माँमुनि- श्रीमाँ शारदा के जीवन पर आधारित उपन्यास / किश्त- ८

 


षोडशी की षोडशोपचार उपासना ३
ब्राह्मणी श्रीमदभागवत की मोटी पोथी खोले ग्यारहवेँ अध्याय का परायण करती बैठे बैठे ठाकुर की प्रतीक्षा कर रही थी। ब्रह्ममुहूर्त हो चला था किन्तु उसके निताई अभी तक जागे नहीं थे। इतने में किवाड़ खुला और शारदा ठाकुर के शयनकक्ष से निकलती उसे दिखाई दी। 

शारदा के केशों से जल चू रहा था। वह जल से सराबोर एक ही चीर धारण किए हुए थी। अभी अभी नया कुंकुम लगाकर उठी थी।
चौके की ओर जाने लगी तो ब्राह्मणी कुछ बड़बड़ाई किन्तु पक्षियों की उषाकालीन काकली में शारदा को कुछ सुनाई नहीं पड़ा। वह सहास, प्रसन्नवदन चौके में घुस गई।

ब्राह्मणी का मन हुआ भीतर जाकर शारदा को कटुवचन कहे। यह क्या किया उसने! निताई के संग रात्रि बिताई। गौरांग की सब साधना सब पुण्य नष्ट कर दिए। षोडशीपूजन में दिगम्बर तरुणी को देखकर तो गौरांग की समाधि लग गई थी। इस कुरूपवती के संग रातभर पड़े रहने में लज्जा नहीं आई!

ब्राह्मणी पाठ आधा छोड़ पहले ठाकुर को जगाने गई। जीवन में प्रथम बार पाठ आधा छोड़कर उठी थी किन्तु उसके पग उसके वश के नहीं थे। ठाकुर औंधे भूमि पर पड़े हुए थे। कंदर्प के बाणों का घायल देखो कैसा भूमि पर लोट रहा है। छी छी इसी में भैरव और चैतन्य महाप्रभु की छवि देखी थी तूने मूर्खा योगेश्वरी बामनी किन्तु पीठ पर नखक्षत, दंतावली के कोई चिह्न न थे। किसी ने कसके आलिंगन में भरा हो ऐसा नहीं लगता था किन्तु जयरामवाटी की यह किशोरी ऐसी बातों में बहुत प्रौढ़ है, यह सोचकर ब्राह्मणी वहीं बैठ गई।

ठाकुर स्वयं ही जाग पड़े। उनका तलवे में ब्राह्मणी को छत्र, अर्धचन्द्र, मछली, ध्वजा और शंख दिखाई देने लगे। शास्त्रों में तो ऐसे लक्षण श्रीराधा के तलवों के बताए गये है। ब्राह्मणी ने ठाकुर के पाँव अपने हाथों में ले लिए और उनके तलवों पर करतल फेरने लगी।


“जननीमुनि, तू जाग पड़ी” ठाकुर ने पूछा।

“भूमि पर क्यों सोया है रे मेरे गौरांगमहाप्रभु? ऐसा लगता है जैसे स्त्री के संग रात्रिभर भूमि पर ही केलि करता रहा है” ब्राह्मणी ने कहा और पाँवों की अंगुलियों में अपने हाथों की अंगुलियाँ देने लगी।

“वह तो कालीघाट की श्यामा है, जननीमुनि। मैं तो नीचे सो रहा था किन्तु वह मानती ही न थी। कहने लगी मुझे भूमि पर सुलाकर और स्वयं खाट पर सोने से उसे पाप पड़ेगा। ये कालीघाट की श्यामा तो बड़ी चतुर है। मुझे पापी बनाने चली थी। मैं कोई कम चतुर हूँ क्या! इसी का तो पुत्र है। जैसे ही माँ की नींद लगी मैं भी उछलकर भूमि पर सो गया” ठाकुर उल्लास के कारण पैर मारमारकर कहने लगे।

“चल, दुष्ट। अपनी जननीमुनि से भेद रखेगा। अब तुझे स्त्रीभाव में रहना होगा, प्रायश्चित करना होगा। आज तेरा श्रीराधासखी जैसा शृंगार करूँगी” ब्राह्मणी ने उठते हुए कहा।

“फिर तो पूरे कामारपुकुर में आनंदबाजार सजेगा। काशी का रेशम, शंख के कंकन और पाँवों में सुगन्धित आलता लगाऊँगा। बोल न, मेरे कांत नंदकिशोर आएँगे मुझसे मिलने? कालीघाट की श्यामा को ललितासखी बनाएँगे। तू विशाखा बनना, हाँ? बड़ा सुख होगा” ठाकुर कूद कूदकर कहने लगे।

“सरसों के तैल से हलवा नहीं बनता रे मेरे ह्रदयहरण। न, तेरी स्त्री के मन में पाप है” ब्राह्मणी ने धीमे से कहा। ठाकुर ने सुना नहीं वह ताली बजाते नहाने को निकल गए किन्तु शारदा ने सुन लिया। शारदा के कण्ठ में जैसे कोई पाषाण अटककर रह गया किन्तु कुछ कहा नहीं। वह बामनी को अपनी सास चन्द्रामणिदेवी की भाँति मानती थी। यदि बामनी कह रही है तो अवश्य ही मैं पापिनी हूँगी। शारदा चुपचाप मछली काटती रही। उसे लगा जैसे गंगा में रहकर भी मछली बासती है वैसे ही उसके स्वामी जैसे सन्त के निकट रहकर भी वह कामना की दुर्गन्ध से भरी है।

जलपान के पश्चात् ठाकुर का शृंगार आरम्भ हुआ। सरसों और मल्लिका के तैल,
हल्दी, मंजिष्ठा और कस्तूरी के उबटन लगाकर ताते जल से देर तक ब्राह्मणी ने ठाकुर को स्नान करवाया। बहुत पुराना होने के कारण गाढ़े हो चुके आलते से ठाकुर के चरण ऐसे प्रतीत होते जैसे पुण्यपुकुर से कमल चलकर थल पर गतिमान हो गए हो। जवाकुसुम का तैल लगाकर केश काढ़े गए। नया कुंकुम से कनपटियों तक गोल तिलकावलि बनाई गई।

प्रसन्नमयी अपने आभूषणों की पिटारी ले आई। लाहाज़मींदारों को अभाव था तो जवाई का; स्वर्ण तो सेर से ख़रीदते थे। प्रसन्नमयी सूनी बाँह उठा उठाकर आभूषण देती, “बड़दा यह खौर तो आपके लिलार पर ललना से अधिक फबेगी और यह सिंहलद्वीप के मोती की नथ यशोदादुलारे का ह्रदय इससे अटककर रह जाएगा”।
शारदा मकरमुखी कंगन देखने लगी तो प्रसन्नमयी शारदा की कलाई पकड़कर उसे पहनाने लगी। ठाकुर ने नयन ही नयन में कुछ कहा और शारदा ने कंगन उतारकर ठाकुर को पहना दिया। पछेलियों और चूहेदंती से भरे ठाकुर के हाथ दिव्य दिखाई देने लगे। ठाकुर को पहनाने को ब्राह्मणी अपनी फटीपुरातन धोती ले आई। कापोतरंग की, जीर्ण सूती साड़ी श्रीराधा पर सोहती भला। लक्ष्मी और प्रसन्नमयी धिक्कारने लगी। 

शारदा दौड़ी दौड़ी गई और अपने ब्याह की काशी के रेशम की धोती ले आई। उज्जवल रक्त के रंग की साड़ी देखकर ब्राह्मणी का मन बिगड़ गया। ब्राह्मणी चिल्लाकर शारदा से बोली, “श्रीराधा इच्छामयी नहीं थी तेरे जैसी। तेरी धोती पहनकर मेरे गौरांग का मन कामना में ही डूबेगा। जानती है, श्रीकृष्णचन्द्र ने गौरांगमहाप्रभु का अवतार क्यों लिया था? वह जानना चाहते थे कि उनके वियोग में श्रीराधा की क्या दशा हुई। तू तो सदैव संयोग योजना बनाती है। तू क्या जाने श्रीराधा का दिव्योन्माद!”

शारदा ने गुड़मुड़ी करके फेंक दी गई अपने ब्याह की धोती उठाई और चौके में चली आई। प्रसन्नमयी, लक्ष्मी सब ठाकुर के शृंगार में इतनी तन्मय थी कि शारदा का ध्यान ही नहीं रहा। जब ठाकुर श्रीराधा हो गए तब नाचने लगे। केवल ‘गोपाल गोपाल’ टेरते। कितने बालकों को ब्राह्मणी गोपाल बनाकर भेजती किन्तु ठाकुर के वियोग को कोई शान्त न कर पाता।

ठाकुर के गान से पूरा गाँव भर गया। दोपहर हो गई किन्तु उनकी अश्रुधारा नहीं रुकी। उनके संग पूरा ब्रह्माण्ड घूमने लगा। पूरियाँ कढ़ाई में जलती छोड़ शारदा आँगन में आ खड़ी हुई। ठाकुर शारदा को देखकर लजाने लगे। कभी शारदा का हाथ पकड़ते कभी संकोचवश छोड़कर दूर बैठ जाते। पुनः पुनः ब्राह्मणी के निकट जाकर अपनी टूटी गागर बताते और शारदा की ओर संकेत करके कहते, “ए, बुढ़ापे में माँ बनी नंदराय की स्त्री, तेरे उस काले कपूत ने मेरी गागर फोड़ी है।”

फिर उल्लास से नाचने लगते। कण्ठ पड़ा पुन्नाग का हार गिर गया। केशों की वेणी खुल गई, अश्रुओं के कारण अंजन की रेखाएँ प्रौढ़ाओं जैसी स्थूल हो गई, पाँव थक गए किन्तु नृत्य नहीं रुका।

ठाकुर के श्रीराधा रूप से मोहाविष्ट निराभरण शारदा भी उनके संग नृत्य करने लगी। गाँव की सब स्त्रियाँ एक दूसरे को देख देखकर हँसती जाती और नाच देखती। देर तक दोनों नाचते रहे। फिर हृदयराम आ गया।

“रसिकता की सीमा नहीं। स्त्रीवेश में अपनी स्त्री के संग नृत्य! मामा तुम सच में विक्षिप्त हो गए हो” हृदय चिल्लाया। ठाकुर कटे कदली वृक्ष की भाँति धड़ाम से गिर पड़े। गाँव की स्त्रियाँ भाग गई। शारदा और प्रसन्नमयी ठाकुर को उठाकर भीतर लाए। पारिजात के पुष्प जैसा भारहीन कलेवर।

आँगन की भूमि में ठाकुर के देह की चंदनरज लेकर ब्राह्मणी विचारने लगी। इस लीलाधर के प्रति मोहांधकार में योगेश्वरी बामनी तुझे कोई मार्ग नहीं सूझता। जा, काशी जा। गंगा में नहाकर जब काशी की गलियों में भिक्षा का अन्न खाएगी तब तेरा मोह जाएगा अन्यथा यहाँ रहकर अपने ही कोप में तू भस्म होगी।

ठाकुर दक्षिणेश्वर चले गए। ब्राह्मणी काशी आ गई और शारदा पुनः जयरामवाटी लौट आई। उस वर्ष कार्तिक में भी वर्षा होती थी और सब ओर घना अन्धकारा था।

(क्रमश:) 

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अम्बर पाण्डेय 
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