27 जून 2020, वसुंधरा
साहब,
मन कर रहा था कि अपको ‘जयभीम’ के साथ संबोधन करूं, तभी याद आया कि आपको अपनी जय-जयकार पसंद नहीं थी. इसलिए आपको ‘नमोबुद्धाय’ कह रही हूं.
बाबा साहब,
मैं कुछ कहना
चाहती हूं, पर किससे कहूं? और कौन सुनेगा मेरी? यदि कोई सुन भी लेगा तो अमल करने
के कोई आसार नहीं, तो सोचा कि क्यों न आपके नाम एक पत्र ही लिखूं. इस मार्फत कुछ दलित बहनों की बातें कहूं. मैं न कह पाने के कष्ट से ही नहीं गुजर
रही, अपितु असहाय को न सह पाने से व्यग्र हो रही हूं. मैं अपने पत्र में आपसे
क्या-क्या कहूं? अपने कितने बहन-भाइयों के वर्तमान और भविष्य की चिंता से आप को
अवगत कराऊँ? चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा दिख रहा है. गांव की कहूं तो शहर की
छूटती है और शहर की कहूं तो गांव की. बाबा साहब, आप तो जानते ही हैं आपको क्या
बताना कि भारत गांवों का देश कहलाता है. मैंने बहुत से गांवों को अपनी आंखों से
देखा है. वहां की हालत अभी भी बहुत चिंतनीय है. फ़िलहाल मैं अपने इस पहले पत्र में
अपने गांव की ओर आपका ध्यान खींचना चाहती हूं. मेरे गांव की हालत सच में ही बहुत चिंताजनक है. स्त्रियों के दुःख तो देखे ही
नहीं जाते. ये दुःख कभी कम भी होंगे इसके आसार नहीं दिखते. मेरे अकेले गांव की
स्थिति चिंतनीय नहीं बल्कि देश के अधिसंख्य गांवों की हालत मेरे गांव जैसी ही है या
हो सकता है इससे थोड़ा अच्छा या इससे थोड़ा बहुत खराब है. पर आपको दिखाने के लिए मैंने
नमूने के रूप में अपने गांव को चुना है.
बाबा
साहब, रात-भर मुझे गांव की हालत देख कर नींद नहीं आई. मुझे तो दिन में तारे दिख रहे
हैं. मैंने पढ़ा था कि आपने बेहतर समाज का सपना देखा था. स्त्री-पुरुषों के समान
उत्थान और अविद्या-अज्ञान से अमूलचूल मुक्ति का सपना, पर मैं तो सब उलट-पुलट देख
रहीं हूं.
मुझे लगता है आपको मेरे पत्र से ,मेरी निराशा का आभास होगा, पर मैं क्या
करूं? मेरे पास आशा के लिए भी तो कोई वजह नहीं दिख रही. बाबा साहब आप तो सब जानते
ही हैं, आप तो मेरे पिता से भी बड़े हैं. आप तो ‘फादर ऑफ़ नेशन’ नहीं, ‘ग्रांड फादर ऑफ़ नेशन’ हैं. हमारा और आपका बहुत पुराना रिश्ता है. आप तो भविष्यद्रष्टा हैं. आपको प्रेषित करने के लिए खुशियां तो मेरे पास हैं नहीं, तो सोचा क्यों न आप तक ये
तकलीफें ही पहुंचा दूँ.
आप जब से गये हैं, ऐसा लगता हैं- मेरे करोड़ों देशवासी भाई-बहन अनाथ हो गए हैं. मैं इतने सीमित शब्दों में सबकी हालत नहीं लिख सकती, इसलिए बतौर नमूना मैं आपको
अपने गांव की शिक्षा की एक तस्वीर दिखाना चाहती हूं. यह तस्वीर आंखों ने खींची है,
इसलिए कुछ गीली हो गई हैं. इसका कारण आप जानते हैं.
मैं
दिल्ली से जिला शाहजहांपुर के अपने पैतृक गांव जौरभूड, सपरिवार पहुंच चुकी हूं. मुझे मेरे गांव के मुहाने पर दो कमरों का एक जीर्ण-शीर्ण सा घर दिखाई दे रहा
है. आम तौर पर मैं दो-तीन सालों के अंतराल में गांव आती-जाती रहती थी. तब यहां
जीता- जागता स्कूल दिखाई देता था. बच्चों को देख ऐसा लगता था मानो किसी बाग में
सुबह-सुबह रंग-बिरंगे ताजा फूल खिले उठे हों. इस बार मैं पांच-छह सालों के बाद
गांव आई हूं. स्कूल को दूर से ही देखा तो सीने में कुछ चुभा, जिसे मैं स्कूल समझ
रही थी वह तो खंडहर-जैसा दिखाई दे रहा है. उसकी दीवारों से रंग और जगह-जगह से
प्लास्टर ऐसे उतर चुका है, जैसे किसी भिखारी के कपड़े जगह-जगह से फट जाते हैं और
उसके अंदर के अवयव झांकने लगते हैं. उसकी तरफ देखने का मन नहीं करता है, क्योंकि उसकी
बुरी हालत हमारे मन में व्यग्रता भर देती है, पर इस स्कूल से तो मेरा और भी आत्मीय
लगाव है. इसलिए कि यह मेरा और मेरे पापा का स्कूल था. मेरे पापा ने यहां से पांचवी
पास की थी और मैंने यहां से पहली कक्षा पास की है, पर तब से आज तक यह पांचवी से आगे
अपना कद नहीं बढ़ा सका, बल्कि यह मनुष्य की वृद्ध होती काया की तरह बूढा और जर्जर
होता दिखाई दे रहा है. इसकी वंशबेल लगता है, फैलने से पहले ही सूख गई.
बाबा
साहब आज मेरी गाड़ी इस स्कूल के सामने रुकी. उत्सुकतावश कुछ बच्चे गाड़ी के आसपास
आकर खड़े हो गए. एक-दो व्यक्ति स्कूल से बाहर निकले. मैंने कहा, ‘स्कूल के शिक्षकों से
मिलना है’ उन्होंने बताया, ‘हम ही यहां पढ़ाते हैं.’ बाबा साहब, मुझे वहाँ के शिक्षकों
की हालत देख कर और भी दुख हुआ. उनकी वेशभूषा और उनका हुलिया, उनका स्वास्थ्य सब कुछ द्रावक लग रहा था. उन्होंने बताया हम यहां शिक्षामित्र के रूप में पढ़ाते हैं. जो
अध्यापक यहां नियुक्त हैं, वे तो आते ही नहीं हैं. मैंने अपना और गाड़ी में बैठे
अपने पति और बच्चों का परिचय दिया. वे हमें कक्षा के अंदर ले गए. दो पुरानी टूटी
कुर्सियां खींचकर बैठने को कहा. मैं बैठी और इधर-उधर नजरें दौड़ाने लगी. मैंने देखा
कि बच्चों के बैठने के लिए एक टाट तक नहीं थी. दीवार पर मैले थैलों में किताबें
तो हमें दिखीं नहीं, मगर उनके बस्तों में बेला(खाने के बर्तन) ऐसे झांकते हुए दिख
रहे थे, जैसे किसी बड़े दांतों वाले व्यक्ति के मुंह बंद करने पर भी उसके सामने के दांत दिख ही जाते हैं.
मैंने वहां बैठे
अध्यापक से पूछा, ‘बच्चों के स्कूल बस्तों में ये बेला क्यों हैं, किताबें कहां
हैं?’ साथ ही मैंने जिज्ञासा व्यक्त की, कि बाकी बच्चे इधर-उधर क्यों घूम रहे हैं?
कोई पेड़ पर चढ़ रहा है तो कोई सड़क पर दौड़ रहा हैं. दो-तीन बच्चे आपस में लड़ रहे हैं
और इनमें लड़कियां तो दो ही दिख रही हैं. क्या गांव में लड़कियां नहीं हैं? मेरा
प्रश्न सुन कर शिक्षामित्र अध्यापक थोड़ा सकपकाये और बोले, ‘आप यह सब क्यों जानना
चाहती हैं? कौन हैं आप?’ मैंने उन्हें बताया कि यह हमारा गाँव है. मैं और मेरे
पापा इस स्कूल के छात्र रहे हैं. अपने स्कूल में आना और उसके बारे में बात करना क्या
गुनाह है? तब उन्होंने अपने को थोड़ा संयत किया, क्योंकि अब वे समझ चुके थे कि मैं
भी शिक्षित हूं. इसलिए उन्होंने समझाते हुए कहा-
‘मैडम जी, अब
सरकारी स्कूल में बच्चे पढ़ने नहीं आते हैं मिड डे मील खाने आते हैं. ये दलितों के, गरीबों के बच्चे हैं. इन्हें पढ़ना-बढ़ना तो वैसे भी नहीं है. बस सरकारी खानापूर्ति
करनी होती है. मैंने उन्हें बीच में रोक कर कहा कि- ‘आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?’ ‘आज
हर कोई अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता है क्योंकि वह जानता है कि पढ़ाई से ही उनके
बच्चों की जिंदगी बदल सकती है. क्या गैर दलितों के बच्चे यहां नहीं पढ़ते हैं?’ मैंने जिज्ञासा जाहिर की.
अध्यापक ने
बताया कि उनके ही बच्चे पढ़ते हैं जिनकी हैसियत शहर के महंगे अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ाने की नहीं है’. ‘तो सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी क्यों
नहीं पढ़ाते’? मैंने पूछा मगर वे कुछ जवाब नहीं दे पाए.
बाबा
साहब अब मैं और क्या-क्या लिखूं? वहां स्कूल की न तो चारदीवारी थी और न वहां शौचालय था. उन कमरों के आगे एक हैंडपंप जरुर जिंदा दिख रहा था. वह भी खंडर-खंडर की
आवाज से मानो हफहफा कर आखिरी सांसे ले रहा हो. आखिर सकुचाते हुए मेरा उनसे पुन:
संवाद शुरू हुआ-
‘क्या स्कूल में
आप दो ही अध्यापक हैं?’
‘जी, हम दो ही
हैं’.
‘आप दो, पांच
कक्षाओं को कैसे पढ़ा लेते हैं’?
‘बस किसी तरह हो
जाता है’. सुन कर मुझे अपने गांव के प्रथम स्कूल की दशा पर बहुत तरस आया, मगर मैं भी बेबस ही थी.
बाबा
साहब, मैं जानती हूं कि आपके पूरे चिंतन में शिक्षा सबसे प्राथमिक रही है. इसलिए आपको
मेरे द्वारा लिखा गया स्कूल का हाल अच्छा नहीं लगेगा, पर क्या करूं आप ही ने
स्त्रियों को अपना सच्चा हाल लिखने को कहा था. आप तो स्त्रियों के नेतृत्व पर बहुत
भरोसा करते थे. सो लगे हाथ यह भी लिख दूं कि इस गांव की प्रधान ऊषा भी स्त्री ही है पर उसका लंबा घूंघट इसका द्योतक है कि उसके नाम
पर पति ही गाँव का प्रबंधन संभाल रहे हैं. इस तरह आपकी स्त्री विषयक उम्मीद भी आहत हो रही है.
स्कूल से निकल
कर मैं अपने पुश्तैनी घर पहुंची. वहां भी छोटे-बड़े सब तरह के बच्चे मेरी चारपाई के चारों ओर खड़े मुझे ऐसे देख
रहे थे, मानों मैं कोई एलियन हूं. स्त्रियां लंबा घूंघट काढ़े खड़ी थीं. मैं अब सच
में सोचने लगी कि बाबा साहब, आप तो इस देश में सभी जातियों के लोगों को शिक्षित
करना चाहते थे. खास कर लड़कियों की शिक्षा के लिए आपने उनकी माताओं को कहा था- ‘अपनी
बच्चियों को पढ़ाओं चाहे तुम आधे पेट खाओ. मगर बाबा साहब, यह कैसा भारत बन रहा है
जिसमें गरीब, दलित, आदिवासी अति पिछड़े वर्ग की लड़कियां तो क्या, लड़कों को भी समान शिक्षा नहीं है. शिक्षा के भेदभाव को
ही आपने सारे भेदभावों की जड़ कहा था. यहां गुणकारी शिक्षा तो किसी को उपलब्ध नहीं. बाबा साहब, क्या आपने यही स्वप्न देखा था? आज गांव के लोग अशिक्षा की अंधेरी सुरंग
में फंसे हुए हैं. वहां की स्त्रियां और लड़कियां कैसे निकलेंगी इस सुरंग से बाहर?
कैसे भारत शिक्षित बनेगा? कैसे देश की तरक्की होगी? कैसे चीन के उत्पादन युद्ध का
मुकाबला करने लायक चीजें गांव के बच्चे बना पाएंगे? जब शिक्षा ही काम की नहीं
होगी, तो चीन की चीजों पर से निर्भरता कैसे खत्म होगी? बाबा साहब , मेरे पत्र का सार
यह बताना है कि आजादी के लंबे अरसे बाद भी भारत आपके सपनों का भारत नहीं बन पाया
है.
पुनः अगले पत्र
में आपसे फिर मिलना चाहूंगी और बताना चाहूंगी कि शहरों में हमारी बहन-बेटियों का शैक्षिक जीवन कैसा चल रहा है.
आपकी मानस
पुत्री,
रजत रानी ‘मीनू’
हिन्दी विभाग
कमला नेहरू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रसिद्ध दलित साहित्यकार