आर्यावर्त सुनो, गुम हुई है एक सभ्यता – वीरू सोनकर की लंबी कविता

लंबी कविता — वीरू सोनकर

इतिहास एक कब्रगाह है

जहाँ आर्यावर्त अपनी बेईमान चिंताओं के साथ ऊंघ रहा है

मैं सबसे पहले जागना चाहता हूँ और देखना चाहता हूँ 

कि संविधान का सबसे पहला पृष्ठ क्या अभी भी पढ़ा जा सकता है 

या उसके अक्षरों को पूंजीवाद के बदबूदार रुमाल से इतनी ज्यादा बार घिसा जा चुका है 

कि वह एक खोई हुई भाषा की अंतिम निशानी जैसा लगने लगा है ?

क्या मेरे कान इतने सजग हैं 

कि वह एक टपकते हुए नल की आवाज से चकनाचूर हुए मौन को सुन सकें ?

या मैंने चौराहे पर देश के पक्ष में नारे लगाने से ज्यादा बड़ा काम समझा है 

सरकारी नल की टोंटी घुमा कर बर्बाद हो रहे पानी को रोक देना.

आर्यावर्त तुम कहीं एक झूठ तो नहीं हो ?

तिथियों में तो तुम दूर दूर तक नहीं दिखते.

या कुछ आवारा और अतिक्रमणकारी सपने ही तुम्हारे झंडे का रंग बदल रहे हैं बार बार?

तुम्हे एक भाषा की तरह आसान हो जाना था 

पर क्या तुमने तय कर लिया है कि 5000 साल पहले की भाषा में ही तुम निर्धारित करोगे मनुष्यता के नए नियम ?

एक सरकारी भाषा मे हत्या हो जाने की सूचना तुम तक कैसे नहीं पहुँचती है ?

मुझे किस भाषा मे बोलना है यह जबरन जानना ठीक वैसा ही है मेरे देश

कि मेरा लिंग बदल दिया जाए

मेरी मूँछ के बाल की जगह दुम का बाल लगा दिया जाए

मुझसे कहा जाए 

कि अब एक नई भाषा मे तुम्हे रोना होगा.

मैं अपनी भाषा मे ठीक से रो लेता हूँ

अश्लील कथाएँ बहुत आसानी से अब समझा देती हैं मुझे मेरे यथार्थ का सच.

मैं गालियों, धितकर और हुंकार के उन महान शब्दों को कैसे भूल जाऊं 

जो मुझे धरती पर नजर मिलाने के लायक बना देते हैं

मुझे माफ़ करना

बतौर नागरिक मेरी ऐंठ तुम तक किसी और भाषा में नहीं पहुँचती है

यह भाषा एक दरबान भी जानता है और मुंशी भी

दरोगा भी

दलाल भी

और रंडी भी

इसी भाषा मे एक छोटे अफसर को बड़े अफसर से गाली खा कर  याद आता है 

कि वह भी जी रहा है एक मजदूर की जिंदगी.

इसी भाषा मे देश के सारे बेईमान अपना धंधा एक ‘निजी ईमानदारी’ के साथ किये जा रहे हैं.

इसी भाषा मे एक साथ ही दयालु और दुष्ट होने के महान उदाहरण देश के नेता रख रहे हैं

और पिछवाड़ा सहलाता एक दब्बू नागरिक बनना भी सीखा देती है यही भाषा.

हमारे सारे आदिम बुखार उतरते हैं इसी भाषा में

हर नया नशा इसी भाषा मे होकर हम तक आता है.

कहीं तुम इस भाषा को हिंदी तो नहीं समझ रहे -बिल्डिंगों और विदेशी यात्राओं को विकास समझने वालों?

नहीं, यहां कोंकडी, मराठी, तमिल तेलगु कोई भी भाषा हो सकती है जिसमे एक कुचले हुए नागरिक की हैसियत से मैंने जन्म लिया है.

बेशक यह भाषा हिंदी भी हो सकती है.

संस्कृति के नाम पर एक देश खुद को दोहराता रहे -यह सिर्फ एक तरह का पागलपन ही है.

संस्कृति एक जिंदा और रोज बन रही चीज का नाम है आर्यावर्त

इसे एक मरी हुई देह की तरह देखना और यात्राओं के कंधे पर लाद कर दौड़ना कहाँ तक ठीक है ?

पूरे देश की नाक बंद कर देने से दुर्गंध की प्रकृति नहीं बदल जाती है

विश्वगुरु होने का ऐसा एलानिया दम्भ, जो मुझे खुद से ही नजरें न  मिलाने दे

एक मजाक के सिवा कुछ भी नहीं.

राशन के पीछे दौड़ती भूखी भीड़

रोजगार पर झपट पड़ने को बेचैन भीड़

रोज बच्चा पैदा करती भीड़

हमारा सच है

और 

हत्याओं, बलात्कारों, कायरताओ और मूर्खताओं को गर्व करने के कारणों में गिनती 

एक और भीड़ है. 

मैं इस भीड़ में शामिल नहीं 

मैं देश के किसी अतिरेक पागलपन में शामिल नहीं

जब सब कुछ प्रोडक्टवाद का शिकार हो रहा है मैं देखता हूँ कविता की ओर बहुत उम्मीद से

एक ऐसी जगह, जहाँ ईमानदारी अभी तक ईमानदारी के नाम से ही जानी जाती है.

मुझे मेरे पिता ने संस्कार के पहले पाठ में यह बताया था कि एक दुमदार जानवर की संतान हैं हम

सभ्यता के इस विशाल उत्सव में अब हम पहले की तरह अशालीन और खौखियाये नहीं लग सकते हैं.

मैं थोड़ा और नम हो जाता हूँ 

कि इस देश मे पिताओं जैसे लोग अब नहीं रहे.

मैं अपने देश की ओर देखता हूँ तो पाता हूँ सब के सब गले तक व्यग्रता के समुद्र में धसे हुए हैं.

हर कोई चीख रहा है जो चुप है वह भी गढ़ रहा है चुप्पी की एक नवीन भाषा

जो जहाँ है वहाँ से नाखुश है!

कोई बताए- कृपया कोई बताए

जीवन जीने की लालसा से भरे इस सभ्यता के हर आदमी के चेहरे पर किसने लिख दिया है सजायाफ्ता?

मुकदमों की अंतहीन कड़ी से लगता है बहुत कारीगरी से हर नागरिक को उसमे पिरोया गया है.

सवाल के बदले में कुतर्की सवाल

क्रूरता के बदले में और बढ़ी हुई क्रूरता

यह सब एक मध्ययुगीन पागलपन है.

पर यह कितना अश्लील है कि हम इस पागलपन को नहीं छोड़ते हैं अब भी.

फ़िल्म अभिनेता अब पहले से ज्यादा भौंडे दिख रहे हैं 

नेता अब गांधी का नाम लेते-लेते उनकी प्रतिमा से लिपट कर रोने भी लगे हैं.

आर्यावर्त

अब जो जिसके खिलाफ दिखता है बंद लिहाफ के भीतर वह उसी के साथ पड़ा है सोया हुआ.

कवियों की भाषा में क्रांति बढ़ गई है और घट गई है व्यवहार में 

यह एक आपदा ही है कि हम अब भाषा मे जीते हैं और व्यवहार में चुप रहते हैं.

जो जितनी गाली दे लेता है वह उतना ही सम्मानित है.

ठग होने भर से अब आदमी सुरक्षित है

भडुवागिरी को किसी ने सफेद कपड़े पहना कर रवाना कर दिया है संसद की ओर

नेता और लफंगे के बीच का महीन होता फर्क उड़ा देता है अब मेरी रातों की नींद 

यह सब बहुत असह 

और गला घोंट देने वाले गुस्से का निर्माण करता है आर्यावर्त!

क्या यह तुम्हारे नजदीक पहुँचने की यात्रा की शुरुआत है?

मुझे हर रोती हई औरत के पीछे ढिठाई से खड़ा एक पुरुष क्यों दिखता है?

देश की सड़कों पर लाशें कब तक जिंदा होने के अभिनय में इधर-उधर भटकती रहेंगी ?

कोई ‘एक’ भी चीख कर क्यों नहीं बोलता, कि इस देश में जिंदा लोग भी रहते हैं?

आर्यावर्त

मेरी माँ अब बहुत कम हँसती है

मेरे पास गुजर गए पिता की एक भी हँसती हुई फ़ोटो नहीं है.

मेरी आखिरी स्मृति में मैं अपने पिता के साथ नहीं

किसी चौराहे पर नहीं

किसी नदी की गहराई में डूबते उतराते नहीं

मैं मेरी थकान के भीतर खड़ा हूँ

तिथियों को बहुत देर तक घूरने के बाद

जब मैं जब देखता हूँ कि एक बहुत पढ़ा लिखा व्यक्ति जिसके गले मे लटक रही है कई विदेशी डिग्रियां,

वह सरकार के पक्ष में लगातार भोंके जा रहा है

तो मुझे इस देश के मजदूरों और रिक्शेवालों की समझ पर पहले से ज्यादा हो जाता है भरोसा

इस देश में पूंजी हमे हर दिन कर रही है और ज्यादा नंगा

बाजार ने हमारी लंगोट पर भी छोड़ दिये हैं अपने खूनी ब्रांडेड निशान

अब हम फिल्में देखने कम और नंगई देखने जाते हैं ज्यादा.

आर्यावर्त

अब कोई नहीं बचा जिसके गले लिपट कर रोया जा सके सभ्यता के खो जाने का दुख

शहर की सड़कों पर 

अब कोई नदी का नाम तक नहीं लेता

चौराहों पर बरगद, नीम और पीपल के निशान भी नहीं मिलते

बैठके नहीं मिलती

मिलती हैं अब डरा देने वाली अफवाहें

बुरी खबरें घेर रही हैं अच्छी खबरों का इलाका

बीत गए आदमियों के किस्सों में अब उनके बरगद होने का जिक्र नहीं मिलता.

स्ट्रीट लाइट्स ने अब कुछ भी भुतहा नहीं रहने दिया!

अपशकुनी बिल्लियों के रोने की आवाजें कम हुई हैं

कम हुए हैं छतों और मुंडेरों के इलाके

संवाद के बहाने घट गए

बढ़ गए मिल कर मारने वाले लोग

जमीन घट गई

औरत की आबादी घट गई

गायब हो गई है अलबेला मोती बेचने वालों की आवाजें

अब नहीं है 

मनुष्यता के चेहरे पर करुणा से भरी आँखे

मनुष्य अब इस सभ्यता को देखते हैं बाघ की आंखों से

चौकन्नेपन के एक अमिट परिसर ने घेर लिया है मासूम बच्चों को भी

हर समय गूंजती हैं कुछ डरावनी आहटें आसपास

हमारी प्रार्थनाओं में कई बार गूंजता है ईश्वर हमें बचा लो

कई बार हम बुदबुदाते हैं

अब हमें मार दो!

आर्यावर्त

इस सभ्यता का शोर नहीं घटता

नहीं घटते देश के भीतर देश बना देने के ढोंगी संकल्प

अन्नपूर्णा का देश भुखमरों की लिस्ट में इतना ऊपर कैसे आ गया!

धरती और आंख का पानी बहुत कम बचा है

शोक संदेशों में शोक कम बचा

हर्ष के भीतर उतर गई हैं बनावटी औपचारिकताएं

हम नाचते हुए नकली लगते हैं और रोते हुए अपराधी!

हम देखने की सबसे सहज कला गए हैं भूल 

अब हमारी आंखों को याद रहा

सिर्फ घूरना!

आर्यावर्त

हमारी भाषा में गालियाँ और चेतावनियां बहुत बढ़ गई हैं

अभिवादन के सबसे बेहतर और नम्र तरीके में भी हमारी मुखाकृतियाँ लगती हैं असहनशीलता से भरी हुई

भरोसे से भरे वाक्य किसी गिद्ध की तरह हमारी सभ्यता के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं 

उन्हें चाहिए चारा

उन्हें चाहिए शिकार

इस सभ्यता के सारे शिकारी हर बार ठिकाने पर लौटते हैं पेट भरे हुए

अब बढ़ा है सिर्फ संदेह

बढ़ी है रस्में

आर्यावर्त

हर काम को करने का एक नया तरीका खोजने में जुटी भीड़ भूल गई है ठीक से खाना-पीना

अब उन्हें नींद और रुलाई दोनों नहीं आती.

बार बार आते हैं भाग निकलने के ख्याल

गोपनीयता के हिसाब से इस पृथ्वी पर अब उनके लिए कोई जगह नहीं बची.

जब देखता हूँ कि मैं रोज एक नया प्रेम इस चाह में किये जा रहा हूँ 

कि भोगने के लिए एक देह की गिनती और बढ़ गई है

तो थोड़ा सा अपनी स्मृतियों के पास और सिमट आता हूँ

आर्यावर्त

मैं पहले ऐसा कतई नहीं था!

मैं पहले जैसा होना चाहता हूँ

इस देश के सबसे ज्यादा थके हुए लोगो के कंधे अब पहले से भी ज्यादा झुक गए हैं विश्वगुरु!

जब वह हँसते हैं तो दयनीय लगते हैं

उनकी उदासी एक लाश के चेहरे में बदल गई है अब और भी ज्यादा

वह पहले से अधिक लाशें देख रहे हैं आर्यावर्त

वह बहुत बार खुद को भी एक लाश की तरह देखते हैं

पर आर्यावर्त सुनो,

वह पहले से ज्यादा बेखौफ बोल सकते हैं कि यह सरकार निहायत चूतियों से भरी हुई है.

मुझे उनकी भाषा किसी भी शाब्दिक अश्लीलता से बरी लगती है.

यह सब पहले भी थोड़ा-बहुत था

तो जानना जरूरी है

कि देश के व्यवहारिक बर्ताव में कहाँ से आ रहा है अब इतना जहर?

इस देश में अब पहले से अधिक होने लगे हैं प्रवचन 

अब इस देश को घेर लिया है उपदेशकों की भीड़ ने

अब 

सब तरफ पेड़ और आदमी को काटने की बातें चल रही है

भोगने के नाम पर नदी और स्त्री के साथ एक जैसा ही बर्ताव किया जा रहा है.

अब

नदियों के बारे में सिर्फ मौकापरस्त बैठके होती हैं

पहाड़ को दलाल किसी रेपिस्ट की नजरों से घूरते हैं

हम जिस चश्मे से खुद को देखते हैं दौड़ता हुआ, कई बार चश्मे के बिना हम दिखते हैं औंधे मुँह गिरे हुए.

बड़ा सवाल यह है कि हम जा कहाँ रहे हैं?

अगर हम तुम्हारी ओर आ रहे हैं आर्यावर्त

तो मैं अपने देश की विशाल भीड़ के भीतर से एक बहुत मामूली सी आवाज लगाता हूँ

कि अब हमें इस देश के उद्धार के लिए नायकों की तलाश बंद कर देनी चाहिए और सारा विवेक लगा देना चाहिए उस भाषा को पढ़ने के लिए 

जिस भाषा मे इस महान देश के हर चौराहे पर खड़ी एक बेकार भीड़ आकाश को अपनी उदास चिट्ठियां भेजती है.

आर्यावर्त अब हम लाशों के मनोविज्ञान पर काम करना शुरू कर दें अविलंब.

क्योंकि आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा बोलते-बोलते अचानक से चुप हो गया है.

उनकी यह चुप्पी 

अब हर मोर्चे पर, हर जरूरी शोर के भीतर 

एक खाली जगह गढ़ रही है

आर्यावर्त

अगर मैं ठीक से देख पा रहा हूँ हम सब उस खाली जगह के भीतर एक दूसरे का हाथ पकड़े सामूहिक रूप से धसते जा रहे हैं.

इतिहास की कब्रगाह में बहुत दूर तक ढूंढने पर भी तुम हमे ठीक से नहीं मिलते, तो भविष्य में भी दूर तक देखने पर तुम्हारा न मिलना एक कीमत के तौर पर अब हमे स्वीकार है.

कि सारे रास्ते यहीं से निकलते हैं.

कि सारे रास्तों को यहीं तक आना होगा.

परंतु आर्यावर्त! तुम कुछ बोलते क्यों नहीं?

तुम हो भी?

या सच मे नहीं हो!

Veeru_sonker@yahoo.com

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