माँमुनि- श्रीमाँ शारदा के जीवन पर आधारित उपन्यास / किश्त- ७






 शारदा भाग दो 

षोडशी की षोडशोपचार उपासना १

“पंचभूतों को बाँधकर बनाई पुतली में अतींद्रिय अनुराग का जन्म कैसे होता है? शरीर के भीतर मन नहीं है। मन के भीतर यह संसार और उस संसार में शरीर है इसलिए तो पंचभूतों की यह पोटली के बिखरने के पश्चात् भी अतींद्रिय अनुराग वैसा ही गाढ़ा और मीठा मन के चूल्हे पर खदकता रहता है” ब्राह्मणी ने श्रीरामकृष्णदेव से कहा, वह हँसिए से लौकी काट रही थी।


“ह्रदय, जा किसी को भेजकर तेरी मामी को तो बुलवा ले। बहुत दिन बीते उसका दर्शन किए। मन उसके लिए कैसा सजल सजल हो रहा है।” श्रीरामकृष्णदेव खड़े होकर कमरे के चारों कोनों के चक्कर काट काटकर कह रहे थे।
श्रीरामकृष्णदेव कामारपुकुर आकर बहुत सांसारिक हो गए है, ऐसा समझकर ब्राह्मणी का मन तीता हो गया।
“निताई, स्त्री के लिए कोई ऐसे छछून्दर सरीखे कमरे के चारों खूँट नापता है!” ब्राह्मणी ने क्रोध से कहा।
“अपनी स्त्री को अपने गृह लाने में क्या दोष!”
हृदय ने भी तीखे स्वर में उत्तर दिया।
कल का बालक सामने खड़ा होकर पटपट बोले, यह ब्राह्मणी को असह्य था, “तुम्हारे मामा तुम्हारी तरह कामिनीकांचन के दास नहीं है। उनकी ब्रह्मचर्या में इससे विघ्न होगा।”
“काकी आएँगी तो सहायता ही होगी। पूजा, प्रसाद, दीये बालना कितने तो काज है यहाँ” श्रीरामकृष्णदेव के सबसे बड़े भाई रामलाल की बेटी लक्ष्मी ने कहा। शारदा से उसका थोड़ा ही परिचय था किंतु इस थोड़े परिचय में ही मित्रता प्रगाढ़ हो गई थी। 


श्रीरामकृष्णदेव बाहर कामारपुकुर के एक दूर के सम्बन्धी को टेरने लगे, “ऐ, गयाप्रसाद, मेरी स्त्री को तो ले आ। बहुत दिन हुए उसका मुख देखे”। भीतर सब हतप्रभ एक दूसरे का मुख देखने लगे।
“कामारपुकुर का तो जल ही दूषित है। यहाँ आकर कामेच्छा का मेढ़ा बन गया है मेरा निताई। निर्लज्ज सरीखा रास्ते पर ‘मेरी स्त्री से मुझे मिलवा दो, मेरी स्त्री से मुझे मिलवा दो’ चिल्ला रहा है। हे भगवती, गंगा का कछार त्याग यहाँ भले आए” ब्राह्मणी बड़बड़ाई। क्रोध में उसने लौकी का पूरा नाश कर दिया था। 

मध्याह्न भोजन के पश्चात् श्रीरामकृष्णदेव बाहर खटिया डाले विश्राम कर रहे थे। गाँव की कुछ स्त्रियाँ उन्हें घेरकर राधागोविन्द प्रेम की चर्चा कर रही थी कि श्रीरामकृष्णदेव को अपनी स्त्री शारदा आती दिखाई दी। माथे पर बड़ी भारी डलिया उठाए गयाप्रसाद के संग चली आ रही थी।
“भाल पर बहते स्वेद के मध्य सिंदूर ऐसा लगता है जैसे गंगा से सूर्योदय हो रहा हो” श्रीरामकृष्णदेव उठकर कुछ दूर दौड़े और महाभाव में लीन दो पाँव उठाकर धड़ाम से गिर पड़े। सभी स्त्रियाँ उनकी ओर दौड़ी। भीतर वस्त्र सुधारती ब्राह्मणी भी दौड़ी आई।

श्रीरामकृष्णदेव का मस्तक अपनी गोद में धरकर ब्राह्मणी, “हरिबोल हरिबोल” कहने लगी। चित्त संसार में लौटने पर श्रीरामकृष्णदेव अस्पष्ट स्वर में कहने लगे, “देख तो, काली माँ मेरे पीछे पीछे कामारपुकुर भी आ गई। उधर से नाव में बैठी आ रही है। डलियाभर के मिष्ठान भी लाई है माँ” ऐसा कहकर शारदा जिस मार्ग से आती थी उस ओर अंगुली दिखाने लगे।
“थल पर नौका नहीं चलती रे पगले। कोई किशोरी चली आ रही है” ब्राह्मणी ने श्रीरामकृष्णदेव का ललाट दबाते कहा। दूसरी स्त्रियाँ उस ओर देखकर शारदा को पहचान गई।
“गदाई की बहू आ गई। देखो तो गदाई को अपनी वधू देखकर नौका चढ़ी दुर्गा दिख रही है” एक मुखर प्रौढ़ा बोली और सभी स्त्रियाँ समवेत स्वर में हँस पड़ी। 


शारदा ठाकुर के निकट आकर खड़ी हो गई। अपनी डलिया भूमि पर धरी और ठाकुर का मुख निहारने लगी। कितने वर्ष बीत गए थे अपने स्वामी का मुख देखे। उसकी कनपटियों से स्वेद की बूँदें और अश्रु टपटप ठाकुर की आँखों में गिरने लगे। ठाकुर की आँखें खारे खारे स्वेद और अश्रु से जलने लगी। वह तुरन्त आँखें मलते उठ बैठे।
“क्या करती है तू। उनके नेत्र जलेंगे नहीं। यात्रा और धूल से भरी निताई के माथे पर चढ़ बैठी” ब्राह्मणी ने कहा। उसके निताई अर्थात् श्रीरामकृष्णदेव को कोई किंचित भी कष्ट दे तो वह खेद से भर जाती थी। शारदा शीघ्र ही खड़ी होकर हाथपाँव धोने जाने लगी।

ठाकुर ने उनका हाथ गह लिया। जाने नहीं दिया। गाँव की सब स्त्रियाँ विस्मित एक दूसरे को देख लजाने लगी। स्त्री स्वामी की प्रीति का ऐसा दृश्य देखे बिना इतने शिशुओं को जन्म दे दिया, उन्हें बड़ा किया, कुछ की संतानों के तो विवाह हो गए थे, कुछ दादी परदादी बन गई थी।
“कैसी क्लांत छबि काली की। ऐसी छबि का कौन बाड़ी कौन देवालय में दर्शन हुआ री, जननीमुनि!” ठाकुर ने ब्राह्मणी से कहा। शारदा कसमसाई और दूसरे हाथ से अपना हाथ ठाकुर के हाथ से छुड़ाने लगी। दाँत से साड़ी पकड़कर उसने अपना मुख लज्जा के कारण ढाँक लिया था।

“छोड़ दे बहू की कलाई, निताई। संसार को नाटक न दिखा। हरि बोल, नौका खे, भवसागर तर” ब्राह्मणी ने कहा। पहली दृष्टि में ही उसे शारदा से विरक्ति हो गई थी। मेरे निताई जैसे षोडशलक्षणों से पूर्ण आध्यात्मिक विभूति की ऐसी सांसारिक स्त्री। आते ही निताई के मन में हरिनाम का विलोप हो गया। पूरे संसार के सम्मुख अपनी स्त्री की कलाई पकड़कर बैठा है। 
जैसे तैसे कलाई छुड़ाकर शारदा भीतर भाग गई।

“जननीमुनि, दुर्गा के आने पर सबसे पहले तो मुख में मिष्ठान देना चाहिए। नौका में बैठे उसके पाँव कितने दुखने लगे होंगे, बताओ” दूसरी स्त्रियों की ओर मुख करके ठाकुर ने ब्राह्मणी से कहा। 
“इतनी थकीभूखी तो नहीं दिखाई पड़ती। डलियाभर तो अपने संग पथ्य लाई है और तुम सभी”; ठाकुर को घेरे बैठी स्त्रियों से कहा, “क्या तुम्हें घर पर कोई काज नहीं। आ जाती हो नित्यप्रति। भगवतचर्चा के बहाने संसार खोलकर बैठती हो” ब्राह्मणी अब कोप से जल रही थी। बेचारी ग्राम्यनारियाँ, सुनकर उठी और एक एक करके जाने लगी। जाते जाते भीतर देखती जाती। एक बार शारदा का जीभरकर दर्शन करना चाहती थी।
उन्हें ऐसा करते देख ठाकुर उनकी इच्छा जान गए, “अभी तो दस दिन रुकेगी, शारदा। तुम रंज न हों। कल फिर आ जाना मेरी बहू निहारने।”

भीतर जाकर ठाकुर ने शारदा की डलिया खोल ली। सीताफल, नारिकेल, सन्देश और चूड़ा धरा था भीतर। एक एक वस्तु निकालते और ब्राह्मणी को हृदय को लक्ष्मी को दिखाते जाते।
“देखो तो, कितना कुछ ले आई। साक्षात् कमला बनकर आई है इस बार। छहों रस के व्यंजन!” ठाकुर ने कहा और रस से फूटते सीताफल के गूदे से अपने अंगुलियाँ भर ली। शारदा दूर खड़ी देख रही थी। 


ठाकुर उठे और शारदा की ओर हाथ बढ़ाते बोलें, “बहुत भूखी है न तू। शारदा, देख, थोड़ा सा खा ले।” 
शारदा लज्जा से नेत्र तक न उठा पा रही थी किन्तु अपने दाएँ हाथ की अंगुली बढ़ाकर सीताफल का बीज उठाया और निगल गई। ह्रदय और ब्राह्मणी के हृदय यह लीला देखकर फट पड़े। 
“भगवान जाने भगवती का ये कौन सा रसिक रूप है” बड़बड़ाता हृदय बाहर चला गया।
“भात बनेगा या केवल सीताफल से सब पेट भरेंगे आज” ब्राह्मणी ने कहा।
“मैं अभी चौका लगा देती हूँ” कहती शारदा चौकी की ओर दौड़ती गई।


षोडशी की षोडशोपचार उपासना २

फुलौरी की थाली हाथ में पकड़े ठाकुर सबके मुख में फुलौरी धरते घूम रहे थे। योगेश्वरी ब्राह्मणी कोने में बैठी दीये बना रही थी। ह्रदयराम और लक्ष्मी दोनों कोई पोथी के लिए झगड़ा कर रहे थे। शारदा का सहोदर प्रसन्न हँस हँसकर दोनों को देख रहा था। लाहाज़मींदारों की बालविधवा बेटी प्रसन्नमयी और शारदा कढ़ाई से फुलौरियाँ उतार रही थी। 

“ललना के लिए तो रसोईघर ही मन्दिर है। मछली बनाने से बढ़कर कोई साधना है क्या! अन्न सिद्ध करना ब्रह्म सिद्ध करने से कम नहीं” ठाकुर ने धुएँ से भरी फुलौरी मुख में डालते कहा।
“हाँ, हाँ ब्रह्मा जब संसार बाँट रहा था तो पुरुषों ने ब्रह्म ले लिया और अभागी अबलाओं के हाथों में अन्न आया” प्रसन्नमयी ने मधुर स्वर में किंचित कटु होकर कहा।
“प्रसन्नमयी, तुम्हारा सौभाग्य बचपन में नष्ट हो गया तो इसका अर्थ यह नहीं कि समस्त अबलाजाति अभागिन हो गई” हृदय ने लक्ष्मी से पोथी छीनकर कहा।

“बाल्यावस्था में विधवा होने के कारण प्रसन्नमयी ने पोथियाँ पढ़ पढ़कर अपनी विद्या नष्ट कर ली किन्तु प्रसन्नमयी, बता, क्या किसी को भरपेट भोजन करवाकर तृप्ति नहीं होती?” ठाकुर ने कहा और थाली से चटनी चाटने लगे।
“तृप्ति केवल स्त्री को ही क्यों, यदि किसी भूखे को भरपेट भोजन करवाए तो पुरुष को भी उतनी ही तृप्ति मिलेगी, यह कहे देती हूँ” प्रसन्नमयी को तर्क किए बिन शान्ति प्राप्त न होती थी।

“पुरुष की रसोई में वह रस कहाँ इसलिए तो अन्नपूर्णा माँ है भोलेनाथ नहीं। माँ से प्रतिदिन हाथ जोड़कर, पाँव पड़कर माँगता हूँ कि माँ मुझे स्त्री बना दे क्योंकि स्त्रियों को जो रागानुगा भक्ति सहज सिद्ध है वह पुरुष के बस की नहीं।
बचपन से ही मेरी साध थी कि बालविधवा का जीवन पाऊँ। ब्रह्ममुहूर्त में उठकर ठाकुरघर में झाड़ू दूँ, गंगा से धोकर गोबर से लीपूँ। नैवेद्य में भाँत भाँत के मिष्ठान बनाऊँ” ठाकुर स्वगत भाषण करते रहे।

“स्वामी के बिना स्त्री मरणप्रायः” चुपचाप फुलौरी उतारती शारदा ने अन्तत: कहा।

“अनुभवहीन के स्वप्न बहुत निर्मल होते है, बड़दा और बालविधवा लौन, मछली, लाल पाड़ की साड़ी के स्वप्न देखती है” प्रसन्नमयी के नेत्र बरसने लगे। उसने आँचल से मुख ढँक लिया।

उसे देखकर ठाकुर भी रोने लगे। दूसरे जन मौन रहे। ब्राह्मणी ने दीये जलाते हुए कहा, “प्रसन्नमयी बिटिया, तेरा स्वामी जीवित भी होता तो कौन सा सुख देता! शय्या का सुख देता तो बदले में अपशब्द भी कहता। प्रतिदिन मछली पकाने को लाता तो अनुकूल न बनने पर गाल पर थप्पड़ भी लगाता, काशी से धूपछाँहवाली साड़ियाँ लाकर देता तो काशी की वेश्या की दुकान चढ़कर उतना ही अपमान भी करता। अरी, तू तो भली छूटी। रामनाम लेती है गुड़ खाकर सोती है”।

“रामनाम कहाँ लेती है प्रसन्नमयी। सब समय अभावों का दुःख मनाती है” हृदय को कड़ुवे वचन कहने में देर नहीं लगती थी।

“क्या प्रसन्नमयी ने कभी आकर तुमसे अपने अभावों का रोना रोया है, हृदूदा” लक्ष्मी बोली, हृदय के पुस्तक छिना लेने के कारण वह पहले से ही हृदय से रूष्ट थी। 

लक्ष्मी के केश खींचते हृदय बोला, “चल भाग। नारी की बुद्धि उसकी चोटी में रहती है। कबसे तैल-कंघा नहीं डाला इस पुआल के ढेर में?”

“सही तो कहती है लक्ष्मी। प्रसन्नमयी ने कब किसी से अपना अभाव कहा। इतने बड़े घर की बेटी, जिसके घर सौ से कम व्यंजन नहीं बनते वह एक बेला भोजन करके सोती है” शारदा अब पूड़ियों का परातभर आटा गूँध रही थी।

“काली चिन्तन से सब अभाव भर जाते है” ठाकुर कहने लगे, “मैं माँ से हमेशा पूछता था कि मेरी प्रसन्नमयी के संग ऐसा क्यों किया रे माँ? माँ कभी उत्तर नहीं देती थी। एक बार दशमी तिथि को माँ के चरण पर माथा फोड़ने का निश्चय कर लिया तब माँ ने केश पकड़कर उठाया और कहने लगी, ‘रे ठाकुर, तू भी निरा बालक है, जानता नहीं क्या कि प्रसन्नमयी के स्वामी की आयु केवल तेरह वर्ष थी। सिंदूर मिटाकर तप करना क्या सबके भाग्य में होता है; यह तो बिरलों के भाग में आता है। तप है यह तप।” ठाकुर ने कहा और भीतर सोने चले गए। पूड़ी और शाक धरा का धरा रह गया। सभा तितरबितर हो गई। प्रसन्नमयी को यह स्वयं का दोष अनुभव हुआ। अकारण अपना प्रसंग ले बैठी।

प्रसन्नमयी जाने को उद्धत होने लगी तो शारदा ने रोक लिया, “खाए बिना न जाने दूँगी, दीदी।”
“मैं तो एक समय हविष्यान्न खाकर सो रहती हूँ। इतना गरिष्ठ भोज करके यह विधवा केवल भोग के स्वप्न देखेगी। तुम खाओ, तुम्हारी वय भोगने की है” प्रसन्नमयी ने शाक पूड़ी में लपेटकर लाड़ से शारदा के मुख में ठूँस दी।

लक्ष्मी ने ठठोली में और प्रसन्नमयी ने बहुत विचारकर शारदा को ठाकुर के कक्ष में धकेल दिया। छोटे से स्थान में दीपक अब भी जल रहा था और ठाकुर खाट में औंधे सो रहे थे। बहुत अबेर तक शारदा दूर खड़ी रही। एक पाँव थक जाता तो दूसरे पर खड़ी हो जाती। दूसरा जब खड़े खड़े सो जाता तो पहले पर खड़ी हो जाती। दिवसभर की श्रांत जब शारदा खड़ी न रह सकी तो ठाकुर के निकट जाकर सो गई।

कैसी कदम्ब के फूलों की अंतस जैसी गन्ध थी ठाकुर के शरीर की। लगता था अपने स्वामी से लगकर नहीं वरण पर्जन्यों की घटा के निकट सो रही है। दीपक लज्जा के कारण शारदा ने अब तक बुझाया न था किंतु घी घट जाने के कारण वह लुपझुप करता था। ऊपर मोखे से शरद का नवशीतल पवन आ रहा था। दूर महोख बोल रहे थे।

अचानक ठाकुर खाट से उछलकर खड़े हो गए जैसे किसी प्रेत का स्पर्श उन्हें हो गया हो। उसका शरीर स्वेद से भर गया था। ललाट दिपदिपा रहा था। श्वास लेने में भी कष्ट था।
“नारियल के तैल की महक से मेरी कनपटियाँ टहकती है। शिरा शिरा फकड़ती है। मैं चटाई-चादर लेकर नीचे भूमि पर सो जाता हूँ। ठाकुर ने हाँफते हुए कहा और चटाई भूमि पर फैलाने लगे। 
“मुझे पाप पड़ेगा जो आप भूमि पर सोए और मैं निर्लज्ज सी खटिया तोड़ती रही” शारदा ने ठाकुर के हाथ से चटाई ले ली और चादर ओढ़कर सोने लगी। दीपक बुझने के कारण कक्ष में अँधेरा हो गया।

“तेरा अपरूप रूप वरदान है, शारदा क्योंकि इससे कामना नहीं वैराग्य उपजता है। संयम से बड़ा धन नहीं” शारदा को ठाकुर का निष्कंप स्वर सुनाई दिया किन्तु कालीघाट की श्यामा की गोद में धरे ठाकुर के शीश के दर्शन अन्धकार में नहीं हुए।

“देखो तो महामाया की माया, कालीघाट की श्यामा भूमि पर पड़ी है और उसका निठल्ला पूत खाट तोड़ रहा है। माँ, तू सेवा करवाना नहीं जानती किंतु तेरा दुलारचन्द्र स्वयं को कष्ट देना अब तक भुला नहीं है” ठाकुर ने कहा किन्तु शारदा ने सुना नहीं। वह सो चुकी थी।

ठाकुर खाट से उठे और भूमि पर बिना चटाई-चादर और तकिए के सो गए।

(क्रमश: )


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अम्बर पाण्डेय 
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