कांच के मोतियों का पर्दा (लक्ष्मी कन्नन के प्रसिद्ध उपन्यास का एक अंश )

“’एसे ऑफ एलिया’ पर जो होमवर्क दिया था, कर लिया पूरा?” सूजन ओ लेेरे ने कहा।

“पूरा किया न!”

“चार्ल्स लैम अच्छे लगते हैं?”

“बहुत!”

“पर क्यों भला?”

“इसलिए कि वे सपनीले हैं!”

“आज तो तुम फटापट जवाब दे रही हो! लेरे हंस पड़ी। अच्छा चलो, शेक्सपियर का सरल पाठ पढें!” कल्याणी  की पीठ पर रूलर कसमसा तो रही थी, पर वह उठी और शेल्फ से ‘टेल्स फ्रॉम शेक्सपियर’ निकालकर टीचर को पकड़ा दिया। गोल फ्रेम का चश्मा लगाकर लेरे ने किताब खोली।

“ओ माँ, ये क्या है किताब के भीतर, इतना आकर्षक?“ खिड़की से आते प्रकाश-वृत्त में मोर पंख के झिलमिलाते हुए रेशे वे मुग्ध भाव से देखती रहीं, देखती रही उसके सतरंगी वितान का वैभव-गाढ़ा नी ला-हरा-तूतिया-फीरोजा-सब रंग गले- गले मिलते गये थे वहां।

“तुम लोग किताबों में मोरपंख रखते हो! किताबों में तो ज्यादातर फूल ही रखे जाते हैं न!” लेरे ने कहा, “यह तुम्हें मिला कहां, बच्ची?”

“स्कूल की एक पुरानी सहेली ने दिया मोरपंख!”

मिस ओ लेरे की आंखों पर फ्रेम की चमक कल्यांणी को मंत्रमुग्ध करती थी। गाढ़ा-नीला-भूरा, स्वच्छ प्रेम! सरोवर थीं वे आंखें! जब भी वे हंसती, वे और तेज झिममिलाती। कल्याणी का जी करता कि वह उनमें डूब जाएं! उसका जी करता वह उनकी झुर्रियां तब तक सहलाती रहे जब वे सीधी न हो जाए! पर इन  झुर्रियों के बिना तो मिस सूजन ओ लेरे की पहचान ही मिट जाती।

“पुराने स्कूल की याद आती है, कल्याणी?”

“ओ मिस— मैं—मैं— क्या कहूं।“ कल्याणी बात पूरी न कर पायी।

सुबकती हुई लड़की को बांहों में समेटना जरूरी था। मिस लेरे कुर्सी से उठ खड़ी हुई और धीरे-धीरे उसकी पीठ सहलाने लगी, हां-इसका ध्यान रखा कि उस जगह हाथ न पड़े जहां रूलर था।

हिम्मत नहीं हारनी है, मेरी बच्ची! मैं हूं न! अंगरेजी के लिए मैं, गणित के लिए तुम्हारे पिता–और तुम्हारी बुआ– नाम क्या है उनका?”

“अलाई।“

“हाँ, अलाई! वे तुम्हें तमिल पढ़ाती है और भारतीय महाकाव्य! हो सकता है कि तुम्हारा पति भी तुम्हें पढ़ाए-जब तुम उसके साथ रहो!”

कल्याणी ने उसकी छातियों में अपना चेहरा छुपा लिया और ओ लेरे अथिर रही; उसकी पीठ सहलाती हुई!

“पढ़ाई-लिखाई या स्कूल की याद उतना विचलित नहीं करती जितनी दोस्तों की। और घोड़ा-गाड़ी पर स्कूल तक का सफर भी बहु

कितने खेल खेला करते थे—“

लैवेण्डर फूलों की गंध जो मिस लेरे के फ्रॉक से उठती, कल्याणी को कहीं गहरे आश्वस्त कर जाती! उनकी गोदी में सर रखने से चैन घिर आता!

“अब तो मैं घर पर अकेली खेलने को अभिशप्त हूं! अकेले खेलने में वो मजा कहां? सहेलियों आती भी हैं तो कभी–कभी-वह भी त्योहारों पर, उनके भी खेलों पर प्रतिबन्ध-सा लग गया है।“

“मानती हूं, खेल का रंग चोखा तो संगी-साथियों के साथ ही होता है! इसमें क्या शक कि ये दिन दोस्तों के साथ खेलने-कूदने के थे!” अब तक कल्याणी भी कुछ संभलकर बैठ गयी थी, ध्यान से उसने आगे की बात सुनी-

“‘आयरलैण्ड या  इंग्लैण्ड में तो यों खाली बैठना लोलो देवी बन जाना ही माना जाता! अभी नहीं खेलोगी तो क्या तीस बरस की उम्र में उछलोगी कहीं जाकर?” बात करती-करती वे उद्विग्न होकर बार-बार देखने लगीं। बड़ी खिड़की के बाहर चमकीली बयार में सुकुमार तम्बई आम्रपलव झिर-झिर झूम रहे थे।

“यह सचमुच भयानक है- गुड़िया खेलती बच्चियों का विवाह-बंधन, पढ़ाई-लिखाई छुड़वाकर घर-गृहस्थी के चक्करों में उन्हें फंसा देना! वीभत्स!” आत्मालाप करते हुए उनकी निगाह करौटन के पत्तों पर थी!

“पहले मैं नौकरों के साथ या उनके बच्चों के साथ खेला करती, पर सास और चाची सास उखड़ गयी कि नौकरों के साथ खेलते फिरना बहू की गरिमा से बाहर है! पता है, मिस, बहुत दिन पहले की बात है, एक बार हमारे यहां एक बहू ने नौकरों के साथ कौड़ियाँ खेली!”

“तो?”

“वह मेरी चाची थी- परिअम्मा-सब औरतों से ज्यादा सुन्दर— आठ की उमर में ब्याह हो गया था। एक दिन घर के काम-काज निबटाकर खाली बैठी थी! मन नहीं लग रहा था तो ब्राह्मण रसोइए के बेटे के संग कौड़ियां लगी खेलने। तभी पति महोदय घर लौट आए, आव देखा न ताव, बाप-मां से शिकायत लगा दी कि ऐसी पत्नी उनको नहीं चलेगी, अब दूसरा  ब्याह रचाया जाए!”

“लाहौलविला कुव्वत!”

“और उन्होंने दूसरी शादी कर भी ली!”

“तो क्या उस पहली बच्ची को माता-पिता के पास भेज दिया गया?य्

“अरे नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता!”

“ऐसा कैसे?”

मां कहती है कि मां-बाप की त्यागी हुई ऐसी बहुओं को वापस घर नहीं आने देते, खासकर वैसे मां-बाप जिन्हें और बेटियां ब्याहनी हो, इससे इनका उनका नाम खराब होता है! परिअम्मा के मां-बाप भी उसके पति ने आगे गिड़गिड़ाए कि उन्हें बड़ी पत्नी की तरह घर के किसी कोने में पड़े रहने दें।–पति भी इस शर्त पर माने कि दुबारा वे उनके सामने नहीं पड़ेगी तो चौके के अंधेरे कोने में रसोइए की ही तरह उन्होंने अपनी बाकी दिन गुजारे। छोटी पत्नी के बच्चे पाले, छोटी पत्नी और बच्चे उसकी इज्जत भी करते रहे—“

ओ लेरे ने हथेलियों में चेहरा छुपाकर डेस्क पर रख लिया- उनके खिचड़ी बाल हर ओर बिखर गये! कुछ देर बाद जब चेहरा उठाया तो वह खासा उदास था!

“अब ध्यान से सुनो, कल्याणी-चाहे जो हो जाए, अपनी बात पर कायम रहना। तुम्हारा वजूूद तुम्हारा अपना है, यह देह भी तुम्हारी अपनी है! इसे अपनी रौ में बढ़ने दो! इस देह में भीतर पूरे सम्मान से रहो जैसे कि देह एक मन्दिर हो!”

“मन्दिर?”

हां, यह देह अपनी देह की इज्जत करना सीखो! यह तुम्हारा इकलौता शरीर है, तुम्हारी आत्मा का एकलौता घर! तुम्हें इसकी इज्जत करनी है, कोई और करे न करे!”

कल्याणी के पल्ले पूरी बात पड़ी नहीं, लेकिन उसने मुस्कुराकर सिर हिला दिया।

“चलो, तुम मुस्कराई तो! अब वापस पाठ पर आते हैं! आओ, मस्तवाला पाठ पढ़ें-‘ऐज यू लाइक इट!’

ओ लेरे धीरे-धीरे पाठ पढ़ने लगी ताकि कल्याणी हर शब्द आत्मसात कर पाए! पूरे कौशल से वे पात्रानुकूल लरज-तरज संवादों में भर रही थी! पंद्रहेक मिनट के लिए कल्याणी सब झमेले बिसर गई- वह स्कूल जो उसे छोड़ना पड़ा था, वे खेल जिन्हें खेलने की मनाही थी, वह खूबसूरत बड़ी माँ परिअप्पा जिसकी औकात उनके दूल्हे ने दिखा दी थी। वह बिल्कुल खो गई उस डयूक की कहानी में जिसका राज-पाट छीनकर उसके अपने ही भाई, फ़रडीनेण्ड ने उसे वनवास दे दिया था! मजे की बात यह थी कि इन दोनों भाइयों की बेटियों, रोजलिन और सीलिया को घरेलू पचड़ों से कोई वास्ता नहीं था, उनकी आपसी दोस्ती बरकरार रही! उन दोनों बहनों के साथ कल्याणी भी वन के चक्कर लगाती रही- कभी रोजलीन की तरह मर्द-वेष में, कभी सीलिया की तरह चरवाहिन के भेष में! उसे खूब मजा आया ये सोचकर कि दोनों बहनों ने क्या खूब उल्लू बनाया सबको! सुधी विदूषक टचस्टोन और उसकी लड़की भी कितने दिलचस्प थे। लेरे ने अपने बाचन से एक-एक दृश्य में प्राण डाल दिए! एक कमरे के भीतर पूरा नाटक उसकी आंखों के आगे उजागर था! गानों और कविता के वाचन में तो उनकी संगीतात्मकता   अद्भुत रूप से उभरकर सामने आ रही थी।

“ये दो सरल गाने तो तुम हृदयगम की कर लो! देखो, ये वाले— ओ लेरे ने कहा!” मैं धीरे-धीरे इनका वाचन करूंगी-तुम मेरे पीछे गाना!”

“जी, मिस!”

“इन हरियल पेड़ों के नीचे लेटेगा कौन आंखें मीचे?”

“बहुत अच्छा! अब आगे का हिस्सा याद करो- नाटक में इसे, जेक्स आदि गाते हैंः

सब गोरख-धंधे बिसारे,

लेटे नदी के किनारे—“

“बड़ी होने पर तुम मूल शेक्सपियर पढ़ना-वह एक विराट् अनुभव होगा”- पंक्तियां रेखांकित करती हुई ओ मेरे बोली!

“जी, मिस!”

 “बोलो, बहुत अच्छा!”

 “बहुत अच्छा!”

 “कल्याणी, जाने में पहले क्या मैं तुम्हारे पिता से मिल सकती हूं?”

“जरूर, मिस! मैं उनके पास लिए चलती हूं, आइए!”

ओ लेरे को लम्बे बरामदे से गुजारकर कल्याणी शीशे के रंगीन मोतियों और रंगीन ट्यूबों की जिस गझिनक बुनावट के सामने खड़ा कर गई- उस पर छत से आती हुई दोपहरी की धूप कुछ ऐसे पड़ रही थी कि वे दंग रही गयीं , इंद्रधनुषी वैभव के कई झिलमिल वृत्त उनकी आंखों में अद्भुत चकाचौंध-सी भर रहे थे! दरवाजे पर ऊपर से नीचे तक लहलहाता हुआ वह पर्दा इतना जरा-सा खिसकाया कल्याणी ने ओर फिर पूरा कमरा मीठी रूनझुन से भर गया!

इन शीशे के कमरों से छनकर आती हुई धूप कल्याणी औ ओ लेरे के चेहरों पर तरह-तरह की धूपछांही आकृतियां रच गयी थी!

कल्याणी ने अंदर आने का इशारा किया पर विस्मयविमुग्ध ओ लेरे के कदम ठहर ही गये थे! ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं से वह पर्दा निहारती हुई वे रुकीं!

उनके रामकूप के मोतियों की रलमल का अद्भुत संगीत पी रहे थे।  भीनी-भीनी उँगलियों की  छुअन एक अद्भुत संगीत बन कर शीशे के मोतियों के उस मायावी पर्दे के चित्त से ही उठ रही थी!

“कल्याणी! यह तो अनूठी चीज है! कहां मिली?”

“घर पर ही बनी है मिस!”

“इतना लम्बा पर्दा— किसने तैयार किया?”

“हम सबने मिलकर-मेरी मां, अथाई और दादी-सबकी उंगलियों का कमाल है यह!”

“बना कैसे?”

“सारा का सारा काम हम जमीन पर साघते हैं! डिजाइनों की एक किताब है, उसमें से डिजाइन छांटते हैं, फिर शीशे के मोती-मनके और ट्यूब। उस डिजाइन के अनुसार इन्हें जमीन पर सजाकर हम तार से उन्हें गूंथ लेते हैं आपस में!”

ओ लेरे ने ध्यान से देखा कि ऐंठी हुई, लगभग मदमाती ग्लास की टोलियां घटती-बढ़ती नील वल्लरियों में दीवार पर, फर्श पर, चेहरों पर कैसी अद्भुत कलाकृतियां रचती जा रही थी, कई छोटी-बड़ी लहरिल आकृतियां! नीली लहरें हरी लहरों में घुल रही थी, फिर लाल में मग्न हुई जा रही थी!  सूर्य की नौ रश्मियों का शीशे के मनकों से दिलकश विलास! ओ लेरे ने ऐसा अद्भुत दृश्य देखा नहीं था।

·          

“आप मेरे पिता से मिलना चाहती थी न, मिस?” कल्याणी ने धीरे से उनका ध्यान तोड़ा! ओ लेरे की भाव-तंद्रा टूटी तो हां-हां हुई करती हुई वे उस कृत्रिम बरामदे में प्रवेश कर गयी जहां एक नीची गोलमेज के एक तरफ बेंत की नई कुर्सियां पड़ी थी! कमरे के बीचों-बीच विशालकाय कड़ियों से छत पर जड़ा हुआ महोगनी का एक झूला लगा था! बरामदे के अंत में वह कक्ष था जहां कल्याणी ‘अप्पा-अप्पा’ पुकारती खड़ी हो गयी!

“ऐसे पुकारो नहीं, बेटी हथेली पलटकर उंगलियों के पोहों से धीरे-धीरे दस्तम दो और प्रतीक्षा करो!

ओ लेरे ने खटखटाकर बताया!

“कौन?” भीतर से गूंजती हुई एक आवाज बाहर आयी।

“अप्पा, मैं कल्याणी!”

“अच्छा-अच्छा, क्या चाहिए तुम्हें?”

“अप्पा, मेरे साथ मिस ओ लेरे आयी हैं! वे आपसे मिलना चाहती हैं!”

यह सुनते ही दरवाजा एकदम से खुल गया।

“गुड ऑफ्टरनून, मिस ओ लेरे! आइए न!”

विनयपूर्वक स्वामीनाथ अÕयर दरवाजा खोलकर खड़े हो गये ताकि उन्हें प्रवेश में कोई दिक्कत न हो।

“धन्यवाद, अय्यर साहब, आपको थोड़ी फुर्सत हो तो कुछ देर बात कर लूं!”

उन्हें सोफे पर बैठने का इशारा कर अय्यर साहब बोले, “आपसे बात करना अपना सौभाग्य समझता हूं।“

विस्तृत बैठक के एक कोने में सहमी खड़ी कल्याणी की ओर देखकर ओ लेरे ने कहा, “आपकी बच्ची का अंगरेजी-ज्ञान संतोषजनक प्रगति कर रहा है, अय्यर साहब!”

“यह तो आपकी कृपा का प्रसाद है, आपने उसके साथ बहुत धैर्य बरता है!” यह कहते हुए कल्याणी पर उनकी आंख पड़ी।

“दौड़कर जाओ, देखो, भाई  किस चक्कर में हैं!” उन्होंने कहा और ओ लेरे बोल पड़ी,

“हां, जाओ, कुछ देर तो खेल लो!”

चैन की सांस भर कल्याणी फरार!

“खुलकर बात कर ले, मिस लेरे!  चिंतातुर भवें सिकोड़कर अय्यर साहब बोले।

“कल्याणी बहुत तेजस्वी है, अंगरेजी सीखने की उसकी त्वरा  से मैं साफ अनुमान लगा सकती हूं कि कोई भी भाषा वह जल्दी सीख सीखती है! उसका सामान्य ज्ञान भी बहुत भी बहुत अच्छा है—।“

अय्यर साहब का तनाव बना हुआ था।

“मुझे घुसपैठी न समझें तो एक बात कहूं?”

“मैं कान खोले बैठा हूं– घुसपैठिया और आप?”

“कल्याणी बहुत छोटी है, अभी तो बारह की भी नहीं हुई!”

“जी?”

“मैं उसे पढ़ाने बैठती हूं तो यह बात मुझे खाए जाती है कि उसका ब्याह हो चुका है– यह उम्र और ब्याह!”

“जी– पर करूं क्या! हमारी परम्पराएं, हमारे रिवाज हमें चारों ओर से जकड़े हैं! परिवर्तन की गति बहुत धीमी है, पर कल्याणी आपसे तब तक अंगरेजी पढ़ती रहेगी जब तक वह हमारे यहां है!” उन्होंने आश्वस्त किया।

“यानी  कि तब तक जब तक वह रजस्वला नहीं हो जाती—“

इस बेबाकी पर अय्यर साहब सकते में आ गये! उनका चेहरा एकदम लाल हो गया! किसी औरत ने, खासकर घर के बाहर की औरत ने उनसे इस बेबाकी से बात करने की हिम्मत नहीं की थी!

महोगनी के डेस्क पर रखी कलम-दावत पर आंखें गड़ाए बैठे रहे तो ओ लेेरे ही आगे बोलीं-

“जानती हूं कि आपके देश की यह प्रथा है, पर पति के घर जाने पर कल्याणी की शिक्षा तो अधूरी रह जाएगी।“

“मुझे पूरा विश्वास है कि उसकी ससुराल उसकी शिक्षा में बाधक नहीं होगी! उसके ससुर, जस्टिस रामस्वामी मेेरे साथ ही विलायत में वकालत पढ़े और मेरे भावी दामाद, नटराजन ने भी अच्छे अंकों से अंगरेजी (प्रतिष्ठा) की परीक्षा पास की है, वह  भी प्रेसिडेंसी कॉलेज, मद्रास से!”

“आपका रुतबा कम नहीं, अय्यर साहब। वह दिन मेरी स्मृति में अच्छी तरह बैठा है जब मैं आपके यहां नौकरी की बातचीत करने आयी थी! तीन सड़क छोड़कर मेरा घर था। वहां से साइकिल चलाती हुई आयी और जैसे आपका पता पूछा तो लोग गेट तक पहुंचाने को उत्सुक हो गये। एक ने गेट तक छोड़ा भी! सबको आपका घर मालूम था।“ मोहक मुस्कान के साथ ओ लेरे बोलीं तो अय्यर साहब भी मुस्कराए बिना न रह सके।“

“आपके जैसे पढ़े-लिखे वकील के यहां भी बाल-विवाह? वह भी तब जब पूरी वकील मण्डली बाल विवाह बिल के समर्थन में उमड़ पड़ी है? आप कानून की अवहेलना करें- यह आश्चर्यजनक है!”

“मिस लेरे, इस विडम्बना से मैं अवगत हूं!” अय्यर साहब के चेहरे पर उदासी की एक लकीर खिंच गयी।

दावत में स्याही थी! बैठे-बैठे महोगनी की लकीरें लगे गिनने।

“आपकी विवशता मुझे झटका दे गयी। कानून तोड़ने वालों में आपकी गिनती मुझे अटपटी जान पड़ती है।“

अय्यर साहब मेज की सतह पर आंख गड़ाए बैठे रहे! वहां से दावात तक पांच लकीरें उठ गई थी!

“आपने गलती तो की है पर कानूनी बिरादरी के सम्मुख इसका औचित्य आप ‘कस्टमरी लॉ’ के तहत प्रतिपादित करते होंगे। इस ‘कस्टमरी लॉ’ का दूसरा नाम’ सर्वसम्पत्ति से फरमाई गयी क्रूरता भी हो सकता है। रिवाज क्रूर हों, तब भी निभाए जाने चाहिए? दबा हुआ गुस्सा अब ओ लेरे भी आंखों में अंगार बनकर चमकने लगा।

बड़े जंगले के पीछे धूप में चिड़ियों का कलरव गूंज रहा था। भाग्यवान है चिड़ियां! ये अपने बच्चों की शादी बचपन में नहीं करतीं।

“अय्यर साहब?”

“ओ बाबा! आंसू न गिराएं! प्लीज। पुरुष को रोते देखना आसान नहीं। मैंने आपको चोट पहुंचायी है तो मुझे माफ कर दें!”

ओ लेरे परेशान होकर इधर-उधर टहलने लगी, फिर इधर-उधर देखती हुई कुर्सी पर बैठ गयी! क्या करें? किससे मदद मांगे? कैसे इस स्थिति से उबरें?

जेब से एक सफेद रूमाल निकालकर अय्यर साहब ने अपनी आंखें पोंछीं।

“क्षमाप्रार्थी हूं, अय्यर साहब! आपको चोट पहुंचाने का मेरा कोई इरादा न था! कल्याणी की शिक्षा आगे बाधित न हो-इस चिंता में ही मैं आप तक खिंची चली आई। कल्याणी की तेजस्विता मेरे लगाव का कारण है।“

स्वामीनाथ अÕयर की गर्दन फिर लटक गयी!

“इस बार माफ कर दें! दुबारा वह प्रसंग नहीं छेडूंगी।“

मेज के लहरिया काठ से अपनी आंखें हटाकर अय्यर साहब ने कहा, “मैं आहत नहीं हूं, मिस लेरे! आपकी निष्ठा मेरा हृदय छू गयी! रिवाज, संस्कृति, रीति-नीति के नाम पर फैली-विमूढ़ताएं हमे हर तरफ से जकड़े हैं— दमघोंटू है यह सब!”

गहरे परिताप में सिर झुकाए ओ लेरे बैठी रहीं- हथेलियां खोलती-बंद करती हुई!

अय्यर बोले-“ माफी मांगने की क्या बात भला! आपने तो मेरे अपने भय को वाणी की! नए घर में धन-धान्य, ऐश्वर्य, सामाजिक रुतबा तो कल्याणी को मिल जाएगा, पर बहू चाहे जितनी भी तेजस्वी हो, उसे आगे पढ़ने की सुविधा मिलेगी क्या? इस बारे में मैं भी आश्वस्त नहीं, क्योंकि उस घर की बहुंए और औरतें तो अशिक्षित ही हैं।“ सोफे से उठकर बेचैनी में वे इधर-उधर लगे टहलने।

“माफ करें, जनाब। पर कहे बिना रहा नहीं जाता  कि भारतीय परिवारों की यह रूढ़िबद्धता मुझे चकित कर जाती हैं! ऊपर से सब कुछ इतना शालीन और कोमल, और इस कोमलता के पर्दे में ऐसी कठिन क्रूरताएं! पर चिंता न करें, अगर कल्याणी के  ससुरालवाले मद्रास आ जाएं तो मुझे उनके घर जाकर भी कल्याणी को अंगरेजी पढ़ाया सुखद लगेगा! आप बात करके देखें- यदि वे मान गये तो मैं हाजिर हूं। आप मुझे कभी भी बुला भेजें। यही कहने मैं यहां आई थी!”

“आप बहुत करुणावान हैं, मिस लेरे।“

“तो  क्या आप मेरा नाम उनको सुझा देंगे-जस्टिस रामस्वामी को?” कहकर वे उठने लगीं।

“यह मेरा सौभाग्य होगा, पर आप अभी जाएं नहीं, बैंठे।“ अंदर की ओर का दरवाजा खोलकर उन्हाेंने पुकारा-

“सुब्बानी!”

·          

“आखिर यह आलेख लिखा किसने है? क्या वेरियप्पा थाताई की उस बेटी ने जो उनके संग  इग्लैण्ड गई थी? पर वह तो खेल-कूद से कोसों दूर थी और उसकी विनोद वृत्ति भी ऐसी नहीं थी। देखो तो कैसे यह यह भारतीय बाला स्कूलों में होने वाले ‘ड्रील’ का वर्णन करती है-

“हां-हां, उन्होंने थोड़ा ड्रिल तो किया होगा,  उनके ड्रिक से मैं वाकिफ हूं!

गोल, गोल मार्च परेड़ करो और लुजलुजे हाथ-पांव हिलाते घूमो एक कड़क और खतुलवास शिक्षिका के इशारों पर!”

कल्याणी जोर से हंसी!

“क्या हुआ, कल्याणी? नटराजन ने ऊपर देखते हुए पूछा, “इतना मजेदार क्या है? मुझे भी बताओ।“

कल्याणी ने आलेख उन पंक्तियों पर उंगली रखी और सिर कुर्सी पर टिकाकर नटराजन भी हंसे!

उसके बाद उसने दूसरा आलेख पढ़ा जो फाल्गुनी ने लिखा था –

‘जागो स्त्रियो-

“अभी स्त्रियां मर्दों और अगुआ स्त्रियों से क्यों अपेक्षा करती हैं कि वे उनके हक के लिए लड़ें? अपने उनींदें दुचित्तेपन से हर स्त्री को स्वयं ही जगकर जीवन की बागडोर हाथ में लेनी होगी! तभी आह्वान सामूहिक होगा, तभी उसकी गूंज देश के हर समुदाय के हर गाँव में जागेगी।“

“पुरा आलेख पढ़ें? कल्याणी ने पूछा। “मैंने तो पहले ही पढ़ लिया! मुझे फाल्गुनी का स्तम्भ अच्छा लगता है! क्या पता यह कोई स्त्री है या स्त्रीनाम से कोई पुरुष लिख रहा है पर इसके लिखे में हमेशा एक अलग बात होती है, जमीन से जुड़ी हुई, परिपक्व! ऐसा करते हैं कि हम इस जरनल की वार्षिक सदस्यता लेते हैं। कतनी दूर से हर महीने तुम्हें यह भेजने की जहमत तुम्हारे पिता को अब उठानी नहीं चाहिए!” कहते हुए नटराजन उठ खड़े हुए!

“वह तो बहुत अच्छा होगा।“ कहते हुए कल्याणी आगे पढ़ने लगी-

“स्वाधीनता आंदोलन और सुधार-आंदोलन में बढ़कर हिस्सा लेने की बात सिर्फ हमारे अपने गांधी-नेहरू ही नहीं कर रहे, बल्कि सर एलन ऑक्टोवियो ह्यूम जैसे कुछ प्रबुद्ध ब्रिटिश अधिकारी भी कर रहे हैं। उनका तो स्पष्ट कहना है कि स्त्रियों के सहयोग के बिना बात नहीं बनेगी। बंगाल की कुछ स्त्रियां सामने आयी भी हैं-जैसे स्वर्ण कुमारी और श्रीमती गांगुली, फिर मद्रास की मेरी बहनें क्यों पीछे हैं।“

अगले दिन गहमागहमी थी करपगन की विदाई की!

विदा की घड़ी कार्तिकेयन ने नटराजन और कल्याणी की ओर मुड़कर कहा, “तंजबूर आइए न, मुझे मन है कि आप दोनों को मैं अपना पुस्कालय दिखाऊं।“

कल्याणी ने मुस्कुराकर सिर हिलाया! नटराजन ने कहा, बहुत आभार, अथिम्बर, हम जल्दी ही तंजबूर आएंगे! और आप भी जल्दी ही लौटिएगा!

कार्तिकेयन ने सिर हिलाकर कल्याणी से पूछा,  “तुमने तमिल कैसे सीखी? मुझे कहा गया था कि तुम बहुत थोड़े दिन स्कूल गई और स्कूल में भी अच्छे तमिल शिक्षक कहां? वह हमारे समय का अभिशाप है, है न?”

“इसमें क्या शक! नटराजन ने तत्परता से कहा, “बहुत हुआ तो संस्कृत पढ़ा देते हैं, वह भी कुछ स्कूल और कॉलेज, भारतीय भाषाओं की ओर तो उनके शैक्षिक अधिकारियों के मन में घोर उपेक्षा का भाव है!”

“अथिम्बर, मैंने अपनी अंथाई से तमिल सीखी! वे विदुषी हैं!” कल्याणी ने कहा, “अच्छा!”

“बेटी कल्याणी, करपगम के छोटे कमरे से बाहर लाने में उनकी मदद करो!” अम्बुजम ने कहा।

जब कारपगम गाड़ी में बैठ गयी, उनकी खिड़की के पास जाकर कल्याणी ने कहा, ”अपनी शिक्षा जारी रखिएगा, दीदी! किसी दिन बी. ए. की डिग्री लेकर रहिएगा!” कहकर वह मुस्कुरा दी!

“मैं और बीए?” इस विचार पर करपगम चकित हो वापस मुस्कुरायी।

उनके जाने के अनंतर घर में तूफान गुजर जाने के बाद की शान्ति थी! रसोइए और नौकर भी निश्चिन्त सांस भर रहे थे कि करपगम को ससुराल भेजने का महाअभियान सफल हुआ और अपनी मेहनत में उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी!

“उनकी सुलह  में तुम्हारी भूमिका सर्वोत्तम थी!” नटराजन ने कल्याणी से कहा, मुझे विश्वास है कि अम्मा ने स्त्री शिक्षा का महत्त्व समझ लिया होगा और अब वे तुम्हारी शिक्षा आगे बढ़ाने के प्रश्न पर सहमत हो जाएंगी, चाहे स्कूल भेजकर हो या घर पर निजी ट्यूटर रखकर!’

“अगर दूसरा वाला विकल्प मान्य हुआ तो कृपया मुझे मेरी पुरानी शिक्षिका मिस ओ- लेरे से ही पढ़वाइएगा। पर पता नहीं वे हैं कहाँ । अप्पा कहते थे कि बहुत दिनों तक उनकी चिट्ठियां आती रहीं, पर इधर उनकी कोई खबर नहीं है।“

“चिंता मत करो! हम उन्हें ढूंढ निकालेंगे!” नटराजन ने उसे आश्वस्त किया।

जस्टिस अय्यर के कमरे में अम्बुजम् आयी कल्याणी की बात करने।

“नहीं, यह मैं न होने दूंगी! उसकी शिक्षा आगे बढ़ाने से इस घर की सुख-शान्ति भंग हो जाएगी?”

“ये क्या बात हुई भला? शिक्षा कैसे किसी घर का शान्ति-भंग कर सकती है? जस्टिस अÕयर उसकी बात काटते हुए आगे बोले, “तुमने तो अपनी आंखों से स्त्री शिक्षा का सुभग पक्ष देखा! करपगम और कार्तिकेयन के बीच के दरकते रिश्ते में कल्याणी की पहल से ही माधुर्य जागा।“

अम्बुजम चुप हो गयी!

“और करपगम की अशिक्षा ही तो उसकी शादी बर्बाद करने पर तुली थी! अजब जिद पर अड़ी थी तुम्हारी बेटी कि न अंगरेजी सीखनी है, न स्कूल जाना है!” जस्टिस अय्यर ने ताना मारा!

“वो तो ठीक पर सौभाग्यवती  स्त्रियां स्कूल क्यों जाएं भला! विधवाओं की यह मजबूरी है! विवाहिताओं का स्कूल जाना अपशगुन ही तो है! हमारी कल्याणी अखण्ड सौभाग्यवती हो, बहू के साथ हम सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करें! बहुत मन है तो घर ट्यूटर रखकर पढ़ ले!”

“अच्छा तो ठीक है, हम मिस ओ लेरे से सम्पर्क करते हैं!”

“वह अंगरेज औरत तो पिता के वहां उसे अंगरेजी पढ़ाती थी?”

“हां वहीं, पर वह अंगरेज नहीं आइरिश हैं।“

“एक ही बात हुई! गोरीमेम तो है न!”

“सब धान सात पसेरी न तोलो! बस भी करो।“

इस बात पर नटराजन आगे बढ़कर बोला, “अप्पा, रहने भी दें! अम्मा को मैं समझा देता हूं। अम्मा, आयरलैण्ड की ये शिक्षाविद श्रेष्ठ मिशनरी स्त्रियां हैं, हमारे देश में स्त्री शिक्षा के लिए उन्होंने बहुत किया है ये बहुत अच्छी शिक्षक सिद्ध होती हैं!”

“यह तो मैंने अपनी आंखों से देखा कि मंदबुद्धि करपगम को भी कैसे कौशल से बहला-फुसलाकर, सैर पर ले जाकर, सरल-सुगम भाषा में तमिल व्याकरण के आश्रय से उसने अंगरेजी सिखायी और उसका सामान्य ज्ञान भी बढ़ाया, वह भी इतने कम समय में। कार्तिकेयन का इरादा बदलने में भी उसने बड़ी भूमिका निभायी वरना तो वह करपगम को छोड़ देने पर तुला था। हमें तो कल्याणी का कृतज्ञ होना चाहिए!” जस्टिस अय्यर बोले।

“पर मिस ओ लेरे से सम्पर्क साधने में हमें वक्त लगेगा! यदि वे आयरलैण्ड गई हैं तो हम इंतजार करेंगे। बीच के समय में हम कल्याणी के दूसरे बड़े शौक-खेल पर ध्यान दे सकते हैं, जैसे खेल-कूद!

अब अम्बुजम् जोर से चौंकी, “खेल-कूद?“

“हां अम्मा, वह खेल-कूद में भी बहुत अच्छी है। खेल-कूद भी मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का आधार है! मैं भी तो जिमखाना क्लब जाता हूं खेलने! वह स्कूल में बच्चों को स्पोर्ट्स सिखाना चाहती है, खासकर लड़कियों को!”

“यह तो बहुत अच्छा सुझाव है। जब तक मिस लेरे लौटती नहीं, हम उसे जिमखाने की सदस्यता दिला दें कि उसका मन लगा रहे।“

“ठीक है, अप्पा!”

“तुम दोनों ने मिलकर मेरी बहू के लिए खिचड़ी पका ली है और मुझसे पूछा तक नहीं?” अम्बुजम बोली।

“तुमसे अनुमति की उम्मीद नहीं थी तो ली भी नहींl” अंततः जस्टिस अय्यर मुस्कराए!

“हां , तुम्हें मुझसे क्या! तुम्हारे अपने मन में अंगरेजी में गिट-पिट करने वाली लड़कियों के लिए घना  आकर्षण है!” मुंह चिढ़ाती अम्बुजम द्वार के बाहर निकल गयी!

उनके निकलते ही जस्टिस अय्यर ने कहा, “दरवाजा लगा तो, कट्टू! कल्याणी पर यह कटाक्ष था तो निरर्थक! कल्याणी बेवजह अंगरेजी में गिटपिट नहीं करती! वह तो तमिल भी उतनी ही अच्छा बोलती है जितना अंगरेजी।“

“अच्छा, अब जल्दी करो-जिमखाने में उसकी सदस्यता लो और कोई अच्छा स्कूल देखो जहां वह स्पोर्ट्स शिक्षक हो सके!”

“अप्पा, आभार! आज इतने समय बाद मैं कल्याणी से आंखें मिलाकर बात कर पाऊंगा!”

“सोचो जरा, अम्बुजम भी हद ही करती है। शिक्षा से वैभव्य का क्या लेना-देना! कैसी गजब रूढ़ियां पाल रखी है!” चुरुट सुलगाते हुए जस्टिस अÕयर बोले।

“अम्बुजम का क्रोध देख मुझे उस स्तम्भकार की बात याद आ गयी जो अगस्य के छद्म नाम से स्त्री शिक्षा की पुरजोर वकालत करता रहता है। पढ़ा है उसे, कट्टू?”

“कह नहीं सकता, मैं तो फाल्गुनी के नाम से लिखने वाले स्तम्भकार पर लट्टू हूं।“

”अरे, हां, स्त्री है या पुरुष, नहीं जानता, पर है धाकड़। ‘इंण्डियन’ लेडीज मैगजीन’ में अगस्त्य नाम से उसके स्तम्भ पढ़ता हूं। वह भी पढ़कर देखना।“

“इण्डियन लेडीज मैगजीन में छपने का मतलब कि स्तम्भकार स्त्री है!”

“जरूरी नहीं,  उसके तीखे व्यंग्य मुझे उसके पुरुष होने का आभास देते हैं! विरोधी स्थितियों पर जमकर कुठाराघात करने की उसकी शैली लाजवाब है! जैसे कि उसने कहा- ठोस शिक्षा के साथ एक और शक्ति जुड़ी है- वैधव्य की!– कोई औरत ऐसा लिखेगी भला?” आवाज दाबकर उन्होंने दरवाजे की ओर देखा, “अम्बुजम के सामने तो मैं यह दोहरा नहीं सकता, क्योंकि वह व्यंजना को अभिधा  के रूप में पढ़ेगी और उसे लगेगा, यह बात तो उसकी रूढ़ि के समर्थन में हुई!

“अब मैं अगस्त्य के आलेख ढूंढकर पढूंगा!”

“अगस्त्य और फाल्गुनी दोनों में कुरीतियों से टकराने का अद्भुत नैतिक साहस है। यदि फाल्गुनी स्त्री है तो उसके साहस की विशेष दाद देनी चाहिए। विवाहबद्ध बलात्कार के अभियोगी हरिमोहन मैत्री- के लिए उसने लिखा- ऐसे व्यक्ति को पैंतीस बरस तक जिए चले जाने का कोई अधिकार नहीं! विशेष बात यह है कि रूक्मा बाई वाल मामले में उसने जस्टिस विल्सन अÕयर को भी आड़े हाथों लिया! याद है न तुम्हें?”

“जी अप्पा, विवाहबद्ध बाल बलात्कार के अभियोगी को हल्की फटकार के बाद उन्होंने बरी कर दिया था न !”

“ये कहने की स्वाधीनता कि “मैं अगस्त्य रूक्मा बाई  का प्रस्ताव आगे बढ़ता हूं” और ब्रिटिश सरकार की लोकलुभावन नीतियों की ही नहीं, हमारे अपने प्रतिगामियों की भी खाट खड़ी करते हैं। यह कैसा सांस्कृतिक पुनरूत्थानवाद कि गांधी-नेहरू की प्रगतिशील योजनाएं घुन खा जाएं! वकील-समुदाय में तो ज्यादातर लोग अगस्त्य को उसकी अंतर्दृष्टि के लिए पढ़ते हैं!”

“तो क्या वह भी एक वकील ही होंगे?”

“कौन अगस्त्य?”  

“जी!”

“हो सकता है! लोकप्रिय वरडिक्ट उठाकर जिस पुरजोर कशिश से वे उसकी बखिया उधेड़ते हैं, उससे लगता तो यही है, इसलिए शायद उन्हें छद्म नाम से  छापने की जरूरत पड़ी! कभी  वे अपने जिमखाना क्लब में ही मिल जाएं तो चौंक मत जाना!” जस्टिस अय्यर हंसते हुए बोले!

“पर यह  रिवाज लेखकों की सही पहचान में आड़े आता है!”

“इसमें उनका क्या दोष! अपने नाम के साथ इतनी धारदार बहसें कर पाना मुश्किल था। कभी-कभी तो अगस्त्य और फाल्गुनी के बीच भी जमकर वाक्युद्ध होता है। जनमन में लहर जगाने में वे कोई कसर नहीं छोड़ते!”

“अच्छा!”

“हां, एक बार तो फाल्गुनी से उन्होंने खुलकर निवेदन किया-फाल्गुनी जो भी तुम हो, जहां हो, स्त्रियों के प्रश्न पर लिखकर न रह जाओ, एकजुट होकर सामने लाने में उनकी मदद करो! कथनी से करनी बड़ी होती है”

“अच्छा, इतना रोचक विवाद अगर प्रिण्ट में उपलब्ध है, तब तो मैं दूसरी पत्रिका भी मंगाऊंगा।“

“अरे, वह तो मैं ही मंगा दूंगा!” चुरूट मुंह में दबाकर अय्यर बोले।

कुछ देर चुप्पी छायी रही फिर अय्यर ने ही कहा, “शुभ रात्रि, कट्टू। कल्याणी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। जितनी देर सो सकते हैं, सो लेते हैं, हालांकि पल-पल परिवर्तित ब्रिटिश नीतियां हमें किसी करवट चैन से रहने नहीं देती! क्या पता युद्ध के प्रश्न पर क्या निर्णय हो?”

“मतलब?”

“हमारे अपने नेता तो विश्वयुद्ध में भाग लेने से इनकार कर रहे हैं!”

“यह घनघोर अनिश्चय का समय है अप्पा! जी करता है, कुछ अच्छे भारतीय भले ब्र्रिटिश शासकों के साथ अलग किसी टापू पर अपना रिपब्लिक बना लें।“ कट्टू ने कहा।

जस्टिस अय्यर हंसे, “ठीक कर रहेे हो, कुछ ब्रिटिश अधिकारी नए भारत के निर्माण में हमारे सहयोगी रहे हैं, पर यह बात हम खुलकर नहीं कह सकते क्योंकि अर्थ का अनर्थ निकल जाएगा!”

“शुभ रात्रि, अप्पा। आज का दिन कुछ तो सार्थक रहा।“

“हां, घरेलू विवाद तो सुलझा!”

“शुभ रात्रि, बेटा!” बेटे की पीठ थपथपकार उन्होंने कहा!

-अनुवाद: अनामिका