‘फ़र्क नहीं पड़ता’ स्त्रीवादी युवा कवि
ऋत्विक भारतीय की उन कविताओं की सरिणी है जहां हर वर्ग, हर वर्ण, हर सम्प्रदाय की नई स्त्री
ने गहरे संताप की गुमसुम चुप्पी तोड़ दी है और आत्मबल साधकर मुक्तकंठ से कहना सीख
लिया है- ‘‘अब लौं नसानी, अब न नसैंहों।’’ (अब तक नष्ट हुई, अब और नहीं!)
फ़र्क तभी तक पड़ता है घुड़कियों, धमकियों, गालियों, लानतों-मलानतों का जब तक सामने वाले दबंग सामंत/तानाशाह, पितृसत्ताक में यह अगरधत्त विश्वास
बना रहे कि मातहत के मन-प्राणों का स्विचबोर्ड उसके हाथ में है- वह जब चाहे, उसे ऑन-ऑफ कर सकता है।
जिस
दिन उसे पहली चुनौती मिलती है, वह चौंकता है, दमनचक्र और तेज करता है, उससे भी बात नहीं बनती, साम-दाम-दण्ड-भेद सब आजमाकर वह थक जाता है- तब आता है संवाद का सही
मौसम जिसका इंतजार स्त्रियों को हमेशा से
रहा है। क्योंकि उनकी इतिहास-चेतना उन्नत है और वे अच्छी तरह जानती हैं कि जनतंत्र
ही अन्तिम उपाय है और जनतान्त्रिक संवाद की सही स्थितियां यथास्थिति तोड़े बिना बनती
नहीं, सधे
स्वर में यह संदेश दिया जाना जरूरी है कि ‘‘हर भय से ऊपर हूं, कर लें जो करना है, शिक्षादीप्त स्त्री हूं मैं, मेरा श्रम मेरे साथ है, बहनापे का तेज मेरे साथ है और कानून
भी!’’ दलित धीरोदात्त का उदाहरण है यह कवि और परकायाप्रवेश की इसकी क्षमता वरेण्य
है।
-अनामिका
फ़र्क
नहीं पड़ता-1
उसने उठना चाहा,
मैंने संस्कार और नैतिकता का
हवाला दिया-
‘‘शर्म
करो, शर्म
करो,
तुम्हारी सात पीढ़ियों में
किसी ने ऐसा नहीं किया!’’
वह नहीं मानी।
मैंने धर्म और शास्त्र का
डर दिखाया-
‘‘मान
जाओ, मान
जाओ
प्रभु तुम्हें नरक की आग देंगे!’’
वह तब भी नहीं मानी-
इस बार मैंने ब्रह्मास्त्र निकाला
और सीधे उसके चरित्र पर
हमला किया-
‘‘बदजात, बेहया, वेश्या,
तूने मेरे कुल पर दाग लगाया!’’
इसबार वह थोड़ी
डरी-सहमी-घबरायी!
थम गयी इक पल को
जैसे कुछ संचित कर रही हो
अपने भीतर
फिर अचानक चीख कर बोली-
‘‘फर्क
नहीं पड़ता!’’
फ़र्क नहीं पड़ता-2
बच्ची
थी तो मां कहती थी,
पिता
कहते थे,
भाई
कहता था,
कहते
थे नाते रिश्तेदार, पास-पड़ोस-
“ये
मत करो, वो मत करो,
यहां
मत जाओ, वहां मत जाओ,
ऐसे
मत हंसो, ऐसे मत गाओ,
ऐसे
मत चला करो………!”
बाबा
रे, बाबा!
इतनी
निषेधाज्ञाएं
कि
समेटने को पड़ जाए
द्रौपदी
की साड़ी भी छोटी।
× × ×
विवाह
हुआ
कभी
बहू, कभी पत्नी तो कभी मां का
देते
हुए हवाला
जारी
होती रहीं लगातार निषेधाज्ञाएं-
“ये
मत करो वो मत करो,
यहां
मत जाओ, वहां मत जाओ – – -!”
आज जिन्दगी
के इस पड़ाव पर
जब
मेरा हो सकता है सबकुछ
एक
बार की हिमाकत पर नेस्तनाबूद!
मैं
कहना चाहती हूं पूरे होशो-हवास में-
“फ़र्क
नहीं पड़ता!”
इसबार
देखती हूं ढहता कौन है,
टूटता-बिखरता
कौन है-
मैं,
तुम या तुम्हारा यह
खोखला
समाज?
फ़र्क नहीं पड़ता-3
स्त्री
बोले तो हो जाती है
वाचाल!
हंसे
तो हो जाती है
बेशर्म!
सोए
तो हो जाती है
लापरवाह!
खाए
तो हो जाती है
दरिद्र!
सुध
ले अपनी तो हो जाती है
खुदगर्ज!
स्त्री
जिस पल सोचती है
इस
व्यवस्था को धता बता
उसके
विरुद्ध चलना,
उसी
पल कर दी जाती है
बदतमीज-बदजात-चरित्रहीन
घोषित!
स्त्री
डरे नहीं,
घबराए
नहीं उस पल।
स्त्री, हंसे, उसके मुंहपर हंसे,
हंसे,
उस समाज पर हंसे,
और
खूब, खूब
जोर से हंसे,
हंसे
उस व्यवस्था पर,
हंसते-हंसते
ही
पूरी
ताकत के साथ
चीखकर
कहे-
“फ़र्क
नहीं पड़ता!”
इतना-भर
कहने से
डरेगा
पुरुष,
डरेगा
परिवार,
डरेगा
समाज,
स्त्री
के नकारने-भर से
हो
जाएगी
सारी
वर्चस्ववादी व्यवस्था
नेस्तनाबूद!
फ़र्क नहीं पड़ता-4
उसने
कहा-
“उठो!”
मैंने
कहा-
“मैं
तो रोज ही उठती हूं,
आज
मन नहीं है मेरा,
आज
तुम उठो!”
उसने
कहा-
“खाना
बनाओ!”
मैंने
कहा-
“मैं
तो रोज ही बनाती हूं,
आज
मन नहीं है मेरा,
आज
तुम बनाओे!”
उसने
कहा-
“धोओ
कपड़े!”
मैंने
कहा-
“मैं
तो रोज ही धोती हूं,
आज
मन नहीं है मेरा,
आज
तुम धोओ!”
उसने
कहा-
“दबाओ
पांव!”
मैंने
कहा-
“मैं
तो रोज ही दबाती हूं,
आज
मन नहीं है मेरा,
आज
तुम दबाओे!”
उसने
कहा-
“मैं
पति हूं तुम्हारा।”
मैंने
कहा-
“मैं
पत्नी हूं तुम्हारी।”
उसने
कहा-
“तुम
अपने मन की करोगी?”
मैंने
कहा-
“क्या
होगा?
तुम
तो रोज ही करते हो
अपने
मन की!”
उसने
कहा-
“मैं
पति हूं तुम्हारा।”
मैंने
कहा-
“मैं
भी पत्नी हूं तुम्हारी।”
उसने
चीख कर कहा-
“निकल
जा इस घर से
ये
घर मेरा है!”
मैंने
कहा-
“क्यों,
ये घर मेरा नहीं है?”
उसने
कहा-
“नहीं, यह तेरी ससुराल है!”
मैंने
कहा-
“कानूनन
तो इसपर
मेरा
भी अधिकार है…!”
उसने
कहा-
“ओ!
तू अब कोर्ट-कचहरी करेगी,
केस लड़ेगी
मुझसे?”
मैंने
कहा –
“नहीं, बस अपने अधिकार लूंगी!”
उसने
दांत भींचते हुए कहा-
“हरामजादी, मुंह लगाएगी मुझसे?”
मैंने
कहा-
“नहीं, जो तुम बरसों से करते आ रहे हो,
बस
वही करूंगी;
सिर्फ
अपने मन की!”
उसने
कहा-
“तू
हरामजादी है।”
मैं
जानती थी वह मुझे आगे
बहुत
कुछ अनर्गल कहेगा
मसलन, कहेगा मुझे-
“तू
रंडी है!”
कहेगा-
“तू
बदजात है!”
“तू
है चरित्रहीन!”
इसलिए
बिना उसके आगे कुछ कहे
मैंने
ही चीखकर कहा-
“अपना
हक मांगने से
अगर
कोई होती है हरामजादी
तो फ़र्क
नहीं पड़ता-
मैं
हूं हरामजादी—एक हराम व्यवस्था की जाई!
जैसे
तुम, वैसी मैं!”
मेरे
इतना भर कहते ही
वह
पैर पटकता हुआ
निकल
गया
घर
से बाहर!
फ़र्क नहीं पड़ता- 5
बात-बात
पर डांट,
बात-बात
पर गाली,
बात-बात
पर मार,
बात-बात
पर घरनिकाला,
घर
वाले देते हैं नसीहत–
“जैसा
कहते हैं, वैसा
करो, बेटी,
जैसा
चाहते हैं, वैसी रहो, बेटी,
पति
का घर ही घर,
पति
ही तुम्हारे परमेश्वर,
बाकी
सब ठीक करेंगे ईश्वर।”
ईश्वर!
स्त्री
बजाती है घण्टी
करती
है वंदना,
रखती
है उपवास
कि
एक दिन,
बदल
जाएगा सब कुछ,
हो
जाएगा सब ठीक-ठाक,
एक
दिन,
करेगी
वो भी अपनी मन की
कि
देंगे नहीं
बात-बात
गाली,
उठायेंगे
नहीं
बात-बात
पर हाथ,
देंगे
नहीं जब-तब
घर-निकाला,
दिन
बीते, साल
बीते, बीत
गया अर्सा
पर
नहीं बदली उसकी नियति,
बात-बात
पर डांट,
बात-बात
पर गाली,
बात-बात
पर मार,
बात-बात
पर घर निकाला।
एक दिन
चुक गया धीरज
किया
स्त्री ने
ईश्वर
से सवाल–
“क्यों?
क्यों सहूं मैं
बात-बात
पर डांट,
बात-बात
पर गाली,
बात-बात
पर मार,
क्यों
हो मेरा कोई परमेश्वर
जब तुम
हो सबके ईश्वर?
मूक,
निरीह, जड़वत
बना
रहता है ईश्वर,
चुकता
है स्त्री का धीरज,
“कोई
नहीं मेरा परमेश्वर,
अगर
कोई है तो
मैं ही
हूं
अपनी
ईश्वर!”
फ़र्क नहीं पड़ता-6
(प्रिय अभिनेत्री स्मिता पाटिल को याद करते हुए)
प्रेम
में तोहमत लगाकर
छोड़
देनेवालों की भी
दुनिया
में कमी नहीं,
वे
लगाएंगे आरोप-
“तुम
हो बेशर्म
कि
बेहया-सी हंसती हो
जब-तब
दांत निपोर!
पराये
मर्दों के सामने भी
करती
नहीं हो तुम पर्दा
कि
हद सीधी है गर्दन तुम्हारी,
गलती
पर भी झुकती नहीं,
कि
तुम हो-
बदजुबान, बदतमीज
तुम
हो बदजात!
इसलिए
तुम
तिरस्कार
के योग्य हो!
इसलिए
तुम
त्याज्य
हो!”
ऐसे प्रेमियों
के लिए
कदापि
आंसू मत बहाना,
ये
बेशक पुरुष होंगे
पर प्रेमी
हरगिज नहीं!
ऐसे
प्रेमियों के लिए
प्रेम
नहीं, धिक्कार है,
शत-शत
धिक्कार!
मानव
ही नहीं,
दुनिया
के सभी चर-अचर की तरफ से
धिक्कार!
ऐसे
पुरुषों के लिए
रोना
नहीं बुक्का फाड़ के
कि
उतार मत लेना
गले
में कोई कीटनाशक
या
झूल मत जाना
गले
में लगाकर कोई फंदा।
खाना-पीना
तो
हरगिज
मत छोड़ना,
सम्भव
हो तो खा आना
किसी
रेस्टोरेण्ट से
या
गली-नुक्कड़ के ‘बीकानेर’ से
रसगुल्ला
या झन्नाटेदार झालमूढ़ी
फिर
कहना चीखकर-
“चल
हट, जा
यहां से
जा
भाग, अभी तुरंत भाग
फर्क
नहीं पड़ता!”
·
फ़र्क नहीं पड़ता-7
(गोरेपन की क्रीम का नाम है ‘फेयर एण्ड लवली’ पर यह कहानी है
नॉट
फेयर बट लवली रधिया के साहस की। मेरा मानना है धीरे-धीरे ही सही, इसी साहस से
बदलेगी दलितों की दुनिया और स्त्रियों की भी!)
गांव से शहर आते ही
सांवली-सलोनी अपनी रधिया
‘फेयर एण्ड लवली’ हो जाने के
चक्कर में उलझ गयी।
दस रुपये की क्रीम मिलती थी,
मिलता था रोज
मुफ्त विज्ञापन
तो उसका जी कसमससाया,
सोचा कि सुंदर तो हूं ही,
हो जाऊं थोड़ी गोरी भी तो
ले जाएगा मुझको मोटरकार पर बिठाके
कोई दिलवाला।
नाखून भी घिस रहे हैं घिस-घिसकर बरतन
हाय-हलो, थैंक्यू-वैंक्यू,
सॉरी-भर सीखी थी उसने अंग्रेजी,
सीख लिया था उसने
गेट आउट, कम-इन, ब्लर्डी-बास्टर्ड
जैसे शब्दों का कुछ-कुछ मतलब,
नाम तक बदल लिया था उसने
रधिया से रूपाली
पर दुनिया की खातिर वह
अब भी थी कामवाली
नाम नहीं, बदला था केवल विशेषण,
देखती मेम साहब को
किटी पार्टी में मगन तो आह से घुटती,
रह-रहकर मेम साहब की फरमाइश-
“यह खाना— वह खाना—”
“यह लाओ– “वह लाओ—”
भूखी थी रधिया,
कान में बरस रही थी उसके बार-बार
एक ही पुकार-
“कामवलाी— कामवाली”
टूटा धैर्य रधिया का, बोली तपाक-
“कौन नहीं करता किसी के काम
वैसे भी तुम-सा निठल्ला रहने से
अच्छा है, हो जाना कामवाली!”
सन्नाटा-सा छाया रहा मिनटभर
जैसे गिरा हो बम,
बोली मैम चीखकर-
“गेट आउट, गेट आउट फ्रॉम हियर!”
पता नहीं कितना समझी थी रधिया
बोली धीरे से मुस्कुराकर-
“चलती हूं, ब्लडी-बास्टर्ड,
फ़र्क नहीं पड़ता
बाई-बाई!”
ऋत्विक भारतीय
‘हंस’, ‘वागर्थ’, ‘कथादेश’, ‘हिंदुस्तान’, ‘दैनिक जागरण’, ‘नवभारत
टाइम्स’, ‘समालोचन’, शब्दांकन’ एवं ‘पारमिता’ जैसी विविध पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों और ब्लॉगर
पर कविता-कहानी- लेख तथा आलोचना प्रकाशित।
‘जन्म ले रहा है एक नया पुरुष’ साहित्य
अकादमी प्राप्त कवयित्री- अनामिका की कविताओं का चयन एवं सम्पादन। ‘संवेद’ पत्रिका
के अतिथि संपादक के रूप में योगदान तथा ‘पश्यन्ती’ ऑन लाइन जर्नल में नियमित
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सरकारी संस्थाओं में काव्य-पाठ।
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