माँमुनि- श्रीमाँ शारदा के जीवन पर आधारित उपन्यास / किश्त- २- अम्बर पाण्डेय

 



अर्धरात्रि को भोजन करके घरभर गहरी निद्रा में सो रहा था। गृहस्थी की गिलहरियाँ, मूषक, नाग, बिलोटे, छाजन पर रहनेवाले काक, शुक, कपोत, पीपिलिकाएँ सभी विश्राम कर रहे थे। विषाद में नींद नहीं आती किन्तु चन्द्रामणिदेवी का मन अकल्मष था। चटाई पर पड़ते ही कुछ समय में वह सो जाती थी। 

केवल गदाधर जाग रहा था। प्रतिदिन वह तीन बजे अपनी नित्य उपासना के लिए जागता था किन्तु आज काली माँ उसकी परीक्षा लेना चाहती थी। थोड़ी देर में सोकर वह उठा और भीतर अपनी नववधू के कक्ष में आ गया। गदाधर ने देखा चन्द्रामणिदेवी ने अपनी बहू का कक्ष माँ विशालक्षी के गर्भगृह की भाँति सजाया था। नए गोमय से लिपी भीत पर खड़िया से शंकर-शांभवी, राधा-दामोदर, दुर्गा, शुक पर यात्रा करते रति-कामदेव माँडे गए थे। भूमि पर इतनी अल्पनायें थी कि कि गदाधर को पाँव बचा बचाकर रखने पड़ते थे। उसे अल्पनाओं में भी प्राण के दर्शन होते थे।
भूमि पर ही एक पीली चादर ओढ़कर नववधू सो रही थी। उसके हाथ में मिट्टी से बने भगवान शंकर की मूर्ति थी। वही मूर्ति उसकी भगवान, खिलौना और मातापिता से दूर सर्वथा इस अपरिचित स्थान पर संसार से परिचय की एक सूत्र थी। गदाधर देर तक निनिर्मेष नववधू के बालललाट पर पद्मकुसुम जैसा विशाल गोल तिलक देखता रहा।
गदाधर ने भगवान शंकर को प्रणाम करके मूर्ति को ऊपर छज्जे पर रख दिया। सबसे पहले नववधू की बायीं कलाई से रत्नचूड़ उतार लिया। बहुत पुराने माणिक और पुष्पराग रत्नों से गढ़ा कंकण उसने वहीं भूमि पर रखा और धीमे धीमे नववधू के कर्णफूल के पेंच खोलने लगा। नववधू क्षणभर को कुनमुनाई और करवट बदलकर फिर सो गई जैसे दूसरा कर्णफूल खोलने को कान आगे कर दिया हो। 
गदाधर ने कण्ठ में पड़ी नक्षत्रमाला, बकुलहार उतार लिये। बालिका की छोटे छोटे हाथों से बाउटी, बेलोआरी चूड़ियाँ, लाख से भरे शृंगारवलय यों ही खसककर उतर गए थे। गदाधर जिस चीर से पूजामण्डप में पोंछा लगाता था, उसी में आभूषण बाँधे और माँ चन्द्रामणिदेवी के चरणों के निकट धीमे से धरकर पोखर पर नहाने चला गया। रास्ते में हँसता जाता और काली माँ से बात करता, “इसी रात्रि को तू निकष बताती थी न, माँ! देख, आभूषण सब धूल से बने निकले किन्तु मेरी बहू कंचन के ह्रदयवाली सिद्ध हुई”।
ब्रह्ममुहूर्त में उठने पर चन्द्रामणिदेवी का पाँव आभूषणों की पोटली से टकराया। खोलकर देखा तो उसमें लाहा जमीनदारों के सब आभूषण दिखें। वह क्षणभर को अधीर हो उठी। गदाधर अवश्य ही बहू से छीनकर लाया होगा। त्रिभुवन की कोई स्त्री क्या अपने आभूषण शरीर से उतारकर दे सकती है! ऐसी ही रीति उन्होंने जीवनभर देखी थी। आभूषण को ही स्त्री अपनी सम्पत्ति और शक्ति मानती थी। 
चन्द्रामणिदेवी दौड़कर गई तो देखा बहू साँखापोला और लोहे का कंकन पहने सोई पड़ी है। न जाने कौन लोक के स्वप्न में मग्न? मस्तक पर कागज का मुकुट अवश्य सजा हुआ है जैसे स्वर्ण बेचकर स्वामी के लिए विजया खरीदकर लाती पार्वती के मस्तक पर पारिजात बरस गया हो। 
थोड़ी देर पश्चात् नववधू रोती रोती चन्द्रामणिदेवी के निकट आई। चन्द्रामणिदेवी पूजा कर रही थी। उनका मन खिन्न था। रामेश्वर आभूषण लेकर लाहाजमीनदारों के घर गया था।
“माँमणि, मैं सच कहती हूँ मेरे स्वामी बहुत दुष्ट है” कहकर चन्द्रामणिदेवी के पैरों में लिपटने लगी। 
चन्द्रामणिदेवी के अश्रु नववधू के केशों पर टपटप गिरने लगे। 
“क्या हुआ बिटिया?”
“कल रात्रि को चोर से उन्होंने मुझे बचाया नहीं। चोर मेरे सब गहने ले गया” नववधू चन्द्रामणिदेवी को दिखा दिखाकर अपने सूने हाथ बताने लगी। 
“मेरे बमबम भोलेबाबा भी ले गया पापी चोर” ऐसा कहकर नववधू बहुत रोने लगी। 
चन्द्रामणिदेवी ने नववधू को गोद में बैठा लिया। उसके केशों पर हाथ फेरने लगी।
“आभूषण तो बेच आएगा पर तेरे मिट्टी से बने बमबम भोलेबाबा का क्या करेगा चोर?” चन्द्रामणिदेवी ने पूछा। 
गोद ही में मुख उठाकर नववधू ने ऊपर चन्द्रामणिदेवी की आँखों में आँखें डालकर आँखें फाड़ फाड़कर उत्तर दिया, “माँमणि तुम्हें पता नहीं वह मूर्ति कितनी महँगी है। मेरी माँ ने जयरामवाटी में बहुत देर तक इतना मोलभाव करके खरीदे थे बमबम भोलेबाबा”। 
“अच्छा बहुत महँगी है क्या वह मूर्ति?” चन्द्रामणिदेवी ने कौतुक से कहा।
“बहुत महँगी। मेरी सखी अघोरमणि ने सस्ते में पारो ली थी। पारो के कण्ठ में न नाग न मस्तक पर चन्द्रमा और गंगा रहती है इसलिए बहुत थोड़े मोल में मिल जाती है। जाने पर भोलेबाबा और पारो का ब्याह कैसे होगा अब” वाक्य पूरा करते करते नववधू का कण्ठ भर आया। उसके जीवन की सबसे महार्घ वस्तु खो गई थी। 
“तू रो मत मेरी राजाबेटी। मैं तेरे लिए दूसरे बमबम भोलेबाबा ले आऊँगी दोपहर को” चन्द्रामणिदेवी ने कहा और पूजास्थान पर अपने आसन के नीचे कलदार टटोलने लगी जो वहाँ था नहीं। रामेश्वर कल उससे मछली ले आया था। 
“नहीं नहीं। अघोरमणि ने वर देखकर ब्याह पक्का किया है। वर बदल देने पर अघोरमणि अपनी पारो का ब्याह मुक्तकेशी के शम्भु से कर देगी। मुझे अपनी ही मूर्ति चाहिए” अब तो नववधू हाथपाँव पटक पटककर रोने लगी। 
“तू मेरी राजाबेटी है। मैं तेरे लिए वैसे के वैसे भगवान शंकर बनवाकर लाऊँगी” चन्द्रामणिदेवी ने मस्तक सम्मुख धरी काली माँ की प्रतिमा के चरणों में रख दिया। 
“हाँ आप वैसे के वैसे बमबम भोलेबाबा लाना अन्यथा समाज में मेरा क्या मान रह जाएगा! सब कहेंगे शारदा ने वर दूसरा दिखाया और ब्याह दूसरे से करवा दिया” नववधू ने गम्भीरता से विचार करते हुए बोली। 
चन्द्रामणिदेवी रोते रोते हँसने लगी। इस कन्या को तो संसार के सब विधानों का ज्ञान है। बातें भी बड़ी बूढ़ियों जैसी करती है। नववधू मुख उठा उठाकर अपनी सास के अचानक प्रकट हुए हास को देखती और अपनी व्यथा विचारती फिर निराश मुख झुकाकर बैठ गई। 
आरती का दीपक जलाते ही गदाधर नववधू की शंकर मूर्ति लिए प्रकट हुआ। नववधू ने ही उसे सर्वप्रथम देखा। 
“अच्छा चोर को पीटकर तुम मेरे बमबम भोलेबाबा ले आए!” नववधू के नयन ज्योतिर्मय हो गए। 
“और नहीं तो क्या किन्तु यह मूर्ति तुम्हें क्यों दूँ! मैं तो तुम्हारा दुष्ट स्वामी हूँ न “ गदाधर मूर्ति लेकर कोने में बैठ गया। 
“दे दो न मेरे बमबम भोलेबाबा मुझे। तुम इतने बड़े पुरुष होकर मूर्तियों से खेलोगे क्या?” नववधू ने गदाधर के आगे हाथ जोड़कर कहा। 
“नहीं दूँगा। भोलेबाबा का ब्याह यहीं कामारपुकुर की पार्वती से करवाऊँगा। ज़मींदार कुटुंब की भाँति बहुत दहेज भी लूँगा” गदाधर ने कहा। चन्द्रामणिदेवी माला फेर रही थी इसलिए मौन रही।
“अघोरमणि की पारो से मेरे बमबम भोलेबाबा का ब्याह पक्का हो गया है। माँमणि उनसे कहो न मेरी मूर्ति लौटा दे। आप अपनी हरी संटी से उन्हें मारकर मूर्ति छीन लो न” नववधू कहीं से ढूँढकर हरी संटी ले आई और चन्द्रामणिदेवी के आगे पटक दी। 
“हरे हरे अपने पति को पिटवाने की योजना बनाती है! कितनी दुष्ट बहू है” गदाधर ने हाथों से कान छूकर कहा। 
माला धरकर चन्द्रामणिदेवी ने आँखें खोली और हरी संटी भूमि पर फटकारते हुए बोली, “गदाई, तेरी मूर्ति भी लौटाएगा और तुझे आभूषण भी बनवाकर देना। नवीन धज के अद्वितीय आभूषण।”

भगवान शंकर की मूर्ति पाकर नववधू आभूषण भूल गयी। जो पति को पाकर पूर्ण हो गई हो उसके लिए तो आभारण भार ही है। चन्द्रामणिदेवी ने असमय मुकुलित पारिजात के पुष्पों से नववधू के लिए आभूषण बना दिए। 
“यह तो स्वर्णाभूषण से भी अधिक सुन्दर है, माँमणि। इसमें सुगन्ध भी है” नववधू चकित होकर जल से भरी काँसे की परात में अपना पुनः पुनः मुख देखते हुए बोली। घर में आजतक किसी को दर्पण लाने की न सूझी थी। नववधू की सुहागपिटारी में रामेश्वर ने सिंदूर, कंघे, पंखे और पानदान के संग दर्पण भी रखवाया था। इसका चन्द्रामणिदेवी को स्मरण था किंतु विधवा होकर बहू के सुहागपिटारी का स्पर्श करना भी उनके लिए अकल्पनीय था। 
देर तक चन्द्रामणिदेवीनववधू को यों ही  पारिजात के अपने आभूषण परात में देखने के प्रयत्न को मंद मंद हँसती देखती रही। रामेश्वर बहू के काका को लाने ग्राम के सीमान्त पर गया था। गदाधर का पता न था। अक्षय संस्कृत की पोथी सम्मुख रखे पढ़ने का अभिनय कर रहा था।

“अक्षय, वहाँ बक्स में बहू की सुहागपिटारी धरी है उसमें दर्पण होगा। वह बहू के लिए ला दे” बात सुनने की अबेर थी कि कूदकर अक्षय खड़ा हो गया। पोथी से मुक्ति मिली और खेलने को नववधू का बक्स मिल गया । 
निर्धन पण्डित की नववधू के बक्स में क्या था? इसकी कल्पना क्या बहुत कठिन है! लाल पाड़े की एक साड़ी, काशी की एक साधारण धोती और डिब्बाभर कर कुंकुम, कलकत्ते का सुवासित आलता। यही नववधू की सम्पत्ति थी, जिसे भूल वह आनन्द से अपने स्वामी के लिए हार गूँथ रही थी। 

दर्पण के मिल जाने पर तो घर भर में उत्सव हो गया। अक्षय भी अपना मुख देखना चाहता था। नववधू भी देखना चाहती थी कि उसके केशों के मध्य कुंकुम कैसा सोभता है। बार बार दोनों काकी अर्थात् नववधू और नववधू से पाँच वर्ष बड़ा नववधू का भतीजा अक्षय चन्द्रामणिदेवी को भी दर्पण में मुख दिखाना चाहते। चन्द्रामणिदेवी हथेलियों से अपने नयन मूँद लेती। उन्होंने अंतिम समय अपना मुख अपने पति के बुझते हुए नेत्रों में देखा था। 
बहुत देर तक नववधू हार गूँथते, दर्पण में मुख देखते थक गई। वहीं चौके में आसन पर सो गई थी। चन्द्रामणिदेवी नववधू के काका के लिए पूरियाँ तल रही थी। सूर्यास्त में कुछ ही समय शेष था। 
“राजाबेटी दोनों बेला मिले नहीं सोते। जाग जाओ। पूरियाँ खाओगी?” चन्द्रामणिदेवी लाड़ से नववधू को जगाने लगी। उनका मृदुल स्वर सुनकर निद्रा खुलती नहीं थी वरण और प्रगाढ़ होती जाती थी। इतने में रामेश्वर आ गए। आते ही अपनी धोती के एक छोर बँधी गाँठ खोली जिसमें शोले के आभूषण बाँध लाए थे।

“बहू के काका को आने में विलम्ब था. बहू सूने शरीर रहे यह देखकर बहुत क्षोभ होता था तो मैं यह ले आया” रामेश्वर ने शोले से बना मयूरकटक चन्द्रामणिदेवी को दिखाते कहा। चन्द्रामणिदेवी की आँखें प्रसन्नता से यों भर गई जैसे रामेश्वर कुबेर के कोश से आभूषण ले आया हो। बहुत देर तक कटक हाथ में लिए देखती रही। टिकुली, चम्पाहार, मनकों की माला, किंकिंणी, रांगे के बिछुवे और एक जोड़ा खड़ाऊँ भी रामेश्वर लाया था। 
“बहू के काका के आगे मान रह जाएगा अब। मैं भोर से ही चिन्ता कर रही थी। इतने बड़े कुल के पुरुष है निर्धन का दुख तो वह समझते होंगे किन्तु लग्न के पश्चात् बेटी को निराभरण देख किस पुरुष को क्रोध न आएगा दुःख न होगा” कहकर चन्द्रामणिदेवी ने नववधू का मस्तक अपनी गोद में रख लिया और उसे उठाने लगी। 

“जेठ के सम्मुख कोई ऐसे निधड़क सोता है बहू। चल अब जाग जा। देख तेरे लिए भाँत भाँत के गहने आए है।”
नववधू उठकर एक एक आभूषण उठाकर कर देखने लगी। 
“माँमणि, क्या यह सब मेरे है?” 
“हाँ हाँ। सब तेरे लिए है। जा, मुख धोकर सब पहन ले। अपने दर्पण में मुख देखकर तिलक लगा ले। भाल पर कुंकुम फैल गया है। आँखों में काजल भी कैसा मोटा मोटा हो गया है।”  चन्द्रामणिदेवी ने कहा।
“तो क्या मैं सुंदर नहीं दिखती। अभी जाकर सिंगार कर लेती हूँ” कहकर नववधू दौड़ी और पीछे घड़े से जल लेकर हाथपाँव धोने लगी। अस्ताचलगामी सूर्यनारायण की छवि नववधू की द्युति के समक्ष ऐसी निष्फल दिखाई देती थी जैसे दीपक सूर्य के आगे दिखता। 

शोले के गहने, कुंकुम और आलता लगाकर नववधू ने खड़ाऊँ भी पहन लिए और खटखट करती भीतर आई। नववधू के काका कटहल, मछली और मिष्ठान्न लिए किवाड़ पर खड़े थे। रामेश्वर उनके हाथ से उनका छाता और समान ले रहा था।
“काका, तुम कब आए?” कहकर शारदा दौड़ी। काका ने उसे गोद में उठा लिया। 
“नित्यनूतन कौतुक लग्न के पश्चात् भी कर रही है तू। यह क्या रूप बनाए घूम रही है?” काका ने नववधू से पूछा। 
अपना पग आगे करके नववधू अपना खड़ाऊँ दिखाते कहने लगी, “देखो मेरे खड़ाऊँ। अब मैं पाँव पाँव चलकर कलकत्ते जाऊँगी”। 
“इतनी सी बालिका पाँव पाँव कलकत्ते जाएगी। बड़ी चतुर बेटी है हमारी। सोने-चाँदी के आभूषण उतारकर शोले के कंकन-किंकिंणी पहन लिए कि कोई चोर निर्जन मार्ग में लूट न लें” काका अपने घर की बेटी के आभूषण देखते हुए कहने लगे। 
“चोर के लिए निर्जन मार्ग पर जाना आवश्यक नहीं, काका। कल रात्रि घर पर चोर आ गया था। मेरे स्वामी वैसे तो बहुत दुष्ट है किन्तु चोर से लड़कर बमबम भोलेबाबा को वह लेकर आए” नववधू गोद से उतरकर चोर और गदाधर की लड़ाई का अभिनय करके अपने काका को बताने लगी। 
“अच्छा फिर आभूषण भी तो लाया होगा। वह तो और भी अधिक मूल्यवान है” काका को निश्चित ही शारदा को शोले के आभूषण पहने देख अच्छा नहीं लगा था किन्तु चोर आया था यह कथा उनके लिए केवल एक बालकौतुक ही थी। 

“क्या भोलेबाबा के विग्रह से अमूल्य इस संसार में कोई वस्तु है!” गदाधर प्रवेश करते हुए बोला। 
“भगवान से बढ़कर किसी वस्तु का मोल बताकर क्या अपने माथे पाप मढ़ूँगा, जवाईबाबू!” काका उठकर खड़े हो गए। गदाधर ने उनके चरणस्पर्श किये। इतने में चन्द्रामणिदेवी ने थालियों में भोजन परोस दिया था। रामेश्वर, गदाधर और नववधू के काका भोजन करने बैठें।
“माँ, थालियाँ किससे उधार लेकर आई? क्या काका पत्तल में भोजन नहीं करते?” गदाधर ने पूछा। गदाधर कभी कोई बात छुपाता नहीं था।

“उधार क्यों लाएँगे। घर की थालियाँ है” रामेश्वर ने बात सम्भालने का यत्न किया। शारदा के काका का मुख उतर गया था। यह कुल तो बहुत ही दरिद्र है। खाने को थालियाँ तक यहाँ नहीं पता नहीं क्या सोचकर उनके अनुज ने अपनी बेटी यहाँ ब्याह दी। 
“जवाईबाबू, लग्न को अभी बहुत समय नहीं बीता। शारदा तो वैसे भी घर में ही रहती है। आभूषण पहने भी रहती तो सम्भवत: उन्हें भार नहीं मानती शृंगार ही मानती” काका ने कटाक्ष किया। दरिद्रता देखकर वह क्रोध से भर जाते थे। दरिद्रता को वे आलस्य और मूर्खता का परिणाम मानते थे। 
इससे पहले कि गदाधर उत्तर देता चन्द्रामणिदेवी बोली, “यह तो बहू की बाललीला है। कभी चाँदी पहनती है कभी सोना तो कभी कभी रांगे के आभूषण पहनने का हठ करती है।”
“माँ, अकारण झूठ कहने की क्या आवश्यकता। क्या इन्हें हमने स्वयं को जमींदार बताकर ब्याह किया है। लाहाजमींदार के आभूषण थे उन्हें लौटाने पड़े” गदाधर ने सत्य कह दिया। चन्द्रामणिदेवी दुख और लज्जा के कारण मुख नहीं उठा पाई। पूड़ी देने को जो हाथ बढ़ाया था नववधू के काका की थाली के ओर, वह वहीं मूर्तिवत होकर रह गया था।
गदाधर की बात सुनकर नववधू के काका का मुख रक्तिम हो गया। बायाँ हाथ शीश पर धरकर बोले, “यदि जमींदार नहीं बताया था स्वयं को तो भिखारी से भी गए बीते हो यह भी न बताया था। भिक्षुक के हाथ भी कटोरा तो रहता है यहाँ देखता हूँ पलाश के पत्तों के भरोसे भोजन परोसा जाता है”। 
चन्द्रामणिदेवी ने अपनी श्वेत धोती के छोर से अपने जल से भरे नयन ढाँप लिए जैसे न देखने पर, नववधू के काका का यह उलाहना उन्हें कहीं दूर से आता सुनाई पड़ेगा। रामेश्वर का ललाट कोप के कारण चमकने लगा किन्तु मुख से शब्द नहीं निकलता था। 
पत्तल के किनारे नववधू के काका ने हाथ धो लिए और उठते हुए कहने लगे, “दूसरों से माँगकर आभूषण लाए क्या वह असत्यभाषण नहीं हुआ जवाईबाबू!”
गदाधर मर्त्यप्राणियों का अपमान न करता था। वह माँ अन्नपूर्णा का अपमान कैसे करता! चुपचाप सस्मित भोजन करता रहा। यह देखकर नववधू के काका चौकें। अपने शब्दों को निष्फल होते देख उन्होंने और अधिक कटु शब्द उचारने की इच्छा हुई।
“भोजन तो दो बेला का मिल जाता है न मेरे घर की कन्या को या केवल भिक्षा मिल जाने पर ही खाने का प्रावधान है!” 
“इतने क्षुब्ध न हों। विविध भाँति से दुलारकर भिन्न भिन्न भोज्यपदार्थ का आयोजन मेरी माँ करती है।” गदाधर ने पूड़ी से साग खाते हुए कहा। नववधू के काका के लिए मछली बनाना सम्भव न हो पाया था इसलिए दूसरे दिन बनाना निश्चित किया गया था।
“वह तो अपने चर्मचक्षुओं से देख ही रहा हूँ, जवाईबाबू। एकादशी के दिन जब निर्धन से निर्धन गृह में बहू के लिए मछलीभात का आयोजन किया जाता है वहाँ आपके घर उसे सागपाँत परोसा जा रहा है। वह भी उदरभर मिल जाए तो नारायण की कृपा समझिए।” नववधू के काका खड़े खड़े बोलें।
“आप अकारण क्रोध करके स्वयं को कष्ट दे रहे है। कुछ दिवस सत्कार का अवसर देने पर आपको सब ज्ञात हो जाएगा” गदाधर ने पेड़ा खाते कहा। 
“अवसर तो हम दे चुके आपको, जवाईबाबू। मैं कल भोर होते ही शारदा को लेकर जयरामवाटी को निकल जाऊँगा” नववधू के काका ने कहा और बाहर खाट पर विश्राम करने चले गए।
उस रात्रि परिजनों ने परस्पर एक शब्द तक नहीं कहा। नववधू चन्द्रामणिदेवी के निकट बार बार आ जाती और उनसे कुछ बात करने का यत्न करती जैसे उसे कुछ आभास था कि उसके काका ने सभी को अपशब्द कहे है। बाल्यावस्था का मन चंचल होता है एक स्थान पर अधिक टिकता नहीं इसलिए थोड़े समय पश्चात् वह भूलकर चन्द्रामणिदेवी की गोद में बैठकर भोजन करने लगी।
“माँमणि, पूड़ी के संग खीर कितनी स्वादिष्ट लगती है। तुम भी खाकर देखो न “ नववधू ने चन्द्रामणिदेवी में गोद में बैठे बैठे ही कौर चन्द्रामणिदेवी की ओर बढ़ाया। यदि रोने लगती तो नववधू भोजन न कर पाएगी यों विचारकर चन्द्रामणिदेवी उलटे हँसने लगी।
“खीर अल्पमात्रा में ही शेष है । तू ही खा तुझे अच्छी जो लगती है” चन्द्रामणिदेवी ने कौर नववधू के हाथ से ले लिया और नववधू को ही खिलाते बोली।
मुख में कौर भरे भरे ही बातूनी नववधू कहने लगी, “अवश्य ही मेरे स्वामी खीर अधिक चट कर गए होंगे। केवल भोजन का ही भजन करते रहते है वे”। 
“ओ दुर्गा दुर्गा, यह तो जननियो की भाँति बातें करते है। कहाँ से सीख आई है तू ऐसी बातें बनाना” चन्द्रामणिदेवी हँसने लगी। निकट बैठा रामेश्वर भी हँसने लगा। 
“भोजन का भजन करनेवाले बहुत से पण्डित है हमारे गाँव में। ब्राह्मणभोज में परसनेवाले के हाथ थक जाए किन्तु उनकी कोमल जिह्वा खाते नहीं थकती” नववधू ने कहा। 
अब तो रामेश्वर अट्टहास करने लगा घण्टेभर पूर्व जो विषाद घर में भर गया था वह बह गया। 
“चल पगली, सजातीयों के लिए ऐसे वचन कहते है भला।” चन्द्रामणिदेवी ने समझाया।
रात्रि अधिक हो गई थी। नववधू चन्द्रामणिदेवी से लिपटकर ही सो गई।
 
(क्रमशः) 


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