यम से छीन लाएगी माँ मेरी आत्मा- विशाखा मुलमुले की कविताएँ

(चित्र- सुप्रिया अम्बर)
 
 
विशाखा मुलमुले की कविताएँ ‘वरण-भात’ सी हैं, जीवन की साधारण लेकिन बेहद ज़रूरी चीज़ों की ओर आहिस्ते से संकेत करती हुईं, हमारे आसपास घटित हो रही रोज़ की ज़िंदगी को नयी दृष्टि से देखतीं, महसूस करती हुईं जो अक्सर इतनी आम होती हैं कि आँखों के आगे होकर भी छूट जाती हैं। यहाँ एक -एक निवाले का स्वाद और तरलता सहेजने की कोशिश है, तो साइबेरियाई पक्षियों का जीवट और उनकी आतुर उड़ान भी। यहाँ मनमोहना के माथे पर बिखरती अलकों को मन भर निहारने की तड़प है तो एक कवि की कविताओं के घर आने से उद्भासित घर का सौंदर्य भी। 
विशाखा हिन्दी कविता में नया नाम हैं लेकिन इनकी कविताओं की संवेदना और सुदृढ़ता आश्वस्त करती हैं कि यह यात्रा बहुत दीर्घ और प्रभावी होने वाली है। 
– रश्मि भारद्वाज 
 
 
अन्न हे पूर्ण ब्रह्म
 
अपने घर में परोसते हुए भोजन
अक्सर पहुँच जाती हूँ बचपन के घर में 
जब देखा करती थी आई को 
आजोबा को खाना परोसते
 
भोजन आरम्भ करने से पहले 
आजोबा बनाते थे जल से मंडल
फिर पक्षियों व जीवों के लिए
रखते उनका भाग
 
वरण , भात से आरम्भ हुआ भोजन 
होता था सम्पन्न दही , भात पर 
अर्थात ;
निर्गुण का निर्गुण में हो जाता विलय 
 
एक निवाला दूसरे से अलग 
कभी दाल में भीगा हुआ 
कभी सब्जी से भरा हुआ 
बीच – बीच में कढ़ी की फुरकी 
तो कभी चटनी का चटकारा
 
बाद में हुए वे उद्यमी 
पहले कपड़ा मिल में करते थे नौकरी 
तब दुर्घटना में  टोक कट गई थी अनामिका की 
कौर बनाते समय वही उंगली जरा उठी रहती थी
देख जिसे लगता था जैसे
वह हो मोर की कलगी और
मोर अपनी चोंच से उठा रहा हो निवाला 
 
उतना ही लेते थे जितनी रहती भूख 
थाली में अन्न छोड़ने को नहीं होते थे कभी मजबूर 
नहीं निकालते थे मीन मेख कभी भोजन में
नमक कम लगे तो 
थाली के बाई ओर परोसे नमक को गुपचुप मिला लेते थे  
अंतिम कौर संग ही
मुस्कान बिखर जाती थी उनके चेहरे पर तृप्ति की
उपरांत जिसके
आई को हर बार देते थे आशीर्वाद  ;
   ” अन्नपूर्णा सुखी भवः “
 
*आजोबा – दादाजी
* वरण , भात  – दाल , चावल 
 
 
खिलना
 
गन्धराज के समीप से गुजरो
उसमें न मिलेगी गन्ध 
मधुमालती , गुलाब  , चंपा 
किसी भी लता , गुल्म ,वृक्ष में
न मिलेगी सुगन्ध 
 
पुष्प के खिलने पर 
खिलता है वृक्ष
बिखरती है संसार में उसके होने की गंध 
 
इसी तरह ,
प्रेम व करुणा मनुजों में रचते
खिली हुई आत्मा की गन्ध – सुगन्ध
 
पुष्प का खिलना नहीं है मामूली कोई घटना
अरबों साल पुरानी धरती पर 
अस्तित्व है मनुज का कुछ लाख बरस
इतने बड़े जीवन में
गिन के देखो 
अब तक खिले हैं कितने पुष्प ?
 
 
 
 
 
 विजया
 
यम से छीन लाएगी माँ मेरी आत्मा
एक डग में माप लेगी 
छत्तीसगढ़ से महाराष्ट्र की दूरी 
पवनसुता वह ले आएगी मेरे लिए संजीवनी बूटी
 
डगर – चगर हिलायगी शेष शैय्या
तोड़ेगी विष्णु की विश्रांति 
वक्र दिशा में चलते ग्रहों को ले आएगी सीध में 
 
हिरकणी बन अंधकार में पार करेगी 
बाघों का निवास स्थान
लांघ लेगी मेरे लिए अजिंक्य दुर्ग
 
पहाट फूटने से पहले 
चली जायेगी उज्जयिनी 
महाकाल की भस्मारती की लगाएगी तपती भभूत
 
हंस के नीर क्षीर विवेक से 
देख लेगी मेरे अवगुण
फिर भी आँख मूँद
स्थापित कर देगी नाभि में अमृत कलश
 
इतने पर भी बात न बनी तो 
अश्रुओं से कोमल बना देगी 
कच्छप की कठोर पीठ 
माँग लेगी उससे मेरे लिए डेढ़ सौ वर्ष का आयुष्य
 
सिरहाने बैठ माथा सहलाते 
पढ़ेगी राम रक्षा
चालीस पार की मेरी देह के लिए 
घिसेगी जन्म घूटी
 
रोग को हरेगी 
पिलाएगी चाँदी के चम्मच में औषधी
मंत्र पढ़ते हुए :
                       शरीरे जर्जरीभूते व्याधिग्रस्ते कलेवरे 
                      औषधं जाह्नवीतोयं वैद्यो नारायणो हरिः॥
 
साम , दाम  , दंड  , भेद से 
माँ बचा ही लेगी मेरा जीवन 
 
* पहाट – सूर्योदय के पूर्व 
*अजिंक्य – अविजित
 
 
 
 
 
 प्रवासी पक्षी
 
तुम्हारे पँख नाजुक हैं अभी तो 
घबराओ मत मेरी नन्ही सखी 
हम भरेंगे तुममें आत्मविश्वास
देंगे तुम्हें उड़ान का भरोसा 
 
जब हम तय करेंगे लंबी दूरी
तुम आसमान में 
झुंड के मध्य में रहना
मध्य में हवा का दबाव उपयुक्त होगा
तुम साध लोगी उड़ान
 
हमें दिशा का बोध है
हम रात्रि में भी भरेंगे उड़ान
हम साइबेरियन पक्षी हैं
अनुवांशिकी में है प्रवास
 
हम तीर की तरह उड़ेंगे
प्रवेश करेंगे
बर्फीले क्षेत्र से अनुकूलित प्रदेश में 
हमारा रक्त गर्म है 
हम जन्म देंगे वहाँ संततियों को 
 
वापसी में तुम्हारा
हो चुका होगा कायांतरण
देखना तुम पँख फैलाकर
विश्वास जगा रही होगी नन्हें परों में 
 
हो सकता है हमारी वापसी तक 
हवा में बारूद की गंध भी हो जाये समाप्त
पाखी हम  साथ – साथ है तो 
सुनहरा ही होगा हमारा भविष्य 
कि ,
हम जीवट साइबेरियन पक्षी हैं 
 
 
 
 
 
अपने – अपने अंधेरे –  उजाले 
 
अंधेरे की कैद से मुक्त हो 
हम हो जाते हैं धूप के पिंजरे में कैद 
और चलने लगती है उसके अनुसार हमारी दिनचर्या 
 
धूप ले जाती है हाथ पकड़ 
नन्हें – मुन्नों को पाठशाला 
जो नहीं जा पाते पाठशाला
उन्हें पढ़ाती है वह , पाठ जीवन का 
उनके सिर पर नौतपा बन ताउम्र 
उनके हाड़मांस का पिघलाती है लोहा
 
धूप खोजती अपनी पुरानी छात्राएँ
जिन्होंने धरा है अब दादी – नानी का रूप
पर वे तो बिहाने – बिहाने 
धूप का जाल फैलने के पहले ही 
आंगन झाड़ – बुहार कैद हो चुकी होती हैं पूजाघरों में
 
धूप की नज़र पड़ती अब महिलाओं पर 
घर , द्वार , आंगन , छतों के ऊपर – नीचे 
वें दिखती उसके इशारों पर नाचते हुए 
देख उन्हें , धूप फेंकती उन पर अपनी चमक भरी मुस्कान 
ठीक बारह बजे के सूरज जैसी
 
धूप को दिख जाते कुछ अपने पुराने छात्र 
नीम के छाँव तले चौपाल में हुक्का गुड़गुड़ाते 
गुज़रे जमाने के किस्से दोहराते 
उनके चेहरे पर स्याह पड़ी झुर्रियों में 
धूप देख लेती अपनी बीती उम्र
वह करती थोड़ा अफ़सोस भी 
कि , खेत – खलिहानों में 
जब होना था काबिज़ उसे फ़सल को सोना करने  
तब वह बादलों संग उलझी रही और बादल बरसते रहे 
इधर उसके खिलने की आस में गेहूँ संग 
उसके अपनों के गाल भी पिचकने लगे 
 
अपनी पुरानी गलती को याद कर 
धूप भागती नंगे पाँव खलिहानों की ओर 
बहुत खोजने पर भी न मिलते वहाँ उसे नये साथी
कुछ खेत दिखते उसे बंजर पड़े 
कुछ पर बहुमंजिला मकान बन रहे थे 
 
वह ढूँढती फिरती उन्हें चारों ओर 
पार करती जतन में कई ठौर 
खोजते हुए उन्हें गाँवों से वह पहुँच जाती शहरों तक 
और चमकीली काँचनुमा इमारतों से जा टकराती पुरजोर
उससे पर्दा किये रूठे हुए अपनी मिट्टी को झाड़े हुए
नव युवक दिखते वातानुकूलित कमरो में संगणक के सामने 
 
अब स्क्रीन की चमक और रात का अंधेरा ही है उनका साथी
धूप की छाती पर उल्टे लटके चमगादड़ों ने उसे बतलाया ! 
 
 
 
 
 
 मनमोहना
 
हवा के झोंके से माथे पर बिखरते हैं केश तुम्हारे
मैं कल्पना में उन्हें सँवारते शीश पर मोरपंख धरती हूँ
तुम हँसते हो तो गालों में भँवर पड़ते हैं
गोते लगता है वहाँ गौरैया – सा मेरा मन
कुंद की कलियों – सी तुम्हारी दन्तपंक्ति 
और उस पर खिली चित्ताकर्षक मुस्कान 
क्या जादू है कि ,
मेरी देह को मह – मह महकाती है ।
 
कितनी तो मोहक है तुम्हारी छवि 
उस पर ,
घनी पलको की छाँव में नैनों से बातें करना 
मैं मौन के सागर में डूबती हूँ , तिरती हूँ
तुम चन्द्र से मेरे अन्तराकाश में भ्रमण करते हो ,
मैं तुम्हें प्रेम करती हूँ , यह बार – बार कहने की जरूरत नहीं
तुम भी मुझे चाहते हो यह बस कहा , एक बार !
 
 
 
 
 
 रंगत
 
जब एक तितली तुम्हारे आँखों में ठहरती है
तो तुम्हारी दृष्टि की कोमलता 
मन को छू जाती है 
वही तितली जब काँधे पर बैठती है 
तो बन जाती है भरोसे का रूपक
 
उड़ कर वही तितली 
जब तुम्हारी हथेली पर रंग बिखेरती है 
तो रचती है 
शिशिर में फाल्गुन का रोमांच 
जब तुम्हारे अधरों पर 
तितली – सी मिश्किल मुस्कान तिरती है 
तो मेरी नाभि के इर्दगिर्द 
मचलती है असंख्य तितलियां
 
सुनो वसंत , 
पतझड़ की असंगत ऋतु में भी
पीठ पर तितली का अस्तित्व बनाये रखना 
कि  , एक तितली की फड़फड़ 
बदल सकती है ऋतुएँ भी ! 
 
 
 
 
 
 
 अपने अक्ष पर झुकी हुई
 
मकर संक्रांति का दिन
पुरुष पहुँच जाएंगे छतों पर 
भाई के हाथों में होगी पतंग 
बहन के हाथ में चरखी 
स्त्री बनाएगी तिल के लड्डू 
तिल की बर्फी , तिल गुड़ की रोटी 
उत्सव के दिनों में उत्सव मनाने का
अतिरिक्त भार रसोई पर 
 
पहले देवस्थान की जिम्मेदारी निभाता था पुरुष 
अब वह भी नहीं
पहले बाजार हाट की पूर्ण जिम्मेदारी निभाता था पुरुष
अब वह भी नहीं
पहले कमा लाने की जिम्मेदारी सिर्फ उसके कंधों पर 
अब वह भी नहीं 
 
समय के साथ पुरुष ने तज दिए अतिरिक्त भार
पर स्त्री की आत्मा अब भी अपेक्षाओं के बोझ तले
 
सूर्य उत्तरायण हो या दक्षिणायन 
अमावस हो चाहे पूनम
अब भी ,
स्त्री के केंद्र में है घर और
घर के केंद्र में है स्त्री
 
 
 कठिन है 
बेहोश या मृत व्यक्ति सहसा 
हो जाता है भारी 
देह से भारी 
अपने पूरे वज़न – सा भारी
तब उसे सरकाना मुश्किल
टस से मस करना मुश्किल
अपनी ओर खींचना मुश्किल
 
देखना ,  ठीक इसी तरह 
हर वह मस्तिष्क 
जो विमर्शों से पलायनवादी
रहता अपने ही विचारों की बेहोशी में 
कभी बुर्जुआ विचारों का सरपरस्त
उसे भी डिगाना मुश्किल
सिक्के का दूसरा पहलू दिखाना कठिन
कठिन  ! 
लगभग नामुमकिन !
 
 
 
 
 
 
 कवि का आना
 ( पूर्वग्रह पत्रिका के श्री अरुण कमल जी पर केंद्रित अंक पढ़ते हुए )
 
पूर्वग्रह की नम जमीन पर पाँव धरते हुए
मेरे आग्रह पर
प्रेमशंकर जी संग अरुण कमल जी घर आये 
बैठक में शुक्ल जी ने अरुण जी का विस्तृत परिचय करवाया 
नए घर में असहज न हो कोई 
तो उन्होंने संवाद का एक पुल बनाया
 
एक कवि प्रश्न मुखी रहा 
एक कवि उत्तर मुखी 
मेरी आँखें पूर्व से पश्चिम तक डोलती रही
साथ ही साथ मैं सुनती और गुनती रही 
सांझ तक हम सब साथ रहे 
फिर प्रेमशंकर जी ने विदा ली 
 
अब कवि थे कवि की कविताएँ थी और मैं थी 
कविताओं में कवि का लोक था 
कवि की नज़र थी 
 
अगले दिन से सुबह व दोपहर की चाय संग
वे कमल की तरह मेरे मनोमस्तिष्क में तिरते रहे
भावों के अनेक भ्रमर गूंजते रहे 
दोनों जून में भी वे अरुण बन विचारों का ताप देते रहे 
 
यह क्रम चलता रहा 
जैसे ही परिचितों को पता चला
अरुण कमल जी घर आये हैं ,
अनेकानेक वरिष्ठों एवं मित्रों ने दस्तक दी 
उन्हें अपनी – अपनी भाषा में परिभाषित किया 
बातें हुईं , बातों का मेला लगा 
इस बीच बारिश हुई 
फुहारों का नृत्य हुआ
कुछ बूंदों ने मानसरोवर में बढ़त की 
कुछ बूंदे मन की ज़मीन में जज्ब हुई 
कुछ बूंदों ने भावभूमि को उर्वर किया 
कुछ बूंदों से 
मेरी कविता का तना कुछ और मजबूत हुआ 
 
इस तरह ,
अरुण कमल जी घर आये और
घर के भीतर घर कर गए 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

 

 
 
 
 
परिचय 
————
मैं विशाखा मुलमुले  कविताएँ व लेख लिखती हूँ । अनेक पत्र पत्रिकाओं व ब्लॉग्स में कविताएँ प्रकाशित हुईं हैं ।
 मराठी , पंजाबी , नेपाली व अंग्रेजी भाषा में मेरी कुछ कविताओं का अनुवाद हुआ है ।
सात साझा संकलनों में कविताएं प्रकाशित हैं 
काव्य संग्रह – पानी का पुल ( बोधि प्रकाशन की दीपक अरोरा स्मृति पांडुलिपि योजना के अंतर्गत )2021 में प्रकाशित । 
vishakhamulmuley@gmail.com
9511908855