शबरी की राम से भेंट का प्रसंग वाल्मीकि
रामायण तथा बाद की रामायणों में जिस प्रकार से वर्णित है, उस पर हम चर्चा करेंगे। यह सीताहरण के बाद का प्रसंग है।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकांड के सड़सठवें सर्ग में राम और लक्ष्मण की
कबंध से भेंट होती है। कबंध, जो स्थूलशिरा नामक ऋषि के शाप से वह राक्षस बन गया
था, राम को अपनी सद्गति का उपाय बताता है, जिसके अनुसार राम और लक्ष्मण एक गर्त
बना कर लकड़ों का संचय कर के उसका दाह कर देते हैं। कबंध गंधर्व के रूप में प्रकट
हो जाता है। वह राम को बताता है कि पंपा सरोवर के किनारे चलते चलते उन्हें शबरी का
आश्रम मिलेगा। शबरी के आश्रम से सुग्रीव के निवास का रास्ता भी गंधर्व बतता है।
राम उसके बताये पथ पर आगे बढ़ते हैं। कवि ने यहाँ सारे अरण्य तो साकार
कर दिया है। पूरे जंगल का, पर्यावरण का, वृक्षों और पशु पक्षियों का विशद और
विस्तृत वर्णन वे करते हैं। फिर पंपा सरोवर का भी उतना ही मनोहारी चित्रण है। यह ऋषि
का काव्य है, जिसमें हम निसर्ग में समाये लय और छंद को पहचानते हैं। मनुष्य धरती
के एक एक कण से एकाकार हो जाता है।
इसी पंपा सरोवर के आसपास के वन में मतंग मुनि के शिष्य रहते हैं। मतंग
का अर्थ चांडाल होता है। जन्म से मतंग अंत्यज कुल में हुए हों – यह हो सकता है। ऋषि
होने पर वर्ण नहीं रह जाता। ऋषि वर्णव्यवस्था के बाहर होते हैं, वे चेतना के
उदात्त धरातल पर स्थित रहते हैं। उनकी चेतना विश्व से एकाकार हो जाती है। इसीलिये
सारे ऋषियों के आश्रमें में पशु वैर भाव भूल जाते हैं, पक्षी सदा आनंद से चहकते हैं, पेड़ पौधे फलते फूलते रहते हैं। ऋषियों के
पुण्य से धरती सुवासित हो जाती है। वाल्मीकि
कहते हैं कि मतंग ऋषि के शिष्य समिधा या यज्ञीय काष्ठ वन से ले कर आते , तो घाम
में उनके देह से पसीने की बूँदें धरती पर गिरतीं। वे बूँदें सुगंधित फूल बन कर उग
जातीं। वे फूल सदा खिले रहते थे। मतंग वन में ऐसे सुगंधित फूलों का पूरा का पूरा
वन बन गया था, जे मतंगवन कहा जाता था। शबरी मतंग ऋषि की परिचारिका थी, उसे मंतग
ऋषि ने यह जिम्मेदारी सौंपी थी कि वह इस सुगंधित वन को बचाये रहे।
तेषां भाराभितप्तानां वन्यमाहरतां गुरोः।
ये प्रपेतुर्महीं तूर्णं शरीरात् स्वेदबिन्दवः।।६९.१७
तानि माल्यानि जातानि मुनीनां तपसा तदा।
स्वेदबिन्दु समुत्थानि न विनश्यन्ति राघव।।
सुन्दरकाण्ड,
६९.१७-१८,
(Vālmīki-Rāmāyaṇa – Text as
Constituted I its Critical Edition, १९९२, पृ. ३८५)
कबन्ध
राम को बताता है कि वह वन नन्दनवन के समान है, उसमें आप का मन लगेगा।
तस्मिन्नन्दनसंकाशे देवारण्योपमे वने।
नानाविहगसङ्कीर्णे रंस्ये राम निर्वृतः।। वही, ६९.२३,
पृ. ३८५
राम और लक्ष्मण शबरी के आश्रम में पहुँचते हैं। वह इन्हीं की
प्रतीक्षा कर रही होती है, क्यों कि मतंग मुनि उससे कह गये थे कि रघुवंश के राम
तुम्हारे पास आयेंगे। उनसे मिल कर और उनको मार्ग बता कर ही तुम देह त्यागना।
यहाँ शबरी को श्रमणी, सिद्धा और तपस्विनी कहा गया है। वह शबर जाति की
थी और मुनि मतंग की सेवा करती थी, पर अपने
तपोबल से सिद्धा और तपस्विनी के रूप में जानी जाती थी। राम और लक्ष्मण को आया देख
कर उठी और उनके पैर पकड़ लिये। राम इस सिद्धा तपस्विनी श्रमणी शबरी से पूछते हैं
कि आपकी तपस्या कैसी चल रही है। तप में कोई विघ्न तो नहीं है।
तौ पुष्करिण्याः पम्पायास्तीरमासाद्य पश्चिमम्।
अपश्यतां ततस्तत्र शबर्या रम्यमाश्रमम्।।
तौ तु दृष्ट्वा ततः सिद्धा समुत्थाय कृताञ्जलिः।
पादौ जग्राह रामस्य लक्ष्मणस्य च धीमतः।।
समुवाच ततो रामः श्रमणीं संशितव्रताम्।
कच्चित्ते निर्जिता विघ्नाः कच्चित्ते वर्धते तपः।। वही, ७०. ६-७, पृ.
३८७
शबरी बताती है कि मैं आपकी ही प्रतीक्षा करती रही हूँ। मैंने आपके
लिये इस पंपा सरोवर के किनारे उगने वाली
वन की अनेक वस्तएँ एकत्र कर रखी हैं –
मया तु विविधं वन्यं संचितं पुरुषर्षभ।
तवार्थे पुरुषव्याघ्र पम्पायास्तीरसम्भवम्।। वही, ७०.१३, पृ. ३८७
राम ने विज्ञान में अबहिष्कृत शबरी से कहा कि तुमने यह वन संवर्धित
किया है इसे देखना चाहते हैं। यहाँ शबरी को विज्ञान में अबहिष्कृत अर्थात् तरह तरह
की शिल्प, शास्त्र और कलाएँ जानने वाली – कहा गया है।
इसके बाद लाल्मीकि कहते हैं – शबरी दर्शयामास तावुभौ तद्वनं महत् (वही, ७०.१६,
पृ. ३८७) – शबरी ने अपनी वह विस्तीर्ण वन दोनों भाइयों को दिखाया। उसने कहा कि यह
मतंगवन है।
शबरी अपने वन में लगाये हुए तरह तरह के फल उन्हें अर्पित करती है, पर
इस प्रसंग का मात्र एक पंक्ति में जिक्र वाल्मीकि ने किया है। राम ने शबरी के दिये फल खाये, शबरी ने चुन चुन
कर या चख चख कर उन्हें वे फल खिलाये – ऐसा कुछ नहीं कहा गया है। राम को सुग्रीव के
निवास का रास्ता बता कर शबरी उनसे विदा लेती है और जलती चिता में प्रवेश कर देह का
त्याग कर स्वर्गवासी हो जाती है ।
अनुज्ञाता तु रामेण हुत्वात्मानं हुताशने।
ज्वलत्पावकसंकाशा स्वर्गमेव जगाम सा।। वही, ७०.२६, पृ. ३८८
वाल्मीकि रामायण में शबरी का जो चरित्र है, उसमें ज्ञान कर्म
भक्ति समन्वय है। उसे सिद्धा और श्रमणी
कहा गया है। शबरी ज्ञान-विज्ञान से संपन्न
है, वन की रक्षा करती है, मतंग मुनि के प्रति श्रद्धाभक्ति का भाव उसके मन है –
इसतरह वह ज्ञानी, कर्मनिष्ठ और भक्त तीनों एक साथ है। शबरी के द्वारा राम को बेर
खिलाने या जूठे बेर खिलाने का कोई प्रसंग वाल्मीकिरामायण में नहीं है।
अध्यात्म रामायण में अरण्य कांड के नवें सर्ग में राम और लक्ष्मणकी
भेंट कबंध राक्षसे से होती है। वह बताता है कि अष्टावक्र मुनि का उपहास करने के
कारण मुझे उनका शाप मिला और मेरा रूप ऐसा विकृत भयावह हो गया था। शापमुक्त हो कर
गंधर्व के रूप में प्रकट हो कर वह राम की स्तुति करता है जिसमें परमत्त्व के रूप
में राम के स्वरूप का दार्शनिक भाषा में वर्णन है। वेदांत की शब्दावली अनुभव के
साँचे में ढल कर आती है। परमतत्त्व के विराट् स्वरूप का वर्णन अत्यंत काव्यात्मक
है। पच्चीस पद्यों निबद्ध इस विलक्षण स्तुति में पूरा ब्रह्मांड कविता में उतर कर आ जाता है।
राम कहते हैं — याहि मे परमं
स्थानं योगिगम्यं सनातनम्। जाने के पहले गंधर्व उनसे शबरी के आश्रम में जाने का
अनुरोध करता है। राम शबरी के आश्रम में पहुँचते हैं। शबरी जैसे ही लक्ष्मण के साथ
राम को आ देखती है, हर्ष से उठ खड़ी होती है, उसकी आँखें प्रसन्नता से अश्रुपूरित
हो जाती हैं, वह राम के चरणों पर गिर पड़ती है। फिर वह स्वागत कर के उन्हें आसन पर
बिठाती है। भक्तिपूर्वक दोनों भाइयों को पाँव धोती है, उन्हें अर्घ्य समर्पित करती
है। फिर वह उन्हें दिव्य अमृत के जैसे फल अर्पित करती है, जो उसने इस अवसर के लिय
सहेज कर रखे थे। फूलों तथा सुगन्धित अनुलेप से राम के चरणों की पूजा कर के आतिथ्य
करती है, और भक्तिभाव के साथ उन्हें अपना वृत्तांत बताती है (अध्यात्म रामायण,
अरण्यकाण्ड, १०.५-१०, गोरखपुर, तैंतालीसवाँ पुनर्मुद्रण, संवत् २०७२,
पृ. १४६)। इस वृत्तांत में शबरी ने यहाँ अपने गुरु का नाम नहीं लिया है, वह ब्रह्मपद
प्राप्ति के समय कहे गये गुरु के वचन की बात बताती है कि राम के रूप में सनातन
परमात्मा तुम्हारे पास आयेगें एक दिन उनकी प्रतीक्षा करो। वह कहती है कि मैं तब से
आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ। आज मेरे गुरु की कथन सत्य हुआ। हे राम, तुम्हारे दर्शन
मेरे गुरुजन भी न पा सके, मैं मूर्ख स्त्री हूँ। मैं तो आपके दासों के सैंकड़ों
दासों की दासी होने की भी योग्यता नहीं रखती।
तथैवाकरवं राम त्वद्ध्यानैकपपराणा।
प्रतीक्ष्यागमनं तेऽद्य सफलं गुरुभाषितम्।।
तव सन्दर्शनं राम गुरूणामपि मे नहि।
योषिन्मूढाप्रमेयात्मन् न जातिसमुद्भवा।
तव दासस्य दासानां शतसङ्ख्योत्तरस्य वा।
दासीत्वे नाधिकारोऽस्ति कुतः सक्षात् तवैव हि। वही, १०.१६-१८, पृ. १४७
राम कहते हैं –
पुंस्त्वे स्त्रीत्वे विशेषो वा जातिनामाश्रमादयः।
न कारणं मद्भजने भक्तिरेव हि कारणम्। वही, १०.२०, पृ. १४७
पुरुष और स्त्री में कोई भेद नहीं होता, जाति, नाम और आश्रम के आधार पर
भेद करना उचित नहीं है, मेरे भजन में ये सब कारण नहीं हैं, भक्ति ही कारण है।
इसके बाद नवधा भक्ति का उपदेश – भक्ति का दर्शन ग्यारह श्लोकों में यहाँ
अध्यात्मरामायणकार से बोधगम्य बना दिया है।
फिर राम शबरी से सीता के विषय में पूछते हैं –
यदि जानासि मे ब्रूहि सीता कमललोचना।
कुत्रास्ते केन वा नीता प्रिया मे प्रियदर्शना।। वही, १०.३२-३३, पृ. १४८
मेरी कमललोचना प्रियदर्शना प्रिया के विषय में
यदि तुम जानती हो कि वह कहाँ है, उसे कौन ले गया है, तो बताओ।)
शबरी बताती है –
रावणेन हृता सीता लङ्कायां वर्ततेऽधुना। वही, १०.३५, पृ. १४८
सीता को रावण हर कर ले गया है, और वह अभी लंका में है।
फिर वह पंपा सरोवर के निकट सुग्रीव के निवास का पूरा पता राम को बताती
है ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव क्यों रह रहा है बालि से छिप कर क्यों रह रहा है
– कर इसका कारण भी बताती है। इसके बाद
अग्नि में प्रवेश कर के शबरी देह का त्याग करती है। राम की कृपा से वह मुक्त हो
जाती है।
चतुर्भिर्मन्त्रिभिः सार्धं सुग्रीवो वानराधिपः।
भीतभीः सदा यत्र तिष्ठत्यतुलविक्रमः।।
इति रामं समामन्त्र्य प्रविवेश हुताशनम्।
क्षणान्निर्धूय सकलमविद्याकृतबन्धनम्।
रामप्रसादाच्छबरी मोक्षं प्रापिदुर्लभम्।। वही, ३७-४१, पृ. १४९
अध्यात्मरामायण में वर्णित शबरीप्रसंग में ज्ञान है भक्ति भी है, कर्म
छूट रहा है। वन नहीं है, विराट् सौंदर्य मनुष्य का उससे एकाकार होने का अनुभव
नहीं। वेदांत तत्त्व है।
रामचरितमानस में कबंध का प्रसंग बहुत संक्षेप में है। कबंध शापमुक्त
हो कर गंधर्व के रूप में प्रकट होता है बताता है कि दुर्वासा मुनि के शाप से मेरी
यह दुर्गति हो गई थी। अरण्यकांड में दोहा ३३ के बाद तुलसी कहते हैं – – ताहि देइ
गति राम उदारा। सबरी के आश्रम पग धारा।
राम को आया देख कर शबरी मुनि के वचन का स्मरण हो आता है (जिसमें
उन्होंने बताया था कि रघुवंशी राम इस आश्रम में आयेंगे), वह राम के रूप को निहारती
है और उनके चरणों पर लोट जाती है। प्रेम में इतनी मगन है कि मुख से बोल नहीं
फूटते, वह बार बार उनके चरण कमलों पर माथा नवाती रहती है,। फिर वह सादर उनके चरण
पखारती है, सुंदर आसन पर बिठाती है और उन्हें सरस कंद मूल फल अर्पित करती है।
प्रभु राम प्रेम सहित उसके द्वारा अर्पित फल खाते हैं।
सबरी देखि राम गृह आए।
मुनि के वचन समुझि मन भाए।।
सरसिज लोचन बाहु विसाला।
जटा मुकुट सिर उर वनमाला।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई।
सबरी परी चरन लपटाई।।
प्रेममगन मुख वचन न आवा।
पुनि पुनि पदसरोज सिर नावा।
सादर जल लै चरन पखारै।
पुनि सुंदर आसन बैठारे।।
कंदमूलफल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाये, बारंबार बखानि।। दोहा ३३ के बाद तथा दोहा ३४,
रामचरितमानस, गीताप्रेस गोरखपुर १०८वाँ पुनर्मुद्रण, संवत् २०७२, पृ. ६१०-११
शबरी कहती है कि किस प्रकार से मैं आपकी स्तुति करूँ प्रभु – अधम जाति
मैं जड़मति नारी, अधम ते अधम अधम अति नारी, तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी। रामचरितमानस,
दोहा ३४ के बाद, गीताप्रेस गोरखपुर १०८वाँ पुनर्मुद्रण, संवत् २०७२, पृ. ६११
राम अध्यात्म रामायण के वचनों को दोहराते हैं कि जात पाँति कुल, धन
परिवार इन सब के होने से मनुष्य बड़ा नहीं होता, भक्ति का नाता ही बड़ा नाता है।
कह रघुपति सुन भामिनि बाता।
मानहुँ एक भगति कर नाता।
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई। –
भगति हीन नर सोहइ कैसा।
बिन जल बारिद देखिअ जैसा।।
रामचरितमानस, वही, गीताप्रेस
गोरखपुर १०८वाँ पुनर्मुद्रण, संवत् २०७२, पृ. ६११
इसके बाद राम शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं। अध्यात्म रामायण
में भी राम शबरी को नवधा भक्ति का मर्म समझाते हैं, पर वहाँ बहुत दार्शनिक त्तत्व
के निरूपण के साथ उपदेश दिया गया है। तुलसी के राम इसे सरल सहज भाषा में समझाते
हैं। फिर राम सीता के संबंध में पूछते हैं –
जनकसुता कइ सुधि भामिनी,
जानहि कहु करिबरगामिनी।। वही, पृ. ६१२
शबरी कहती है –
पंपा सरहि जाहु रघुराई।
तहँ होइहि सुग्रीव मिताई।
सो सब सकहहि देव रघुबीरा… वही , पृ. ६१२
यह सब बता कर शबरी राम का मुख निहारती हुई उनके चरणकमल हदय में धारे
हुए योगाग्नि से देह त्याग देती है —
कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन जँह नहिं फिरे।। वही, पृ. ६१३
अध्यात्मरामायण की अपेक्षा तुलसी की शबरी भक्तिभाव में और भी अधिक
डूबी हुई है। अधअयात्मरामायण तथा रामचरितमानस दोनों में जाति-पाँति के नाम पर होने
वाले भेदभाव को निरस्त किया गया है।
कवितावली में न तो लक्ष्मणरेखा का कोई प्रसंग है, न शबरी का ही। गीतावली में राम की शबरी से भेंट का आठ छंदों
में बहुत विशद और सरस चित्रण तुलसी ने किया है। अपने हृदय का अशेष भक्ति-भाव,
समर्पण, लालित्य अनुराग सब कुछ उन्होंने जी भर के यहाँ उँडेल दिया है। यह पूरा
प्रसंग अनुपम है। रामभक्तिकाव्य में भक्त की अनन्यता का ऐसा भावविभोर कर देने वाला
ऐसा अंतरंग चित्रण बहुत दुर्लभ है।
अरण्यकांड के सत्रहवें पद के पहले गीत की आरम्भिक पंक्तियाँ हैं –
सबरी सोइ उठी, फरकत बाम बिलोचन बाहु।
सगुन सुहावने सूचत मुनिजन अगम उछाहु।
मुनि अगम उर आनंद, लोचन सजल, तनु पुलकावली
तृन पर्नसाल बनाइ जल भरि कलस फल चाहन चली।
(गीतावली, गीताप्रेस गोरखपुर, उन्तीसवाँ
पुनर्मुद्रण, संवत् २०६१, पृ. २४४)
शबरी अपनी पर्णशाला सजा सँवार कर तल का कलश भर कर जीवन के सुफल के
अवलोकन का प्रतीक्षा कर रही है, वह मन में तरह तरह के मनोरथों की मालाएँ गूँथ रही
है —
प्रानप्रिय पाहुने ऐहैं रामलषन मेरे आजु
जानत जनजिय की मृदु चित राम गरीबनिवाज।
मृदुचित गरीबनिवाज आजु बिराजिहैं गृह आइ कै।
ब्रह्मादि संकर गौरि पूजित पूजिहौं अब जाइकै।। वही, पृ. २४५
इसके बाद शबरी के द्वारा राम के लिये फलों के दोनों सजाने का रमणीय
वर्णन है —
दोना रुचिर रचे पूरन कंदमूल फलफूल
अनुपम अमिय हुतें अंबक अवलोकत अनुकूल।।
अनुकूल अंबक अंब ज्यों निज डिंब हित सब आनिकै
सुंदर सनेह सुधा सहस जनु सरस राखै सानिकै। वही, पृ. २४५
पाँचवे गीत में शहबरी राम के फल अर्पित करती है। वह प्रेम का पट उनके पाँवों
पर बिछा देती है, आँसुओं का अर्घ्य अर्पित करती है, फिर उनके चरण पखार कर नये
दोनों में फल, फूल अंकुर मूल अर्पित करती है। प्रभु उन फलों को खाते हैं, पुलकित
हो जाते हैं स्वाद को सराहते हैं —
प्रेमपट पाँवड़े देत, सुअरघ बिलोचनबारि
आस्रम लै दिये आसन पंकजपाँय पखारि।
पदपंकजात पखारि पूजे पंथश्रमबिरति भये
फलफूल अंकुर-मूल धरे सुधारि भरि दोना नये।
प्रभु खात पुलकित गात, स्वाद सराहि आदर जनु जये।
फल चारिहू फल चारि दहि परचारि-फल सबरी दये। वही, पृ. २४६-४७
राम ने शबरी के द्वारा सामने परोसे गये फलों में चार फल फठा कर खाये
और शबरी के चारों फल (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) को जला कर उसे सेवा का परम फल –
प्रेमलक्षणा भक्ति – प्रदान दिया।
सौंदर्य, समर्पण, अनन्य भक्ति का ऐसा भावमय चित्रण तुलसी ने यहाँ किया
है। पर शबरी के द्वारा राम का बेर खिलाने का उल्लेख यहाँ भी नहीं है, जूठे बेर
खिलाने का तो प्रश्न ही नहीं है।
रामानंद सागर के धारावाहिक रामायण में शबरी भक्तिभाव मे ऐसी गद्गद है
कि वह एक एक बेर जूठा कर कर के राम को देती है, राम उसका एक एक बेर आनंद ले ले कर
खा रहे हैं। यह भक्ति का वह रूप है, जिसमें तर्क और विवेक को बिसार कर उसका
अनुष्ठान रचा जाता है।
वाल्मीकिरामायण, अध्यात्म रामायण, तुलसीदास के रामचरित मानस कवितावली
और गीतावली मे कहीं भी शबरी के द्वारा बेर के फल खिलाने का ही वर्णन नहीं है।
उन्हें जूठे कर कर के खिलाने का उल्लेख है ही नहीं। जूठे बेर खिलाना प्रेम की
अनन्यता का द्योतक है, जिसमें शिष्ट समाज के सारे नियम टूट जाते हैं, शौच-अशौच,
उच्छिष्ट – अनुच्छिष्ट, ऊँच-नीच के सारे भेद बिसर जाते हैं – रह जाता है
प्रेम।
भक्ति का आंदोलन समाज के लिये एक और बड़ा संबल ले कर आया। सामाजिक
विषमताओं को उससे चुनौती मिली। शबरी के द्वारा बेर खिलाने के प्रसंग में जो छुआछूत
या स्पृश्यता के खंडन का भाव है वह तो ग्राह्य है। जूठे बेर खिलाने का प्रसंग अतीत
का हिस्सा हो सकता है, हमारा वर्तमान नहीं। वह उस भक्ति को प्रस्तुत करता है, जो
उन्माद में पर्यवसित होती है। राष्ट्र पर विपत्ति आती है, तब धार्मिक उन्माद काम
में नहीं आता, विवेक काम में आता है। राष्ट्रनिर्माण के संकल्प को चरितार्थ करना
हो, तो यह तन्मय होना आत्मविभोर होना कीर्तन में , और भक्तिसंगीत में अपने आप को
सराबोर कर के डूब जाना काम नहीं आता।
भक्तिकाल में सारा तर्क और विवेक को ताक रख कर भक्ति एक उन्माद बन
जाती है। कथित संत औऱ महात्मा धर्म का एक ऐसा विकृत रूप जनसामान्य के सामने रखते
हैं जिसमें गाफिल हो जाता धर्म एक अफीम बना दिया जाता है। राजा, शासक और शासन भी
प्रसन्न रहता है जनता जितनी गाफिल।
वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण और रामचरितमानस इन तीनों
रामायणों में शबरी के द्वारा राम को बेर खिलाने का या कोई भी फल जूठाकर के खिलाने
का भी कोई प्रसंग नहीं है। वा.रा. में शबरी एक श्रमणी है, मतंग मुनि का दिया ज्ञान
उसके पास है, तपस्या और साधना वह करती है, उसके साथ ही उस वन की रक्षा वह करती आ
रही है, जिस पर मतंग मुनि के शिष्यों का पसीना बहा था, और उस पसीने वहाँ सुंगंधित
फूल खिलते गये थे। उसमें ज्ञान कर्म भक्ति
समन्वय था। अध्यात्म रामायण जब लिखी गई, तो पैमाने बदल चुके थे, जीवन के
प्रति दृष्टि बदल गई है। ज्ञान, कर्म और भक्ति के समन्वय से उपजी समग्र जीवन बोध
का भक्तिभाव में और वह भी अंततः दास्यभक्ति में परिणत हो जाता है।
रंगनाथ रामायण की रचना तेरहवीं शताब्दी में गोनबुद्ध रेड्डी ने की। रंगनाथ रामायण (हिंदी अनुवाद बिहार राष्ट्रभाषा
परिषद्, पृ. 167-68) में कबंध राम को मतंग मुनि की शिष्या शबरी से भेंट करने की
सलाह देता है। राम लक्ष्मण के साथ शबरी के
आश्रम पहुँचते हैं, शबरी राम को साष्टांग प्रणाम करती है, और उनकी स्तुति करती है।
आश्रम का महत्त्व बता कर वह राम को कंद, मूल और फल अर्पित करती है। राम उसके द्वारा
अर्पित फल खाते हैं। फिर शबरी उन्हें ऋष्यमूक पर्वत की ओर जा कर सुग्रीव से मिलने
का परामर्श देती है। फिर वह चिता पर अग्नि प्रज्ज्वलित कर के अपना देह त्याग देती
है और राम तथा लक्ष्मण ऋष्यमूक पर्वत की ओर प्रस्थान करते हैं। इसमें बेर खिलाने
का कोई उल्लेख नहीं है। जूठन खिलाने का भी कोई उल्लेख नही हैं।
कृत्तिवास रामायण में गंधर्व के अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करने
के पश्चात् कबंध राम को सुग्रीव के निवास का पता बताता है। इसके बाद राम और
लक्ष्मण शबरी के आश्रम में रुकते हैं। शबरी का प्रसंग इस रामायण में अत्यंत
संक्षेप में है। राम को अपने जीवन का वृत्तांत बताती है उसके पश्चात् चिता बना कर
उसकी अग्नि में अपने प्राण त्याग देती है। सुग्रीव की भी कोई चर्चा शबरी नहीं
करती। शबरी के द्वारा राम को किसी भी प्रकार के फल अर्पितकरने का प्रसंग इस रामायण
में नहीं है।
कंब रामायण का बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से १९६३ में प्रकाशित हिंदी
अनुवाद मेरे सामने हैं। इसके अरण्यकांड के अध्याय ७ में सीताहरण पटल में राम मारीच
का वध करते हैं। अध्याय ८ में सीता लक्ष्मण को कटुवचन कहती हैं लक्ष्मण आहत हो कर
चल पड़ते हैं। लक्ष्मण रेखा का कोई प्रसंग कंब रामायण में नहीं है।
पटल ११ में कबंध तनुनामक गंधर्व राम को शबरी औऱ सुग्रीव से भेंट करने
की सलाह देता है।
पटल १२ में शबरी नाम को कंद मूल फल ला कर भोजन कराती है। फिर वह राम
को सुग्रीव के निवासस्थल का मार्ग बताती है।
इन रामायणों में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी राधेश्याम कथावाचक की रामायण
है। राधेश्याम कथावाचक को नेपाल सरकार से कथावाचस्पति की उपाधि मिली,
कीर्तनकलानिधि, काव्यकलाभूषण, श्रीहरिकथाविशारद और कविरत्न भी वे कहे जाते थे। वे अपने
समय के लोकप्रिय कवि और पारसी रंगमंच के एक चर्चित नाटककार रहे हैं। वे जनता के
कवि थे। कम ही कवियों लेखकों को अपने जीवन में इतना सम्मान और वैभव मिलता है जितना
राधेश्याम कथावाचक को मिला। अपने लगभग पचासवर्ष के साहित्यिक जीवन में वे जितनी ही
तेजी से एक नक्षत्र की तेजी से चमके उतनी ही तेजी से वे विस्मृति के गर्त में भी
डाल दिये गये।
राधेश्याम रामायण के अलग अलग कांडों के कई कऊ पुनर्मुद्रण हुए। मेरे
पास राधेश्याम रामायण की श्रीराधेश्याम पुस्तकालय से १९६० में प्रकाशित प्रति है,
जो उन्तालीसवीं बार २००० की संख्या में छापी गई है, और इसकी कीमत ३२ नये पैसे लिखी
हुई है। संभवतः इसके पहले की ३८ आवृत्तियों में मुद्रित प्रतियों की संख्या दो दो
हजार से ऊपर ही रहती आई होगी। राधेश्याम रामायण की अपार लोकप्रियता, जो हमारे समय
में अब अकल्पनीय है, का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है। इस रामायण के ग्रामोफोन
रिकार्ड्स भी पिछली शताब्दी में पचास औऱ साठ के दशकों में ऐसे ही लोकप्रिय हुआ
करते थे।
कबंध का प्रसंग राधेश्याम रामायण में नहीं है, जटायु से कारुणिक भेंट
के पश्चात् राम सीधे भिलनी के यहाँ पहुँचते हैं। मेरी प्रति में पृ. २१ पर कहा गया
है –
उसी गीध के गुणों का करते हुए
बखान
पहुँचे भिलनी के यहाँ करुणानिधि भगवान्।।
राधेश्याम कथावाचक ने भिलनी शब्द का प्रयोग का है, शबरी शब्द का भी
प्रयोग उन्होंने एक दो बार इस प्रसंग में किया है। वैसे भी शबरी इस महिला का नाम
नहीं लगता। शबर जाति की कोई महिला होने से वाल्मीकि ने शबरी कहा गया है। राधेश्याम
कथावाचक इस महिला को अलग पहचान देना चाहते थे इसलिये वे भिलनी शब्द का प्रयोग करते
हैं। उनके समय शबर जाति तो भारतीय समाज में कहीं खप गई है, भील की पहचान है। भील
राजस्थान में हैं, गुजरात में हैं, मध्यप्रदेश में भी और जहाँ राधेश्याम कथावाचक
का कार्यक्षेत्र रहा – बरेली, मुरादाबाद दिल्ली के आसपास का क्षेत्र — उसके ग्रामांचलों में या वनग्रामों में भी भील
जाति के लोग हैं। राधेश्याम इस भिलनी की भगवान् से भेंट मे अमूर्त अपमान गूँथे हैं
–
भिलनी इस तरह मिली इनसे जिस तरह धर्म धर्मात्मा से
या यों कहिये इस तरह मिली जीवात्मा ज्यों परमात्मा से।।
सुंदर पत्तों ते आसन पर अपने प्रभु को बैठाती है
मेहमानी के कुछ बेरों को डलिया में भर कर लाती है।
वे फल शबरी के जूठे थे (यह लिखा सूर सागर में है)
हम भी कहते हैं जो कुछ है सब प्रेम और आदर में है।
प्रेमिनि का सच्चा प्रेम देख राधौ जी हाथ बढ़ाते हैं
जूठे बेरों को बेर बेर खुश हो कर भोग लगाते हैं।
ला बेर बेर क्यों बेर करे यह बेर सुधा से बढ़ कर हैं
मक्खन मिसरी से भी अच्छे, ताकतवर मधुर मनोहर हैं। (पृ. वही)
इसके बाद गाना है –
शबरी काहे करत है बेर, मोंको बेर बेर दे बेर –
गुठली फैंकत सकुच लगत है, हैं प्रेमिनि के बेर।
राधेश्याम धन्य भइ शबरी और धन्य भए बेर।। (पृ. २२)
फिर राम लक्ष्मण से भी बेर खाने का बेर खाने का अनुरोध करते हैं –
लक्ष्मण तुमने खाया न बेर, देखो कैसा तो मीठा है।
पृथ्वी से ले आकाश तलक जो कुछ है इससे फीका है। (पृ. २२)
लक्ष्मण डलिया से अनिच्छा से एक बेर उठाते हैं, खाते नहीं जब राम नहीं
देख रहे हैं, तब चुपचाप पीछे की ओर उछाल देते हैं। पर राम अंतर्यामी हैं, उनकी
आँखों से यह चोरी कैसे छुपी रह सकती थी। राधेश्याम कथावाचक कहते हैं कि लक्ष्मण ने
जो बेर उछाल कर पीछे फैंक दिया था, उसका क्या हुआ यह मैं आगे बताऊँगा, क्यों कि
वही बेर तो द्रोणगिरि पर जा कर गिरा, और रामचंद्र की इच्छा से संजीवनी बूटी बना,
और जब लक्ष्मण को शक्ति लगी , वे मूर्च्छित पड़े हए थे, तब इसी बेर की बूटी ने
लक्ष्मण के प्राण बचाये थे।
शबरी के जूठे बेर भक्त के
भावजगत् में लक्ष्मण के लिये संजीवनी बूटी बन जाते हैं। राधेश्याम कथावाचक समझ रहे
हैं कि शबरी के जूठे बेर खिलाने का प्रसंग विवादास्पद है, पर उसके पीछे भाव बड़ा
ऊँचा है। वे यह भी जानते हैं कि उनकी लेखनी उन ऊचाइयों पर नहीं पहुँच सकी, जिन पर
तुलसी पहुँचे।
जो कुछ हो यही कहेंगे हम यह भाव यहाँ का ऊँचा है
लेखनी हमारी नीची है भक्तों का दर्जा ऊँचा है। पृ. २३
शबरी भीलनी राम सुग्रीव के
निवास का रास्ता बताती है।
कथावाचक के प्रसंग में भाषा की बहुत सुंदर पच्चीकारी है, शब्दों की
बाजीगरी भी है। शब्दों की बाजीगरी में एक छल है, जो तर्क और विवेक पर मुलम्मा बन
कर चढ जाता है।
राधेश्याम कथावाचक जो संस्कृत साहित्य के भी अच्छे पंडित थे और
वाल्मीकि रामायण का अध्ययन करके उन्होने यह रामायण लिखी है। वे स्वयं भी जानते हैं
कि शबरी के द्वारा इस तरह जूठे बेर राम को खिलाने का प्रसंग वाल्मीकि और तुलसी में
नहीं है। इस पर विवाद न हो इसलिये वे अपने मूल पाठ में जोड़ते हैं सूरसागर में ऐसा
लिखा है। सूरदास कृष्णभक्त कवि है, वे अपने एक पद में कहते हैं कि प्रभु ने
दुर्योधन की मेवा त्याग कर विदुर के घर का साग खाया और शबरी के जूठे बेर खाये।
क्या यह कृष्णभक्ति के मानकों का रामकाव्य पर आरोपण है?
रामायण धारावाहिक के प्रारंभ में यह घोषणा रहती है कि यह धारावाहिक
वाल्मीकि रामायण, तुलसी के रामचरितमानस,
रंगनाथरामायण, कंबरामायण और कृत्तिवास रामायण – इन पाँच रामायणों पर आधारित है। यह
शबरी के हर बेर जूठा कर कर के देने का प्रसंग इन पाँचों ही रामायणों में नहीं है।
इस धारावाहिक की किसी कड़ी में रामानंद सागर स्वयं अवतरित होते हैं, और स्पष्ट
करते हैं कि हमने यह धारावाहित वाल्मीकि
रामायण, तुलसी के रामचरितमानस,
रंगनाथरामायण, कंबरामायण और कृत्तिवास रामायण – इन पाँच रामायणों का आधार लेकर
निर्मित किया है। इन सभी रामायणों में शबरी के द्वारा राम को बेर खिलाने का और
जूठे बेर खिलाने का कोई प्रसंग है ही नहीं। फिर भी रामानंद सागर आनंद में गोते मारते
हुए यह प्रक्षिप्त प्रसंग दिखाते हैं।
कुल मिला कर शबरी के तीन रूप हैं — पहले में ज्ञान कर्म और भक्ति का समन्वय है। इस
रूप में वह राम को पथ को बताने वाली, समाज के लिये चिंता रखने वाली, निसर्ग सृष्टि
के प्रति एक सरोकार रखने वाली उदारचेता
महिला है। दूसरे में वह साधिका है योगिनी
है। तीसरे में मात्र भक्त बन कर रह जाती है। महान् काव्यों की हर युग नई पहचान हम करते हैं। हम हमे तय करना है कि कौन सी पहचान आज हमें चाहिये
जो हमें अपने आप को अपने राष्ट्र पहचानने में सहायक हो।
रविकांत
हम आपके ऋणी हैं जो आपने हम सबके लिए रामायण–कथा–धारा के इन महत्वपूर्ण प्रसंगों को इतनी सहृदयता से खोला। आप हमारे लिए उसी तरह की पाठकीय जासूसी कर रहे हैं, जो कभी इतालवी विद्वान कार्लो गिन्ज़बर्ग ने ‘द चीज़ ऐन्ड द वर्म्स‘ नामक मशहूर किताब में की थी. उनका सवाल था कि मेनोकियो नामक जो १६वीं सदी का किसान है, उसके मन में यह विचार कहाँ से आया कि धरती पर जीवन की उत्पत्ति चीज़ में पड़े हुए कीड़ो–मकोड़ों से हुई। वह उन किताबों को खँगालते हैं जो मेनोकियो के यहाँ से कैथोलिक धार्मिक अदालत ने ज़ब्त किए थे। लेकिन किसी में वैसा उल्लेख नहीं पाकर वे कहते हैं कि ज़रूर लोक–कथाओं की एक वैश्विक अंतर्धारा है,
जो वेदों तक जाती है, जहाँ से मेनोकियो को यह चर्च–विरोधी विचार आया था, जिसके लिए उसे प्रति–धर्म–सुधार आंदोलन के युग में मुक़द्दमा चलाकर जला दिया गया था।
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का उल्लेख भी मुझे अच्छा लगा क्योंकि हम अक्सर भूल जाते हैं राज्य की इन इकाइयों ने छठे,
सातवें और आठवें दशक तक बेहतरीन शोधपरक किताबें छापी थीं। अफ़सोस कि राज्य के विश्वविद्यालयों के पतन के साथ–साथ इनका भी पतन हो जाता है,
हमारे ज़माने में।
लेकिन इस प्रस्तुति में सबसे बेहतरीन चर्चा राधेश्याम रामायण को लेकर रही। आप दुरुस्त फ़रमाते हैं कि स्टार कथावाचक होने के साथ–साथ वे पारसी नाटक मंच के शीर्षस्थ लेखक भी हुए। आग़ा हश्र कश्मीरी और नारायण प्रसाद ‘बेताब‘ कुछ अन्य नाम थे। कैथरीन हैन्सेन ने इनकी जीवनियों पर अच्छा काम किया है, अंग्रेज़ी में अनुवाद भी किया है और̛ईपीडब्ल्यू’ में छपे एक लेख में बताती हैं कि कैसे ‘बेताब‘ नयी संवेदनाओं के आलोक में महाभारत का पुनर्लेखन करते हैं,
और उसमें जाति के सवाल को निर्गुणिया संत रविदास के माध्यम से अंतर्गुम्फित करते हैं। इन तीनों ही सज्जनों ने तीस के दशक के सिनेमा के लिए भी लेखन किया। अपनी आत्मकथा – ‘मेरा नाटक–काल‘ – में कथावाचक ने वह दौर दर्ज किया है, अपने इस दुराग्रह सहित कि उनकी कंपनी में महिलाओं को प्रवेश न दिया जाए!
आचार्य, आप सही कहते हैं कि हमारे पास यह कहने का औपचारिक आधार नहीं है कि रामानंद सागर ने ‘राधेश्याम रामायण‘ से ही शबरी के जूठे बेर – बेर–बेर‘ की यमकालंकार से लैस भौतिक प्रस्तुति – की प्रेरणा ली। यानि राधेश्याम रामायण पर भी वक़्त की छाप है, वैसे ही जैसे कर्ण के जीवन पर आधारित दिनकर की ‘रश्मिरथी‘ पर या मराठी उपन्यास ‘मृत्युंजय‘ पर। लिहाज़ा, मुझे लगता है कि सिनेमा में रामकथा के पुराने अवतरणों को भी देखा जाए। मिसाल के तौर पर मुझे ‘महर्षि वाल्मीकि‘ नामक फ़िल्म निहायत दिलचस्प लगती है, जिसमें वाल्मीकि की अपनी कहानी वैसी नहीं है, जैसी हम ‘अमर चित्र कथा‘ आदि में पाते हैं। यानि वे शुरू से ही डाकू नहीं हैं , बल्कि वनवासी जनजातीय हैं, और उनकी माँ आश्रम के आर्यों की सेवा में इस तरह रत हैं कि शबरी की याद आती है। हिंसक मानव के रूप में उनका रूपांतरण जितनी मानवीय करुणा की एक कहानी है उतनी ही वन्य–संसाधनों पर किसका अधिकार हो, भक्ष्याभक्ष्य क्या है, जीवन–शैली कैसी हो, इसको लेकर आर्य–अनार्य विश्व–दृष्टियों की टकराहट को भी सामने लाती है। अंत में नारद उनका हृदय परिवर्तन करते हैं, और वे रामकथा लिखते हैं। फ़िल्म यूट्यूब पर उपलब्ध है। आचार्य, मुझे यह भी लगता है कि सिनेमा की दृश्य–भौतिकता में ‘
शबरी के बेर का ‘जूठापन’
और उसका दर्जा (हरेक बेर या ढेर) दर्शनीय बन जाता है, जो शाब्दिक काव्य में शायद छुप भी जाए।
बहरहाल आपने रास्ता सुझा दिया है, हम आगे की राह ले सकते हैं। आपका और अपने मित्रों
– राकेश पांडेय और अजय मिश्र का भी धन्यवाद जिनसे मैं ऑफ़लाइन मार्गदर्शन लेता रहता हूँ !
अजय मिश्र
मेरे सुहृद रविकान्त जी आपने सही फरमाया है कि सम्मान्य का
“रामायण में शबरी प्रसंग “व्याख्यान को भी समझने समझाने में अपना बौद्धिक हाजमा काफी
मजबूत करना पड़ेगा! सच तो यही है कि ऐसा सधा विमर्श अपने आप में क्लासिक हो कर
अनेक पीढियों के लिए मनीषा उपजीव्य बन जाता है।
आचार्य ने मीडिया के शोर तथा भक्ति आंदोलन
की जड़ता पर भी ज्वलन्त
प्रश्न उठाया है, और रामानंद सागर जी द्वारा ‘ ‘रामायण‘ सीरियल में वाल्मीकिरामायण,
अध्यात्मरामायण तथा रामचरितमानस की सामग्री की लीक से हट कर
जो घाल मेल किया है उस तथ्य को भी बड़े
वैदुष्य पूर्ण ढंग से रखा है। वह निश्चित रुप से एक
नये बहस का आगाज करता है। आचार्य जी ने विशेष कर
वाल्मीकि रामायण की मौलिकता की बात उठायी उससे नये
निर्देशक / पटकथाकार को नसीहत लेनी चाहिए ताकि इस
मौलिकता के आधार पर अपने सहकारी सांस्कृतिक विरासत का
पुनराविष्कार किया जा सके। गौ़रतलब है कि इसमें मूल संस्कृत के संबंधित विद्वान
तथा कलाकार की टोली इस नये संस्करण से जुड़ें।
लेकिन इसका भी खयाल रहे कि सागर जी ने रामायण के अनेक रीशेन्सन तथा उनके देश, काल
तथा स्थान की मान्यताओं के मंथन कर जो कार्य किया है, वह भी
सर्वथा श्लाघ्य है। सच तो यह है कि मूल रामायण में
उनके लिखे जाने की भूगोल , मिथक ,संस्कृति
तथा लोक विश्वासों का अनायास जूट जाना इसकी क्लासिकल
एप्रोच को पुख्ता बनाकर कालजयी बनाता है।
जैसा कि मुझे लगता है कि भक्ति और यथार्थ का अन्वेषण
एक नदी का दो किनारा है। लेकिन मुझे समझ में नहीं आता कि आचार्य राम
विलास शर्मा सदृश बहुपठित मार्क्सवादी नक़्क़ाद जब भक्ति आंदोलन का वकालत करते हैं
तो उनके कुनबे के महारथीगण नाक भौं सिकोड़ते हैं और
जिसका खामियाना आचार्य शर्मा जी को भुगतना पड़ता है। अतः भक्ति के इस तह में भी जाने की ज़रूरत है। गुरुदेव ने अपने इस व्याख्यान में भी मीडिया में घाल मेल
की सामग्री परोसने की बात की उससे जरुर
सावधान रहने की ज़रूरत है। वह भी ग्लोबलाजेशन के इस घातक दौर जो अपने प्रचार के बल
पर अपनी बात मनवा ही लेता है।
लेकिन भूमंडलीकरण के इस जानलेवा युग में यह भी निर्णय करने का समय आ
गया है कि हम साहित्य और इतिहास के बीच आखिर कैसी लकीर खींचे ताकि एक दूसरे के सच की चमक धूमिल न हो जाय।
पंपा सरोवर का अद्भुत वर्णन न केवल साहित्य का आलंबन या उद्दीपन पक्ष माना जाय बल्कि उसे क्लाईमेट जस्टिस, वनस्पति शास्त्र तथा आयुर्वेद के अध्ययन
अध्यापन की नजरिये से भी शिनाख़त करने की भी खा़स ज़रूरत जान पड़ती है। साथ ही साथ
आचार्य जी ने जाति से बहिष्कृत उस मतंग ऋषि का जो जिक्र
किया है वह आज के सामाजिक विखण्डन
के दौर में और युगीन हो गया है। गुरुदेव के इस समन्वित
चर्चा संस्कृत पर लगते रहे
एक रैखिकता के आरोप को भी कमजोर करता दिखता है। मुझे यह भी लगता है कि
पुरुषोत्तम राम अपने दल बल के साथ शबरी से मिलने की
अपेक्षा दुर्गम किष्किन्धा पर्वत को किसी तरह खोज निकालना चाहते हैं ताकि अपनी कान्ता सीता जी की यथा शीघ्र
तलाश कर सकें। अतः रामायण का यहाँ यथार्थवादी पक्ष के साथ मर्यादा राम का कूटनैतिक अंदाज भी गौ़रतलब है। यदि वाल्मीकि
रामायण, आंनद रामायण या रामचरितमानस में शबरी के जूठे बेर
के प्रसंग नहीं हैं तो क्या यह माना जा सकता है आचार्य जी ने
‘लक्ष्मण रेखा‘ के मार्फत स्त्री के चूकते अस्तित्व की ओर जो संकत दिया है, क्या यहां शबरी और उसके जूठे बेर के संदर्भ में देखा जा सकता है।
आचार्य जी ने जिस वन जनजाति का ज़िक्र किया है और मर्यादा राम
ने जिनके बल पर रावण के दांत खट्टे किये थे उसे एक सामान्य गठबंधन नहीं समझा जाय। हाशिये पर धकेले गये ये वन संतति पास-पड़ौस के देशों
को छक्के छुडाने में बडे कारगर हो सकते हैं। हमें याद रखना चाहिए पवन पुत्र हनुमान
जब पहले लंका निरीक्षण में जाते हैं तो जब उनको एक राक्षसी मुख्य द्वार पर विकट चुनौती देती है
लेकिन उनके एक ही मुष्टि प्रहार में उसके छक्के छूट
जाते हैं।
प्रवीण पंड्या
रामायण के लक्ष्मणरेखा- शबरी प्रसंगों
पर आपके तीनों व्याख्यानों से ये दोनों अब सुस्पष्ट हो चुके हैं। इन वक्तव्यों को
सुनने से ही यह विचार आया कि वस्तुतः भारत काव्य का देश है। काव्य को पचाने की
इसकी शक्ति अतुलनीय है। किसी विद्वान के श्लेष अलङ्कार पर पुस्तक की समीक्षा के
समय विचार आया था कि
किसी देश का भी कोई अलङ्कार होता है और आपके द्वारा महादेश के रूप में सम्बोधित इस
देश के अलङ्कार हैं : अपह्हनुति व अन्यथाकरण। इससे वह
कुछ छांटता, कुछ जोड़ता हुआ अपने को सँवारता है
और नित्य नवीन, निरन्तर समृद्ध हो जाता था (और है।)। यद्यपि
हमें कभी कभी इसके प्रति निराशा होती है, किन्तु आत्मधर्म/
स्वभाव होने से वह अपराजेय शक्ति के साथ विद्यमान रहता है, ढँक
जाने के बावजूद। अन्यथाकरण के आप द्रष्टा हैं। आपके दर्शन में वह समृद्ध हो इस समय
उपस्थित हुआ है। दीक्षा के वैदिक, श्रमण, वैष्णव, शैव स्वरूपों में निरन्तर बदलाव इसका एक
निदर्शन है।
हरीश त्रिवेदी
आपके व्याख्यान ज्ञानप्रद भी हैं और आनंदप्रद भी. अभी पिछला
समापन खंड इतना रस-सिक्त था और आपने राधेश्याम जी की
कुछ पंक्तियों का ऐसा सुन्दर पाठ किया कि कोई संस्कारी सहृदय व्यक्ति ही कर सकता है!
शबरी के बारे में एक छोटा-सा प्रसंग याद आता है जो दर्शाता है कि
जन-जन की उनके प्रति श्रद्धा कितनी गहरी है। मैं पहली बार अयोध्या गया
(और अब तक अंतिम बार भी), अक्टूबर 1992 में (हाँ, बस दो-ढाई महीन पहले!) तो कनक-भवन नामक
मंदिर भी गया जो काफी कुछ राज-महल जैसा बना है. अहाते
में घुसते ही एक बड़ा-सा फौव्वारा दिखा जिसके बीचो-बीच
एक विदेशी महिला की एक हाथ में अंगूर का गुच्छा उठाये हुए कुछ उमर ख़य्याम जैसे
अंदाज़ में खड़ी संगमरमर की प्रतिमा दिखी. मुझे बुरा लगा कि ऐसी विलासिता-द्योतक,
विदेश से लायी गयी, अनेक मूर्तियाँ हमारे रजवाड़ों के प्रासादों में तो अवश्य पाई जाती हैं पर यहाँ मंदिर में
इसका क्या औचित्य है? मैं कुछ भुनभुनाया हूँगा तो मेरी नाराजगी देख
कर मेरा बुड्ढा रिक्शा-वाला बोला: “भइया, चीन्हेन नाहीं का? ई सबरी-माता आँही. परनाम करैं.”
इतनी गोरी, हृष्ट-पुष्ट और किंचित
लुभाऊ अंदाज़ में खड़ी किसी और भीलनी की प्रतिमा तो मैंने
देखी नहीं। पर शायद इसका कोई रहस्य हो, अंतर्कथा हो, जो यदि कोई बता सके तो मेरी बरसों की चिंता शमित हो।
प्रसंगतः एक और बात. राधेश्याम जी की रामायण की लोकप्रियता क्यों घटी? संभव
है कि तब से बढ़ती हिंदी की “भाषा-शुचिता” के कारण घटी हो, जैसाकि आपने सुझाया, पर मुझे लगता है कि यह उन सभी
अन्य कारणों से भी घटी है जिनसे पूरी पारसी-थिएटर वाली अति-नाटकीय शैली की लोकप्रियता घटी है, और उसी अंदाज़
की फड़कते हुए “डायलाग” मारने वाली १९४०-५० के दशकों वाली फिल्मों की भी. दूसरे,
राघेश्याम जी स्वयं भाषा-शुचिता से
परहेज़ नहीं करते, यथा विलाप करती तारा को रामचन्द्र जी एक गाने से समझाते हैं जिसकी शुरुआत है:
“जीवात्मा तो निर्वाण है…” और फिर
“बुद्ध्यातीत” शब्द आता है जो शायद “कामायनी” में भी न मिले!
यह ज़रूर है कि राधेश्याम जी की भाषा अधिकतर
“मिली-जुली” है पर उसमें कुछ ऐसे प्रयोग हैं जो शायद तब भी कुछ
पाठकों-श्रोताओं को अटपटे लगते रहे हों — जैसे कि
“जिस सियह-फ़ाम ने सिया हरी…” या फिर:
“क्या ज़िक्र यहाँ घर का, ज़र का, सर देने में इन्कार न हो.
हर वक़्त दुआ यह दिल से हो, ग़मगीन हमारा यार न हो.”
पर यह विषयांतर हुआ जाता है।
तो एक बार पुनः आपका अनेकशः साधुवाद।
Satyanarayan Hegde
The Tamil Kamba
Rāmāyaṇa (12th-13th century) has (in a few
manuscripts only) a verse referring to Śabarī’s feeding Rāma ucchiṣṭa jujubes as mentioned
by C.R. Sarma at page 93 in his pioneering work of comparative studies, The
Ramayana in Telugu and Tamil. A Comparative Study, Madurai: Lakshminarayana
Granthamala, 1973. This is probably the earliest occurrence of this motif in
the Southern Rāmāyaṇa tradition. Sarma mentions that this is a common phrase
amongst Telugu-speaking cultures. I have a Hindi translation of the Kambarāmāyaṇa which does not have
this verse (Kamba Rāmāyaṇ: Mahākavi Kamban-racit mūl Tamil se anūdit. Anuvādak: Śrī N.V. Rājgopalan, sampādak: Śrī Avadhnandan, Paṭnā: Bihār Rāṣṭrabhāṣā-Pariṣad, 1963, 2 volumes. Śabarī’s episode occurs in volume one, in the 12th adhyāya at page 426, which very briefly mentions that she fed the
brothers fruits and roots. There is no mention of her having tasted them
beforehand.
The Telugu Molla Rāmāyaṇa (14th century) by the female poet Ātukuri Molla, a potter’s daughter is one of the classics of
Telugu literature. One would expect that being an avarṇa and a female,
Molla’s retelling would have the ucchiṣṭa jujubes episode, but
alas, it doesn’t. This Rāmāyaṇa too has been transliterated into nāgarī characters and
translated into Hindi (Telugu Śrī Molla Rāmāyaṇa-Telugu Kāvya kā Nāgrī Lipyantaraṇ, evam Hindi Gadyānuvad. Anuvād evam lipyantaraṇ–Dr. C.H. Ramulu. Lakhnau: Bhuvan
Vāṇī Trast, n.d.). Śabarī’s episode occurs briefly at page 103, but there is
no reference to her feeding bitten-jujubes to Rāma.
The Oriya Jagmohana/Jaganmohana Rāmāyaṇa (early 16th century,
also called as the Dāṇḍi Rāmāyaṇa after the meter used
in its composition) by the great Oriya śūdramuni Baḷrāmadāsa, the most renowned of the legendary pancasakhā poets of Oriya literature, has perhaps the earliest
reference in the Eastern Rāmāyaṇa tradition of the motif of Śabarī’s feeding Rāma ucchiṣṭa fruits, though the
fruits are mangoes and not jujubes. This is certainly the most fetching version
of this motif. This massive Rāmāyaṇa (it is many times the size of the Vālmīki Rāmāyaṇa) has been transliterated
into nāgarī characters and translated into Hindi (Jagmohana Rāmāyaṇa [Dāṇḍi Rāmāyaṇa], sānuvad Devnāgarī lipyantaraṇ. Karttā: Yogeśvar Tripāṭhi “Yogī.” Lakhnau: Bhuvan Vāṇī Ṭrasṭ, 1991, 5 volumes). In
this retelling, after the Kabandhavadha, the brothers encounter
a Śabara and a Śabarī on
the way. The Śabara asks Rāma his name and lineage and after being
informed in short the narrative up to this point, the Śabaraṇī,
i.e., Śabarī venerates the brothers and takes them to her hermitage and
tells Rāma that she was waiting for his arrival, which was foretold to her by
Indra. She tells him that she has saved the choicest fruits and roots for him
and upon beholding the fruits and roots which all bore teeth-marks, Rāma
praises her for saving the best and the sweetest for him and devours them
vigorously. In a lovely narration, Śabarī offers Rāma an unbitten sundarī mango,
which Rāma instead of eating throws on the ground, stating that since it was
“unmarked” (amudrā) by her teeth, he had no way of knowing that it was
sweet and if it was, she ought to have marked it with her teeth! Baḷrāmadāsa
states that when Śabarī received the foretelling of Rāma’s arrival, she
entered a mango-grove and started gathering mangoes, verifying that they were
sweet and not sour by biting them. Rāma here states that he will not consume
untasted fruits and insists that the fruits be tasted before he consumes them!
The Jagmohan Rāmāyaṇa has a polemical backdrop,
being the first religious text composed in Oriya, prior to which only Sanskrit
could enter the temples, due to which it is believed that Baḷrāmadāsa composed
this text on the balustrade (jaganmohana in Oriya) outside the
famous Jagannātha temple. W.L. Smith in his lovely study (Rāmāyaṇa
Traditions in Eastern India: Assam, Bengal, Orissa. Department
of Indology, University of Stockholm: Stockholm, 1988) refers briefly to this
episode at page 125:
sundarī āmbaku nei
pache yāhā dele/
amudrā boliṇa
tāhā rāma na bhuñjile//
śabaraṇī kahuacchi beṇikara
yori/…
bhaḷa āmba goṭita
lecchila kisapāiṃ/
śabarī bola śuṇi
boile raghusāiṃ//
bhala boli tāhāku tu
kemante jāṇilu/
yebe bhala danta
mudrā kipaiṃ na delu//
amudrā padārtha ye
bhuñjibā na yogāi/
(Smith misinterprets sundarī and
thinks that this refers to Śabarī, rather than a variety of mango,
remarking that such a term is inappropriate for the aged ascetic woman
described in the Vālmīki Rāmāyaṇa!)
The terse Brajbhāṣā Bhaktamāl
of Nābhādās (ca. 1624), a highly-condensed “rosary”
of some two hundred famous devotees, ranks Śavarī (Śabarī) as eighth among
twenty-three bhaktas who are termed “beloved of the Lord” (Harivallabh)
and who are listed in its ninth stanza. Its skeletal outline was fleshed
out in ca. 1712 by one Priyādās, who composed an elaborate
Kavitta Ṭīkā or commentary entitled Bhaktirasbodhini that
adds some 630 stanzas. Seven of these stanzas (31-37) are devoted to Savarī
(Śabarī) and generate a considerable bhakti “back-story” for
her (Gosvāmi Śrīnābhāji krt Bhaktamāl. Śrī Priyādāsjī praṇit Ṭīkā-Kavitt
Śrī Ayodhyānivāsī Śrī Sītārāmśaraṇ Bhagvānprasād Rūpakalā viracit
Śrībhaktisudhāsvād Tilak Sahit. Lakhnau: Tejkumār Bukḍipo Limiṭeḍ,
2011). The ucchiṣṭa jujubes reference is in stanza 35, which
is at page no. 86 (lāvai ban ber, lagi rām ko avser bhāl, cākhai
dharirākhai phir, mīṭhe un jog haiñ). Here, I think, for the first time
is mentioned that the fruit that Śabarī feeds Rāma is a jujube (ber).
Towards the end of
the 18th century, the Bengali poet Jagadrāma wrote
a Rāmāyaṇa (known as the Rāmprasādī-Jagadrāmī Rāmāyaṇa,
since the poet is handed over the poem after the Lankākāṇḍa to
his son Rāmprasād, who continued and completed the work) intending, like
earlier Bengali poets, to harmonize Vaiṣṇava and Śākta ideas
by combining the Sanskrit Adbhuta Rāmāyaṇa and
the Adhyātma Rāmāyaṇa. This work, alas, does not appear
to be have been translated or transliterated. In this work Rāma, conscious and
concerned that his every action will be liable to be judged and evaluated by
his devotees, is extremely cautious in all his acts. Thus, when
Śabarī offers him fruit which she has first tasted, he thinks “If I feel
disgust and do not eat this fruit, my name as one who is obligated to his
devotees will be gone at once. Therefore, I must eat the leavings of
Śabarī.” Smith refers to this episode at page 111 of
his book:
se phala nā khāi
yadi āmi ghṛṇā kari//
bhakata adhīna nāma mora
taba gela/
śabarīra ucchiṣṭa khāite
mora haila//
The early 19th century Hindi Radheśyām
Rāmāyaṇa has an extensive Śabarī episode (The edition I have
does not give publication details, this episode is at pages 275-277), where
Rāma impatiently demands the ucchiṣṭa jujubes from Śabarī
(this is at page 276):
premikā kā saccā prem
dekh, rāghavjī hāth baṛhāte haiñ/
jūṭhe beroñ ko
ber-ber, khush hokar bhog lagāte haiñ//
lā ber-ber
kyoñ der kare? Ye ber sudhā se baṛhkar haiñ/
makkhan misrī se
bhī acche, tākatvar madhur manohar haiñ//
śabarī kāhe karat hai
der, moko ber-ber de ber/
komal ujjval madhur manohar,
amrit jaise ber//
udar bharo ichhā na
bharī hai aise mīṭhe ber/
guṭhlī pheñkat sakuc
lagat hai haiñ premini ke ber//
When the journal Kalyāṇ,
published by the Gītā Press of Gorakhpūr and widely circulated among
pious Sanātana Dharmī Hindus throughout north and central
India, produced a “special issue on the lives of saints” in 1952 (Bhakta
Caritānk, one of its annual book-length thematic supplements) edited by
Hanumān Prasād Poddār, it included a lengthy retelling of Priyadas’ story in
modern Hindi prose (Kalyāṇ: Bhakta Caritānk, Gorakhpūr, U.P.: Gītā
Press, 1952, pages 292-296), which has the eaten jujubes episode at page
294, along with a poem by a poet identified only as “Rasikbihāri,” which is
reminiscent of Rāma’s eagerness for the ucchiṣṭa jujubes as
delineated in the Radheśyām Rāmāyaṇa:
ber ber ber lai sarāhaiñ ber ber vahu,
“rasikabihāri” det badhu kahan pher pher/
cākhi cākhi bhākhaiñ yah vāhu te mahān mīṭho,
lehu to lakhan yoñ bakhānat hai her her//
ber ber deveko sabarī suber ber, tou raghubīr ber ber
tāhi ṭer ṭer//
ber jani lāo ber ber jani lāo ber, ber jani lāo ber
lāo kaheñ ber ber//
The Kalyāṇ article
quotes these lines from the 14th century Padmapurāṇa at page 294:
Phalāni ca supakvāni mūlāni madhurāṇi ca/
Svayamāsvādya mādhuryam parīkṣya paribhakṣya ca//
[illegible]vedayāmāsa rāghavābhyām dṛḍhavṛtā /
Phalānyāsvādya kākutsthastasyai muktim parām dadau//
However, the text of
the Uttarakhaṇḍa of the Padmapurāṇa (Mahāmuniśrīmadvyāsapraṇītam
Padmapurāṇam, edited by V.N. Mandlik, Pune: ĀnandāśRāma, 1894, verses
6.267-268, page 1860) gives these verses thus:
arcayāmāsa bhaktyā ca harṣanirbharamānasā/
Phalāni ca sugandhīni mūlāni madhurāṇi ca//
nivedayāmāsa tadā rāghavābhyām dṛḍhavṛtā/
Phalānyāsvādya kākutsthastasyai muktim dadau parām //
सत्यनारायण हेगडे
(अंग्रेजी से समन्वयक द्वारा अनूदित)
सी.आर. शर्मा ने अपनी पुस्तक The
Ramayana in Telugu and Tamil. A Comparative Study,
Madurai: Lakshminarayana Granthamala, 1973, पृ.९३) में उल्लेख किया है कि तमिल भाषा के कंब रामायण
(१२वीं- १३वीं शताब्दी) की कुछ पोथियों में शबरी के द्वारा राम को जूठे बेर खिलाने
का प्रसंग है। यह पुस्तक रामायणपरंपराओं के तुलनात्मक अध्ययन की दिशा में एक
प्रवर्तक कार्य है। दक्षिण की रामायणों में शबरी के द्वारा राम को उच्छिष्ट फल
खिलाने के प्रसंग का सूत्रपात कदाचित् यहीं से होता है। शर्मा यह भी बताते हैं कि
तेलगु समाज में शबरी के द्वारा उच्छिष्ट फल खिलाने का प्रसंग बहुविदित रहा है। कंब
रामायण का जो हिंदी अनुवाद मेरे पास है (कम्ब रामायण – महाकवि कम्बरचित मूल
तमिल से अनूदित, अनुवादक श्री एन. वी. राजगोपाल सम्पादक – श्री अवधनन्दन, पटना,
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, १९६३, दो खंड), उसके पहले खंड में शबरी का प्रसंग
है, जिसमें बारहवें अध्याय के पृ. ४२६ पर केवल संक्षेप में इतना ही उल्लेख है कि
शबरी ने राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों को कंद-मूल फल खिलाये। शबरी ने चख चख कर ये
फल उन्हें खिलाये इसका कोई उल्लेख इस संस्करण में नहीं है।
चौदहवीं शताब्दी तेलगु भाषा में
लिखी गई मोल्ल रामायण की प्रणेत्री आटुकुरि मोल्ल कुम्हार के परिवार में उत्पन्न
हुई थीं। असवर्ण तथा महिला होते हुए भी शबरी के बेर खिलाने के प्रसंग का कोई वर्णन
इन्होंने अपनी रामायण में नहीं किया। यह रामायण भी देवनागरी लिप्यंतर और हिंदी
अनुवाद के साथ उपलब्ध है (तेलुगु श्रीमोल्लरामायण तेलुगु काव्य का नागरी
लिप्यंतर एवं हिंदी गद्यानुवाद, अनुवाद एवं लिप्यंतर सी.एच्. रामुलु, लखनऊ,
भुवनवाणी ट्रस्ट, पृ. १०३)। उड़िया भाषा में जगमोचन या जगन्मोचन रामायण सोलहवीं
शताब्दी की रचना है। दांडी छंद में विरचित होने के कारण इसे दांडी रामायण भी कहा
जाता है। इसके रचनाकार महाकवि शूद्रमुनि बलरामदास हैं, जो उड़िया काव्यपरंपरा में
सुविख्यात पंचशाखा कवियों में मूर्धन्य कहे जाते हैं। शबरी के द्वारा राम को
उच्छिष्ट फल खिलाने का प्रसंग पूर्वी क्षेत्र की रामायणों में कदाचित् इसी रामायण
में सर्वप्रथम मिलता है। पर यहाँ शबरी राम को जूठे बेर नहीं जूठे आम खिलाती है।
आकार में यह रामायण वालमीकि रामायण से भी कई गुना बड़ी है, और इसका शबरी प्रसंग
बड़ा रोचक है। यह रामायण भी नागरी लिप्यंतर एवं हिंदी गद्यानुवाद में उपलब्ध है (नागरी
लिप्यंतर एवं हिंदी गद्यानुवाद – योगेश्वर त्रिपाठी ‘योगी’, लखनऊ, भुवनवाणी ट्रस्ट, १९९१, पाँच खंड)। इस रामायण में कबंध वध के पश्चात् राम और लक्ष्मण की भेंट एक
शबर और एक शबरी से होती है। शबर राम से उनके नाम और कुल के विषय में प्रश्न करता
है। राम उसे अपना वृत्तांत बताते हैं। इसके बाद शबरी भक्तिभाव के साथ दोनों भाईयों
को अपने आश्रम में ले जाती है। वह उन्हें बताती है कि वह इंद्र की भविष्यवाणी के
अनुसार उन्हीं की प्रतीक्षा कर रही थी। फिर वह बताती है कि उसने उन दोनों के लिये
चुन चुन कर फल बचा रखे हैं। उन फलों में दाँत के चिह्न देख कर राम फलों के स्वाद
की बहुत प्रशंसा करते हैं और जिन फलों में उसके दाँत के चिह्न नहीं हैं, उन्हें वे
यह कहते हुए फैंक देते हैं कि इनमें चिह्न ही नहीं है, तो पता कैसे चलेगा कि ये
स्वादिष्ट हैं या नहीं। यदि वे स्वादिष्ट होते तो तुम्हारे दाँत के चिह्न उनमें
अवश्य होते। बलरामदास वर्णन करते हैं कि राम आने वाले हैं यह पता चलते ही शबरी
आम्रकुंज जा कर आम एकत्र करती रही, और
उन्हें चख चख कर देखती रही थी कि वे मीठे हैं या नहीं। इस कथा में तो राम शबरी से
यहाँ तक कहते हैं कि जब तक बचे हुए फलों को चख चख कर वह उन्हें नहीं बतायेगी कि वे
मीठे हैं या नहीं, वे उन फलों को नहीं खायेंगे। जगमोहन रामायण की पृष्ठभूमि
विवादास्पद रही है। वस्तुतः यह उड़िया भाषा की पहली धार्मिक रचना है। इसके पहले
देवमंदिरों संस्कृत के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा का प्रवेश नहीं था। यह मान्यता है
कि इस परिस्थिति के कारण बलरामदास को अपना काव्य मंदिर के बाहर जंगले में बैठ कर
लिखना पड़ा। डबल्यू. एल. स्मिथ ने अपने बहुत दिलचस्प अध्ययन (Rāmāyaṇa
Traditions in Eastern India: Assam, Bengal, Orissa. Department
of Indology, University of Stockholm: Stockholm, 1988) में इस प्रसंग
को पृ. १२५ पर उद्धत किया है –
सुंदरी आम्बकु नेइ पछे यथा देले
अमुद्रा बोलिण तथा राम न भुंजिले
शबरणी कहुआच्चि बेणिकर जोरि
भळ आम्ब गोटित लच्छिल किस पाइँ।
शबरी बोल सुनि बोइले रघुसाईँ
भल बोलि ताहाकु तु केमन्ते जाणिलु
येबे भल दाँत मुद्रा किपाइँ न दिहु
अमुद्रा पदार्थ ये भुञ्जीब न
योगाइ।।
यहाँ सुंदरी शब्द का आशय स्मिथ ने
शबरी के स्थान पर आम का एक प्रकार माना है। उनके अनुसार वाल्मीकि में वर्णित शबरी
एक वृद्ध तापसी है, उसके लिये सुन्दरी शब्द का प्रयोग उचित नहीं कहा जा सकता।
१६२४ई.
में विरचित नाभादास के भक्तमाल में लगभग
दो सौ भक्तों के चरित की माला गूँथी गई है। इसमें में ८०वें क्रम पर शबरी का चरित
है, जो नवें पद में वर्णित तेईस हरिवल्लभ भक्तों में एक है। प्रियादास ने १७१२ में भक्तमाल की अतिसंक्षिप्त
चरितमाला पर कवित्त छंद में भक्तिरसबोधिनी टीका लिख कर इसे विस्तार दिया। उन्होंने
भक्तमाल में 630 छंद जोड़ दिये। इनमें से सात छंद (संख्या ३१-३७) शबरी को समर्पित
हैं, और एक समर्पित भक्त के रूप में उसकी छवि इनमें अंकित है (गोस्वामी श्री
नाभाजीकृत भक्तमाल, श्रीप्रियादास जी प्रणीत टीका-कवित्त श्रीअयोध्यावासी श्री
सीतारामशरण भगवानप्रसाद रूपकला विरचित श्रीभक्तिसुधास्वादतिलक सहित, लखनऊ,
तेजकुमार बुकडिपो लिमिटेड, २०११) इसमें जूठे बेर खिलाने का प्रसंग ३५वें छंद में
वर्णित है (पृ.८६)।
लावइ बीन बेर राम को अवसेर भाल
चाखै धरिराखे फिर मूठे उन जोग हैं
मेरी समझ से यहाँ पहली बार शबरी के
द्वारा खिलाये गये फल में बेर का उल्लेख आया है।
अठारहवीं शताब्दी के अंत में
बंगाली कवि जगद्राम ने अपना रामायण काव्य रचा, जिसे रामप्रसादी जगद्रामायण कहा
जाता है। कवि ने लंकाकांड तक ही इसे लिखा और अपने पुत्र रामप्रसाद को इसकी पूर्ति
का दायित्व सौंप दिया। अन्य बंगाली कवियों की ही भाँति इस रामायण में अद्भुत
रामायण और अध्यात्म रामायण का समावेश कर के वैष्णव और शाक्त परंपराओं का समन्वय
किया गया है। खेद की बात है कि इस ग्रन्थ का लिप्यंतर या अनुवाद उपलब्ध नहीं है। इस
ग्रंथ में राम इस बात को ले कर बड़े सचेत हैं कि उनके भक्त उनके एक एक कार्य की
मीमांसा करेंगे, और इसलिये वे फूँक फूँक कर कदम रखते हैं। अतः जब शबरी उन्हें चख
चख कर बेर खिलाने को होती है, तो वे सोचते हैं कि यदि मैं घृणा का प्रदर्शन करूँ
और ये फल न खाऊँ, भक्तों के प्रति करुणावान् के रूप में मेरा नाम नहीं रहेगा।
इसलिये मुझे शबरी के उच्छिष्ट खा लेना चाहिये। अपनी पुस्तक के पृ. १११पर स्मिथ ने
यह प्रसंग उद्धृत किया है –
से फल न खाइ यदि आमि घृणा करिल
भकत अधीन नाम मोरा तब गेलल
शबरीर उच्छिष्ट खइते मोर हैल।
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध
में विरचित राधेश्याम रामायण में शबरी का प्रसंग विस्तार से है (इसका जो संस्करण मेरे पास है, उसें प्रकाशनसम्बन्धी विवरण अनुपलब्ध
है, यह प्रसंग उसमें पृ. २७५-७७ पर है)। राम यहाँ
आतुर हो कर शबरी से उच्छिष्ट बेर माँगते हैं (यह प्रसंग पृ. २७६ पर है) –
प्रेमिका सच्चा प्रेम देख राघव जी
हाथ बढ़ाये हैं
जूठे बेरों को बेर बेर खुश हो कर
हाथ लगाये हैं
ला बेर बेर क्यों देर करें ये बेर
सुधा से बढ़ कर हैं
मक्खन मिसरी से भी अच्छे ताकतवर
मधुर मनोहर हैं [1]
शबरी काहे करती देर मोकों बेर बेर
दे बेर
कोमल उज्ज्वल मधुर मनोहर अमरित
जैसे बेर
उदर भर इच्छा न भरी हैं ऐसे मीठे
बेर
गुठली फैंकत सकुच लगत है हैं
प्रेमिनी के बेर
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित
मासिक कल्याण का मध्यभारत औऱ उत्तरभारत में सनातन धर्मी हिन्दुओं में व्यापक
प्रसार है। इस पत्रिका का भक्तचरितांक १९५२ में हनुमानप्रसाद पोद्दार के संपादकत्व
में प्रकाशित हुआ। इसमें प्रियादास के द्वारा निरूपित शबरी प्रसंग पर विस्तार से
लेख है (कल्याण भक्तचरितांक, गोरखपुर, उ.प्र.
गीताप्रेस, १९५२, पृ. २९२-९६)। उच्छिष्ट बेर खिलाने का प्रसंग इसमें पृ. २९४ पर
वर्णित है। इसमें रसिकबिहारी नाम के किस कवि की कविता भी उद्धृत है। इश कविता में
जूठे बेर खाने के लिये राम की उत्सुकता का चित्रण उसी प्रकार किया गया है, जैसा राधेश्याम
रामायण में है
बेर बेर बेर लइ सराहैं बेर बेर बहु
रसिकबिहारी देत बधु कहन फेर फेर
चाखि चाखि भाखैं यह वाहुते महान्
मीठो
ले तु तो लखन यों बखानत हैं हेर
हेर
बेर बेर देवको सबरी सुबेर बेर
तौ रघुबीर बेर बेर ताहि टेर टेर
बेर जनि लाओ बेर बेर लाओ बेर
बेर जनि लाओ बेर लाओ कहें बेर बेर
कल्याण में प्रकाशित लेख में १४वीं
शताब्दी के पद्मपुराण से ये पंक्तियाँ पृ. २९४ हैं
फलानि च सुपक्वानि मूलानि मधुराणि
च
स्वयमास्वाद्य माधुर्यं परीक्ष्य
परिभक्ष्य च
(अपाठ्य…) वेदयामास राघवाभ्यां
दृढव्रता
फलान्यास्वाद्य काकुत्स्थस्तस्यै
मुक्तिं परा ददौ।
किन्तु पद्मपुराण के उत्तरकाण्ड (महामुनि
श्रीवेदव्यासप्रणीतम् पद्मपुराणम्, सं. व्ही. एन. माण्डलिक, पुणे, आनन्दाश्रम, १९८४,
पद्य ६.२६७-६८) में ये पद्य इसप्रकार हैं –
अर्चयामास भक्त्या च
हर्षनिर्भरमानसा।
फलानि च सुगन्धीनि मूलानि मधुराणि
च।
निवेदयामास तदा राघवाभ्यां
दृढव्रता।
फलान्यास्वाद्य काकुत्स्थस्तस्यै
मुक्तिं ददौ फलम्।।
डा. बजरंग तिवारी
सत्यनारायण हेगड़े जी के विस्तृत और
अगाध अध्ययन का सुफल है यह रोचक निबंध!
हम पढ़कर कृतार्थ हुए। शबरी के जूठे
बेर वाला प्रसंग (बचपन में देखे) रामलीला मंचन का उल्लेखनीय
हिस्सा हुआ करता था। शूर्पणखा प्रकरण की क्षतिपूर्ति करता हुआ
प्रसंग।
राधावल्लभ त्रिपाठी –
मैं सभी बंधुजनों – डा. रविकांत, डा. अजय मिश्र, डा. प्रवीण पंड्या,
प्रोफेसर हरीश त्रिवेदी, श्री सत्यनारायण हेगडे तथा डा. बजरंग तिवारी को उनकी बहुत
सटीक टिप्पणियों के लिये धन्यवाद देता हूँ। हेगडे जी ने तो अपने गहरे अध्ययन का
परिचय देते हुए इस पर एक सुंदर शोधलेख ही लिख दिया है।
रविकांत जी तथा हरीश भाई ने राधेश्याम कथावाचक की एक समय अपार
लोकप्रियता और बाद में उसके क्षरित होने को ले कर बहुत ही सटीक बाते कही हैं।
आश्चर्य है कि राधेश्याम रामायण के बालकाण्ड की जो प्रति मेरे पास है, उस का तीसरा
खण्ड पचपनवीं बार पुनर्मुर्द्रित हुआ है, वह भी चार हजार प्रतियों मेंǃ
अयोध्याकांड १९६० में पैंतालीसवीं बार पुनर्मुद्रित है, और चार हजार प्रतियों में।
सभी प्रतियों की कीमत ३२-३२ नये पैसे है। अपनी आत्मकथा में राधेश्याम कथावाचक
बताते हैं कि उनके अभिमन्युवध नाटक की कई लाख प्रतियाँ बिक चकी थीं, और लगातार
विक्री हो रही थी। आज तो यह किसी भी किताब का इतना बिक जाना – यदि वह लोकप्रिय
उपन्यास नहीं है – तो कल्पनातीत ही है।
सत्यनारायण जी ने जो उद्धरण अपनी जिस प्रति से दिये हैं, वह सम्पूर्ण
राधेश्याम रामायण का संस्करण प्रतीत होता है। अर्थात् राधेश्याम रामायण की पूरी
किताब एक जिल्द में भी छप कर खूब बिक रही है, और उसके एक एक कांडों की प्रतियाँ
चालीस पचास बार पुनमुर्द्रित हो कर कई हजार की संख्या में हर बार बिक रही हैं। यह
ऐसी लोकप्रियता है, जिसकी ऊँचाइयों तक आज किसी कवि के भी लिये पहुँचना सहज नहीं रह
गया है – कम से कम रामायण या महाभारत पर कविता लिखने वाले कवि के लिये। इस
लोकप्रियता के कारणों पर आप लोगों ने विचार किया। शबरी प्रसंग का निरूपण जिस
भावविभोर कर देने वाले ढंग से कथावाचक ने किया है, उनका वह रंग-ढंग अपने आप में
उनकी ऐसी जन जन में अपार लोकप्रियता और वही उसके क्षरण का कारण भी है। मेरी समझ से
बलरामदास, जगद्राम और तुलसी से लगा कर
राधेश्याम कथावाचक तक के रामायणकारों ने शबरी से जो भक्ति कराई है, उसका समय बीत
चुका।
सत्यनारायण जी के द्वारा राधेश्याम रामायण से दिये उद्धरणों और मेरे
पास की प्रति से दिये गये उद्धरणों में पाठभेद है। मेरे पास जो अलग अलग काण्डों की
प्रतियाँ हैं, वे सम्भवतः पूरी पुस्तक के सन्दर्भित संस्करण के बाद मुद्रित हुई
हैं। मुद्रण के इतिहास का यह वह काल है, जिसमें आफसेट से पुनर्मुद्रण नहीं हो रहा,
हर पुनर्मुद्रण में पुस्तक को एक एक अक्षर प्लेट पर लगा कर फिर से कम्पोजिंग की जा
रही है। हर पुनर्मुद्रण में प्रूफ संशोधन भी लेखक को करना पड़ रहा है। रचनाकार
अपनी ही कृति के प्रूफ स्वयं देखता है, तो स्वभावतः पाठ में फेर बदल करता जाता है।
कथावाचक जी का अपना प्रेस था, वे अपने समय के उतने ही बड़े मुद्रक और प्रकाशक भी
थे, जितने बड़े नाटककार और कवि। हर प्रूफ में वे अपनी रचना में कुछ रद्दोबदल करें,
तो उन्हें कौन रोक सकता था?
इसमें कोई संदेह नहीं कि शबरीप्रसंग रामायण में जनजातीय विमर्श की ऐसी
सम्भावनाएँ खोलता है, जो विचार्य हैं।
रविकान्त
सीएसडीएस, दिल्ली में असोसिएट प्रोफ़ेसर और ‘सराय‘तथा ‘भारतीय भाषा
कार्यक्रम‘व उसकी शोध–पत्रिका प्रतिमान
के सह–संपादक डा. रविकान्त द्विभाषी मीडिया इतिहासकार हैं।
उन्होंने हज़ारीबाग़ और पटना के स्कूल और कुछ हद तक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू
कॉलेज में संस्कृत भी पढ़ी थी, और आज भी उसके संगीत और उसकी
शब्द–संस्कृति की ओर स्मृति–संस्कारवश
खिंच जाते हैं। आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, और जानकीवल्लभ
शास्त्री के मुरीद हैं, जिन्होंने संस्कृत और हिन्दी के बीच
इतने सुंदर और टिकाऊ पुल बनाए हैं। रविकान्त की सद्य:प्रकाशित
किताब है मीडिया की भाषा–लीला। संजय शर्मा के साथ सह–संपादित किताबें हैं:
दीवान–ए–सराय:
मीडिया विमर्श, हिन्दी जनपद औरदीवान–ए–सराय: शहरनामा, तथा तरुण सेंट के साथट्रांस्लेटिंग पार्टीशन: स्टोरीज़, एसेज़, क्रिटिसिज़म। उन्होंने हंस के न्यू मीडिया विशेषांक ‘संचार के नवाचार‘का सह–संपादन
भी विनीत कुमार के साथ किया है। फ़्रंचेस्का ओरसीनी के साथ सह–संपादित ‘हिंग्लिश‘नामक
उदीयमान भाषा की पड़ताल करती किताब शीघ्र प्रकाश्य है। अंतर्जाल पर उनके लेख
रचनाकार, गद्यकोश, जानकी पुल, काफ़िला और एकेडेमिया–जैसे स्थलों पर मौजूद हैं।
पता: रविकान्त, सीएसडीएस, २९, राजपुर
रोड, दिल्ली – ११००५४, फ़ोन: ९८१०९२४८५५
[1] राधेश्याम
रामायण की श्रीराधेश्याम पुस्तकालय से १९६० में प्रकाशित प्रति अरण्यकाण्ड की ३९वीं
आवृत्ति में पृ. २३ पर, पाठ भेद के साथ – पहली पंक्ति में प्रेमिका के स्थान
पर प्रेमिनि है, राघव जी के स्थान पर राघौ जी, बढ़ाये हैं के स्थान
पर बढ़ाते हैं, दूसरी पंक्ति में लगाये हैं के स्थान पर लगाते हैं – यह पाठ है।
आगे उदर भर के स्थान पर उदर भरो पाठ है।