आत्मीय संबंध बचे हुए थे। मन्नो मौसी अक्सर यह भी कहती भी थीं- ‘अब तो परिवार के लोग हमारे दुश्मन हैं, बाहर के लोग मदद करने फिर भी आ जाते हैं’। इस बात को सुनकर अविनाश अक्सर सोचता था कि भारत में लोगों ने परिवार को जानबूझकर तोड़ दिया है ताकि खुलकर निजी स्वार्थों को पूरा कर सकें। छोटे होते जाते परिवार पड़ोस की दुनिया को भी नकारने लगे थे। वह अभी अपनी सोच में पड़ा हुआ था कि तभी सामने उसे एकाएक अंजली खड़ी दिखाई दी। एक खूबसूरत छरहरी लड़की जिसके व्यक्तित्व में कुछ खास न था, पर एक कशिश थी। जो हंसना जानती थी और गंभीर रहना भी। उसके नेत्रों में हर चीज को टोहती जिज्ञासा दिखती थी। बीए पास करने के बाद खाली बैठी थी घर में। हर बात में यह जरूर जोड़ती थी- ‘तो क्या हुआ’। इस ‘तो क्या हुआ’ में अविनाश को महसूस होता था जैसे जीवन की हर अच्छी-बुरी बात से वह अपनी तटस्थता जताने की कोशिश कर रही है। कुछ साल पहले अविनाश ने उसकी नोटबुक पर राधा-कृष्ण की तस्वीर देखी तो किसी अवांछित धृष्टता से कहा था- ‘तुम कृष्ण के रसियापन को छोड़ो, पढ़ाई करो।’ तब अंजली ने कहा- ‘काश की मैंने राधा और मीरा की कहानियां न सुनी होती। अब मैं तो ऐसे पुरुष की तलाश कर रही हूं। केवल कला में नहीं, जीवन में भी। केवल स्त्री होने का कारण नहीं, मनुष्य होने के नाते भी एक भरे-पूरे साबुत इंसान को देखने की चाह है। अब विधाता ने किसी साबुत और संपूर्ण चीज को गढ़ना बंद कर दिया है, वह केवल किस्सों-कल्पनाओं में बचा है।’ वह अविनाश के प्रेम में न थी और न अविनाश उसके प्रेम में। पर प्रेम के नकार के बावजूद तरल संबंधों की ऊष्मा उन्हें जोड़ती थी। ऐसा संबंध जिसमें चाहत के अलावा सबकुछ था- पसंद, शरारत, आत्मीयता..सबकुछ। अंजली के मुंह से सबसे पहले यही निकला- ‘अरे तुम?’
जैसे पूछ रही हो कि तुम तो हैदराबाद में नौकरी कर रहे थे और यहां कैसे। 
‘मैं घर आया हूं। मां स्कूल गई है और वीणा शायद कोचिंग सेंटर।’ 
‘क्या तबीयत खराब हो गई है जो छुट्टी मिल गई है?’ 
इतने क्यों, कैसे, कब का जवाब देने का बिलकुल मन न था। वह स्वयं जिन प्रश्नों से भाग रहा था, उनका उत्तर देने का कोशिश कर वह अपने साथ और हिंसा नहीं करना चाहता था। न यह प्रयास करते हुए सामने वाले के प्रति कोई विद्वेष जगाना चाहता था। उस लगता था कि उसके अंतर्जगत में क्या चल रहा है, इसका परिचय प्राप्त करने का उसे भी अधिकार नहीं, जिसे वह अपना आत्मीय समझता है या जो उसका शुभचिंतक है। उसका यह स्वभाव उसके ही प्रतिकूल था। थोड़ा अमानवीय हो जाता था। उसमें तरह-तरह की बेचैनी, खुन्नस और तनाव पैदा करता था। पर वह उसके साथ जीने की आदत डाल चुका था। 
उसे मौन देखकर अंजलि ने चुहल की- ‘लगता है कि जनाब बेहद सतर्क हैं कि किसी को कुछ कहना या बोलना नहीं है। अपने दिमाग के लाकर में किसी को झांकने नहीं देना है। तुम्हारे जैसे लोगों पर तो टिकट लगाना चाहिए, सरकार को कुछ आय हो जाएगी। देश की डूबती अर्थव्यवस्था को सहारा मिल जाएगा। पर कोई बात नहीं। यह एटिट्यूड भी ठीक है। कुछ और कर लेना आगे।’
अंजली के इन वाक्यों ने- ‘ठीक है, कुछ और कर लेना..’ ने जैसे अविनाश के पूरे शरीर में झुरझुरी पैदा कर दी। खुद पर टिकट लगाकर पेश किए जाने के मजाक पर अधिक आनंद नहीं आया। देश और परिवार के प्रति उत्तरदायित्वहीनता के भाव से वह चाहकर भी नहीं बच पा रहा था। हल्की ग्लानि का अनुभव कर रहा था। पर इन चंद शब्दों ने जैसे उसके डूबते आत्मविश्वास को मजबूत सहारा दिया। अंजली का यह व्यवहार उसे बचपन से पसंद था। बगैर कुछ कहे, सब समझ लेना। कितने ही लोग हैं जिनके सामने बहुत कुछ कहो तो भी अन्य को गलत समझते हैं। और कितने कम लोग हैं जिनसे बहुत कम कहो, या कुछ भी न कहो तो भी आपको सही ढंग से समझ सकते हैं। ऐसा व्यवहार करते हैं जो सामने वाले को हताशा से उबार दे। उसके भीतर की कचोट को आसानी से कम कर सके। फिर एकदम से अविनाश आगे बढ़ा और उसने अंजली से हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा दिया और कहा- ‘थैंक्यू अंजली।’ उसकी सांत्वना देती आवाज में छिपी हजारों फूलों की कोमलता का स्पर्श पाकर उसका मन पिघल गया। 
अंजली के मुंह पर आश्चर्य का भाव आया फिर बोली- 
‘मुझे पता है कि तुम इस समय बहुत परेशान होगे। पर जीवन में अपनी आत्मा को मारकर कोई काम नहीं करना चाहिए। घर लौट आए हो, अब सोचना कि आगे क्या करना है। जीवन हर क्षण नया होता है। उसे अतीत की जकड़ में नहीं रखना। वैसे भी, तुम्हारे जैसा लड़का बहुत कुछ कर सकता है।’ 
अविनाश एक बार फिर हैरत में पड़ गया। जैसे किसी गर्म हवाओं के थपेड़े के बीच रसवंती हवा बही हो। इस बार जिस वाक्य ने उसे गहरी राहत दी, वह था- ‘तुम्हारे जैसा लड़का बहुत कुछ कर सकता है।’ उसे हैरानी होती थी कि अभी बीए पास करके निकली यह लड़की कितनी सहजता से कुछ बातें कहती है और वे वाक्य उसके मन के सारे तारों को छू जाते हैं। कहां से लाई ऐसी गहराई!  अविनाश बोला- ‘तुम कैसी हो..अब क्या करना है भविष्य में?’ 
भविष्य के प्रश्न को लेकर अविनाश चिंतित था। वह भविष्य के बारे में जब सोचता था तो उसे लगता था जैसे वह कोई ऐसे कांटेदार जाल है जो उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। वह जितना वर्तमान को जीता, उतनी ही देर खुश रह पाता था। मन ही मन सोचता कि भविष्य के बारे में हर समय सोचने का दबाव किसने पैदा किया! हर क्षण भविष्य का भय! आखिर कौन है जो हमें भविष्य की चिंताओं का गुलाम बनाकर हमारे वर्तमान को नियंत्रित करना चाहता है! उसने भविष्य के बारे में बात करने का जिम्मा अंजली पर डाल दिया। 
‘शायद अगले महीने बंबई चली जाऊंगी। वहां मां की बड़ी बहन हैं, उन्होंने बुलाया है। वहां जाकर किसी कालेज में पढ़ाई और फिर आगे शायद रिसर्च।’
‘बहुत अच्छा..बंबई में रहोगी तो और अक्लमंद हो जाओगी।’
‘मैं अक्लमंद होने नहीं पढ़ाई करने जा रही हूं। बंबई या दिल्ली किसी को अक्लमंद नहीं, बस थोड़ा आत्मविश्वासी और व्यवहारिक बना देते हैं। अक्ल शहरों में नहीं दिमाग में बसती है। बड़े शहर में जाना नहीं चाहती। वे हमारे जीवन के ऊपर बहुत सारा बोझ व्यर्थ लाद देते हैं। पर हमने सारे अच्छे संस्थान बर्बाद कर अपने इन मझोले कहे जाने वाले शहरों को भी बर्बाद जो कर दिया है। अब हमारे सपने केवल विस्थापन को बढ़ा सकते हैं, पर हम सब  विवश हैं..अपने-अपने ढंग से।’ 
अविनाश को लगा कि समय बीत रहा है, अब चलना चाहिए। उसने मजाक में कहा- ‘ठीक है..ठीक है। मैं फिर आऊंगा..। मैं आज बातों का खजाना नहीं लुटाना चाहता।’
‘मां से मिल लो..तुम्हें पूछती रहती हैं।’ अविनाश ने मन ही मन सोचा कि कैसी बुद्धू लड़की है जो यह नहीं जानती कि मेरी रुचि किससे मिलने में थी जो पूरी हो चुकी! 
पर वह बोलती रही- ‘अक्सर कहती हैं कि अविनाश जैसे लोग ही देश और समाज का भविष्य होते हैं।’ यह सुनकर अविनाश का मन प्रतिक्रिया के लिए तन गया। 
‘तुम मजाक कर रही हो अब। मेरे पास सिवाय अपने भविष्य, समाज, देश आदि के बारे में तिरस्कार के सिवाय कुछ नहीं है। मुझे बहुत लापरवाही से चंद जुमलों या शब्दों का प्रयोग करना और उसके सहारे जीवन को समझना अच्छा नहीं लगता। मैं मस्तिष्क को जिंदा रखता हूं और इसके कारण बहुत सारी धारणाएं अकारण तोड़ डालता हूं, जिसके बारे में मुझे भी कम अफसोस नहीं होता। पर अब जो लोग सब तोड़ना चाहते हैं, सब बदलना चाहते हैं, मैं सबसे पहले उनपर संदेह करता हूं।’ 
अविनाश को गंभीर होते देख अंजलि ने हाथ जोड़ने का अभिनय किया, जैसे कहना चाह रही हो कि – हे परमप्रतापी योद्धा! तुम्हारे सामने इस परास्त सिपाही ने आत्मसमर्पण कर दिया है, अब पीछा छोड़ो।
‘मैं बेवकूफ नहीं हूं जो तुम्हें अब रोकूंगी। फिर आना।’ 
अविनाश फिर से हक्का-बक्का रह गया। अभी उसने सोचा था कि कैसी बुद्धू लड़की है और अभी उसने कहा कि मैं बेवकूफ नहीं हूं। ये लड़की है या जादूगरनी जो मेरे मन की बातों को जान लेती है। यह टेलीपैथी का कोई रूप है या लड़कियों वाली छठी इंद्रिय का जिसके बारे में उसने सुन रखा था। पर ये तो लगता है कि हर सामने वाले के दिमाग को शीशे का गिलास समझती है और अंदर के द्रव को आसानी से देख लेती है। 
अंजली से मिलकर वह घर लौटा तो वीणा आ चुकी थी। घर में चाय बना रही थी। भाई को देखकर वह भी चकित हुई। पर ऐसा लगा जैसे वह निश्चिंत है, अविनाश की जिंदगी से दूर और एकदम बेफिक्र। इस बात में खास दिलचस्पी नहीं रखती कि अचानक से वह क्यों इस समय घर में मौजूद है। उसने अविनाश से बस यही कहा- ‘बैग रखकर चाय पी लो।’ 
इसके बाद अविनाश घर में सामान रख घर के सोफे पर धंस गया। सामने की दीवारों को घूरने लगा। दीवारों से प्लास्तर झड़ रहा था और जगह-जगह सीलन फैल रही थी। घर का बहुत सारा सामान बदलने लायक हो गया था। फ्रिज का पेंट उखड़ रहा था और छत पर टंगा पंखा बहुत पुराना पड़ जाने के कारण पीला पड़ चुका था। सबसे बुरा यह था कि वह फिर से बेरोजगार था जो उसके लिए एक रोचक स्थिति भी थी। अपनी मर्जी से वह अपना नुकसान करने की आदत से घिरा हुआ था। उसने पास पड़ी तौलिया से मुंह को कसकर लपेटा। अंजली के वही शब्द फिर कान में गूंज रहे थे- ‘तुम्हारे जैसा लड़का बहुत कुछ कर सकता है।’
आधी नींद में ही उसे वीणा की आवाज सुनाई दी- ‘भैया चाय रखी है, मैं दूसरे कमरे में हूं। बुला लेना..मां आती हो होगी’  फिर उसी आंधी नींद में चाय पीने के बाद वह सो गया। सपने में उसे छत दिखाई दी जो तेज ढलान वाली थी। वहां एक पतंग थी जिसपर फूल से उगे थे और छत पर भीड़ बढ़ रही थी। वह कहीं भाग जाना चाहता था। पर भागते-भागते उसे लगा कि वह पतंग की तरह उड़ रहा है और बिजली के तार सामने हैं। उसे बच निकलना है, कैसे भी। फिर अचानक कोई बांसुरी सामने तैरती हुई आई जिससे अंजली के गाने की आवाज आ रही थी। नींद टूटी तो उसे पता चला कि केवल एक घंटा सोया है और मां रसोई में सब्जी काट रही है। कैसे भी लड़खड़ाता-सा वह मां के पास आया तो मां ने कहा- ‘तुम्हारी हालत देख लगा कि तुम्हें सो लेने देना चाहिए। मैं मन्नो मौसी के यहां गई थी। सब खबर मिल गई।’
‘हां..लौट आया हूं।’
‘फिर से बात क्यों नहीं कर लेते उन लोगों से? … कह देना कि घबरा गया था। फिर से रख लेंगे तुम्हें।’
‘मां…मेरी उम्र अभी ज्यादा नहीं है। मैं एक साल के भीतर कुछ देख लूंगा काम। मेरे दोस्त सब बहुत मेहनती हैं, उनसे भी सलाह ले लूंगा। तुम क्यों परेशान होती हो?’
‘बस, दिन बीत रहे हैं पर परेशानियां नहीं बीत रही हैं। स्कूल भी लगता है बंद होने वाला है। आजकल कोई दफ्तर, कोई स्कूल, कोई संस्थान कब बंदकर लोगों को हटा दिया जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता। हम सब ऐसी छतरी के नीचे हैं जो कभी भी उड़ सकती है।’
मां को लगने लगा था कि अविनाश बड़ा हो गया है और उसे घर के हालात के बारे में बताते रहना चाहिए। वह स्वयं जब अपनी अल्हड़ आयु में किताब-कापियों पर फूल-तितलियां बनाती थी, तब उसके पिता ने उसे जीवन के बारे में गंभीर बातें सिखाई थीं। एक बार जब वह अपनी स्कूल की नोटबुक में दत्तचित्त होकर भाग्य, प्रेम और सौंदर्य की देवी की रेखाकृति में रंग भर रही थी तो उसके पिता ने आकर कहा था- ‘घर में झाड़ू लगाने का काम तुम संभाल लो अब। घर को संभालना आ जाए तो जीवन संभालना भी आ जाता है।’ उस दिन सौंदर्य और प्रेम को बोध खंडित हो गया, फिर वह उपेक्षित भी हो गया। खंडित चीजें आसपास की दुनिया को खंडित बनाती रहीं पर वह समझती रहीं कि जीवन की गंभीर शिक्षाओं ने उसे गंभीरता सिखा दी है। लेकिन अविनाश को लगता था कि उसे दो-एक साल और चाहिए अपने को संभालने के लिए। तब तक मां घर की चिंता करे तो ज्यादा अच्छा रहेगा। उसे लगता था कि उसका दिमाग अभी बहुत अस्थिर है और दिशाहीन होता जा रहा है। वह सबसे बुरी उदासियों को झेल चुकने के बाद कुछ समय बेफिक्र रहना चाहता था। वह यह तो कतई नहीं चाहता था कि उसे अकेला छोड़ दिया जाए। पर ये जरूर चाहता था कि वह जब चाहे, तब अकेला रह सके।
अगले दो दिन वह घर में किसी सुस्त घड़ियाल की तरह पड़ा रहा। वीणा ने उसे बताया था कि वह जिस कोचिंग सेंटर में जाती है, वहां माहौल अच्छा नहीं है। पहले उसने ध्यान से सुना नहीं, फिर उसके जाने के बाद उसका वाक्य ज्यादा याद आया। तब उसने यह निर्णय किया कि वह वीणा से ‘माहौल अच्छा नहीं है’ जैसे शब्दों का अर्थ पूछेगा। वह अपने मन में घर के बारे में जो सोचता है, शायद घर उससे भिन्न है। सबकी समस्याएं अलग हैं। अंजली भी एक बार घर आई थी और उसे कुछ किताबें दे गई थी। यह कहकर कि किताबें पढ़ो, अपने को नार्मल करने में मदद मिलेगी। उसने बहुत सावधानी से एक बार उसके माथे पर हाथ भी फेरा था। उस स्पर्श में न तो प्रेम था, न कोई औपचारिकता के ढोंग से भरी सांत्वना। कुछ था तो बस एक अतिरिक्त लगाव, आत्मीयता जो अपना विस्तार चाहती थी। फिर जल्दी चली गई थी।
कुछ दिन के इस आलस के बाद उठा तो उसे लगा कि फिर ऊर्जा लौट रही है। वह फीनिक्स पक्ष है, जिसके पास अपनी राख से जी उठने का गुण है। पर इस गुण का वह दुरुपयोग भी करता है। इसी के कारण स्वयं के प्रति कठोर हो जाता है। हर बार राख में अपने को बदलने की कोशिश करता है ताकि वह फिर से जी सके। वह एक ही जन्म में बार-बार के पुनर्जन्म को संभव बनाना चाहता है। फीनिक्स पक्षी की कथा में अपना अनुभवजन्य सत्य जोड़कर जो अर्थ मिला, उसे पाकर अपने ऊपर हंसी आई। उसने तय किया कि वह समस्याओं के बारे में ज्यादा भावुकता से नहीं सोचेगा बल्कि सचाई को समझकर आगे बढ़ने के लिए प्रयास करेगा। घर से निकलने के लिए उसने पहले अपनी कुछ योजनाएं बनाईं। पहले तो उसे गांव जाना था, जो शहर से केवल आधे घंटे की दूरी पर था। वह घर का एकमात्र पुरुष है। वही अगर वहां न जाएगा तो किसे परवाह है उसकी विरासत की, उसकी जमीनों की, उसके परिवार की। उसे वहां का जीवन एक ‘बिलांगिंग’, एक पुराने जुड़ाव के कारण अच्छा लगता था। जुड़ाव और अलगाव की जिस तनी रस्सी पर वह चलता था, उसमें उसकी अहमियत थी। फिर उसके बाद दिल्ली लौट जाने का फैसला किया, ताकि वहां आगे की पढ़ाई के लिए एडमिशन ले सके और जीवन-पथ को निष्कंटक कर सके। उसे पता था कि जिंदगी में रास्ते मिल जाते हैं। पर वह यह जानकर भी नहीं जानता था कि वह दुर्भाग्य से उन लोगों में है जो जिंदगी के रास्तों की नहीं, किसी और चीज की खोज में जीवनयात्रा में शामिल होते हैं। रास्ते उन्हें पुकार-पुकार थक जाते हैं, पर वे अपनी आदतों से बाज नहीं आते।
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वहां एक छोटा सा मिट्टी का ऊंचा टीला था, जो आसपास के खेतों से भिन्न था। उस पर बने मंदिर और वहां पास के छोटे से जंगल में बसे पुजारी को इधर पुरानी स्मृतियां बहुत आती थीं। शीत, वसंत, ग्रीष्म और वर्षा से जुड़े दृश्य यदि धूमिल पड़ते, तो वे प्रयासपूर्वक कल्पनाओं में उन्हें जगाते रहते। बैठे-बैठे उनका मन पुराने समय में चला जाता था। भविष्य के प्रति उदासीन रहते थे, पर आज और बीते कल में एक साथ रहते थे। कोई नहीं कह सकता था कि वे केवल अतीत में रहते हैं। इसी तरह कोई नहीं कह सकता था कि केवल वर्तमान में रहते हैं। वे एकांगी न थे। केवल आत्म को अंतिम नहीं मानते थे। जल, थल, वायु, नभ सभी से उनकी सांसें जुड़ी थीं। उनका जीवन, उनके प्राण जैसे काल की हर लीला में सहभागी थे। वे ब्रह्मांड के सहयात्री थे, हर सूक्ष्मता के साक्षी भी थे। वे ईश्वर-कथाओं और मानव-कथाओं के विस्तार को सहज ही आत्मसात कर लेते थे। पर इधर उन्हें अपनी पत्नी अधिक याद आती जो विवाह के बाद आई थी तो उसके बिछुवे, सिंदूर, कंगन-चूड़ी, साड़ी और अंगूठी की चमक हर ओर बिखर गई थी। विवाह के कुछ ही दिन बाद वे दोनों एक जंगल में घूम रहे थे। हिरन, हाथियों, भालुओं, पक्षियों, गायों, तेंदुओं से भरा जंगल। बौरों की गंध से भरी हवाओं वाला जंगल। तब उन्होंने एक पेड़ पर चढ़कर जोर से पत्नी का नाम लेकर बुलाया था- ‘सरिता..सरिता…’ उन्होंने देखा था कि वह किसी वृक्ष के घनेपन की सुंदरता को निर्निमेष निहार रही है। वह जैसे उस वृक्ष को देखते हुए स्वयं वृक्ष में बदल गई थी। उसके सुडौल वक्ष जैसे तनों, पत्तियों, शाखाओं में एकाकार हो चुके हैं। उस दिन वे दोनों किसी वृक्ष की तरह थे, एक-दूसरे के सौंदर्य को अपलक सराहते, उसमें विसर्जित होते। जंगल से समस्त वृक्षों ने उन्हें अपने कुनबे में शामिल कर उनके विवाह का उत्सव मनाया था। मोर-मोरनियों के नृत्य को उन्होंने घंटों तक देखा था और पत्नी ने कहा था- ‘मैं किसी दिन तुम्हारे साथ इसी वन में नाचना चाहूंगी। एकांत-नृत्य और निस्सीम रति।’ 
फिर उन्हें अचानक से याद आया कि इसी गांव में एक समय शीशम के ढेरों पेड़ थे। गांव की सीमा पर उसका जंगल था। उसमें भारी संख्या में जानवर हुआ करते थे और इंसान के बच्चे हिरन के बच्चों के साथ खेला करते थे। जंगल में जीवन के कई रूप थे और यहां बसे लोग स्वयं को जंगल के बीच घिरा पाकर प्रसन्न रहते थे। पर जब यहीं के लोग शहर गए तो उन्हें लगा कि सीमेंट, ईंटा और सरिया तो बाजार से खरीद लेंगे पर लकड़ी तो मुफ्त में आ जाएगी। गांव अब उनके लिए नौकर-चाकर, मुफ्त की लकड़ी और पूरी अकड़ के साथ अपनी जात-बिरादरी की रक्षा से अधिक कोई अहमियत नहीं रखता था। ज्यादा नही, पंद्रह साल पहले की बात है। शहर के एक डाक्टर साहब आए थे जो गांव से दूर का रिश्ता जोड़कर रखते हैं। साल में एकाध बार किसी न किसी कार्यक्रम में आते हैं। शहर में उनका दवाखाना है जिसके बारे में मशहूर है कि वहां मरीज से व्यर्थ के चक्कर लगवाए जाते हैं। नकली दवाई बेचने के आरोप में उनपर केस दर्ज हो चुका था। वही डाक्टर साहब एक दिन सुबह-सुबह आए थे और रामप्रकाश बाबू के पिता रामकिशोर बाबू के पास बैठे हुए थे। शहर से वह कोई पुराना टीवी भी गाड़ी में लादकर लाए थे और उसे उपहार की तरह पेश कर रहे थे। कुछ देर के चाय-नाश्ते के बाद वह बड़ी मिनमिनाती आवाज में बोले थे- ‘क्या बताएं चाचा, घर बनवा रहे हैं। अब आप तो जानते हो कि घर बनाना कितनी मुसीबत का काम है।’ स्वयं को गांव का मालिक समझने वाले रामकिशोर बाबू को पहले तो समझ नहीं आया कि भारी आमदनी वाले डाक्टर को घर बनाने में क्यों मुसीबत आ रही है। फिर, यह तो पुराना घर तोड़कर नया करने का कार्य हैं। बाद में धीमे से राज खुला जब डाक्टर ने कहा- ‘चाचा, आपके खेत के पास शीशम के इत्ते पेड़ हैं। हमें अब लकड़ी चाहिए तो कहां इधर-उधर भटकें, सीधे आपके पास आ गए। एक पेड़ हमें दिला दो, कटवाकर लकड़ी निकलवा लेंगे।’ रामकिशोर बाबू को यह बात खास नहीं लगी और एक-दो पल सोचने के बाद ही कह दिया- 
‘आप तो हमारे खानदान से जुड़े हैं डाक्टर बाबू। ले लो लकड़ी। क्या है, पेड़ ही तो है! आज आपकी जरूरत है तो भला हम क्यों मना करेंगे!’ 
उस समय पेड़ के बारे में बहुत लापरवाह से, आसानी से, कह सकते थे कि- पेड़ ही तो है..। उसी रात जोर की आंधी आई थी। ऐसी उद्दाम उत्तेजना वाली हवाएं चलीं कि कई पेड़ों को देख ऐसा लगा था जैसे वे जमीन से उखड़कर या तो किसी पर टूट पड़ेंगे या इस स्थान को छोड़कर चले जाएंगे। इस तरह एक पेड़ कटा पर यह सिलसिला चलता रहा। शहर में बसे लोग अपनी जरूरतों के लिए गांव को लकड़ी की आपूर्ति का केंद्र समझने लगे। सबमें किसी टिंबर माफिया वाला स्वार्थ पलने लगा। एक बार फैक्ट्री किसी ने डाली तो सीधे चार-पांच शीशम के अच्छे खासे झूमते दरख्त कटवा दिए। यहां की लकड़ी शहर के लोग और लकड़ी के व्यापारी औने-पाने दामों पर ले जाते। इस तरह शीशम का छोटा सा जंगल साफ हो गया। उस जगह पर जाने वाले लोगों को अब याद भी नहीं कि यहां कभी शीशम का हरा खूबसूरत जंगल था जहां प्रकृति को भी आराम से जीने का मौका मिलता था। पुजारी को याद आता है कि उस जंगल में वे घूमने जाते थे, तो धूप की किरणें भी वहां लजाती थीं। नहीं दिखती थी और असंख्य पक्षी झूमते-गाते थे। एक बुलबुल से उनकी गहरी मैत्री थी जो उन्हें देखते ही चहकने-गाने लगती थी। उसका नाम भी उन्होंने रखा था- बेला बुलबुल। वह जैसे पत्नी को वन में पुकारते थे..सरिता..सरिता। उसी प्रकार उस बुलबुल को पुकारते थे..बेला..बेला। उन्हें वह दृश्य याद है जब एक बार एक तेंदुआ किसी शेर से भागकर घंटों इन्हीं पेड़ों पर चढ़कर बैठा रहा था। उस तेंदुए ने गलती यह की थी कि दो मादा शेरनियों के बीच आपस में बीचबचाव कराने का प्रयास किया था। इसी से एक शेरनी बिफर पड़ी और उसने तेंदुए पर हमला कर दिया था। वह पेड़ के नीचे खड़ी दहाड़ती रही और तेंदुआ डरकर घंटों पेड़ में दुबका रहा। उन्हें यह भी याद है कि कितनी ही परीकथाओं, तिलिस्म और पुराण कथाओं के केंद्र में उस जंगल की कल्पना थी जिसमें प्रवेश करने पर वह घंटों दुनिया की निगाहों से छिप जाते थे। अब इस नंगी, सपाट, रंगहीन होती धरती पर वे कहां छिपें, कहां उस एकांत को ढूंढें जिसे ये पेड़ और जंगल उन्हें सहज ही दे सकते थे।
इन्हीं पुजारी का पूरा नाम था सत्यदेव शर्मा। पेशे से पुजारी। पुजारी होने के साथ पुरोहिती करना उनका पारंपरिक पेशा रहा है। पुजारी, पुरोहित, भक्त, संत, बाबा..न जाने कितने नामों से पुकारे जाते थे। गंगा के कछार से कोई पांच किलोमीटर दूर बसे इस गांव में वह करीब तीन पीढ़ियों से रह रहे हैं। दुबले-पतले, थोड़ा गाय की तरह लंबा चेहरा और माथे पर चंदनी टीका। एक देश जहां गाय को लेकर राजनीति चलती हो, वहां गाय जैसा चेहरा होना अच्छा माना जा सकता है। उसपर देवता की कृपा ढूंढी जा सकती है। सभी ने उन्हें घर के कर्मकांडों में कभी-कभी संस्कृत बुदबुदाते सुना है पर किसी ने उसका अर्थ जानने की कोशिश नहीं की। जैसे सब मानकर चलते हैं कि वे जो संस्कृत श्लोक पढ रहे हैं, वे ठीक ही होंगे। वैसे भी खुद जिन्हें शहराती हिंदी पल्ले न पड़ती हो, वे संस्कृत की चिंता कैसे करें! वह उनके लिए भाषा नहीं बल्कि भाषा से कुछ अधिक थी। पवित्र ध्वनि, धर्माचार, कर्मकांड-प्रेम का प्रतीक थी। पर वे जानते थे कि संस्कृत पुजारी की रोजी-रोटी है। इसलिए उन्हें इस भाषा में उन रोटियों की खूशब आ जाती थी जो पुजारी के घर में पकती थीं। 
सत्यदेव शर्मा पुजारी होने और भक्त होने में बड़ा फर्क मानते हैं। कभी-कभी जमींदारों के घर, जो अब जमींदार रहे नहीं, में बैठकर कहते हैं कि भगत को दूसरे लोग होते हैं, हम तो पुजारी हैं। कही गई बात इस अंदाज से कही जाती है जैसे भक्त तो निठल्ले-निकम्मे होते हैं जो केवल अपने लिए भगवान को पुकारते हैं। पुजारी उनसे कहीं आगे होता है। पुजारी चाहे तो जजमानों के इतिहास भविष्य को बिगाड़ दे, भगत लोग तो बस कहीं कोने में बैठकर सीताराम-सीताराम जपते हैं। पुजारी के पास सबकी तरफ से भगवान से बात करने का अधिकार होता है, जो भगत जनों के पास नहीं होता है। वे रोली-तिलक, पूजा के फूल और चावल-धागे या फिर चढ़ावे की परंपरा से परिचित होते हैं, भगतों में ऐसा ज्ञान कहां। 
पुजारी को गांव का पुराना सारा इतिहास जुबानी याद है। इतिहास जैसे उनकी स्मृतियों का अमृतजल पाकर किसी भी क्षण बेझिझक जी उठता था। शहर के इतिहासकार अगर इन जैसों के पास बैठें तो जिस वे ओरल हिस्ट्री वे कहते हैं, उसके हजारों ग्रंथ तैयार हो जाएं। वे अवध के इस पिछड़े गांव में आकर बसने के पूर्वजों के फैसले की आलोचना भी करते हैं। कहते हैं कि बसना ही था तो इस टूटे-फूटे, चमार-बहुल, ऊसर-बंजर गांव में क्यों आकर बसे जहां जमींदार भी वैसे ही दरिद्र होने के लिए मजबूर थे जैसे उनकी रियाया। खुद इनके घर में खाने की दिक्कतें हों लेकिन चौधराहट में किसी से कम नहीं रहे। खुद के घरों में साबुन-तेल का हमेशा अकाल रहा। घर में चीनी तक ऐसे छिपाकर रखी जाती थी जैसे स्वर्णाभूषण हो। पर बाहर गरीबों पर हंसते फिरते थे। जमींदार तो नाम के थे, बाकी इनके पास इतना पैसा भी नहीं रहा कि कभी अपनी जर्जर हवेली की दीवारें ठीक करा लें। घर के बाहर फाटक बड़ा बना लेने से, जिसमें घोड़े या कोई बौने कद का सर्कस का हाथी घुस सके, कोई जमींदार होता है क्या! इसी घर की औरतें जब कलह, यौन-उत्पीड़न या पिटाई से मर जाना चाहती थीं तो उनके पास मरने के लिए ढंग का कुआं तक न था। ऐसी कमउम्र लड़कियां कई थीं जिनके अंधेरे कमरों में रात में जेठ या देवर घुस आते थे। वे बिचारी भी ताकतवर अय्याश जमींदारों की जगह फटेहाल ठाकुरों का ही शिकार थीं। वे लोग उन्हें बड़े घराने की स्त्री होने की झूठी शान पर चढ़ाकर रखते थे। उन्हें मालिकन, ठकुराइन पुकारा जाता था। पर वास्तव में उनका जीवन नरक कर देते थे। यानी, सारी पर्दादारी बड़े घर की औरतों वाली थी। उनकी आन-बान-शान भी कम नहीं थी। पर अत्याचार वैसा ही जैसा किसी कमजोर और निस्सहाय पर होता है। शर्म के कारण कोई संखिया या चूड़ियां पीसकर खाती थी तो कह दिया जाता था कि दिल की भावुक थी और बीमारी से तंग आकर मर गई। पर सत्यदेव का दिल भीतर से इन्हीं जमींदारों के लिए नरम भी है। उन्होंने धर्म की पुस्तकें पढ़-पढ़कर यही सीख लिया कि जिस तरह सृष्टि के केंद्र में कोई अलौकिक सत्ता है, उसी प्रकार हर गांव के केंद्र में कोई न कोई व्यक्ति होना चाहिए जो व्यवस्था को चला सके। इस तरह धर्म से पैदा ज्ञान ही उनके लिए समाज के बारे में ज्ञान बन गया। कोई उन्हें बताता कि समाज से धर्म पैदा होता है, धर्म से समाज नहीं जन्मता, तो न केवल आहत होते बल्कि मन ही मन उसके ज्ञान को उसका दुर्भाग्य समझ उसपर दया खाते। 
लाख आलोचना के बाद पुजारी इस पुरानी जमींदारी व्यवस्था के पक्ष में कहते- ‘आखिर इन्हीं लोगों ने तो हमें जमीन दी, भले ही मजबूरी में।’ पर मजबूरी में क्यों? इतिहास ये है कि इस गांव के जमींदार घराने के पूर्वज राजस्थान के एक इलाके से भागकर आए थे। ऐसे कितने ही गांव और शहर थे जहां से तब लोगों को रातो-रात भागना पड़ता था। गांवों ने अक्सर पलायन और वीरानी के दुर्भाग्य का सामना किया। अकाल, युद्ध और आपसी रंजिशों के कारण पलायन आम बात थी। जैसलमेर के पास बसे गांव कुलधरा की तरह। इसे शापित गांव माना जाता है जहां कभी ब्राह्मणों की बड़ी आबादी बहुत खुशहाल होकर बसी हुई थी। वे रेगिस्तान के रास्ते से ऊंटों की खरीद-फरोख्त, मसालों-इत्र और कपड़ों का व्यापार भी कर लेते थे। पर एक दिन जैसलमेर के दीवान की निगाह वहां के एक ब्राह्मण पुजारी की लड़की पर पडी। उसने मुनादी करा दी कि वह लड़की उसे चौबीस घंटे में सौंप दी जाए वरना गांव में घुसकर उस लड़की को उठा लिया जाएगा। इस अपमान के बाद आसपास के चौरासी गांवों के लोगों ने फैसला किया कि वे गांव खाली कर चले जाएंगे पर दीवान की निरंकुशता के आगे नहीं झुकेंगे। उनके श्राप के कारण लगभग एक सौ नब्बे साल से वह गांव खाली पड़ा है और कई रहस्यमय, डरावनी कथाओं को ओढ़कर सोया हुआ है। सत्यदेव का गांव भी ऐसे ही बसा। इसके पूर्वज किशनगढ़ के राजा की फौज में साधारण पद पर थे। पर राजा के बर्ताव के कारण जीना मुश्किल हो चुका था। सनकी राजा को अपनी फौज के अधिकारियों पर भरोसा न था और जरा सा शक होने पर गुपचुप तरीके से उन्हें खुद मरवा देता था। न जाने कितने ही फौज के सिपाही विष, अज्ञात हमले में मारे गए। एक दिन सभी ने फैसला किया कि इस निठल्ले और वहमी राजा के लिए जीने-मरने से अच्छा है कि खुद के हाथ से जंगल काटें, कहीं खेती ढूंढे और मकान बनाकर रहें। वह गांव निर्जन हो गया और चलते-चलते लोगों ने मुंह मोड़कर शाप दिया कि जो यहां बसेगा, वह प्राणों से हाथ धोएगा। बस, वहां से चले और कई दिनों का सफर करते हुए सुदूर गंगा तट पर पहुंचकर बसे। वहां आसपास उपजाऊ जमीन थी पर काश्तकारी कमजोर थी। अंग्रेजी राज में अफसरों से मिलकर किसी तरह से बढी हुई दरों पर लगान देना मंजूर किया और साढ़े तीन गांवों की जमींदार अपने नाम करा ली। तब अंग्रेजों के लिए जमीन से मिला लगान उनके साम्राज्य का बड़ा आधार था, हालांकि अवध के इस इलाके में वे जमींदारी को लागू नहीं करना चाहते थे। मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी की तरह रैयतवाड़ी प्रथा लागू करने पर विचार चल रहा था। पर इसी बीच 1857 का महासमर छिड़ा और उन्होंने अपनी नीति में जमींदारी को विकसित करना ठीक समझा। जब दूसरे इलाकों में रेल, तार, डाक और शिक्षा के लिए प्रयास चल रहे थे, तब इस भूभाग को नए सिरे से जमींदारों-ताल्लुकेदारों की निरंकुशता के हवाले कर दिया गया। इस तरह इस खानदान ने पहले खेत हड़पे और फिर खेतों की पैदावार को। गांव-गांव में लगान के लिए जमींदारी की नीलामी करने वाले अंग्रेज प्रशासन से स्वयं को जोड़कर राजस्थान से भागकर आए एक मामूली सिपाही टोले ने खुद को अवध का छोटा सा जमींदार बना दिया।
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वैभव सिंह
4 सितम्बर 1974, उन्नाव (उ.प्र.)
उच्च शिक्षा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली 

प्रकाशित पुस्तकें: इतिहास और राष्ट्रवाद, शताब्दी का प्रतिपक्ष, भारतीय उपन्यास और आधुनिकता, भारत: एक आत्मसंघर्ष.अनुवाद: मार्क्सवाद और साहित्यालोचन (टेरी ईगलटन), भारतीयता की ओर (पवन वर्मा)

सम्पादन : अरुण कमल : सृजनात्मकता के आयाम

सम्मान : देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान, शिवकुमार मिश्र स्मृति आलोचना सम्मान, स्पन्दन आलोचना सम्मान, साहित्य सेवा सम्मान (भोपाल) 

सम्प्रति: अम्बेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली में अध्यापन
ई-मेल : vaibhv.newmail@gmail.com