माँमुनि- श्रीमाँ शारदा के जीवन पर आधारित उपन्यास / किश्त- ६

 






माँमुनि भाग त्रयोदश

देवी होने की विधि किसी शास्त्र में नहीं लिखी और यदि लिखी भी होती तो अक्षरज्ञान में निर्बल शारदा उस पोथी को पढ़ नहीं पाती। ब्रह्मा ने जैसे भगवती रति को जन्म दिया, उर्वशी, मेनका, रम्भा, तिलोत्तमा जैसी अप्सराएँ, पद्मिनियाँ और चित्रिणी स्त्रियाँ बनाई वैसे ही धान, जौ, जल और खेत की मिट्टी से माँ अन्नपूर्णा की रचना की, “जा, भात रांध और जीवों का पेट भर, संसार चला”। 

‘निर्भट ठाकुर तो ऐसे पराङ्‌मुख हुए कि पलटकर देखा तक नहीं। दूसरी किशोरियों के पति तो उनके पीछे मेढ़े की भाँति घूमते है किंतु ठाकुर तो कालीपद पर चढ़े गुड़हल में मुझसे अधिक रूप देखते है’ ऐसा सोच सोचकर शारदा का मस्तक दुखने लगता किन्तु ठाकुर का विचार मन से न जाता। बस चाहती कि कोई दक्षिणेश्वर से आकर ठाकुर का समाचार सुना दे। दिन दिन करते ऋतुएँ नष्ट हो गई। प्रेम में पड़ी जीव की परावर्तक गति, पुनः पुनः उसी दिन पर लौट जाती जब ठाकुर ने दही-चूड़ा खाया था जैसे उसके पश्चात कुछ घटा ही नहीं काल के सेतु पर किन्तु सचमुच कुछ घटा भी कहाँ। समय थिर गया था। उस स्त्री के जीवन में उस पुरुष को छोड़ कुछ था ही नहीं। 

दूसरे दिन दोपहर ठाकुर का भाँजा हृदयराम आया। हृदय के वाणी स्थान पर दुष्ट ग्रह विद्यमान था। सदैव अपवचन उचारता था। मामी के अपमान में अपना बड़प्पन मानता था किंतु शारदा उसके आने से ऐसे हर्षित हुई जैसे मर्कटदेव से रामचन्द्र का समाचार पाकर जानकी का क्षोभ तिरोहित हो गया था। वृक्ष से विच्छिन्न डाली पर वसन्तोत्सव भी आता है, ऐसा शारदा को उस दोपहर अनुभव हुआ था। 

भेटकी का झोल और भात से भरी थाली भाँजे के आगे धर दी और सामने शारदा ऐसे बैठ गई जैसे चार कल्प का समय उसके निकट हो। हृदय हृदयहीन की भाँति खाता ही जाता था।
“मामी, झोल में अदरक और हरी मिर्ची का सन्तुलन अभी तुम्हें सिद्ध नहीं और हाँ, मिर्ची ठीक उदर से काटना सीखो। मामा भोजन के रसिक है। ऐसा भोजन उन्हें परोसा तो वर्षभर के लिए उनका रूष्ट होना अवश्यंभावी है। थोड़ा भात और दो मुझे” हृदय ने थाली आगे कर दी। 

“अगली बेला जब दक्षिणेश्वर आऊँ तब तुम मुझे बता देना कि ठाकुर को भेटकी का कैसा झोल प्रिय है। वैसा ही बनाऊँगी” शारदा ने भात परोसते हुए कहा। उसकी अंगुली अंगुली से उल्लास बरसता था। 
“वहाँ तुम क्या करोगी, मामी! वहाँ बहुत अच्छा महाराज है। उसके हाथों पर  अन्नपूर्णा बैठी है  है। मछली ऐसी बनाता है कि सिद्ध होने के पश्चात् भी लगता है मछली में प्राण है” हृदय ने झोल भात में डालते कहा। शारदा मौन हो गई। ब्याह होने पर पति के संग ही तो कुलवधू रहती है। हृदय की बात से उसका ह्रदय उत्कंठित होने लगा।
“दक्षिणेश्वर रहने पर ठाकुर के चार काज शारदा कर दिया करेगी। उन्हें सुविधा होगी। फिर गृहिणी हो तो घर की शोभा न्यारी हो जाती है” श्यामसुन्दरीदेवी ने अपनी ठाकुरमणि का मन भाँपते हुए कहा। हृदय का घर और श्यामसुन्दरीदेवी का नैहर एक ही गाँव में था। सम्भवतया इसी कारण से हृदय शारदा और उसके परिवार का अपमान करने में अधिक विचार न करता था।
“जब अधिक न जानो तब अधिक कहा न करो, बुआ। मामा को नारियों में कोई रस नहीं। नारी रौरव का कुण्ड है। कुछ वर्ष पूर्व की बात है बकुलतलाघाट पर एक दोपहरी मामा बकुल का हार गूँथ रहे थे कि घाट पर पोथियों से भरी एक नाव आकर रुकी। बाबा रे, पसेरियों भर पोथों से नौका उलार हुई जाती थी। केवट के मोटे काले शरीर के हिलने पर पीछे एक कंचनवर्णा ब्राह्मणी विराजमान थी। जैसा चम्पा का पुष्प होता है न, बालक खेल खेल में उसकी लम्बी माला गूँथ लेते है वैसे ही ब्रह्मा ने उसे गढ़ा था। मिष्ठान और घी से परिपुष्ट देह और अजानुविलम्बित केश। बिम्बाफल जैसे अधरों के ऊपर दो ज्योतियाँ ऐसी लगती जैसे ब्रह्माण्ड में एक नहीं तीन सूर्य हो और बिल्वफलों जैसे वक्षस्थल” हृदय बात पूरी भी न कर पाया था कि श्यामसुन्दरीदेवी को टोकना पड़ा, “बस बस, माना अपूर्व सुन्दरी थी। आगे की बात बता।”

“पहले थोड़ा झोल और परोसो। लौन ऐसा मोटा मोटा  मत पीसा करो, मामी। तालु पर गड़ता है” हृदय ने कटोरी आगे कर के कहा।
पात्र से शेष सब झोल सीधे थाली में उड़ेलते शारदा ने पूछा, “कौन है ये ब्राह्मणी। क्या पोथियाँ बेचती है?”
“ना, मामी न। उसे समग्र पोथियाँ कंठस्थ है। रूप और ज्ञान का ऐसा मेल क्या सरस्वती के पश्चात् किसी शरीर में सम्भव हुआ है! कहो? मामा तो उसे देखते ही भागकर कालीप्रांगण में छुप गए। थोड़ी देर यों ही बैठे रहे किन्तु मन किसी का हुआ है! मुझे बुलाकर कहा, ‘मेरे हृदु मेरे हृदय की सब बातें तो तू जानता है रे, कुछ भी कर, कोई भी युक्ति भिड़ा किन्तु उस ब्राह्मणी को यहाँ बुला ला। तेरे हाथ जोड़ता हूँ तेरे चरणों पड़ता हूँ मैं।’ ऐसा कहकर कैसे विक्षिप्त जैसे करने लगे। मामा को कामिनी के पीछे ऐसा पागल तो कभी देखा न था और वह भी चालीस वर्ष की अधेड़! कोई सोलह वर्ष की  किशोरी होती तो समझ भी आता।”

पवन करते करते कब बेना हाथ से छूट गया शारदा तो पता तक न पड़ा। रिक्त हाथ हिलाती रही। श्यामसुन्दरीदेवी ने जल से लोटा पुनः भर दिया। भोजन के पश्चात् बेटी के भाँजे के हाथों में रुपए धर दिए किन्तु शारदा मूर्ति सरीखी वहीं बैठी रही। 
“फिर क्या हुआ रे, ह्रदय? आ गई वह ब्राह्मणी जवाईबाबू के बुलावे पर?” श्यामसुन्दरीदेवी ने पूछा। हृदय बाहर कुल्ला कर रहा था। 
“मामी को भी बाहर बुला लो। तब तक हाथ धोकर आया” हृदय ने कहा। शारदा के लिए एक एक पग धरना जैसे पृथ्वी नापना हो गया था। उसके पाँव चींटी के हो गए। उठते नहीं थे। उठते थे तो दूरी नहीं घटती थी। उत्कंठा में विषाद पड़ गया। 

अब जान सकी कि और किशोरियों के पतियों की भाँति ठाकुर क्यों उसकी सुध नहीं लेते क्योंकि पोथियों से भरी नौका में रूपचन्द्रिकाएँ उनसे अभिसार करने जो आती है। अचानक उसे अनुभव हुआ कि अक्षरहीन उसका रंग भी श्याम है। उसके नेत्रों में दिव्य ज्योति नहीं। उसके हाथपाँव बड़े बड़े और कुरूप है। उसकी हथेलियाँ कोमल नहीं है। उसकी बिवाइयाँ नंगे पग संसार नापने के कारण फट गई है। उसके केश अवश्य काले और लम्बे है किन्तु वह भी अजानुविलम्बित कहाँ! बात बात पर शास्त्रों के उद्धरण देनेवाली वह विदुषी भी नहीं। अच्छा ही करते है जो ठाकुर उसे अपने संग नहीं ले जाते। सोनार कंकड़ी अपने संग ले जाता है भला! ऐसा सोच सोचकर किवाड़ की ओट देकर खड़ी शारदा रोने लगी।


माँमुनि भाग  चतुर्दश

बाहर चण्डवर्षक गर्जना हुई और लुटिया पकड़े ह्रदय भीतर आ गया। श्यामसुन्दरीदेवी पान में लवंग धर रही थी। ह्रदय को भोजन करते करते गोधूलि हो गई थी। झंझा से खिड़की-किवाड़ के पाट बज रहे थे।

“शिहुड़ जाते जाते रात हो जाएगी। उसपर यह सदागति वात मेरी हाड़ हाड़ तोड़ डालती है। पान खाकर निकलता हूँ। मामी से कहकर मेरे लिए यात्रा को मुरमुरे धरवा दो, बुआ। खाता-चबाता चला जाऊँगा” ह्रदय ने कहा और पान चबाने लगा। श्यामसुन्दरीदेवी को ठाकुरमणि दिखाई नहीं पड़ी। वह अब भी किवाड़ से सटकर रो रही थी। 

“ठाकुरमणि, अपने भागीने के लिए मुरमुरे और मिठाई तो बाँध दे” श्यामसुन्दरीदेवी चिल्लाई। शारदा ने कौन सा ऐसा महापातक किया था कि भगवान ऐसी निपीड़ना उसे दे रहे थे। पूरी कथा तक नहीं बताई और ह्रदय जाने लगा। उसके कण्ठ से शब्द तक नहीं निकलता था। शारदा का मन किवाड़ के पीछे ही रह गया, शरीर जैसे तैसे घसीटकर डिब्बे से भूँजा टटोलने लगी। लट्ठे के एक चीथड़े में लौन बाँधने लगी। 
“मामी, इतना लौन, वह भी आपके हाथ का पिसा! यह बाट पर खाया तो घर न पहुँच पाऊँगा” कहकर ह्रदय हँसने लगा। 

श्यामसुन्दरीदेवी दौड़ी आई और शारदा के हाथ से लवण की पोटली ले ली, “क्या कर रही है, इतना लौन किसे बाँध रही है!” श्यामसुन्दरीदेवी ने देखा शारदा के नेत्रों से टपटप जल गिर रहा था।
“रो क्यों रही है, पगली?” 

“भागिनेय से इतना स्नेह अच्छा नहीं, मामी। पुनः आ जाऊँगा कभी। मामा की सेवा से मुक्ति नहीं मुझे। मामा किसी और की सेवा ग्रहण भी तो नहीं करते। किंचित भी दृष्टि से इधर-उधर हुआ कि “हृदू ह्रदू” करते काली का पूरा आँगन नाप डालते है” हृदय ने कहा और मुरमुरों की पोटली से कौर कौर मुरमुरा खाने लगा। 
 “ब्राह्मणी नहीं करती क्या सेवा ठाकुर की” शारदा को कहते कहते रोना आया किंतु रोई नहीं। रुँधा हुआ रुदन क्रोध में बदल गया। श्यामसुन्दरीदेवी मुस्कुराती शारदा को निहारने लगी। बेटी का मन स्वामी से लगते कौन माँ को न सुहाता। 
“अच्छा मैं चला। मामा का समाचार देने आता रहूँगा। क्या हुआ कि वह आपको संग नहीं रखते। आपके स्नेह के भागी इस भागिनेय को अपना पुत्र ही जानना और हाँ अगली बार जब आऊँ तो भोजन अच्छा बनाइएगा” हृदय ने कहा और मुरमुरों की पोटली लिए निकल पड़ा। 

उसके पश्चात् तो शारदा की दशा ब्रह्मा अपने चार मुख से नहीं कह सकते। सबसे हँसकर बात करती, पर्व पर गंगास्नान कर आती, अढ़हुल बाँधकर महिषासुरमर्दिनी के लिए माला बना देती, बालकों के खेलने को राधागोविन्द की मिट्टी से प्रतिमा बना देती, चौक पूरती, अल्पना माँडती; सब तो करती थी श्यामसुन्दरीदेवी और रामदास मुखोपाध्याय की बेटी किन्तु मन अपने स्वामी के विषय में चलते प्रवादपर्व में फँसकर रह गया था। 

कौन होगी वह प्रौढ़ा ब्राह्मणी? पोथियों से भरी नौका में जो आई हो ठाकुर के द्वार? जिसे देखा न हो वह चटक रूप धरकर अपनी पूरी रङ्गशाला लिए मन के भीतर नाचता है। ब्राह्मणी कभी अपनी चोटी गूँथती शारदा को दर्शन देती तो कभी ठाकुर को सन्देश का दोना पकड़ाती दिखाई देती। कभी उसका मधुर व्यंग्य करता हुआ कण्ठ सुनाई देता, माँ भगवती, कैसा तो ठठोल और कितना चातुर्य! ठाकुर के लिए वही सर्वथा उपयुक्त है। पुनः पुनः मन से कहती कि अपना भाग्य बाँचकर चुप बैठे किंतु पुनः पुनः मन कहता अपने स्वामी की सहचरी है वह। कोई और को अपने स्थान पर कैसे विराजने दे?

चाहे नाग, नेवले, वृश्चिक, मयूर, मकड़ियों के संग आ जाए किन्तु ऐसे समय यदि अघोरमणि आ जाती तो उससे अपने दुख की बात कहकर मन विश्राम पाता। ऐसा सहस्रधा सोचती किन्तु अघोरमणि ने स्वप्न तक में दर्शन न दिए। देर तक बैठी घर लौटती गायों के खुरों से उठती धूल देखती रहती। सूर्यास्त कब हुआ पता तक न पड़ता। दीयाबत्ती कर पुनः ठाकुरघर के सम्मुख बैठी रहती। श्यामसुन्दरी अपनी ठाकुरमणि के मन को नहीं पढ़ सकती थी इतनी अनपढ़ नहीं थी किन्तु कुछ कहती नहीं। उन्हें लगता ठाकुरमणि बड़ी हो गई है, घर में रहते भी ऐसा लगता है जैसे सुदूर पर्णकुटी बनाकर रहती है। 

एक रात्रि फिर हृदय आ गया। घर के पुरुष खा-पीकर सोने की तैयारी कर रहे थे। स्त्रियाँ बचा भोजन कर रही थी। आधी थाली पर हाथ धोकर माँ-बेटी हृदय के लिए भोजन का आयोजन करने चूल्हा जलाने बैठ गई।

“मामी मेरे लिए अधिक कुछ न करना। दूध हो तो थोड़ी खीर बना दो पूरियों के संग खाकर सो रहूँगा। कल भिनसारे ही दक्षिणेश्वर के लिए निकलना है। मामा का वायुरोग इस बार बहुत प्रबल होकर आया है।” हृदय ने कहा। उसका स्वर गम्भीर था। 
रामदास मुखोपाध्याय के भाल पर चिन्ता के कारण रेखाएँ पड़ गई। ठाकुरमणि चिन्तित होगी ऐसा विचार उन्होंने हृदय से कोई प्रश्न नहीं किया किन्तु ठाकुरमणि धीर न धर सकी। गुरुजनों के सम्मुख ही पूछने लगी, “यह  वायुरोग क्या होता है, हृदयभैया?” 
हृदय हँसने लगा। घर के बालक उसकी हँसी सुनकर आ गए और उसे घेरकर बैठ गए। हँसने में हृदय उत्तर देना भूल गया। बालक भी खीखी करने लगे।
“प्रसन्न, प्रबोध, जाओ जाकर अपना पाठ कंठस्थ करो” रामदास मुखोपाध्याय ने डाँटा और बेटी की ओर मुख करके कहने लगे, “कोई गम्भीर समस्या नहीं, ठाकुरमणि। जोड़ों में पीड़ा होती है।”

“नहीं नहीं। मामा के तो मस्तक में वात चढ़ गया है। कालीपूजा का प्रसाद पहले स्वयं खाते है पीछे भोग में धरते है। बार बार मूर्च्छित हो जाते है। अटपटी वाणी में देवी से बात करते है। न वस्त्र का ध्यान न देह का। बहुत दुर्बल भी हो गए है। उन्हीं की सेवा के लिए इतनी जल्दी दक्षिणेश्वर जा रहा हूँ। वायुरोग के कारण उनकी नौकरी भी संकट में है” हृदय ने अभिनय कर करके ठाकुर की दारुण दशा बताई। 

शारदा का मन निशाकाल के शतदल की भाँति दसों दिसों से मुँद गया था। हृदय का मुख देखती रही। रात्रि को श्यामसुन्दरीदेवी ने उसे अपनी शय्या पर सुला लिया। केशों पर देर तक हाथ फेरती रही किन्तु देर तक जननी और आत्मजा में कोई बात न हुई। गोबर से लिपी भीत के बीच काठ से मढ़ी छोटी सी खिड़की तक चन्द्रमा चढ़ आया था। कर्णिकार की डगाल के हिलने पर आधा दिखाई पड़ता तो कभी पूरा।

“मेरे बाबा न्यायशास्त्र थोड़ा जानते थे। शाखाचन्द्रन्याय के विषय में बताते। देख उस कर्णिकार की शाखा से चन्द्रमा योजनों दूर है पर किसी को बताना हो चन्द्रमा कहाँ है तो तू क्या कहेगी?” श्यामसुन्दरीदेवी ने ठाकुरमणि ने पूछा। 
“कर्णिकार की डाली के ऊपर” शारदा ने उत्तर दिया और चन्द्रमा को देखने लगी।
“कभी मत भूलना, ऐसा ही तेरा और तेरे ठाकुर का सम्बन्ध है। तू भले कर्णिकार की शाखा हो और वह चन्द्रमा किन्तु उन्हें देखना तेरे दर्शन के बिन सम्भव नहीं”।

शारदा कर्णिकार की डगाल देखती रही; चन्द्रमा में आगे कितनी तिमिरमयी और अकेली। 

इतने में चौके में कुछ खटपट होने लगी। दोनों माँ-बेटी उठकर बैठ गई। कोई लोटे-घड़े चौके में लुढ़का रहा था।
“कौन है वहाँ? ठाकुरमणि के बाबा चौके में कोई है” श्यामसुन्दरीदेवी चिल्लाई।

“बुआ, कोई और नहीं मैं हूँ हृदय। समय बहुत हो गया है। देखने आया था जलपान की क्या व्यवस्था है। मुझे जल्दी जाना है न” हृदय ने धीमे से कहा। शारदा उठ खड़ी हुई। ब्रह्ममुहूर्त में कुछ देर थी किन्तु चन्द्रमा की कान्ति अब भी ज्यों की त्यों बनी हुई थी। प्रेम में चन्द्रमा कभी अस्त नहीं होता।

(क्रमश:) 

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अम्बर पाण्डेय

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