माँमुनि- श्रीमाँ शारदा के जीवन पर आधारित उपन्यास / किश्त- ५

 






माँमुनि भाग एकादश 

रात्रिभर शारदा सोई नहीं। ठाकुर को टेरने जाती किंतु आधे मार्ग से लौट आती। गुरुजनों की लज्जा से अन्तत: हारकर किवाड़ लगाकर रात्रिभर बैठी रही किन्तु मन क्या हमारे कहे मार्ग पर चलता है! उठती और किवाड़ खोल कर देखती। ध्यान लगाकर ठाकुर का स्वर सुनने का यत्न करती। पिताजी बिष्णुपुर गए थे और माँ श्यामसुन्दरीदेवी छोटे भाई की शुश्रूवा में व्यस्त थी। छोटे भाई को माता निकली थी। 
खंजनाक्षी बुआ की लगाई लता में करेले पककर कुसुम्भी हो गए थे, भीतर से रक्त के रंगवाले। 

शारदा ब्रह्ममुहूर्त में स्नान को निकल ही गई। दशों दिशाओं में नयन घुमा घुमाकर देखती कि कहीं ठाकुर बैठे हो। कहीं न दिखने पर अपने नयनों को ही दोष देती कि रातभर जागने के कारण इन्हें ठीक से नहीं दिखता। सूर्योदय में देर थी और सूचीवेध्य तिमिर था किंतु शारदा निष्कंटक चलती जाती थी जैसे असंख्य दीपक उसके चतुर्दिक जलते हो।

ठाकुर ध्यान करने को कहते थे इसलिए घर आकर शारदा पद्मासन में बैठी ध्यान साधने का प्रयास करने लगी। ध्यान यों लगा कि ठाकुर ने आकर पूरे घर में हल्ला मचा दिया है। ध्यान में ठाकुर दही-चूड़ा माँग रहे है। “हरी मिर्ची और लौन क्यों नहीं डाली?” ठाकुर शारदा से पूछते हुए मुख बना रहे है। 

घण्टाभर यों ही बैठी रही कि श्यामसुन्दरीदेवी ने टोका, “पर्वस्नान को गई और मुझे बताया तक नहीं। प्रबोध की सेवा में मैं ऐसी लगी कि ध्यान नहीं आता आज कौन सी पर्वतिथि है?” 
आँखें खोलकर शारदा श्यामसुन्दरीदेवी को देर तक देखती रही उत्तर देते ही नहीं बनता था। ठाकुर के शब्द ही कानों में गूँज रहे थे। बहुत आयास से प्रकृतिस्थ होकर कहा, “माँमणि, प्रबोध का ज्वर कैसा है अब?” 

“श्यामसुन्दरीदेवी ने निश्चिन्त स्वर में कहा, “ज्वर उतर गया है। छोटी माता है। हँसते-खेलते आई थी हँसते-खेलते ही चली जाएगी परमेश्वरी” वाक्य पूरा करते अदृष्ट देवी को प्रणाम करते उठ खड़ी हुई। 
“कितना भूखा हूँ। ये कैसी ससुराल है! जवाईबाबू के खैया-सँझौवे का कोई आयोजन ही नही। यही है न गदाधर चट्टोपाध्याय की ससुराल?” किवाड़ पर ठाकुर खड़े थे। आमोदर नदी में गंगास्नान करके आए थे और पूरे शरीर से जल चू रहा था। 

“हरेराम, जवाईबाबू आप तो पूरे सोरबोर हो रहे है। नहाकर वस्त्र तक नहीं बदले!” श्यामसुन्दरीदेवी ने कहा और गमछा ढूँढने लगी।
“बहुत भूख लग रही है, वस्त्र तो पीछे बदल लूँगा” ठाकुर ने कहा और सीधे चौके में घुस गए। एक आसन पड़ा हुआ था उसपर आलथीपालथी मारकर बैठ गए। 

“अपने जवाईबाबू के लिए तो बहुत व्यंजन बने होंगे आज। मूरीघोंटो, गोविन्दभोग की खिचड़ी, सूक्तो, पूड़ियाँ?” ठाकुर ने ऊँचे स्वर में पूछा। श्यामसुन्दरीदेवी रात्रिभर से प्रबोध की परिचर्या में लगी थी। शारदा ठाकुर को ढूँढ ढूँढकर हार गई थी और निराश घर लौटकर ध्यान धरे बैठी रही। भोजन का कोई आयोजन अब तक नहीं हुआ था।
“शारदा के छोटे भाई प्रबोध को रात्रिभर ज्वर चढ़ा रहा। शारदा के पिता बिष्णुपुर गए है तो हम दो अकेली स्त्रियों कहाँ अपने लिए भोजन की व्यवस्था करती! मूड़ी खाकर जल पी रहती किन्तु सूक्तो, मूरीघोंटो बनने में क्या अबेर! आधे घण्टे में सब सिद्ध हो जावेगा” श्यामसुन्दरीदेवी लज्जित होकर बोली। 

“आधे घण्टे में तो भूख के मारे यह मानुस परलोक सिधार जाएगा” ठाकुर ने कहा। शारदा डिब्बें टटोलने लगी। कुछ सूझ नहीं पड़ता था कि क्या बनाकर ठाकुर को दे। ठाकुर ध्यान से शारदा को देखने लगे। लाल पाट के एक ही श्वेत सूती चीर से पूरी देह ढाँके डिब्बे से अन्न निकाल रही थी। तन पर कोई आभरण नहीं, केवल शाखापोला और पाँव और सिंदूर। 

“ऐसा लगता है जैसे अन्नपूर्णा सोने के करछुल खीर परोस रही है” ठाकुर ने कहा। 
“खीर थोड़ी देर में बना दूँगी” शारदा ने चूड़ा कटोरी में डालते कहा। आँगन में श्यामसुन्दरीदेवी गाय दुहते बोली,”खीर बनने में कितना समय! बस यों बन जाएगी। आपको घर आने में बहुत विलम्ब हुआ इसलिए यदि सत्कार में कोई दोष रह जाए तो क्षमा करिएगा”।

ठाकुर को अन्नपूर्णा ही दिखाई पड़ रही थी। निर्धन बंगवासियों को भोजन परोसती। ठाकुर पूरे संसार को बंगाल कहते थे। 
“देखो तो मैं कितना भुखमरा हूँ, भोजन नहीं मिला एक दिन तो सबओर केवल माँ अन्नपूर्णा ही दिखाई देती है” यों कहकर ठाकुर ने स्वयं अपने कपोल पर चिमटी खोड़ ली किन्तु शारदा के शरीर में प्रकट अन्नपूर्णा साक्षात् वही चूड़े में दही डाल रही थी। 

हाथ आगे बढ़ाकर दहीचूड़े की कटोरी ठाकुर के आगे कर दी, “क्षमा करिएगा, अभी दहीचूड़े की ही व्यवस्था हो पाई है। थोड़े समय में सब बना दूँगी”। शारदा के स्वर में संकोच था। 
ठाकुर पहले शारदा के पाँव निहारते रहे, फिर अस्फुट स्वर में कुछ कहते शारदा के पाँवों में गिरकर रोने लगे। 

“आप ऐसा क्यों कर रहे है? मुझसे अवश्य ही कोई दारूण भूल हुई है अन्यथा पाँव में गिरकर आप मुझे पाप का भागी न बनाते” शारदा भी रोना रोक न सकी। 
“माँ, तुम्हें इतना कष्ट दिया। तीन लोक की चौरासी योनियों के सब प्राणियों के अन्नब्रह्म का आयोजन करनेवाली माँ, तुम्हें इस पागल ने अकारण कष्ट दिया। तुम्हें साक्षात् मुझे भोजन परोसने आना पड़ा। कितना कष्ट हुआ मेरी माँ को” ठाकुर ने आँखें ऊपर उठाकर कहा। तब तक दूध से भरी गागर लेकर श्यामसुन्दरीदेवी भी चौके में आ चुकी थी। 

“तुम्हारे हाथों से ही दहीचूड़ा खाऊँगा। अन्न के स्वाद जैसा केवल ब्रह्म है संसार में। सच कहता हूँ मैं माँ। मान मेरी बात” ठाकुर ने कहा। शारदा ने संकोच के कारण मुख फेर लिया।  श्यामसुन्दरीदेवी ठाकुर की अवस्था आश्चर्य से कुछ देर देखती रही फिर बहाना बनाकर बाहर चली गई। 

दही-चूड़े की कटोरी शारदा और ठाकुर के मध्य ज्यों की त्यों पड़ी थी। ठाकुर नयन मूँदे चुपचाप रो रहे थे। शारदा ने धोती के एक छोर से अपना मुख ढाँक लिया था जो उनके आँसुओं के कारण पूरा भीगा हुआ था। 
“इतनी दूर से तू आई, माँ। अब तेरे हाथ से ही खाऊँगा” ठाकुर हठ करने लगे।

मुख फेरकर शारदा ने दही-चूड़े की कटोरी में अंगुलियाँ डाली और एक कौर ठाकुर को खिला दिया। अब लज्जा के कारण ठाकुर की ओर देखने का भी उनमें सामर्थ्य न था। 

“कैसा स्वाद है री माँ दही-चूड़े का। अच्छा हुआ तू लौन और हरी मिर्ची डालना भूली नहीं। बताओ माँ, अन्न से अधिक रस तो ब्रह्म में भी नहीं” ठाकुर वाक्य पूरा कर भी न पाए थे कि उन्हें महाभाव हो गया। देर तक शारदा उन्हें अपनी धोती के भीगे छोर से पंखा करती रही। 

चूल्हे पर चढ़ी खीर खदक खदककर कलाकंद बन गई थी। 


माँमुनि भाग द्वादश

दही-चूड़ा खाते ही ठाकुर ने जाने की रट लगा दी। आश्विन की ताती घाम मन को सुहाती भी थी और देह पर पड़ते ही जलाती भी। श्यामसुन्दरीदेवी भीतर दौड़ी आई, “मृग की पीठ भी ऐसी घाम में श्याम पड़ जाती है। अपने फूल से जवाईबाबू को इस बेला तो न जाने दूँगी”।

खीर, पूड़ियाँ, कदलीकुसुम का घोंटो, भेटकी और करेले की छेंचकी बनाते शारदा का कपाल स्वेद से सोरबोर हो गया था। पंचफोरन दलते कन्धे नन्दिनी गौ की पीठ भाँति सुन्दर दिखाई देते थे। काँसे की थाली मँज मँजकर अष्टमीचन्द्र जैसी पारदर्शी हो गई थी। किनारे धरे ताम्बे के लोटे में गंगाजल भरा था। शारदा इतनी व्यस्त थी कि मुख उठाकर देखती भी न थी। अग्नि पर धरे पात्रों में सींझते व्यंजनों की वाष्प-बुदबुद ही केवल सुन पा रही थी। 

ठाकुर ने चमरौंधा पहनते श्यामसुन्दरीदेवी से कहा, “काली ने दही-चूड़ा जो खिलाया है, उसके आगे ब्रह्मानन्द फीका है। जल पीने का जी नहीं करता किन्तु जूठी जिह्वा लेकर यात्रा करूँगा तो बीच रास्ते प्रेत-पिशाचनियाँ लगेंगे इसलिए घूँट भर जल पीकर मैं चला”। ठाकुर ने चमरौंधा पुनः उतारा। हाथ-पाँव धोकर भीतर आए, लोटा उठाकर करतल से जल पिया और निकल गए। 

श्यामसुन्दरीदेवी दूर तक पीछे पीछे दौड़ती आई। उनकी धोती के एक छोर पर मुरमुरे बँधे थे। हाथ पकड़कर ठाकुर को रोक लिया, “दूर तक जाना है। ऐसे मत जाओ” कहकर गमछे में मुरमुरे और एक कलदार बाँध दिया। संग में दो पान धर दिए। दूर एक बालक दुर्गापूजा के लिए महिषासुरमर्दिनी के मिट्टी से स्तन बना रहा था। ठाकुर ने उधर देखा और कहा, “दूध से भरे माँ के स्तन, इसी से धान का अँखुआ, बिल्बवृक्ष की जड़, कामकलाविलास का रस फूटता है”। श्यामसुन्दरीदेवी पति को परमेश्वर माननेवाली भोली गृहिणी थी। अधिक नहीं समझी। अपनी बेटी के परमेश्वर की पीठ हेरती रही।  

लौटी तो राई-कलौंजी के सुवास से घर भरा था। शारदा कढ़ाई में छौंक देकर उठी आँखें मल रही थी।
“बहुत रोका परन्तु जवाईबाबू कामारपुकुर लौट गए” कनपटी से स्वेद पोंछते श्यामसुन्दरीदेवी ने कहा। शारदा भूमि पर गिर जाना चाहती थी किन्तु स्थिर खड़ी रही।
“माँ, देखो न यह कदली के फूलों का घोंटो खाकर, बताओ, कैसा बना है?” शारदा ने कटोरी बढ़ाते कहा। 

श्यामसुन्दरीदेवी पति से पहले कभी खाती नहीं थी। आज रामचन्द्र मुखोपाध्याय को लौटना था। वह शारदा का मुख देखती रही। भोजन बनाने में लीन उनकी बेटी ने जवाईबाबू को जाते देखा तक नहीं था। उनके नेत्रों के कोर दो बिन्दु चमकने लगे किन्तु अधर मुस्कुराते रहे। विवाह से अब तक जिस व्रत को निबाहती वह आ रही थी उसे तोड़ने में उन्हें क्षण का भी विलम्ब न हुआ। उन्होंने घोंटो चखा और शारदा से कहने लगी, “पुरुष का मोह और क्वाँर की बरखा सरीखे है। अभी है अभी गई।”


शारदा ने कुछ नहीं कहा। जहाँ ठाकुर ने हथेली से जल पिया था, उन स्थान की गीली भूमि का स्पर्श किया और लोटेभर बचे जल को पीकर शेष दिन काटने का निश्चय कर लिया। 

क्षुधा और दुख का रूप एक दूसरे से बहुत मिलताजुलता है। अनेक बार हम उनमें भेद नहीं कर पाते। न जाने क्षुधा के कारणवश या दुख के, अर्धरात्रि शारदा जहाँ सोती रही थी वहाँ भूमि पर उसके निकट अघोरमणि आकर बैठ गई। सात वर्ष की, एक हाथ में नाग दूसरे में एक बालक लिए बैठी थी। निकट एक सुनहला नेवला, मोर और उलूकपरिवार था। 

शारदा ने भयाक्रांत होकर नयन ढाँप लिए।
“ठाकुरमणि, अपनी बालसखी को बिसरा दिया तूने” अघोरमणि ने पूछा। उसका रूप सात वर्ष से अधिक वय का न था। बहुत साहस करके शारदा ने नयनों से करतल हटाए तो देखा कि अघोरमणि लाड़ से अपनी बालसखी ठाकुरमणि को निहार रही है।
“चल, मुझे जल तो पिला” अघोरमणि ने कहा। डरते डरते शारदा ने लोटा आगे कर दिया। 
“तुमने तो यह संसार त्याग दिया था न अघोरमणि” शारदा ने पूछा। नाग, मयूर, नेवले से भीत वह दृष्टि ऊपर उठा नहीं पा रही है। 

“असार संसार तो त्याग दिया किन्तु स्वामी के प्रति छोह की सुतली से बँधी पुतली की भाँति बार बार यहाँ आ जाती हूँ” अघोरमणि ने कहा और अपने सद्यजात शिशु को दूध पिलाने लगी। 
“यह तेरा बेटा है, अघोरमणि?” शारदा ने पूछा। ऐसा कोई शिशु हो जिसे वह स्तनपान कराये, ऐसी शारदा की बहुत इच्छा थी।
“जुड़वा शिशु थे मेरे। जीवित मेरे स्वामी के निकट है और मृत मेरे निकट। अच्छा तू बता, क्या तू अपने स्वामी से प्रेम करती है? कोप शान्त हो गया तेरा?” 
अघोरमणि तो अपने शैशव से सह्रदय थी, प्रेमकथाओं की प्रेमी।

“मैं तो उनसे प्रेम करती हूँ किन्तु वह मेरी उपासना करते है” शारदा ने अब भी दृष्टि नहीं उठाई किन्तु इस बार लज्जा के कारण। 
अघोरमणि की देह कंटकाकीर्ण हो उठी, “बहुत रोमांच हो रहा है सुनकर। इतना प्रेम करते है तुझे तेरे स्वामी?” अघोरमणि की देह के संग उसके हाथ का नाग हिलने लगा। मोर उड़कर आले पर बैठ गया। उलूकपरिवार छज्जे पर उड़ गया। नेवला आगे बढ़ा तो अघोरमणि ने अपना पाँव उसकी पूँछ पर धर दिया। 

शारदा रोयी नहीं, “मैं माँ बन गई रे, अपने ही स्वामी की माँ” और शून्य में देखती रही।
“धत पगली, अपने स्वामी की कोई स्त्री माँ होती है क्या!” अघोरमणि उठी और किवाड़ खोलकर बाहर चली आई। बहुत अन्धकार था। हाथ को हाथ नहीं सूझता था।
बाहर से ही अघोरमणि चिल्लाई, “खेमकरी, चल धतूरे तोड़ लाए।” 
शारदा की हाड़ हाड़ जैसे जड़ हो गई थी, उठते ही नहीं बनता। भीतर ही बैठे बैठे कहा, “रात्रि बहुत हो गई है। आज यहीं रुक जा, भोर होते चली जाना, अघोर”।
“उलूक, नाग, नेवले और मृतक रात्रि को ही विचरण करते है री। रात को ही मोर बोलते है। फिर मेरे स्वामी को अपनी सौत से रति करते देखूँगी तो मेरे बचे शरीर का कष्ट ही नष्ट होगा”। अघोरमणि का स्वर अन्धकार चीरता भीतर आया।

शारदा के कक्ष का दीपक रातभर बुझा नहीं। तीन रात्रियों का तैल एक ही रात्रि में नष्ट किया।  ठाकुर कुशल से कामारपुकुर पहुँच तो गए होंगे। उनके कोमल पग को चमरौंधे ने काटा तो न होगा। बीच मार्ग दुर्गा की बनती प्रतिमा को देख कहीं वहाँ ही चित्रलिखित न रह गए हो। दही- चूड़े का आहार दिनभर कैसे संग देगा। क्या खाते होंगे, कहाँ का जल पीते होंगे? रोग का शरीर थक न गया होगा? आते समय शीघ्र पहुँचने के उद्देश्य में शरीर के कष्ट पर ध्यान ही नहीं जाता था किन्तु अब एकाकी लौटते कैसे मार्ग कटता होगा? 

फिर भोर की घटना ने उसे घेर लिया। कैसे साहस करके ठाकुर को अपने हाथ से दही-चूड़ा खिला सकी। प्रेम के स्थान पर पति की भक्ति पाकर शारदा ने स्वयं को देवी की भाँति अनुभव नहीं किया किन्तु उसने देवी हो जाने का निश्चय कर लिया था।
(क्रमशः)
संपर्क – अम्बर पाण्डेय 
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