अंततः मैं तुम्हारे पास आया हूं- आर्य भारत की कविताएँ

 

युवतम कवि आर्य भारत की कविताओं में हमारे जटिलतम होते जीवन का द्वंद है, प्रेम की टूटन है, धर्म, राजनीति, बाज़ार और समाज के चौतरफ़ा हमलों के बीच अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्षरत युवा स्वप्न हैं। यहाँ शिकस्त की एक निरंतर धुन गूँजती तो है लेकिन वह कवि का स्थायी पलायन नहीं बनती। भाषा और कविता उसे उबार ले जाती है और अंततः कवि भी भाषा को उसका देय लौटा पाता है-  ‘लेकिन कुछ लोग हैं जो तुमसे दूर है/उनकी हर प्रेरणा कालिख में नूर है/पथरीले शब्द से पानी का भाव ले/चलते ये लोग हैं किलों पर पांव ले/इनके ही वास्ते अपना यह संस्करण मेरे इस राह पर’। 
 कवि की अन्तःप्रेरणा उसे तमाम दुश्वारियों में भी अपनी आत्मा को बचाए रखने का संकल्प देती है- ‘मैं बार-बार हारा मगर पराजय में अपनी आत्मा नही गवाई’- रश्मि भारद्वाज 



   

                                                    ( साभार – भरत तिवारी )
                                   




मैं बार-बार हारा मगर!

मैं बार-बार हारा
मगर,
पराजय में अपनी आत्मा नही गवाई
थकान महज कुछ रातों की अंधकार रही
हताशा ने महज एक लकीर ही खींची आसमान में
फिर सबकुछ बरस पड़ा
मूर्छित मन पर-खंडित हृदय पर
मूसलाधार!

जब कुछ भी नही सूझा
नाक की सीध में मेरुदण्ड के सहारे निकला
फर्क ही नही पड़ा
की आसपास के सुरपुर में
एक हम ही हैं 
जिसके पास न जेब है ना पाजेब
न नर्तन- न गायन 
कुछ नही

एक कंघी-टूटे हुए दर्पण के सहारे 
भिड़ा उनसे जो सभ्य थे सुंदर थे
सभ्यता के पैरोकार थे
उर्वशी-मेनका जिनकी विधवाएं थी
रंभा जिनके कंठ पर मदिराभिषेक करती थी


तीलिया रगड़ता रहा दियासलाई पर
अंत तक नही माना
रौशनी का वह फलसफा
जो जुगनुओं को अंधेरे का दलाल बताने में तल्लीन था
जहां परम्परा के पृष्ठ उसके प्रतीक सारे
स्थूल और अक्षरों से भी ज्यादे स्याह थे

उन सभी चीजों पर आपत्ति जताया
जो मनुष्य को विचलित करके
एक समाधान देने के फिराक ने थे
रफ्तार से तो बनी ही नही
यही कारण रहा मेरे ‘पैरोकियल’होने का

मैंने लोगों को पहचानने में जानबूझकर कर देर की
(कोई नही जानता,मगर तुम तो जानती ही हो मेरे भाग्य!मेरे हृदय!)
इस देर के पीछे बस इतना सा आशय था
“हमेशा देर कर देता हूँ मैं”
दुखो की चाहत में सुख को ढेर कर देता हूँ मैं
हा हा हा

अट्टहास ही रहा मेरा आयुध 
कंठ ही शस्त्रागार रहा।
दुःखो के बमवर्षक बेनतीजा गुजरे मेरे क्षत्रप से
पसलियों पर तनी धमनियों के तार से 
झंकृत रहा मेरा तन
अपने भग्नावशेषों में जा
अस्तबल बेचकर मैं सोया

नींद का मुरीद रहा
कई बार तो अपने शव के समानांतर सोया 
कई बार उसकी गोद में सर सौंप कर

प्रिया की गोद में
उल्का की तरह गिरा
भाइयों की भुजाओं में कटे पेड़ सा
फूल नही था
वरना ईश्वर के पैरों में भी गिरता

गिरने से बचने का प्रयत्न नही किया
हां जहा भी गिरा
वह स्थान आकाश से भी ऊँचा था
धरती से भी विस्तृत

मैं बार-बार हारा
मगर
पराजय में अपनी आत्मा नही गवाई।




 कहां हो तुम लोग

“है अमानिशा उगलता गगन घन अंधकार”
आओ और नहाओ इसमें

कहाँ हो तुम लोग?
इस धधकते दृश्य से आंखों की चौहद्दी
सेंको और गले की खरास दूर करो
चुप्पियों से विलाप के प्रति सहानुभूति कायरता है।

मैं खोज रहा तुमको
राम जी के हवाले से चौपाई गाने वाले तुम लोग!
भव्य राम मंदिर की रसीद पा लहालोट तुम लोग!
अपने ज्ञान के मस्तूल पर भगवा पताका फहराने वाले तुम लोग!
अपने प्राचीनतम ललाट पर महानता के त्रिपुंड लगाने वाले तुम लोग!
विश्वगुरु की लंगोट पहन पृथ्वी के अक्षांश-देशांतर रेखाओं को लांघने वाले तुम लोग!
खोज रहा तुम सबको

किसकी करुणा में आकंठ डूब गए हो?
ज्ञानवापी की खुदाई का समय निकला जा रहा और
तुम लोग अर्थियां उठाने में लगे हो?
सांत्वना देने में लगे हो?
तिमारगिरी में लगे हो?
याद करो नैनम छिन्दन्ति शस्त्राणि….
और मनसा वाचा कर्मणा से
उस मुहिम को धार दो
जिससे काफिरों का गला चाक होता है
इस महामारी के मलबे से निकल
डोमराज के साथ शिरकत करो
शमशान भूमि के नव निर्माण कार्य में।
जीर्णोद्धार में।

मन हल्का न करो
तुमने जिस पुनीत कार्य के लिए
देश का राजदंड जिसे सौंपा 
उसने ही लागू किया है तुम्हारे लिए
राम राज्य के विस्तार से पहले का
वो चौदह वर्षीय वनवासी जीवन
इकट्ठा कर लो अपने परिजनों के लिए लकड़ियां
बहुत समय है
लंबा समय है
आओ!

आओ!
इससे पहले की तुम
हे राम! में बदल जाओ और करुणानिधान 
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम में परिवर्तित हो
निकाल कर पिस्तौल अंधाधुंध गोलियां चलाने लगे

तुमको नक्सलाइट बता 
पूरा देश लहूलुहान कर दे
आओ!

यह पूरी मुस्तैदी से लगकर
विश्व को ललकारने का समय है
पुरुषोत्तम की पादुका को सत्कारने का समय है
आओ!

*कविता की पहली पंक्ति “राम की शक्ति पूजा” से




जिंदगी:वर्ग सेंटीमीटर में

(1)
हड्डियों का कैल्शियम 
चूना बन गया है
शरीर का खून कत्था
लगता है यह निचाट अकेलापन
मुझे पान बनाएगा
चबाएगा
और थूक देगा

(2)

सुबह ढहती हुई पीठ की दीवार को
छाती से लगा संभालता हूं
फेफड़े हरकत करते हैं
दोपहर कंधों से लटकाता हूं
अपना सर विहीन अस्थि पंजर
फेफड़े हरकत करते हैं
रात दिमाग की नसों में विहंसती 
माइग्रेन की मरीचिका को
दिखाता हूं लौ-लपट-धुंआ
फेफड़े हरकत करते हैं

(3)

एक सन्नाटा है आसपास
जिसे कूलर के पंखे ने हवा दे दी है
बल्ब ने नमूदार कर दिया है
कमरे में लगी झोलों ने स्थिर
मैं उसके प्रभाव को कम करने के लिए
चिल्लाता हूं, कविताएं पढ़ता हूँ,गीत गाता हूं
नाचता हूं, थकता हूं
थकते ही सन्नाटा मुझ पर 
साइलेंसर लगी पिस्तौल से वार करता है
मेरे शरीर से रिसते पसीने आवाज करते हैं

(4)

कमरे में अपनी मौजूदगी के लिए 
अंदर से ताला लगाता हूं
बाहर जाते वक्त साथ ले जाता हूँ ताला-चाभी
चाहता हूं कोई आए औ
उठा ले जाए तल्प से मेरी चादर
जो मेरी छटपटाहटों के केंचुलो से अटा पड़ा है
वह कलमदान,
जिसकी हरेक कलम की स्याही फट चुकी है
वह कुर्सी,
जो मेरी रीढ़ की हड्डियों की तरह फंफूदग्रस्त है
मैं चाहता हूं मेरे आने से पहले 
वह इस कमरे के छत से लटकी सीलिंग फैन
जरूर उतार लें जाए
और जल्दी जल्दी में छोड़ जाए अपने जूते
ताकि मैं उसके पैरों की नाप से समझ सकूं
पृथ्वी पर जिंदगी कितने वर्ग सेंटीमीटर में फैली हुई है..



मुखालफत में मिलावट

हुजूर की खुशामद में लगने के बजाए
कविता लिखते हो
कविता में हुज़ूर की मुखालफत करते हो
कवि नही हो तुम!

वक्त की पेचीदगी को समझो
यह महबूब की लटों की तरह उलझने की बजाए
कारतूस की पेटियों की तरह
हवालात के सींकचों की तरह
छड़ो की तरह सुलझ चुका है

रीढ़ की हड्डियों को लोचदार बना
बचा जा सकता है इस सुलझे हुए वक्त से
निकला जा सकता धू-धू कर जल रहे छल्लों के बीच
करतब दिखाते हुए

अपने मास्टर की तारीफें करों
एक वही है जो गरीबों-मजलूमों-पीड़ितों के
अन्तस् से दुःख-दैन्यता-कमजोरी का संहार कर
दर्शक दीर्घा में सभी की आंखों में 
खुमार चढ़ा सकता है उतार सकता है

वह अभूतपूर्व है
उसे महानता से नवाजों
उसके लिए विस्फोटक विशेषणों की खोज करो
तुम्हारी पूरी प्रतिभा खप जानी चाहिए
चूहे को चीता बताने में
रद्दी को गीता बताने में

वह जो भी कहे
उसके शब्दों में अपने अर्थों की घुसपैठ कराओ
मसलन उसके मुंह से निकले देश
तुम उस देश पर छा रहे तिमिर की व्याख्या कर दो
उसके मुंह से निकले धरती
तुम धरती की तरफ से उनके अवतरित होने की
कृतज्ञता ज्ञापित करो

इस तरह उसके सभी शब्दों में अपने अर्थ भरते चलो
उसकी उबासी और छींक को भी
अर्थपूर्ण बना दो
वह हंसे और तुम उसके माथे पर
चिंता की लकीरें खींच दो

खींचते चलों खांका उसके चरित्र का
देश के नक्शे पर
पहाड़ों और चोटियों को
उसके हृदय के रेशे बताओं
नदियों को धमनियों की तरह धड़काओ
उसके आलीशान भुजाओं में
सड़को और कारखानों को उसकी पसलियां बताओ

यह सब करने में भी अगर तुम्हारी प्रतिभा खप नही रही
यह सब बताते हुए भी तुमको रिक्तता लगे
लगे की यह वह नही जो तुम्हारी भाषा का सर्वश्रेष्ठ है
तो अंत में उसकी पादुकाओं-पनहियों को
कर्मठ सिद्ध कर दो
उसके कुर्ते और पैजामें को
बता दो शरीर का छिलका
कच्छे और बनियान तक भी पहुंच सकते हो
हालांकि मैं तुमको मना करूँगा ऐसा करने से
लेकिन तुम मेरी क्यों सुनोगे

खैर!मेरी सुनकर भी तुम क्या कबार लोगे?
एक तिनका भी नही

इसलिए हुजूर द्वारा लगाए जा रहे गांछियों को
बगीचे में बदलने के लिए
अपनी वर्णमाला का अर्घ्य दो
नफरत के बेहया को विशाल बरगद बताओ
कटीले नागफनी को नीलोफर
इस तरह लहूलुहाता यह देश तुम्हारे कंधों पर होगा
और हुजूर के कदमों में

बस जल्दी से इस देश का रामनाम सत्य करो 
मुझसे अब देखा नही जाता
हुजूर की मुखालफत
मुखालफत में मिलावट!



अविश्वास प्रस्ताव

1)
आंखों के जल में
पहली बार रूप की नाव
तुम्हारी जब प्रवाहित हुई
लड़ उठी सपनों की तहें
भूकम्प की तरह हिल उठा मस्तिष्क
जिसे हृदय के रिएक्टर स्केल पर नापकर
मैंने तुमको एक त्रासदी की सूचना दी

2)
सूचनाओं का दौर चला
वार्ताओं के शिखर-सम्मेलनों में अपनी भागीदारी हुई
बनी-बनाई सीमाओं को समाप्त कर
सहमति बनी कि सुबह सूरज की घुसपैठ को
मैं तुम्हें सूचित करुंगा
सांझ को चांद की अफरातफरी का विवरण
तुमसे सुनूंगा
दोपहर सामूहिक रूप से हम 
दुनिया को सम्बोधित करेंगे

3)
यह एक दूसरे के चयन से उतपन्न 
संसद थी जिसके दो ही सांसद थे
जो पक्ष थे प्रतिपक्ष थे
अपनी भूमिका बदलते हुए वे
एक दूसरे के कवच थे
एक दूसरे के वक्ष थे

यह संसद लंबे समय तक नही चल सकी
भंग हो गई
एक तरफ से अविश्वास प्रस्ताव पारित हुआ
दूसरी तरफ से इस्तीफा 

4)
भूकम्प से उबरती जमीन दंगो की भेंट चढ़ गई
सिसकियों और चीत्कारों के बीच
सहम गई नदी, बैठ गई नाव
सपनों की तहों में डूब गया सूरज
अफरातफरी के बीच चांद लंगड़ा हो गया

एक त्रासदी से शुरू हुआ यह जीवन
दूसरी त्रासदी के भेंट चढ़ गया
इतना भी नहीं हुआ की इन त्रासदियों को संज्ञान में ले
आपातकाल लागू कर दिया जाए
या लगा दिया जाए राष्ट्रपति शासन ही
दोनों खेमो को बस आगामी चुनावों की चिंता थी।



अंततः मैं तुम्हारे पास आया हूं

शब्दशः बताऊंगा किन व्यथाओं ने बरगलाया मुझे
और निर्वासित कर दिया निर्जनता के बीहड़
जहां घूमता रहा चरवाहों की तरह
बिना गाय-भेड़-बकरी
एक चारागाह की तलाश में

मैं प्रतिभावान था
गले से निकलती आवाजों के लिए
मैंने ऋचाओ का रियाज किया था
बांचें थे विभिन्न ग्रन्थ
आत्मा पर झुका रहा अपने
पृथ्वी की तरह निर्वात के सहारे

लोगों ने अनसुना कर दी मेरी आवाज 
गला रुंध गया
वो फंस भी सकता था 
मैंने एक रात निकाल लिया उसे
अपनों के फंदों से

अब मैं गूंगा था पर देख सकता था
सड़क पर चलती हुई आलीशान गाड़ियों की चमक 
उनमें चढ़ते-उतरते शीशे के पीछे दंतुरित मुस्कान
सुनाई भले न दे इमारतों का शोर गुल
दिखाई जरूर देती थी उसपर चढ़े कांच के पीछे
नर्तक-नर्तकियों के हिलों और बूटों संग लरजती
शैम्पेन की दूधिया धार

एक रोज भागा मैं
समस्त स्मृतियों सहित जो यहां-तहां
बस की सीट से लेकर
बदलते कमरों की तलहटी में बिखरे पड़े थे
जितना समेट सकता था समेटा
शेष को शहर के सबसे ऊंचे टीले के निर्माण के लिए
छोड़ आया

शहर को छोड़ना आसान न था
आंखे ठिठकी रहती थी उस शहर से आने वाले 
आगंतुकों के लिए
इन आंखों को भी तब बुझा दिया मैंने
उफनते हुए रेतीले तूफान के बीच आग का गोला बना

अब जीने की तरकीबो में 
मेरे साथ स्वाद और आवाज की
युगलबंदी बची थी
इस बीहड़ से गुजरने के लिए यह युगलबंदी बहुत काम आई
आंखे न होने से 
मृगमरीचिका के चक्कर मे भटकना ठप हुआ
न ही निचाट उजाड़ के बीच 
किसी को पुकारने की जहमत उठाई

मैं बचा रहा दूसरों के आहटों के भरोसे
सूंघता रहा रेत-जल-वनस्पति-पत्थर
चलता रहा बिना देखे
ठोकर पाकर गिरा चुप रहा
गश खाकर गिरा चुप रहा
कांटो से बिधा चुप रहा
मैं बीहड़ के दुःखों का शिनाख्त नही कर सकता
मैं दिखा नही सकता तुमको उनकी शक्लो सूरत

आहार चक्र में फंसा हुआ
मैं अब एक सरीसृप बन चुका हूं
मुझे अपनी आंखों से पहचान कर
एक पुकार से भर दो
अंततः मैं तुम्हारे पास आया हूँ



चुपचाप,चला आऊंगा तुम्हारे पास

मेरा मन भले रूठ जाए
मेरे पाँव हमेशा प्रसन्न रहेंगे
मैं प्रसन्नता के पदचाप छोड़ते हुए चुपचाप
चला आऊंगा तुम्हारे पास

समुद्र की सबसे निचली सतह से तैरते हुए
पथरीली घाटियों को पार करते हुए
खरगोशों को पीछे छोड़ते हुए
अपनी पीठ पर यात्राओं के चित्र उगाए
मैं कछुए की तरह चुपचाप
चला आऊंगा तुम्हारे पास

मेरी थकावटों को पहचाने वाले
अपनी थकावट लेकर
बार-बार आता रहूंगा
सुनाऊंगा तुम्हें सड़को की पीप पीप
पटरियों की छुकछुक
बनारस के बारे में बताऊंगा
उस घाट के बारे में भी 
जहां तुम मेरे होंठो पर रखे सिगरेट को
संधा-बाती की तरह सुलगा देती थी
मैं तंबाकू भर प्रकाश के लिए चुपचाप
चला आऊंगा तुम्हारे पास

मैं जर्जर होता जा रहा
मेरे रक्त में चींटियों ने चहलकदमी शुरू कर दी है
गले की सुरंग में टार भरता जा रहा
फेफड़े अमेजन की जंगलो की तरह जल रहे
मैं मृत्यु से भयभीत होकर
तुलसी वाली चाय पीने चुपचाप
चला आऊंगा तुम्हारे पास

तुमको तो मालूम है ताज पहने राजा की नही
खड़ाऊं पहने सम्राट बनने की सनक थी मुझमे
जो युद्ध में बिना रथ और मुकुट के
लंकाधीश को ललकार सके
लम्बा चलेगा युद्ध तो पहिये की जगह पांव घिसेंगे
मैं घिसे हुए पांव से एक जोड़ी चप्पल की तलाश में
चुपचाप चला आऊंगा तुम्हारे पास




 मेरे इस राह पर आना न एक कदम

मेरे इस राह पर
आना न एक कदम
इस पर सौ पाप है
इस पर है आमरण

तुमको मंजूर हो प्रचलित परिपाटियां 
झुक जाओ सामने जो दे शाबासीयां
चतुराई से रहो झूठो की फौज में
सच को लज्जित करो सामूहिक मौज में
फिर देखो किस तरह
बनते हो उद्धरण
मेरे इस राह पर

थोड़ी शालीनता मक्कारी में मिला
उसपर से भाषणों का लंबा सिलसिला
चलता रहे रात भर जलसा जजमान का
बढ़ लो अगली सुबह ले धन भुगतान का
तुमने है पढ़ लिया
भाषा का व्याकरण
मेरे इस राह पर

लेकिन कुछ लोग हैं जो तुमसे दूर है
उनकी हर प्रेरणा कालिख में नूर है
पथरीले शब्द से पानी का भाव ले
चलते ये लोग हैं किलों पर पांव ले
इनके ही वास्ते
अपना यह संस्करण
मेरे इस राह पर




संपर्क – 
aaryrima@gmail.com







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