भारतीय स्त्रियों की स्थिति : सैद्धांतिक बहसें एवं सामाजिक यथार्थ — सुप्रिया पाठक

 

 

 

 

बीज शब्द:  लोकतंत्र ,पितृसत्ता, जेंडर, नारीवाद, नारीवादी सिद्धांत , स्त्री अध्ययन

 

लोकतंत्र की संकल्पना मानव समुदाय के सबसे प्रतिष्ठित आविष्कारों में से एक है। यह मनुष्य के जीवन के तरीके को तय करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। साथ ही, यह हमें जनतांत्रिक रचनात्मकता एवं सृजनात्मक प्रतिरोध को अपने जीवन में उतारने का अवसर  भी प्रदान करता है। हालांकि, हमारी सामाजिक व्यवस्था में लोकतांत्रिक आदर्शों की खोज में वास्तविक जीवन का अभ्यास एक कठिन प्रस्ताव साबित होता रहा है। क्योंकि लोकतंत्र की संकल्पना अपने समस्त मूल्यबोध के साथ जब सामाजिक यथार्थ के विभिन्न पदानुक्रमों यथा जातीय, वर्गीय, सांप्रदायिक, लैंगिक, नृजातीय एवं अन्य पहलूओं से टकराती है , तब कई विरोधाभासों को जन्म देती है। जिसमें एक महत्वपूर्ण पहलू है स्त्री-पुरुष समानता एवं अधिकार

हमारे समाज में कई तरह की असमानताएँ विद्यमान हैं। स्त्री और पुरुष के बीच की असमानता उनमें से एक है। आमतौर पर पितृसत्ता का प्रयोग इसी असमानता को व्यक्त करने के लिए होता है। इस रूप में यह हमारे सहज बोध में इस कदर रचा-बसा है कि इसे परिभाषित करना कई बार हमें फिजूल लग सकता है। लेकिन इसे परिभाषित करने की कोशिश जारी है। नारीवादियों के बीच इसकी परिभाषा एवं स्वरूप को लेकर मतभेद भी रहा है। कुछ नारीवादी तो ऐसी हैं जो इसके प्रयोग को ही अनुपयोगी मानती हैं। इसका एक कारण खुद पितृसत्ता शब्द का पहले जिस अर्थ में प्रयोग होता आ रहा था, वह है। दूसरा कारण वह पृष्ठभूमि है जिसमें स्त्री की अधीन स्थिति के लिए इस शब्द का प्रयोग होना शुरू हुआ था। आगे इन कारणों पर विचार किया गया है। इसी प्रकार मूलतः पितृसत्ता परिवार में पुरुषों के शासन की व्यवस्था है। पितृसत्ता आदमी पर आधारित परिवार के इकाई की संरचना है। साथ ही,यह समाज में पुरुषों की भूमिका को भी रेखांकित करता है जिसमें समाज के आर्थिक, राजनैतिक तथा सामाजिक जीवन में पुरुषों को वरीयता प्राप्त है।

पितृसत्ता अधिकांश देशों की संस्कृति में निहित है। यह शक्ति के उस स्वरूप की व्याख्या करती है जिसके अनुसार, पुरुषों का स्त्रियों के शरीर पर वर्चस्व होता है और जिसमें स्त्रियां हमेशा पुरुषों के अधीन रहने को विवश होती हैं। परिवार जैसी संस्था में स्त्री-पुरुष के बीच असमानता पितृसत्ता का एक लक्षण है। असल में, पितृसत्ता एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें परंपरा और व्यवहार के नियमों द्वारा स्त्रियों की तुलना में पुरुषों की शक्ति ,अधिकारों और सत्ता को अधिक महत्व दिया जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि पितृसत्ता कोई विचारधारा न होकर सामाजिक व्यवस्था से संबंधित व्यवहारों का एक समूह है।

गर्डा लर्नर की पुस्तक "Creation of Patriarchy" के रुप मे पहला नारीवादी इतिहास है जो राज्य के उदय का विश्लेषण करता है। गर्डा लर्नर पुरातात्विक तथा लिखित इतिहासों के आधार पर 3500 BC and 500 BC. के मध्य पितृसत्ता के विकासक्रम को समझने के लिए  मेसोपोटामियन, सुमेरिअन, अकेडियन, बेबिलोनियन तथा हिब्रू सभ्यता का विश्लेषण करती है। उनकी यह पुस्तक पितृसत्तात्मक व्यवस्था के उदय और राज्य एवं वर्ग के साथ इसके संबंधों की व्यापक तस्वीर प्रस्तुत करती है। गर्डा लर्नर ने बहुत सुन्दर तरीके से मेसोपोटामियन राज्य का विश्लेषण किया है। वे चौथी सदी ई.पू. में पितृसत्तात्मक व्यवस्था/ जेंडर संबंधों के उदय पर प्रकाश डालती हैं। यहाँ वे व्युत्पत्ति के तर्क पर निर्भर हैं न कि ऐतिहासिक या पुरातत्विक शोधों पर

स्त्रीवाद की विभिन्न धाराओं ने पितृसत्ता को एक असमानतापूर्ण एवं हिंसक सामाजिक व्यवस्था के रुप में देखा है जो महिलाओं के प्रति शोषणकारी और दमनकारी है। एक पुरुष के अर्थ में  "पितृसत्ता" शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 16वीं सदी में अंग्रेजी भाषा में शुरू किया गया था। पितृसत्ता के लिए विशेषण पितृसत्तात्मकता है। सामान्यतः पितृसत्तात्मकता शब्द अभ्यास (Praxis) या पितृसत्ता की रक्षा को संदर्भित करता है। कुछ सामाजिक परंपराओं में इसके लिए "पितृवंशीयता" शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। यह शब्द पैतृक वंशावली का द्योतक है। यह परिवार की जिम्मेदारियां और संपत्ति पिता से बेटे को हस्‍तानान्‍‍तरित किये जाने की प्रथा की बात करता है। धार्मिक एवं बुर्जुआ मान्यताओं के अनुसार पुरुष हमेशा से स्त्री पर हावी रहा है एवं प्राचीनकाल से ही स्त्रियों के मानवाधिकारों का हनन होता रहा है।

इस व्यवस्था को संरचनात्मक तथा प्रक्रियात्मक रूप देने में जेंडर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वस्तुतः यह एक व्यवस्थागत प्रक्रिया है जिसके तहत वैचारिक तथा भौतिक प्रक्रियाओं के द्वारा व्यक्ति का सामाजिकीकरण किया जाता है। समाज में रहते हुए कोई व्यक्ति जिस प्रकार से व्यवहार करता है उसी के द्वारा स्त्री तथा पुरुष के मध्य सत्ता-संबंधों की रचना तथा उसे बनाए रखने का कार्य किया जाता है। समाज में जेंडरीकरण की प्रक्रिया के जरीए ही पुरुषत्व तथा स्त्रीत्व की रचना, पुनर्रचना तथा संबंधों का निर्वाह किया जाता है। जेंडरीकरण को अवधारणा के स्तर पर समझने का सबसे पहला प्रयास 1984 में जिल मैथ्थूस द्वारा किया गया था जिसमें उन्होंने नारीत्व के ऐतिहासिक संरचना का अध्ययन किया था। मैथ्थूस के अनुसार,

जेंडर के सामाजिकीकरण की प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि प्रत्येक समाज स्त्री तथा पुरुष के मध्य विभाजित है तथा लगातार इस विभिन्नता को संस्कृति, विचारधारा तथा व्यवहार के द्वारा बनाए रखा जाता है। स्त्री तथा पुरुष के बीच संबंध में तार्किक रूप से यह आवश्यक नहीं है कि जेण्डरक्रम श्रेणीबद्ध,असमानतापूर्ण या शोषणकारी होना चाहिए।‘

मैथ्थू आर्थिक व्यवस्था के आधार पर एक क्रम का खांका रचती हैं जिसमें व्यक्तियों के संबंधों का व्यवस्थित क्रम उत्पादन के साधनों तथा उसके उपभोग के जरीए तय होता है जो संभवतः पूंजीवादी, सामंती या समाजवादी समाजों के विशेष सन्दर्भों में हो सकता है। उसी प्रकार जेंडरीकरण की प्रक्रिया के दौरान संबंध पितृसत्तात्मक होने की अपेक्षा समतावादी या मातृसत्तात्मक भी हो सकते है। मैथ्थू के लिए जेंडरीकरण की प्रक्रिया पितृसत्ता की तरह है जो संबंधों को सत्ता संबंधों के आधार पर प्राथमिक या दोयम दर्जा प्रदान करता है।

उसी प्रकार इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था एवं  जेंडर की इसी सामाजिक-सांस्कृतिक निर्मिति के प्रतिरोध में स्त्री सापेक्ष स्वरों को नारीवाद के रूप में परिभाषित किया गया है। वस्तुतः  नारीवाद एक राजनीतिक विचार है जो यह मानता है कि स्त्रियां भी मनुष्य हैं। नारीवादशब्द का उदय फ्रेंच शब्द फेमिनिस्मे  से 19 वीं सदी के दौर में हुआ। उस समय इस शब्द का प्रयोग पुरूष के शरीर में स्त्री गुणों के आ जाने अथवा स्त्री में पुरूषोचित व्यवहार के होने के सन्दर्भ में किया जाता था। 20 वीं सदी के प्रारंभिक दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका में इस शब्द क प्रयोग कुछ महिलाओं के समूह को संबोधित करने के लिए किया गया जो स्त्रियों की एकता, मातृत्व के रहस्यों तथा स्त्रियों की पवित्रता इत्यादि मुद्दो पर एकजुट हुई थीं। बहुत जल्द ही इस शब्द का राजनीतिक रूप से प्रयोग उन प्रतिबद्ध महिला समूहों के लिए किया जाने लगा जो स्त्रियां की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन के लिए संघर्ष कर रही थी। उनकी इस बात में गहरी आस्था थी कि स्त्रियां भी मुनष्य हैं।कालांतर में इस शब्द का प्रयोग हर उस व्यक्ति के लिए किया जाने लगा जो यह मानते थे कि स्त्रियां अपनी जैविकीय भिन्नता के कारण शोषण झेलती हैं और उन्हें कम से कम कानून की दृष्टि में औपचारिक तौर पर समानता दिए जाने की जरूरत है। इसके बावजूद की यह हलिया विकसित किया गया शब्द हैं, 18 वीं सदी के कई लेखकों एवं चिंतकों जैसे मेरी वुल्सटनक्राफ्ट, जॉन स्टुअर्ट मिल, बेट्टी फ्रायडन इत्यादि को उनके उस दौर में स्त्री प्रश्नों के इर्द-गिर्द विमर्श करने के कारण नारीवादी माना जाता है। अर्थात् नारीवाद एक शब्द के रूप में विभिन्नताओं का समारोह है। अधिकतर नारीवादी चिंतक विचारों के इस वैविध्य को एक स्वस्थ विमर्श के प्रतीक के रूप में देखते हैं जबकि कई नारीवादी आलोचक इसे नारीवाद में अन्तनिर्हित कमजोरियों मानते हैं जिसके कारण इस विचार के तार्किक पहलू कमजोर पडे  हैं। कई आलोचक इस विखण्डन को आधुनिक नारीवाद के साथ  भी जोड़ कर देखते हैं। नारीवादियों का उदय एवं उनका बौद्धिक विकास सदैव विविध सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोणों के सन्दर्भ में हुआ हैं एवं उन्होंने हमेशा अपनी भौगोलिक स्थिति एवं समय के अनुसार ही मुद्दों को उठाया है।

इस तथ्य के बावजूद कि नारीवाद व्यक्तिगत राजनीतिक दृष्टिकोण को प्रतिबिम्बित करता है। (संभवतः यह प्रवृति 21 वीं सदी में ज्यादा स्पष्ट हुई है) आधुनिक नारीवादी सिद्दांत इस पहलू को खारिज   करता है। उदारवादी नारीवाद पाश्चात्य समाजों मे प्रबोधनकाल के दौरान उदारवादी विचारों में विभिन्नता को रेखांकित करता है तथा जनतांत्रिक व्यवस्था के अन्दर ही राजनैतिक प्रक्रियाओं के माध्यम स्त्रियों की सामाजिक अधीनता की स्थिति को उठाते हुए उनके समाधान को ढुंढता है। समाजवादी या मार्क्सवादी नारीवाद स्त्री की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन को औद्योगिक पूंजीवाद को उलट देने तथा उत्पादन के साधनों के साथ मजदूर के बदले संबंधों के सन्दर्भ में देखता है। उनके अनुसार क्रांति ही एकमात्र उपाय है। हालांकि गुजरते समय के साथ समाजवादी नारीवादी इस प्रस्थापना पर और आग्रही हुए हैं कि समाजवादी क्रांति के उपरांत महिलाओं के जीवन में निश्चित रूप से परिवर्तन होंगे। वे भी जेंडर विभेद को अत्यंत आग्रही विचार के साथ देखते हैं। फिर भी, समाजवादी/मार्क्सवादी नारीवादी हमेशा इस बात से सचेत हैं कि किस प्रकार समाज को वर्ग, जाति तथा नस्ल के आधार पर विभाजित किया गया है।

रेडिकल नारीवाद की प्रारंभिक प्रस्थापनाओं में भी यह पूर्वानुमान निहित था कि यदि पुरूष समस्याओं के निर्माण के लिए जिम्मेदार है तो उसके समाधान में भी वह बराबर की भूमिका निभाएगा। हालांकि रेडिकल नारीवाद को सामान्यतः जन साधारण में प्रचलित चेतनाओं तथा पुरूष विरोधी रूख के लिए जाना जाता है। उत्तर आधुनिक तथा उत्तर संरचनावादी हस्तक्षेपों ने इस विचारधारा के वैविध्य को और बढ़ाया जिससे नारीवादी को समझने की एक नई दृष्टि मिलों। उनका मानना था कि शोषक/शोषित के सत्ता सिद्धांतों को व्यापक प्रश्नों के दायरे में समस्या के रूप में देखने पर यह पता चलता है कि किस प्रकार सामाजिक विमर्श में सत्य तथा उसके अर्थ को पैदा किया जाता है। उन्होंने बेहतरीन तरीके से सत्ता के साथ शोषण के अनिवार्यतः जुडे होने की व्याख्या की। इन सभी वैचारिक विमर्शों के उपरांत नारीवाद एक शब्द के रूप में अपने अनेक अर्थो एवं मत-मतांतरों के साथ हमारे सामने है। 

भारत उन कुछ देशों में से एक है जहां मानवाधिकार आंदोलन का इतिहास उतार-चढ़ाव से युक्त रहा है। वैसे तो भारत में मानवाधिकार आंदोलन की जड़ें इसकी प्राचीन ऐतिहासिक रचनाओं एवं सामाजिक लोक जीवन की गतिविधियों में ढूढ़ी जा सकती है तथापि इसकी आधुनिक एवं वास्तविक पृष्ठभूमि का निर्माण औपनिवेशिक शासन के विरूद्ध संघर्ष के दौरान हुआ। वस्तुत: इस काल खंड में राष्ट्रवादियों द्वारा ब्रिटिश शासन की समालोचना के अन्तर्गत इस बात पर ज्यादा बल दिया गया कि अंग्रेजी शासन भारत में अपनी मौजूदगी को बनाए रखने के लिए भारतीय लोगों को उनकी आधारभूत स्वतंत्रताओं एवं अधिकारों से वंचित कर रहे हैं। भारत का राष्ट्रीय आंदोलन एवं भारत के राष्ट्रवादियों का मुख्य लक्ष्य सिर्फ भारत की स्वतंत्रता ही नहीं था, बलिक भारतीय लोगों के मूलभूत अधिकारों एवं स्वतंत्रताओं का संरक्षण एवं संवर्धन भी था। अब प्रश्न यही उत्पन्न होता है कि क्या भारतीय संविधान में मूल अधिकारों के रूप में इन अधिकारों के प्रावधित करने के पश्चात भी भारतीय स्त्री को क्या  समान अधिकार प्राप्त हुआ है? क्या उसको संविधान के प्राक्कथन में किया गया वादा न्याय -सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक, उन सच्चे व सत्य अर्थों में प्राप्त हुआ जिसका वादा 26 जनवरी 1950 को किया गया था। [1]

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रकाशित ' दी ह्रूमन डेवेलपमेन्ट रिर्पोट: दी प्रोग्रेस ऑफ दी वर्ल्ड्स वीमेन  रिपोर्ट' में भारतीय  महिलाओं की स्थिति में सुधार बताया गया है।  उसके पश्चात दी ' यू. एन. डी. पी. डाक्यूमेन्ट के समान' ही ' दी यू. एन. फण्ड फॉर डेवेलपमेन्ट आँफ विमेन (यू. एन. आई. एफ. ई. एम.)'के स्कोरकार्ड में  भारतीय प्रयासों की सराहना की गई है,  जिसके अन्तर्गत भारतीय महिला के लिंग समानता के क्षेत्र में कार्य किया जाना बताया गया है लेकिन व्यवहारिक आकलन यही सिद्ध करता है कि अभी कुछ अधिक प्राप्त नहीं हुआ है और अधिक दूर जाने की आवश्यकता है ।

अर्थात लैंगिक समानता के क्षेत्र में जो प्रगति हुई है, वह समतल नहीं है और बिजिंग सम्मेलन में जो वादे किया गये हैं । 1971 में बेरोजगारी प्राक्कलन करने वाली दांतेवाला समिति ने पहली बार आयु, लिंग, व्यवसाय, शहरी / ग्रामीण आवासीय आधार पर बेरोजगारी की जाँच की। बेरोजगारी प्राक्कलन करने वाली एक और समिति भागवती समिति ने प्राप्त डेटा के माध्यम से ये बताया की बेरोजगारी का प्रतिशत पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में जयादा है। वेस्ट बंगाल जनगणना  1951 और भारतीय जनगणना 1961 में यह दर्शया गया कि अर्थव्यस्था में महिलाओं की भागीदारी में कमी आई है। इसके बावजूद ये सामाजिक वैज्ञानिकों और नीति-निर्माताओं का ध्यान आकर्षित करने असफल रहीं। महिलाओं की समिति ने जाँच शुरू की तब ये सारी स्थितियाँ थी। समिति का मानना था की महिलाओं का राष्ट्र निर्माण में योगदान में महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए और ये तभी हो पाएगा जब हम संविधान के मूल्यों को अपनाएँ। समिति ने निष्कर्ष को काफी भयावह और परेशान करने वाला करार दिया। जनसांख्यिकीय संकेतकों ने जो रुझान दिए वो थे: महिला और पुरुषों में लिंग अनुपात के स्तर में बढ़ोतरी, मृत्यु दर की चौड़ी होती खाई, आर्थिक भागीदारी में गिरावट, बढता पलायन दर, महिलाओं की निरक्षरता में बढ़ोतरी आदि।

इन तथ्यों की जाँच के बाद यह निष्कर्ष निकल कर आया कि महिलाओं की विकास गति बहुत धीमी है और साथ ये प्रश्न उठा की क्यों समानता के सिधांत ने समाज पे इतना कम प्रभाव छोड़ा। आखिर क्यों शैक्षणिक संस्थानों, कानूनी व्यवस्था और मीडिया समानता की संस्कृति को विकसित करने में असफल साबित हुई। क्यों राजनितिक दल और ट्रेड यूनियनों ने महिला मुद्दों और अधिकारों की उपेक्षा की। आखिर क्यों सत्ता की प्राप्ति के लिए प्रतीकों और वास्तविकता में इतनी चौड़ी खाईं दिखी। समिति ने इस विफलता की व्याख्या कुछ इस प्रकार की:

(1) सभी शिक्षाविद, राजनीतिक दल, ट्रेड यूनियन ने अपनी नीतियाँ शहरी मध्य वर्ग को ध्यान में रख के बनाई गई थीं और यही वजह थी की महिलाओं की विविध समस्याओं के प्रति वे अज्ञानतापूर्ण व्यवहार कर रहे थे।

(2) दूसरा कारण यह था कि सामाजिक परिवर्तन और विकास के लिए जो रणनीति और तकनीक अपनाई गई वो सब उच्च औद्योगिक समाजों  से उधार ली गई थी और भारत जैसे जटिल समाज के लिए उपयुक्त नहीं थी।

(3) महिला आंदोलन के असफल होने का कारण एक हद तक यह भी था कि वह हर जाति, वर्ग की महिलाओं की समस्याओं से खुद को जोड़ नही पाया और सिर्फ एक खास समूह तक ही सीमित रह गया।

भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद (ICSSR) ने स्त्रियों की स्थिति पर शोध कार्य करना प्रारंभ किया और उन महत्वपूर्ण क्षेत्रों का अध्ययन करने कोशिश की जिसको समिति ने उल्लेखित किया था। यह कोशिश तीन प्रकार के सामाजिक समूहों को केंद्रित करके की गई नीति-निर्माता, सामाजिक वैज्ञानिक, और सामान्य जनता। इस कार्यक्रम का उद्देश्य नीतियों के परिवर्तन के लिए नए आंकडों की तलाश, सामाजिक विज्ञान में प्रयुक्त होने वाले सिद्धांतों, अवधारणाओं आदि का पुनर्परीक्षण तथा और महिला प्रश्नों को पुनर्जीवित करना था। 1976 से भारत में स्त्री अध्ययन का विकास प्रारंभ हुआ। उसी दौरान महिलाओं के खिलाफ अपराध को भी सामाजिक तौर पर बढ़ावा मिल रहा था। अर्थात स्त्री प्रश्न तथा स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा एक साथ विमर्श के केन्द्र में थे। जिन्हें लेकर अकादमिक जगत एवं सामाजिक आंदोलनों में एकसाथ हलचल जारी थी।

इसी भीच अंतरराष्ट्रीय समुदायों द्वारा भी कई स्तरों पर महिलाओं की समस्याओं  के प्रति की चिंता व्यक्त की जा रही थी। वैश्विक पटल पर लगभग सभी देशों में स्त्रियों की एक समान स्थिति को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र  संध द्वारा 1975-85 को अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया गया। अंतरराष्ट्रीय दानदाता एजेंसीओं ने भी सभी राष्ट्रों को इस बात के लिए दबाव बनाया कि वे अपने यहाँ की महिलाओं के विकास की लिए पहले की अपेक्षा अधिक कार्य करें और उनकी समस्याओं के प्रति संवेदनशील हों। यहाँ तक कि द्विपक्षीय सहायक एजेंसियाँ भी अपने देशों में स्त्री विषयक शोध कार्य पर अधिक निवेश करने पर बल दे रही थीं। भारत में महिलाओं की  स्थिति की जाँच करने वाली समिति ने 1974 में समानता की ओर(Towards equality report) नामक एक रिपोर्ट में  भारतीय स्त्रियों की सामाजिक,लैंगिक, शैक्षिक,स्वास्थ्यगत,तथा,आर्थिक स्थिति में चिंताजनक गिरावट का निष्कर्ष दिया एवं तमाम समाज वैज्ञानिकों ने चेतावनी वाले लहजे में कहा कि इस तरह के निष्कर्ष हमारे लिए घातक सिद्ध होंगे और ये विकास के कार्यक्रम को प्रभावित करेंगे।

सितंबर 1979 में ICSSR की समिति ने स्त्रियों संबंधी शोधों की रिपोर्ट प्रस्तुत किया और निष्कर्ष के तौर पर कहा कि तीन वर्षीय इस कार्यक्रम ने नीति-निर्माताओं और सामान्य जनता पर तो प्रभाव डाला लेकिन समाज वैज्ञानिकों और शोध संस्थानों पर कोई खास प्रभाव डालने में असफल रहा। ना तो विश्वविद्यालय और ना ही किसी प्रमुख शोध संस्थानों ने महिला विषयक मुद्दों को प्रमुखता दी। 1981 बंबई में प्रथम महिला अध्ययन सम्मलेन हुआ। जहाँ चकित करने वाली सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली। स्त्री अध्ययन संघ की सदस्यता में 10 विश्वविद्यालय, 6 कॉलेज, 6 शोध संस्थान, 138 व्यक्तिगत तौर पर शैक्षणिक संस्थानों से लोगों ने सहभागिता की । इस संघ की स्थापना ने  यूजीसी और  विश्वविद्यालयओं का ध्यान आकर्षित किया कि वे महिलाओं की समस्याओं को शिक्षा और शोध गतिविधियों के माध्यम से सामने लाएं। 

बंबई में हुए प्रथम राष्ट्रीय सम्मलेन ने भारत में स्त्री अध्ययन के विकास के लिए एक वैकल्पिक दृष्टिकोण को सामने रखा। लेकिन सभी कार्य समूहों ने बड़ी चतुरता से महिला अध्ययन को अलग पाठयक्रम  के रूप में चलाने के विचार को खारिज कर दिया। स्पष्टतः  सब का मत था कि भारत के संदर्भ में इसकी क्या जरूरत है?  स्त्री अध्ययन को अलग विषय के रूप में विकसित करने की आवश्यकता एवं प्रासंगिकता क्या है? स्वतंत्र विषय के रूप में स्त्री अध्ययन का विचार विद्यार्थी समुदाय और संकाय समूह दोनों को ही नागवार गुजरा। स्त्री अध्ययन शब्द को लेकर लोगों के मन में तमाम तरह की दुविधा और उलझन थी। वस्तुतः  इस शब्द से तात्पर्य है महिलाओं को अधिक व्यापक, संतुलित दृष्टिकोण  से समझना, सामाजिक प्रक्रिया में महिलाओं के योगदान को जानना, महिलाओं का उनके जीवन के प्रति नजरिए को समझना, उनकी इच्छाओं को और उनके संघर्ष को जानना,उस सरंचना और उस जड़ को समझना जिसकी वजह से महिलाएँ आज भी हाशिए एवं शोषण की शिकार है। स्त्री अध्ययन सिर्फ महिलाओं के बारे में सूचनाओं का अध्ययन नहीं होना चाहिए या सिर्फ संकीर्णता के साथ सिर्फ महिलाओं का अध्ययन नहीं होना चाहिए बल्कि ये सामाजिक और अकादमिक विकास के लिए एक उपकरण भी होना चाहिए। हम स्त्री अध्ययन के उद्देश्यों को इस प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है: -

(1)      महिला और पुरुष सामाजिकसंरचनाअ में एक-दूसरे की स्थिति को समझें महिलाओं की बहुआयामी भूमिका को प्रस्तुत किया जाए।

(2)      लैंगिक विभेद का अध्ययन करके सरंचनातमक, सांस्कृतिक,असामनता को  दूर करके सकारात्मक समाज निर्माण में योगदान दिया जा सके।

(3)      वंचित तबके की महिलाओं की समस्याओं को रेखांकित करना।

(4)      जेंडर तथा यौनिकता की सामाजिक संरचना को समझना तथा उसे व्याख्यायित करना।

(5)      व्यापक सामाजिक संरचना को समझते हुए यह देखने का प्रयास करना कि किस प्रकार ये संरचनाएं स्त्री के जीवन को आकार प्रदान करती है तथा स्त्रियां किस प्रकार अपनी भूमिकाओं का निर्वाह करती हैं?

(6)      विभिन्न सामाजिक संरचनाओं जैसे जेंडर,वर्ग,नस्ल, जाति,संस्कृति इत्यादि केअंतर्संबंध को समझना।

(7)      विचारों,सिद्धांतों के उत्पादन तथा प्रतिनिधित्व के संदर्भ में स्त्री की सामाजिक प्रस्थिति तथा सत्ता का विश्लेषण करना।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्त्री अध्ययन वस्तुतः स्त्रीवादी दृष्टिकोण की निरंतरता में एक अभिप्रयास है जो प्रत्येक मानव के विकास एवं समतामूलक समाज में विश्वास करता है। यह समाज के प्रत्येक तबके के अनुभवों को केन्द्र में रखकर ज्ञान के प्रति एक नया दृष्टिकोण विकसित करने के लिए प्रतिबद्ध है जो ज्ञान की रूढ़ सीमाओं को तोड़कर उसे बृहद रूप में प्रस्तुत करता है। स्त्री अध्ययन की कक्षाएं सामाजिक बदलाव की शैक्षणिक राजनीति के तहत संचालित होती हैं। अर्थात सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन इस विषय का केन्द्रीय बिन्दु है। नीरा देसाई के अनुसार ‘‘स्त्री अध्ययन आंदोलन को अकादमिक से एवं अकादमिक को आंदोलन के साथ जोड़ता है।’’ भारतीय स्त्री अध्ययन संगठन के संस्थापक सदस्यों ने भी इसे एक शैक्षणिक रणनीति के रूप में देखा, जिसके द्वारा स्थापित व्यवस्था में परिवर्तन न सिर्फ विचारों के स्तर पर बल्कि जमीन स्तर पर भी संभव है। उनका मानना है कि हम सभी एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जो लैंगिक पूर्वाग्रहों एवं पितृसत्तात्मक मूल्यों से ग्रसित है। इस व्यवस्था में परिवर्तन करने की आवश्यकता है जिसमें स्त्री अध्ययनएक साधन का कार्य करेगा। अन्तरअनुशासनिक विषय होने के कारण यह अन्य विषयों के साथ ज्ञानात्मक संबंध भी स्थापित करता है।

स्त्री अध्ययन आलोचनात्मक हस्तक्षेप के रूप में इतिहास जैसे ज्ञानुशासन का अध्ययन करता है । इतिहास पारंपरिक रूप से सत्ता के आस-पास केंद्रित रहा है, इसमें उन घटनाओं और युद्धों का लेखन किया जाता रहा   है जिन्होंने सत्ता वर्ग तथा दुनिया को प्रभावित किया। इसके कारण व्यापक जनसमूह और लगभग सभी औरतें इतिहास से बाहर रह जाते हैं। क्योंकि शासन सिर्फ कुछ ही लोग कर सकते हैं और बाकी उनके अधीन रहते हैं। इसलिए पारंपरिक इतिहास ने ज्यादातर लोगों को इतिहास लेखन की परंपरा में हाशिये पर रखा है।  वैसे इस सीमित ढांचे में पिछली शताब्दी से कुछ विस्तार हुआ है और इसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया को शामिल किया गया है और इसे उत्पीडितों का इतिहास(Subaltern History) या आम लोगों का इतिहास कहते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से इसने भी महिलाओं को पुरुषों के अधीन मानकर बाहर ही छोड़ दिया क्योंकि सारा ध्यान दबे कुचले आदमी, मजदूरों, आदिवासीयों और दलितों पर केंद्रित हो गया है। महिलाओं को संख्यात्मक रूप से जोडने का नजरिया महिलाओं के मामले में बेहद असंतोषजनक रहा। मशीनी ढंग से उन महिलाओं का जिक्र करना जिन्होंने कभी सत्ता पर प्रभाव रखा हो ( राजिया बेगम, नूरजहां, रानी लक्ष्मी बाई) या आंदोलनों में शरीक हुई,या कृषि का काम किया, या बर्तन बनाने का काम, ऐसे उदाहरण महिलाओं को सांत्वना देने से अधिक कुछ नहीं था । नारीवादी इतिहासकारों का तर्क है कि श्रम के लैंगिक विभाजन एवं इसके साथ निजी- सार्वजनिक के बंटवारे ने इतिहास में  महिलाओं को हाशिए पर बनाए रखा।  इसलिए विशेष तौर पर उत्पादन प्रक्रिया  में महिलाओं के योगदान को रेखांकित किया जाना बेहद जरूरी है ,जो अब तक अनदेखा किया जाता रहा है। जबतक इतिहास लेखन में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होता और ये उत्पादन संबंध इतिहास के साथ ही सामाजिक पुनरुत्पादन घरेलू श्रमशक्ति , मानव और सांस्कृतिक पुनरुत्पादन में महिलाओं  को  शामिल नहीं किया जाता,उनका इतिहास में संतुलित प्रस्तुतिकरण नहीं मिलेगा।

पिछले दो दशकों में ज्ञान के नारीवादी समीक्षकों ने निसंदेह मानविकी और सामाजिक विज्ञान के पारंपरिक क्षेत्र में विचारणीय हस्तक्षेप किया है। हालांकि सामाजिक विज्ञान में मुख्य धारा अर्थशास्त्र में , जिसे न्यूओ क्लासिक अर्थशास्त्र कहा जाता है, ज्ञान के निर्माण पर सामाजिक सांस्कृतिक बनावट के प्रभाव के रूप में जेंडर के साथ तालमेल बिठाने को लेकर सबसे ज्यादा विरोध रहा है। हालांकि इसने रोक नहीं लगाई और स्कॉलरशिप के क्षेत्र में नारीवादी अर्थशास्त्र का सफल उद्भव पाया है। अर्थशास्त्र की बात करना विशेष तौर पर इसलिए जरूरी है कि यह समाज विज्ञान का प्रमुख विषय बना हुआ है। पिछली आधी शताब्दी में इसने जिंदगी के हर पहलू  एवं अध्ययन के हर विषय में हस्तक्षेप  ही नहीं किया बल्कि नीति निर्माण में भी इसकी प्रभावशाली मौजूदगी रही है। जैसे राजनीति के आर्थिक सिद्धांत, शिक्षा का अर्थशास्त्र, मीडिया का राजनैतिक अर्थशास्त्र। इसलिए इस विधा की बुनियादी मान्यताओं की पड़ताल अर्थशास्त्र के जेंडर के अंतर्संबंध को समझनेके लिए आवश्यक है। भारत के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि स्कूल पाठ्यक्रम में लैंगिकता और विकास के विमर्श को शामिल किया जाए कि किस प्रकार लैंगिकता का विमर्श आर्थिक विकास के साथ जुडा हुआ है। पारंपरिक अर्थशास्त्र ने महिलाओं द्वारा किए जाने वाले कार्य को लगभग अदृश्य कर दिया है। पैसा कमाने को ही काम माना जाता था ऐसे में घरेलू उपयोग के लिए वस्तु और सेवा उत्पादन को आर्थिक प्रक्रिया के रूप में  देखा ही नहीं जाता था। उनके द्वारा की जाने वाली गतिविधियों के लिए कोई भुगतान नहीं किया जाता था। परिवार के उपभोग के लिए वस्तुएं एवं सेवाएं उपलब्ध कराना, साथ ही साथ घरेलू उत्पादन और स्वैच्छिक सामुदायिक कार्यों को भी आर्थिक क्रियाएं नहीं माना जाता था। चूँकि महिलाओं का बड़ा प्रतिशत इन्हीं कार्यों में लगा हुआ था इसलिए वो कभी आँकडों में नहीं आ पाती थीं और अर्थशास्त्र के नक्शे से गायब ही रहती थी। आर्थिक शब्द को परिभाषित करने में बाजार को एक मात्र कसौटी मानने के कारण महिलाओं के कार्यों को नजरअंदाज किया गया।

जब महिलाओं को आर्थिक रूप से सक्रिय माना जाने लगा तब भी वो मुख्यतः मजदूरी ही कर रही थीं जिसे स्त्रियोचित कार्य कहा जाता था और इसमें पैसा कम मिलता था। यहाँ ज्यादा विचारणीय प्रयास की जरूरत थी ताकि सैद्धांतिक और कार्यान्वयन के स्तर पर महिलाओं के कार्यको सम्मानजनक स्थान प्राप्त हो सके। 1991 की जनगणना में आँकड़ों के इस पर्दे को हटा दिया और महिलाओं के कार्य को भी मान्यता दिलाई । हालांकि देखभाल से जुड़े कार्यों को लेकर अभी बहस जारी है। देखभाल की समस्त क्रियाओं को अभी भी आर्थिक कार्य नहीं माना जाता है। घरों के अकादमिक विश्लेषण के लिए आधारभूत सामाजिक और अर्थशास्त्रीय इकाई के रूप में देखा जाता है और खास तौर पर अर्थशास्त्रियों द्वारा आंतरिक रूप से एक जैसे समरूप ढाँचे के रूप में देखा जाता है। व्यक्तियों और घरों को एक दूसरे के पर्याय रूप में लिया जाता है जैसे कि वे एक ही और एक समान इकाई हो। एक तरफ तो घरों को व्यक्ति के रूप में लिया जाता है हालांकि इनकी अपनी रुचियाँ और कारण होते हैं दूसरी तरफ व्यक्तियों के व्यवहार को घरों के जरूरत से निर्धारित किया जाता है। नारीवादी विद्वानों का तर्क है कि यह नजरिया अपनी व्याख्या करने की शक्तियों में सीमित है क्योंकि ये घरेलू आवश्यकताओं की भिन्नता को पहचानने में अक्षम है। घरेलू नैतिक अर्थशास्त्र  एक ऐसी आदर्श परिकथा बुनता है जहाँ सार्वजनिक क्षेत्र में निजी लाभ, प्रतियोगिता और संघर्ष के मूल्य दरवाजे पर ही छोड़ दिए जाते हैं और घरों के अंदर उनकी जगह परोपकार, स्वयंसेवा और पारस्परिकता ले लेती है।

भारत में समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तक मूलतः दो भागों में बाँटी जाती है- सैद्धांतिक और व्यावहारिक। सैद्धांतिक भाग में विषय के जन्मदाताओं के बारे में विवरण होता है जैसे कि दुर्खेम, मार्क्स और वेबर, इसमें महिला समाजशास्त्रियों के नाम जोडना कोई हल नहीं है, हालांकि ये अपने आप में महत्वपूर्ण हैं। जरूरत इस बात की है कि विचारों का जेंडर के दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाए। व्यावहारिक समाजशास्त्र में जाति, वर्ग, आदिवासी, परिवार, संस्कृति जैसी संरचनाओं और आधुनिकीकरण, पश्चिमीकरण, संस्कृतिकरण, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और भूमंडलीकरण जैसे प्रक्रियाओं पर ध्यान केंद्रित किया जाता है लेकिन न तो ढांचे को और न ही प्रक्रिया को जेंडर से जोड़कर देखा जाता है। जबकि ढांचे का स्त्री और पुरुष पर अलग-अलग असर पड़ता है, इस बात को भी नजरअंदाज कर दिया जाता है। उदाहरण स्वरूप एनसीईआरटी की एक पाठ्यपुस्तक में जनसंख्या और जनगणना को तो लिया गया है लेकिन महिला जेंडरानुपात को छोड़ दिया गया है। जेंडरानुपात को महिलाओं पर एक अन्य उपभाग में लिया गया है जो वंचित समूहों के अध्याय में है। जेंडर मुद्दे को इस तरह लिए जाने की वजह इसके महत्व से अनजान होना नहीं है, बल्कि अध्याय जोड़कर या महिलाओं के चित्र बढ़ाकर या महिला समस्या के मुद्दे गिनाकर कर्तव्य की इतिश्री जान ली जाती है।

सामाजिक विज्ञान में दृष्टिगोचरता(Visibility) का काफी महत्व है क्योंकि यहाँ महिलाएं तकरीबन गायब ही रही हैं। लेकिन भारतीय समाजशास्त्र का सच ये है कि समकालीन भारतीय समाज में महिलाओं से बहुत सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जा रहा है। फिर भी, आदर्श भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति और उनकी नियामक भूमिका का भ्रम पैदा किया जाता रहा है। लेकिन फिर भी भारतीय नारीत्व के मूल्य सभी आनुभविक शोधों पर सवार है जो समाजशात्रियों ने क्षेत्र, जाति, जनजाति विभेदों के बारे में पारिवारिक ढांचे के भीतर खुद किए हैं। हिंदू समाज उमें महिला के उच्च दर्जे की प्रशंसा की जाती है उसे परिवार, वंश-परंपरा और जाति के सम्मान और शुचिता का प्रतीक बताया जाता है। ये निहायत समस्याजनक बात है कि महिला को एक व्यक्ति के रूप में पहचान अपने पति में समाहित होने के बाद ही मिलती है। इसके बाद ही उसे समाज में स्थान मिलता है उसे सुमंगली, सौभाग्यवती माना जाता है। दोनों ही नाम उन महिलाओं के लिए इस्तेमाल होते हैं जिनके पति जिंदा हैं। सम्मान की इस विचारधारा की जेंडर आधारित समझ बढ़कर पाठ्यपुस्तकों तक पहुँच जाती है और जेंडर जाति और श्रम के बीच संबंध स्थापित करती है। इस तरह सम्मान को धक्का पहुंचाने या दहेज हत्या जैसी बातों को सामाजिक समस्या बताने के बजाए इसकी समाजशास्त्रीय व्याख्या की जा सकती है।

समाजशास्त्र विषय में स्त्री उपस्थिति के सवाल और ज्ञानात्मक ढांचे की पड़ताल के  बीच संबंध पर बमुश्किल ही ध्यान दिया गया है। इस विषय का मुख्य क्षेत्र पारंपरिक रूप से शादी, परिवार, रिश्तेदारी और उन परंपराओं एवं कार्यक्रमों तक सीमित माना गया है।  समाजशास्त्र को हमेशा नाजुक विषय माना गया है इसलिए यह महिला छात्राओं के लिए उपयुक्त विषय रहा है। परिवार और रिश्तों का अध्ययन करते हुए परिवार और रिश्तों के ढांचे व प्रक्रिया को अहम (पुरुष के) कन्यादान जैसे रिवाज जेंडर भेद के प्रति आँख मूंद कर मान लिए जाते हैं। पारिवारिक जीवन के अनुभव जनित पहलुओं (जिनसे छात्र अवगत ही होंगे) की पूरी तरह उपेक्षा की गई उदाहरण के लिए पतिृसत्तात्मक समाज में शादियों के मौके पर गाए जाने वाले गीत पितृसत्तात्मक समाज की जेंडर भेदभाव की प्रकृति को दर्शाने का बहुत कारगर शैक्षिक उपकरण हो सकते हैं। इसके साथ ही मातृसत्तात्मक समाज की जेंडर वाली कहावते भी इसमें शामिल की जा सकती हैं।चूँकि उत्तर भारतीय, ऊँची जाति, पितृसत्तात्मक संयुक्त परिवार को भारतीय अवधारणा के रूप में पेश किया जाता है। इसलिए जरूरत है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों और जातियों, वर्गों के पारिवारिक और रिश्तेदारी के ढांचे को भी पढ़ाया जाए।  निजी और सार्वजनिक क्षेत्र अंतर्संबंधित हैं, सामान्य समाजशास्त्र की पुस्तकों से यह तथ्य पूरी तरह गायब है। महिलाओं को दर्शाने का सामान्य ढंग या रूढिवादी जेंडर भूमिकाओं पर सवाल उठाने का एक तरीका यह है कि सफल महिलाओं की कहानियाँ सामने लायी जाएं या लड़कों को घरेलू कार्य जैसे काम करते दिखाया जाए।

हालांकि समाजशास्त्र के ज्ञानात्मक ढांचे को चुनौती देना ज्यादा मुश्किल है। परिवार और रिश्तेदारी का समाजशास्त्र किसी भी समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तक में अनिवार्य अध्याय है। उन्नीसवीं शताब्दी के समाज सुधार आंदोलनों का मुख्य काम विधवाओं की स्थिति सुधारना रहा। कोई भी आधुनिक इतिहास की पुस्तक इसका जिक्र किए बिना नहीं रहता। इसके बावजूद विधवाएं धर्म, जाति, परिवार, संस्कृति, के अध्यायों से गायब है। इस मामले में उनकी उपस्थिति भी ज्ञानात्मक अशांति पैदा करेगी। दरअसल असली चुनौती मुख्यधारा के पाठयक्रम में नारीवादी संदर्भ को सुनिश्चित करना है। समाजशास्त्र की मुख्यधारा में भी जेंडर के आधार पर कोई व्यवस्था नहीं है। वास्तविक समाजशास्त्र के ढांचे में निम्न पर जोर होता है जैसे कि जाति, धर्म वर्ग, आदिवासी, परिवार, संस्कृति या फिर प्रक्रिया जैसे आधुनिकीकरण, पश्चिमीकरण, संस्कृतिकरण, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और भूमंडलीकरण। इसमें महिलाओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वास्तव में समाजशास्त्र को सबसे आसान विकल्प के रूप में छात्राएं पढ़ती है, जाहिर है ये इन्हें प्रभावित भी करता होगा।

 

स्त्री उपस्थिति के सवाल पर हलचल पैदा करने की बजाय महत्वपूर्ण ये सवाल उठाना है कि महिलाओं को क्यों पिछड़े वर्गों या सामाजिक समस्या के अध्यायों में रखा जाता है। ये बताता है कि इस बड़ी समस्या से निपटने के लिए जेंडर को समझने के लिए एक और अध्याय होना चाहिए। बाल विवाह, विधवाविवाह, सती, बलात्कार, दहेज और पत्नी को पीटना जैसे मुद्दे भटकाव माने जाते हैं इसपर कोई बात नहीं की जाती और न ही ये सामाजिक अध्ययन की प्रक्रिया में होते है। एक जेंडर समानता वाले समाजशास्त्र में इन बातों को सामाजिक व्यस्था के केंद्र में रखना चाहिए। जेंडर समानता वाले समाजशास्त्र के लिए यह जरूरी है कि वह माइक्रो और मेक्रो, सार्वजनिक और निजी की दूरी को खत्म करे। जेंडर को समाज को संगठित करने के मुख्य आधार के रूप में देखा जाना चाहिए और कोई भी विषय चाहे वह जाति, औद्योगिकीकरण, धर्म, भूमंडलीकरण, जनजाति या मीडिया हो उनसे जुड़ी कोई भी बहस जेंडर पर बात किए बिना नहीं हो सकती। राजनीति विज्ञान की मुख्य धारा दरअसल बहुत छोटे अर्थों में फंसकर रह गई है। ये सिर्फ दलगत राजनीति, दलों के ढांचे, चुनाव और विभिन्न दलों के बीच चुनावी गठबंधन, संस्थाओं के बदलाव में उलझ गया है। हालांकि सामाजिक आंदोलन भी पढ़ाए जाते हैं जैसे कि महिला और दलित आंदोलन लेकिन ये भी संगठनों और दलगत राजनीति के दृष्टिकोण से जैसे कि बहुजन समाज पार्टी की राजनीति और 72वें व 73वें संशोधन के माध्यम से महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात करता है।

ढांचे के स्तर पर जेंडर और नारीवादी विमर्श अदृश्य है। जेंडर और राजनीति पर मौजूदा शोध अन्य विषयों यथा समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और इतिहास की नारीवादी विद्वानों ने किया है। विषय की उपधारा-राजनीतिक सिद्धांत जिसमें उम्मीद की जा सकती है कि मौजूदा उच्च नारीवादी लेखन मुख्यधारा को चुनौती पेश कर सकता है, लेकिन यह निराश ही करता है। समकालीन राजनीति या पश्चिमी और भारतीय राजनीतिक विचार को बिना नारीवादी दृष्टिकोण को ध्यान में रखे पढ़ाया जाता है। उदाहरण के लिए मार्क्सवादी विचार को समाजवादी नारीवाद के संदर्भ, राल्स को सुसन मिलर ओकिन की आलोचना को ध्यान में रखे बिना ही पढ़ाया जाता है। कुछ अध्यापक निजी प्रयासों से पाठ्यक्रम में नई जानकारियाँ जोड़ते हैं तो यह अपवाद ही है।

महिलाएं और राजनीति पर एक वैकल्पिक कोर्स शुरू भी किया गया था लेकिन इसमें बहुत कम लोगों ने रूचि ली। परेशान करने वाली बात ये भी है कि ऐसे पाठयक्रमों  में नारीवादी अध्ययनों को संदर्भ रूप में भी शामिल नहीं किया जाता। भारत में महिलाओं की स्थिति को जेंडर और सशक्तिकरण पर सरकारी नीतियों के साथ पेश कर दिया जाता है। राजनीति विज्ञान में भी शक्ति पर ध्यान केंद्रित किया गया है। हालांकि महिला सशक्तिकरण और महिला आरक्षण जैसे मुद्दे भी सम्मिलित किए गए है। खासतौर पर 72वें और 73वें संशोधन के बाद। लेकिन फिर भी राजनीति विज्ञान का मुख्य विषय और सिद्धांत, पुरुषत्व की राजनीति और शायद नारीवादी आलोचना के साथ कुछ टिप्पणियां भी है। सबसे पहले तो राजनीति का महिलाओं पर वैसा प्रभाव नहीं है जैसा पुरुषों पर। इसका मतलब है कि इन अलग-अलग प्रभाव के बारे में पड़ताल होनी चाहिए। राजनीति प्रक्रिया फिर भी जेंडर सम्बंधों में हेरफेर करती है। महिलाओं को भी राजनीतिक विषयें में रूचि बढ़ानी चाहिए, ऐसी गतिविधियों में शामिल होना चाहिए। इन सवालों को देखते हुए राजनीति शास्त्र में आवश्यक परिवर्तन किए जाने चाहिए।

हालांकि हाल के वर्षों में बहुत से देशों में शिक्षा के क्षेत्र में जेंडर समानता के लिए नीतियां तैयार की है। शिक्षा तक अधिकतम लोगों की पहुँच और स्कूलों में समान पाठ्यचर्या के बढ़ावा दिया गया है। अगर हम विश्वव्यापी आँकड़े देंखें तो विज्ञान एवं तकनीकी की शिक्षा में अन्य विषयों की तुलना में महिलाओं का प्रवेश पुरुषों से बहुत कम हुआ है। दरअसल स्कूली अनुभव इस बात पर विशेष प्रभाव डालता है कि विद्यार्थी उच्च शिक्षा जारी रखे या नहीं। ऐतिहासिक रूप से विज्ञान एवं तकनीकी में महिलाओं की पहुंच बहुत सीमित रही है । साथ ही विज्ञान एवं तकनीकी में महिलाओं का योगदान इतिहास से अदृश्य है क्योंकि इनके दस्तावेज बमुश्किल ही मिलते हैं। ऐतिहासिक रूप से पुरुषों व महिलाओं और उनके विभिन्न क्षेत्रों में उनकी जेंडर भूमिका को व्याख्यायित किया गया है। आधुनिक विज्ञान अपनी वस्तुनिष्ठता के साथ जेंडर भेदभाव को मजबूती प्रदान करता रहा है । यह विज्ञान यह स्थापित करता है कि महिलाएं अपूर्ण पुरुष हैं इसलिये वे पुरुषों से कमतर हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों की आधार प्रकृति को महिला के रूप में देख गया है। ज्यदातर भाषाओं में अमूर्त संज्ञा को स्त्रीलिंग के रूप में ही संबोधित किया जाता है जैसे कि ज्ञान और विज्ञान, भौतिकी और रसायन के लिए नोबल पुरस्कार दिए जाते वक्त भी प्रकृति और विज्ञान को महिला के रूप में देखा जाता है। हालांकि वैज्ञानिकों को पुल्लिंग के तौर देखा जाता है इसलिए विज्ञान की आम छवि पुरुष की तरह बनकर रह गई है।

वैज्ञानिक उद्यम के सामाजिक ढांचे के उद्भव  ने इस छवि को और मजबूत किया है। वैज्ञानिक क्षेत्र में प्रयोग की जाने वाली भाषा भी पुरुषवादी छवि को मजबूत करती है। ये तरीके सामाजिक तानेबाने को और मजबूत करते हैं शायद पुराने समय से थोड़ा कम आक्रमक तरीके से लैंगिक भाषा आज के विज्ञान में भी लगातार प्रयोग हो रही है। वस्तुनिष्ट विज्ञान (गणित और भौतिकी) को कठोर विज्ञान की संज्ञा दी गई है और पुरुषवादी छवि रखी गई है। जबकि ज्ञान के वस्तुगत शाखाओं (सामाजिक ज्ञान व मनोविज्ञान) को सरल विज्ञान की संज्ञा दी गई है। ये ज्यादातर महिलाओं के साथ संबंधित किए जाते रहे हैं । हालांकि आगे चल कर अन्य विषयों के मुकाबले गणित और भैतिक विज्ञान का महिलाओं ने अपनाया है। ज्ञान औा प्रौद्योगिकी में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि उनकी और पुरुषों की मानसिक क्षमता में जैविक फर्क होता है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रेजीडेंट लारेंस एव सर्मर्स का हालिया बयान गौर करने लायक है जिसमें उन्होंने कहा है कि विज्ञान और गणित में महिलाओं के सफल न हो पाने की वजह स्वाभाविक लैंगिक अंतर है।इनका बयान बताता है कि वही पुरातन विचार शैक्षिक ढांचे के शीर्ष स्तर पर अभी भी मौजूद है। पाठ्य पुस्तकों में जेंड़र के पूर्वाग्रह के मुख्य क्षेत्र (1) पाठ्यपुस्तकों से लड़कियों और महिलाओं अदृश्यता या बाह्यकरण, (2) रूढ़िवादी लैंगिक भूमिका, (3) पाठ्यसामग्री या तस्वीरों में लड़कियों-महिलाओं का लड़कों और पुरुषों से अधीनस्थता (4) इतिहास में महिला आँकड़ों की अनुपस्थिति (एएयूडबल्यू 1992)। पाठ्यसामग्री में ये पूर्वाग्रह से ग्रसित आँकड़े सिर्फ महिलाओं ही नहीं अल्पसंख्यक समूह के लिए दिखाई देते हैं। विभिन्न पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा इस बात को दर्शाती हैं कि भारतीय पाठ्य पुस्तकों में अभी भी ये पूर्वाग्रह बने हुए है।पुरुष प्रभुत्व की परिकल्पना विद्यार्थियों के दिमाग में भी बस जाती हैं।

हर समय के सामाजिक सांस्कृतिक स्तर ने केवल वैज्ञानिकता की ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक अध्ययन के सामान्य संगठनों को भी प्रभावित किया है। नारीवादी सिद्धांत इसी सोच और परीक्षण को विस्तार से लेकर तैयार किए गए कि कैसे वे जेंडर के आदर्श ज्ञान का सामाजिक उत्पादन करते है (केलर, 1985)। तकनीक के संदर्भ में भी जो काम महिलाएं करती हैं उसे गैर-तकनीकी मान लिया गया। इस धारणा का एक कारण तकनीक को परिभाषित करने का हमारा तरीका है। महिलाओं के काम को घरेलू मान लिया गया और तकनीक से बाहर माना गया है। कई सामाजिक-सांस्कृतिक वजहें रही जिससे महिलाओं की तकनीकी क्षेत्र में आने से रोका गया। तकनीक के क्षेत्र में जेंडर का ये समावेश तबसे दिखता है जब तकनीक को सामाजिक रिश्तों और प्रभाव के उत्पाद के तौर पर देखा जाता था सभी संभावित तकनीकों में उनके विकास पर अलग-अलग हो सकते हैं और उनके विभिन्न समूहों पर प्रभाव भी अलग-अलग हो सकते है। इन चुनावों की सामाजिक व्यवस्था ने आकार प्रदान किया और ये समाज की सत्ता संरचना का प्रतिविंब होते हैं।

स्कूल के ज्ञान में गणित को अहम स्थान दिया गया है, लेकिन इसकी पढ़ाई को नियमों और याद रखने वाले तरीकों, योग्यता के कठिन अभ्यास और तरीकों के कार्यान्वयन से मुश्किल बना दिया गया है। इन सभी बातों ने गणित के ज्ञान को समाज में सत्ता व विशेष अधिकार से जोड़ दिया है। गणित की कल्पना ऐसी धारा की तरह की गई है जो सम्पूर्ण आनुपातिक और तार्किक उदाहरणों से समझाती है इसलिए आधुनिक राष्ट्रीय स्तर पर स्कूली पाठ्यक्रम में इसे प्रतिष्ठित स्थान दिया गया है। तर्क और तार्किकता को जेंडर के समावेश के बिना नहीं समझा जा सकता है। ज्ञानोदय की शुरूआत के साथ ही, अगर इससे पहले नहीं तो, प्रकृति पर नियंत्रण के लिए तर्क के पीछे की वजह बहुत उलझाती थी। चीजों को तार्किक तौर पर लेने की शुरूआत एक तरीके से समझ का पुनर्जन्म था, बिना किसी महिला के हस्तक्षेप के तार्किक तौर पर चीजों को लेना पुरुषवादी माना गया और महिलाओं को इससे बाहर कर दिया गया है। उनकी क्षमताएं न सिर्फ निम्न स्तर की हुई बल्कि वो आज्ञाकारी की भूमिका में भी आ गई।

गणित को ऐतिहासिक उदभव ऐसी धारा के तौर पर हुआ जिसमें इसे पुरुष प्रभुत्व क्षेत्र की तरह परिभाषित किया गया। गणित के ज्ञान के लिए आवश्यक तार्किकता के अभाव में महिलाएं और वों लोग जिन्हें क्षमता हीन बना दिया गया था उन्हें इस क्षेत्र से बाहर कर दिया गया। महिलाओं के स्वभावगत विशेषता में तर्कसंगति को निम्नस्तर का मान लिया गया, उन्नीसवीं शताब्दी तक ऐसी ही मान्यताएं रही और जो अब भी इसी तरह कायम हैं। गणित को तटस्थ और सार्वभौमसत्य की भांति देखा गया परन्तु वास्तव में इसे गणित को पुरुष प्रभुत्व वाला माना गया, और इसे विकसित करने में गणित पाठ्यक्रमों में महिलाओं और महिला गणितज्ञों को संदर्भ से बिलकुल बाहर कर दिया गया। पाठ्यक्रम का प्रारूप बनाने में सामाजिक सरोकार और महिलाओं के संदर्भ-समस्याएं, भी अनुपस्थित रहे जिसने बच्चों में से जेंडर आदर्शों के सवाल को खत्म कर दिया। गणित की पुस्तकों के अध्ययन में पाया गया कि कोई एक सवाल भी महिलाओं के उदाहरण के साथ नहीं है। कक्षा में किए गए शोध में भी साफ दिखा कि लड़कियों के साथ गणित की विशेषज्ञता में क्षमता हीन की तरह व्यवहार किया जाता है जबकि उनका प्रदर्शन मौखिक और लिखित दोनों ही स्तरों पर बेहतर होता था। यह ध्यान रखने की बात है कि गणितीय विशेषज्ञता उन सामाजिक परिस्थितियों और गतिविधियों पर निर्भर करती है जिनमें सीखने की क्षमता विकसित होती है। पिछले दो दशकों से राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नारीवादी समीक्षक उन सभी परिभाषाओं, अवधारणाओं को चुनौती दे रहे है जो अब तक मान्य थे। वे उन सभी मुद्दों पर बात कर रहे हैं जिनका सांस्कृतिक बहिष्कार किया गया है। जेंडर, जाति, धर्म, वर्ग के आधार पर जिन्हें समाज में जगह नहीं दी गई है। वो अब नए सिद्धांत स्थापित कर रहे हैं। श्रम में जेंडर विभाजन की पड़ताल, निजी और सार्वजनिक के बीच बंटवारे, महिलाओं के अनुभवों का फिर से मूल्यांकन कर रहे हैं। पाठ्यक्रम और जेंडर के बीच स्थापित संबंध के आधार पर विषय को फिर से लिखे जाने की जरूरत है ताकि नई पीढ़ी पुरानी अवधारणाओं को ही न दोहराती रहे। नारीवादी विद्वानों के शोध का समावेश भी सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर नए सिरे से परंपरागत विषयों में किया जाना चाहिए।

लोकतंत्र को सफल बनाने का एकमात्र रास्ता है कि महिलाओं तथा पुरुषों को शिक्षा हासिल करने के लिए बराबरी का हक़ दिया जाए। इसी उद्देश्य से विश्व भर में नारीवादियों आंदोलनों ने नारीवादी सिद्धांतों को पाठयक्रम के रूप में शामिल किए जाने की पैरवी की। आज स्त्री अध्ययन पूरे शैक्षणिक व्यवस्था के सामने सवाल खड़ा करता हुआ एक अंतरानुशासनिक विषय के रूप में स्थापित हो चुका है। परंतु जमीनी स्तर पर भारतीय संदर्भ में  स्त्री पोरुष संबंधों में समानता स्थापित करने की दिशा में बहुत लम्बी यात्रा तय करनी है। अर्थात महिलाओं को सबल बनाने के लिए ,निर्णय लेने के स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व आवश्यक है एवं महत्वपूर्ण स्थान रखता है। शिक्षा से वंचित तबके में आज भी में पूरे विश्व में सबसे बडा हिस्सा महिलाओं का है। पूरे विश्व में पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं में शिक्षा का स्तर आधे से भी कम है। भारत में स्वतंत्रता के समय यह स्थिति अत्यंत विकट थी। जहाँ पुरुषों की दर 12 प्रतिशत थी वहीं महिलाओं की साक्षरता केवल 8.9 प्रतिशत थी। 63 वर्षो के प्रयास से इसमें काफी सुधार हुआ किंतु फिर भी महिलाओं एवं पुरूषों के साक्षरता में अभी भी बहुत अधिक अंतर है। 2011 की जणगणना के अनुसार जहाँ पुरूषों साक्षरता 82 प्रतिशत है वही महिलाओं की साक्षरता 63.5 प्रतिशत है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, झारखंड आदि राज्यों में यह 55 प्रतिशत से भी कम है। महिला साक्षरता के हिसाब से बिहार सबसे पिछडा है। जहाँ केवल 51 प्रतिशत सक्षरता है। इस परिस्थिति से यह स्पष्ट होता है कि स्वतंत्रता के 70 वर्षो बाद भी महिला शिक्षा के लिए विशेष  प्रयास करना आवश्यक है। भारत में महिला साक्षरता नए ज़माने की अहम जरुरत है। महिलाओं के शिक्षित हुए बिना हम देश के उज्जवल भविष्य की कल्पना भी नहीं कर सकते। परिवार, समाज और देश की उन्नति में महिलाओं की भूमिका  बहुत महत्वपूर्ण है।

शिक्षित महिलाएं ही देश, समाज और परिवार में खुशहाली ला सकती है। यह कथन बिलकुल सत्य है कि एक आदमी सिर्फ एक व्यक्ति को ही शिक्षित कर सकता पर एक महिला पूरे समाज को शिक्षित कर सकती है जिससे पूरे देश को शिक्षित किया जा सकता है।हालांकि महिला शिक्षा हेतु भारत सरकार की विभिन्न योजनाएं जैसे इंदिरा महिला योजना,सर्व शिक्षा अभियान, बालिका समृधि योजना, राष्ट्रीय महिला कोष, महिला समृधि योजना, रोज़गार तथा आमदनी हेतु प्रशिक्षण केंद्र, महिलाओं तथा लड़कियों की प्रगति के लिए विभिन्न कार्यक्रम आदि भी चालाई जा रही हैं। हालांकि , राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। शिक्षण संस्थानों तक लड़कियों की पहुँच लगातार बढ़ रही है।  एक दशक पहले हुए सर्वेक्षण में शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी 55.1 प्रतिशत थी जो अब बढ़ कर 68.4 तक पहुंच गयी है। यानी इस क्षेत्र में 13 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर्ज की गयी है। शिक्षा और जागरूकता का असर घरेलू हिंसा पर भी पड़ा है।  अब इस तरह के मामले पहले से कम हुए हैं। रिपोर्ट के अनुसार वैवाहिक जीवन में हिंसा झेल रही महिलाओं का प्रतिशत 37.2 से घटकर 28.8 प्रतिशत रह गया है। सर्वे में यह भी पता चला कि गर्भावस्था के दौरान केवल 3.3 प्रतिशत को ही हिंसा का सामना करना पड़ा।

भारत में महिलाओं का स्वास्थ्य भी सुरक्षित नहीं है। बगैर स्वास्थ्य सुरक्षा के महिला अधिकारिता की बात बेमानी है। वर्ल्ड बैंक की एक ताजा रिपोर्ट के यदि दक्षिण-पूर्ण एशिया में महिलाओं का स्वास्थ्य कार्ड देखें तो भारतीय महिलाओं की स्थिति श्रीलंका, नेपाल तथा पाकिस्तान की महिलाओं से ज्यादा खराब है। भारत की स्थिति बांग्लादेश से जरा ही बेहतर है। वर्ल्ड बैंक की एक्सपर्ट मीरा चटर्जी की रिपोर्ट स्पायरिंग लाइव्समें भारत, बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान तथा श्रीलंका में महिलाओं की स्वास्थ्य की स्थिति का लेखा-जोखा पेश किया गया है। इसके अनुसार भारत में आज भी प्रति एक लाख प्रसवों के दौरान 301 महिलाओं की मृत्यु हो जाती है। जबकि नेपाल में यह दर 281, पाकिस्तान में 276 तथा श्रीलंका में सिर्फ 58 है। अलबत्ता बांग्लादेश में यह दर थोड़ी ज्यादा 320 है। यानी हम बांग्लादेश से ही बेहतर हैं। इससे साबित होता है कि भारत के छोटे-छोटे पड़ोसी देशों ने अपने हैल्थ केयर सिस्टम में काफी सुधार कर लिया है जिसका फायदा महिलाओं को मिल रहा है। लेकिन भारत में यह स्थिति अभी तक गंभीर बनी हुई है। चटर्जी के अनुसार श्रीलंका ने अपने स्वास्थ्य ढांचे को महिलाओं के अनुकूल बनाया है।

इससे साबित होता है कि भारत के छोटे-छोटे पड़ोसी देशों ने अपने हैल्थ केयर सिस्टम में काफी सुधार कर लिया है जिसका फायदा महिलाओं को मिल रहा है। लेकिन भारत में यह स्थिति अभी तक गंभीर बनी हुई है। चटर्जी के अनुसार श्रीलंका ने अपने स्वास्थ्य ढांचे को महिलाओं के अनुकूल बनाया है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15-1साल की उम्र की 51.4 फीसदी महिलाएं खून की कमी से ग्रस्त हैं तथा इसी आयु वर्ग में 41.फीसदी पोषण के अभाव में कम वजन की समस्या से जूझ रही हैं। 20-2आयु वर्ग में करीब 45.6 फीसदी महिलाएं रक्त अल्पतता से ग्रस्त हैं तथा 30.6 फीसदी अंडरवेट हैं। इतना ही नहीं प्रजनन स्वास्थ्य में कमजोर होने की एक मुख्य वजह 50 फीसदी महिलाओं का विवाह 20 साल से कम उम्र में होना है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत को महिलाओं के स्वास्थ्य पर फोकस करने के लिए अपने स्वास्थ्य सुरक्षा तंत्र को मजबूत बनाए। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्मिकों की तैनाती कर। सभी प्रजनन सेवाएं एक स्थान पर दी जानी चाहिए।

रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15-1साल की उम्र की 51.4 फीसदी महिलाएं खून की कमी से ग्रस्त हैं तथा इसी आयु वर्ग में 41.फिसदी पोषण के अभाव में कम वजन की समस्या से जूझ रही हैं। 20-2आयु वर्ग में करीब 45.6 फीसदी महिलाएं रक्त अल्पतता से ग्रस्त हैं तथा 30.6 फीसदी अंडरवेट हैं। इतना ही नहीं प्रजनन स्वास्थ्य में कमजोर होने की एक मुख्य वजह 50 फीसदी महिलाओं का विवाह 20 साल से कम उम्र में होना है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत को महिलाओं के स्वास्थ्य पर फोकस करने के लिए अपने स्वास्थ्य सुरक्षा तंत्र को मजबूत बनाए। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्मिकों की तैनाती करें। सभी प्रजनन सेवाएं एक स्थान पर दी जानी चाहिए। इस वर्ष विगत 75 दिनों के लॉकडाउन पीरियड के दौरान स्त्रियों को दी जाने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं की जो झलक हमने देखी ,वह सरकार द्वारा जननी सुरक्षा योजना तथा अन्य स्त्री विषयक स्वास्थ्य योजनाओं पर प्रश्न खडे करती है। जिसपर हमें गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है कि स्त्री स्वास्थ्य के विभिन्न पहलूओं यथा प्रसव, गर्भपात, मासिक धर्म, बुजुर्ग स्त्रियों की स्वास्थ्य्गत स्थिति से आपदा की स्थिति में  निबटने के लिए सरकार के पास क्या त्वरित नीति है। महिला सशक्तिकरण की दिशा में देश में प्रगति हुई है लेकिन बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ और प्रयासों की ज़रूरत है। लिंगानुपात के मोर्चे पर देश ज्यादा प्रगति नहीं कर पाया है. पिछले पांच वर्षों में जन्म के समय लिंगानुपात मामूली रूप से सुधरकर प्रति एक हजार लड़कों पर 914 लड़कियों से बढ़कर 919 हो गया है। शहरी भारत में यह आंकड़ा 899 ही है. हरियाणा में लिंगानुपात 836 है जबकि पड़ोसी पंजाब का 860 है। मध्यप्रदेश में लिंगानुपात 960 से गिरकर 927 तक पहुंच गया है. दादरा नगर हवेली में लिंग अनुपात सबसे अधिक 1013 है।

हालांकि पिछले कुछ दशकों में, विशेषकर बीते कुछ वर्षों में भारतीय महिलाओं ने सभी क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की है, लेकिन इसके बावजूद अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। महिलाएँ अपने समय का काफ़ी हिस्सा ऐसे कामों में खर्च करती हैं जिन्हें काम समझा ही नहीं जाता है तथा उसे उनके कर्त्तव्यों का विस्तार मान लिया जाता है। ऐसे कामों का बड़ा हिस्सा अवैतनिक होता है, जैसे कि घरेलू काम। साधारणतः महिलाओं के जीवन का एक बड़ा हिस्सा घरेलू कामों में ही खप जाता है और इसका कोई आकलन GDP में या अन्य डेटा को बनाने में नहीं किया जाता है। महिलाओं द्वारा किये जाने वाले कठिन परिश्रम के बावजूद अवैतनिक श्रम में बढ़ोतरी हो रही है तथा महिलाओं पर काम का बोझ तेज़ी से बढ़ रहा है। ऐसा इसलिये हो रहा है क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र में उनके लिये पर्याप्त रोज़गार उपलब्ध करा पाना कठिन है। घरों में बिना वेतन वाले जो कार्य हैं उनमें बच्चों, बुजुर्गों की देखभाल करना, खाना बनाना, पानी भरकर लाना, पशुओं की देखभाल करना आदि शामिल हैं। इसके अलावा कृषि कार्यों में सहायता एवं वन उत्पादों को एकत्रित करना भी महिलाओं के अवैतनिक कार्यों की श्रेणी में आता है, जिनका उपयोग घरेलू उपभोग के लिये होता है।

सुरक्षित कार्य वातावरण देने हेतु महिलाओं के लिये मुफ्त सुलभ शौचालय, घरेलू उपयोग के लिये पानी की सुविधा, सार्वजनिक परिवहन के साधनों को सुरक्षित बनाना, पर्याप्त बिजली एवं CCTV कैमरों की व्यवस्था करना आदि जैसी सार्वजनिक सुविधाओं की व्यवस्था करना भी ज़रूरी है। ऐसे माहौल में महिलाओं के साथ अभद्रता और हिंसा को रोका जा सकेगा और वे भयमुक्त होकर स्वतंत्रतापूर्वक कहीं भी आ-जा सकेंगी। इनके अलावा महिलाओं को सुरक्षित और गरिमामयी जीवन यापन के लिये मातृत्व लाभ, चिकित्सा लाभ, भविष्य निधि और पेंशन आदि सहित अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में शामिल किया जाना चाहिये। महिलाओं के अवैतनिक कार्यों को पहचान कर उनके लिये पारिश्रमिक तय करना सरकार की वरीयताओं में शामिल होना चाहिये। इसके लिये सरकार को घरेलू स्तर पर इन कामों में लगी महिलाओं के आँकड़े जुटाने होंगे। जब तक हमारे नीति निर्माता इन संरचनात्मक मुद्दों का आकलन का सही तरह से नहीं करेंगे तथा महिलाओं को कार्यबल में प्रवेश करने को लेकर बाधाएँ बनी रहेंगी, तब तक भारत में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन लाना संभव नहीं होगा।

महिलाओं का काम अब केवल घर चलाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि वे हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। परिवार हो या व्यवसाय, महिलाओं ने साबित कर दिखाया है कि वे हर वह काम करके दिखा सकती हैं जिसमें अभी तब सिर्फ पुरुषों का ही वर्चस्व माना जाता था। शिक्षित होने के साथ ही महिलाओं की समझ में वृद्धि हुई है। अब उनमें खुद को आत्मनिर्भर बनाने की सोच पनपने लगी है। शिक्षा मिलने से महिलाओं ने अपने पर विश्वास करना सीखा है और घर के बाहर की दुनिया को जीतने का सपना सच करने की दिशा में कदम बढ़ाने लगी हैं। सरकार ने महिलाओं के लिए नियम-कायदे और कानून तो बहुत सारे बना रखे हैं किन्तु उन पर हिंसा और अत्याचार के आंकड़ों में अभी तक कोई कमी नहीं आई है।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15 से 49 वर्ष की उम्र वाली 70 फीसदी महिलाएं किसी न किसी रूप में कभी न कभी हिंसा का शिकार होती हैं। इनमें कामकाजी व घरेलू महिलायें भी शामिल हैं। देशभर में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के लगभग 1.5 लाख मामले सालाना दर्ज किए जाते हैं। जबकि इसके कई गुणा अधिक मामले दबकर रह जाते हैं। घरेलू हिंसा अधिनियम देश का पहला ऐसा कानून है जो महिलाओं को उनके घर में सम्मानपूर्वक रहने का अधिकार सुनिश्चित करता है। इस कानून में महिलाओं को सिर्फ शारीरिक हिंसा से ही नहीं बल्कि मानसिक, आर्थिक एवं यौन हिंसा से बचाव करने का अधिकार भी शामिल है। भारत में लिंगानुपात की स्थिति भी अच्छी नहीं मानी जा सकती है। लिंगानुपात के वैश्विक औसत 990 के मुकाबले भारत में 941 ही है। हमें भारत में लिंगानुपात सुधारने की दिशा में विशेष काम करना होगा ताकि लिंगानुपात की खराब स्थिति को बेहतर बनायी जा सके।

वर्तमान संदर्भों में प्रवासी महिला श्रमिकों की समस्याओं पर भी विचार करना आवश्यक है  जैसे कि कम वेतन, स्वास्थ्य संबंधी खतरे, यौन शोषण और उनके मौलिक अधिकारों का हनन। महिला प्रवासी श्रमिकों को अपनी आजीविका खोने के जोखिम का सामना हर समय सताता है। विशेषतौर पर कोविड 19 के दौरान उनके श्रम और मानव अधिकारों काउल्लंघन किस प्रकार से हुआ, यह चर्चा योग्य प्रासंगिक विषय है।[2] महामारी की शिकार अग्रिम पंक्तियों में से अधिकांश महिलाएं हैं, क्योंकि महिलाएं वैश्विक स्तर पर सभी स्वास्थ्य और सामाजिक-सेवाओं का 70% हिस्सा हैं। हिंदुस्तान अखबार की एक रिपोर्ट के अनुसार,

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा है कि दुनिया में कोरोना वायरस (कोविड-19) के लगातार बढ़ते हुए संक्रमण का महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है जिसके कारण उनके प्रति मौजूद सामाजिक असमानता काफी बढ़ी है। श्री गुटेरेस ने गुरुवार को इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र की नीति की जानकारी देते हुए यह बात कही। संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने कोविड-19 के प्रभावों पर चर्चा करते हुए कहा कि इस महामारी के कारण महिलाओं के स्वास्थ्य से लेकर उनकी आर्थिक स्थिति और सामाजिक सुरक्षा पर काफी बुरा असर पड़ा है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा भी काफी बढ़ गयी है। उन्होंने कहा कि कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में जुटी हुई महिलाओं और उनसे जुड़े संगठनों की भूमिका के महत्व को समझना होगा। महिलाओं के भविष्य को केन्द्र में रखकर सामाजिक एवं आर्थिक नीतियां बनाई जानी चाहिए जिसका परिणाम बेहतर होगा और सतत विकास के लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी[3]

 

भारतीय शहरों के मध्यवर्गीय तनावों के कारण काम के लिए एकल महिलाओं का शहरों की तरफ पलायन बढ़ रहा है। साथ ही यह वैश्विक सेवा क्षेत्र (Care economy) में आजीविका के लिए उत्पन्न हुए असंख्य अवसरों का भी परिणाम है जिसने भारत के युवा वर्ग में अनिश्चितता के साथ ही सही, पर  बेहतर जीवन के अवसरों को पैदा किया है। इसने पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए जेंडरीकृत (Gendered) नौकरियां पैदा की हैं जो लैंगिक आधर पर विभाजित हैं। इस प्रकार के रोजगार में शिक्षित मध्यवर्गीय महिलाएँ कार्यबल में शामिल होती हैं, घरेलू काम, जिनमें बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल भी शामिल है, जिन्हें पारंपरिक और सुविधाजनक रूप से महिलाओं के काम के रूप में देखा जाता है, आर्थिक रूप से गरीब वर्गों की महिलाओं को आउटसोर्स किया गया है। ऐसी महिलाएं न केवल गृहकार्य को निपुणता के साथ करती हैं, बल्कि देखभाल के काम की जिम्मेदारियां भी लेती हैं, जिससे मध्यमवर्गीय महिलाओं के लिए करियर बनाना संभव हो जाता है।

अंतरराष्ट्रीय प्रवासी कामकाजी महिलाएं प्रवासी भारतीय (विदेशी या अनिवासी भारतीय) के बारे में आधिकारिक वकतव्यों में अदृश्य होती हैं। ओशी (2005) ने पाया कि पेशेवर (आईसीटी, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, नर्सिंग में) और साथ ही साथ 'कम कुशल' (घरेलू, सेवा या निर्माण उद्योगों में) महिला प्रवासियों के लिए बहुत कम आधिकारिक मान्यता या समर्थन था । वास्तव में, हमारे श्रम कानूनों (लिंगमूल और नीता 2020) में लैंगिक दृष्टिकोण का पूर्ण अभाव है। जबकि संगठित क्षेत्रों में महिला श्रमिकों को कम से कम कागजों पर कुछ बुनियादी अधिकार हैं, असंगठित क्षेत्र में महिला-गहन कार्य श्रम कानूनों के साथ अनिश्चित स्थिति में हैं।[4]यह भी सत्य है कि स्त्रियों एवं पुरुषों को कोविड 19 ने भिन्न भिन्न प्रकार से प्रभावित किया।  महिलाएं समाज को एक साथ रखने के लिए सबसे अधिक जिम्मेदारी उठाती हैं, चाहे वह घर पर हो, स्वास्थ्य  की देखभाल हो, स्कूल में या बुजुर्गों की देखभाल करने में वे निस्वार्थ भाव से इस कार्य को सम्पन्न करती हैं।  कई देशों में, महिलाएं बिना वेतन के ये कार्य करती हैं। देश की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका के महत्त्व को स्वीकार किया जाना चाहिये। 

इस महामारी की स्थिति में महिलाओं और लड़कियों को विशेष रूप से जोखिम है और मौजूदा संकट में मजबूत सुरक्षा की आवश्यकता है। पूर्व के अनुभव बताते हैं कि संकट और आपदाओं के दौरान घरेलू, यौन और लिंग आधारित हिंसा बढ़ जाती है। ऐसी घटनाएं  2014-16 के इबोला और 2015-16 के ज़िका महामारी के दौरान हुई थीं, और पुनः ऐसा होने की संभावना प्रतीत हो रही है। क्वरंटीन रहने तथा घर पर रहने की स्थिति में इस लॉकडाउन के दौरान भी असंख्य हिंसा की घटनाएं देखने को मिलीं । साथ ही, घर की जेंडर संरचना पर भी पुनर्विचार करने की आवश्यकता महसूस की गई।


 

संदर्भ सूची :

1.       https://www.bbc.com/hindi/india/2012/06/120613india women ak

2.       https://www.civilhindipedia.com/blogs/blogpost/condition-of-women-in-india

3.       नारीवादी राजनीति :संघर्ष एवं मुद्दे  ,साधना आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता , हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय  2011

4.       https://feminisminindia.com/2020/06/26/migrant-women-workers-covid-19-impact/

5.         ` 5.        जेन पिल्चर तथा इमेल्दा वेलेहम,की कानसेप्ट्स इन जेंडर स्टडीज, सेज प्  

            6.    सराह गांबले, द रुटलेज कमपेनियन ओफ फेमिनिस्म एण्ड पोस्ट फेमिनिज्म,1998

7.     7.     Mazumdar, Indrani, and Neetha, N. 2020. Crossroads and boundaries:Labour migration, trafficking and gender. Economic and Political Weekly 55(20). Retrieved from https://www.epw.in/journal/2020/20/review-womens-studies/crossroads-and-boundaries.html

8.       8.  Priyadarshini, Anamika and Chaudhury, Sonamani. 2020. The return of Bihari migrants after the Covid19 Lockdown. In Samaddar, Ranabir.(ed.). Borders of an Epidemic: Covid-19 and Migrant Workers. Kolkata: Calcutta Research Group. Retrieved from http://www.mcrg.ac.in/RLS_Migration_2020/COVID-19.pdf

 

सुप्रिया पाठक, पीएचडी

सहायक प्रोफेसर , स्त्री अध्ययन विभाग,

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय , वर्धा,महाराष्ट्र