आदरणीय अजय नावरिया जी/कंवल भारती साहब!
मैं एक दलित बालक, दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी का शोधार्थी बिहार के अपने छोटे से कस्बे में किसी टूटे मकान के पिछवाड़े एक कनात डालकर रहता था और वहीं ढीबरी की जोत जलाकर आप सभी दलित रचनाकारों को पढ़ता हुआ झूमता था. एक नए भविष्य की उम्मीद में जैसे सब दलित आते है मैं भी दिल्ली आया, पर यहां आकर एक दलित-फांक अजब तरह से उजागर हुआ और मैं सोच में पड़ गया कि ऐसा क्या है की आप तुलसीराम जी और धर्मवीर जी का नाम एक साथ नहीं ले सकते? बुद्ध और अम्बेडकर यहां क्यों साथ नहीं चल सकते?
‘हंस’ का दलित विशेषांक (विगत नवम्बर-दिसम्बर, 2019) मेरे हाथों में है और यहां भी अहोरुपम्, अहोध्वनि और आपसी उठा-पटक की वही राजनीति अंत:स्थ दिख रही है, जिसके शिकार हम दलित सदियों से होतें रहे है! हम दलित युवकों को आज एक ऐसे आदर्श की आवश्यकता है जिसे हम अपनी प्रेरणा मान उसके पदचिह्नों पर चल सकें, पर कैसे? ज्यादातर पद तो यहां दागदार ही दिखते हैं.
क्या वजह है कि श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ जैसे महत्त्वपूर्ण लेखक की चर्चा आपकी हर सूची से बाहर है? (देखें हंस,नवम्बर 2019,पृ. 75-81) जिसकी आत्मकथा (मेरा बचपन मेरे कंधों पर) मेरी नस-नस में आंधियों में दीप जलाने का जज्बा भर गयी थी। जिनकी एक कहानी- अस्थियों के अक्षर पढ़कर मैं खूब रोया था। इसी सिलसिले में कुछ और जरूरी प्रश्न उठाना चाहता हूँ। फिलहाल ‘बेचैन’ जी की जो महत्त्वपूर्ण कहानियां मैं अब तक पढ़ पाया हूँ, उसकी विषय-वस्तु संक्षेप में रखना चाहूंगा:
‘अस्थियों के अक्षर’- (हंस फरवरी, 1996) श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की अत्यंत ही मार्मिक और प्रेरणादायी कहानी है। मुझे लगता है, यह कहानी हर बच्चे को पढ़नी चाहिए. दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है: अभी हाल में ही मेरे दूर के एक रिश्तेदार ने पढ़ाई के दबाव में आकर खुदखुशी कर ली। मेरा दावा है, अगर उसने यह कहानी पढ़ी होती तो वह निश्चित ही आज हमारे बीच होता. इस कहानी ने मुझे प्रतिकूल परिस्थितियों (पिता की मृत्यु के बाद आर्थिक तंगी और बार-बार विस्थापन) में भी आगे पढ़ने-बढ़ने की ओर अग्रसर किया। ये कहानी कई स्तर पर मुझे भीतर से झकझोरती है, जैसे- सौतेले पिता का दंश, बालश्रम का संघर्ष, स्त्री प्रताड़ना का बिम्ब इत्यादि।
अम्बेडकरवादी चेतना की दृष्टि से भी देखा जाए तो यह कहनी ‘संघर्ष करो और शिक्षित बनो' का नारा बुलंद कर जाती है- कहानी का मुख्य पात्र सौराज अपने सौतेले पिता की ईर्ष्या से पीड़ित है, उसकी ईर्ष्या का प्रमुख कारण यह है कि उसके स्वयं का बेटा(रूपसिंह) पढ़ने में तेज नहीं, उसकी ईर्ष्या से न केवल सौराज आहत होता है बल्कि उसकी मां- सूरजमुखी भी कम आहत नहीं होती, ‘ससुरी के गे(यह) क्लट्टर बनेगौ......पढ़बे----की जरूरत न है, ला, छोटे किताबे ला. ......मोई मिट्टी के तेल दे," योजनाबद्ध तरीके से सिलेट फोड़ दी गयी, किताबें जला दी गयीं, बावजूद सौराज की पढ़ाई की ललक नहीं बुझती तो उसे तमाम तरह के बालश्रमों जैसे मुर्दा पशु खींचने, कटरा उठाने, खेतों से अन्न बटोरने इत्यादि में धकेल दिया जाता है। पढ़ने की दृढ़ इच्छा उसे किताबों के लिए एक रुपये की चोरी करने को विवश करता है और संदेह में उसकी माँ पशुओं की तरह पीटी जाती है. माँ के शरीर पर उग आए अनेकानेक लाल-हरे-नीले निशान उसे अक्षर मालूम पड़ रहे थे। यहाँ कहानी अपनी शीर्षक की सार्थकता तो स्पष्ट करती ही है, बतौर पाठक मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप भी छोड़ जाती है। कहानी यहाँ समाप्त नहीं होती, सौराज विवश होकर अपने पैतृक गाँव चला जाता है। और बीस वर्ष बाद जब ग्रेजुएट हो नौकरी पा जाता है। उत्साहपूर्वक मां से मिलने पाली पहुंचता है, किन्तु तब उसकी मां की चिता की बची खुची राख और मां की कृतज्ञ स्मृतियों के अलावा उसे कुछ शेष नहीं मिलता.
यहां सौराज के भीतर एक अपराधबोध है; मां भूख और गरीबी के कारण मरी है किन्तु बतौर पाठक कारुणिक स्थिति में भी कहानी के अंत से गहरा संतोष पाता हूं क्योंकि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सौराज पढ़ जाता है, कुछ कर जाता है. ऐसी प्रेरणादायी कहानियों के समकक्ष वरिष्ठ लेखिका सुशीला टाकभौरे की 'सिलिया' कहानी को रखा जा सकता है.
`रावण`(हंस सितम्बर, 1999) ऐसी ही मार्मिक और महत्त्वपूर्ण कहानी है जो मैंने अपने एम.ए के पाठ्यक्रम में पढी थी. जिसकी प्रासंगिकता का प्रमाण मुझे दिल्ली आने के बाद भी जब तब मिलता रहा। प्रस्तुत कहानी जहां एक और दलितों के विस्थापन के दारुण सत्य को उद्घाटित करती है तो वहीं दूसरी ओर यह गांव में दलित शरीर अथवा अशरीरी रूप से जात्यभिमान के शिकार होने ( हालांकि शहर इससे अछूते नहीं) को भी पूरी स्पष्टता से रखती है.
प्रस्तुत कहानी में चमारों (तथाकथित) के इतिहास में पहली बार कोई उनकी ही जात-बिरादर का रामलीला में `रावण`की भूमिका निभाने जा रहा है. फलत: चमरटोली का गौरवपूर्ण उत्साह दबाए नहीं दबता, किन्तु दिल्ली में कई बार रावण की भूमिका निभा चुका चमार मूलसिंह-`हां`,`न` जैसी उधेड़बुन में फंसा है, “स्टेज पै जाने के बाद का होइगो ,लोग मोई रावण समझ हुं पाएंगे? या सीधो चमार ही समझेंगे.” हालांकि सारे द्वंद्व से लड़ता मूलसिंह अंतत: रावण की भूमिका अदा करने को तैयार हो जाता है. मूलसिंह रावण के स्वर में मेघ-सा गरजता है तभी सहसा राम, सीता,सुग्रीव,विभीषण...... की भूमिका निभा रहे जात्याभिमान से ग्रसित यादव, बनिये, कायस्थ और ब्राह्मण उस पर टूट पड़ते है, क्षणभर में नाटक यथार्थ में तब्दील हो जाता है(मूलसिंह मरते-मरते बचता है) .`उतारि सारे चमट्टा (चमार) के नीचे उतारि,``हाथापाई इस कदर बढ़ती है की दर्शकों के बीच बैठी चमार और भंगी स्त्रियों को न केवल बदतमीजी का शिकार होना पड़ता है बल्कि उनका अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है,``उठाइलेक ससुरिन कुं सब कि सब चमारियां मायावती बनी रई है, दखि लिंगे इनके हरिजन एकट कुं और इनके अम्बेडकर के संविधांन कुं’, पीड़ित और अपमानित मूलसिंह पत्नी(मीना) और बच्चों के साथ गांव छोड़ बाहर(दिल्ली) राजगीरी करने को विवश होता है, किन्तु गरीबी और यमुना में बाढ़ आने के कारण बीमारी, वहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ते. कुछ महीने बाद उसे खबर मिलती है की उसकी मां मरणासन्न है और उसकी पुश्तैनी जमीन बिकने वाली है. फलत: वह सपरिवार गांव लौटने को रेलवे स्टेशन पहुंचता है जहां हमेशा के लिए `गांव` छोड़ आए अपने माता-पिता को देख वे दंग रह जाता है.
अंततः कहानी जातिभेद के कई प्रश्न खड़े कर जाती है.
`क्रीमीलेयर`(युद्धरत आम आदमी जन-फरवरी, 2019) वर्तमान समय की बेहद ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण कहानी है. इसे पढ़ने से पूर्व मैं भी एससी में क्रीमीलेयर लागू किये जाने को लेकर सहमत था. मेरी इस मान्यता को और अधिक पुष्ट करने में प्रो.निरंजन जी का `आरक्षण का जिन्न` नामक लेख सहायक सिद्ध हुआ था. किन्तु प्रस्तुत कहानी से जब मेरा साक्षात्कार हुआ तब जो कुछ समझ आया, उसका सार कुछ यूं है: असल में एससी,एसटी के बीच क्रीमीलेयर है ही नहीं, जो सदियों से गुलामी की चक्की में पिसते रहें हों, जिनका शोषण पीढ़ी दर पीढ़ी होता रहा हो उसकी भरपाई क्या उस परिवार के किसी एक सदस्य को नौकरी मिल जाने अथवा उस परिवार के दो या तीन पीढ़ियों को आरक्षण मिल जाने से हो जाएगी. कहानी आरंभ से अंत तक दंपती(सुधांश,और प्रणीता)के बौध्दिक और तर्कपूर्ण संवादों द्वारा क्रीमीलेयर संबंधित पूर्वाग्रह से मुक्त करती चलती है और अंततः जो हकीकत सामने आती है उससे न केवल सुधांशु की पत्नी-प्रणीता विस्मित होती है बल्कि पाठक भी विस्मित होता है.
`बस्स इत्ती सी बात' कहानी में जात्याभिमान और सामंतीय मानसिकता से ग्रसित ठाकुर कुंवर सिंह अपनी परित्यक्त पत्नी (कीर्ति) का मर्डर केवल इसलिए कर देता है, क्योंकी उसने तथाकथित नीची जाती के लड़के (रतन) से प्रेम विवाह किया। विडम्बना ऐसी है की मर्डर करने के बाद भी अपराधबोध की बजाय गर्व से उसका जात्याभिमान मीडिया के सामने फूट पड़ता है, "जिस औरत का मेरे उच्च कुल से संबंध रहा हो वह खानदान की मान-मर्यादा की परवाह किये बगैर कोई कदम कैसे उठा सकती है? जिन जातियों के लोग हमारे आगे सिर उठाकर खड़े नहीं हो सकते......उस अछूत जाति के ऐरे गैरे व्यक्ति से पुनर्विवाह किया....”कहानी का अंत आश्चर्य से भरता हुआ एक बार फिर कहानी का शीर्षक दोहराने पर विवश करता है-बस्स इत्ती-सी बात.
भरोसे की बहन - आजादी के बाद भी जब दलितों की स्थिती में खास सुधार होता नहीं दिखा तो दलितों में एक विश्वास जगा, अगर उनकी ही जात-बिरादर का प्रधान या मुख्य बने तो उनकी यथास्थिती में अवश्य सुधार आएगा. कुछ ऐसी ही उम्मीद इस कहानी के मुख्यपात्र-रामभरोसे(बसपा का मामूली सा कार्यकर्ता) को बहन छायावती से है. मुरीद इतना की, क्या मजाल जो कोई नेत्री छायावती के शासन-प्रशासन पर अंगुली उठा दे, फुफकार उठता, "तू बहुजन समाज का आदमी है या सपा-भाजपा का? ”किन्तु उसका यह विश्वास तब डगमगाने लगता है जब वह लखनऊ रैली में पहुंचता है जहां पण्डाल की सजावट देख वह दंग रहा जाता है, "हे भगवान कितना रुपया फूंका होगा पार्क और पण्डाल की सजावट में... ” बाबा साहब की प्रतिमा देख वह अपनी हंसी नहीं रोक पाता है, “खूब जमि रए हो पत्थर में बदलि से हुं, पूज्यनीय, पर तुम्हारी वे हाड़मांस की जिन्दा दलित प्रतिमाएं निरक्षर है...... बेकार... बेघर हैं... उनके बालक नांय खरीद पा रहे प्राइवेट तालीम... आज तुम जिन्दा होते तो अपना यह खुदगर्ज पत्थर पूजन देखि के..... माथा ठोकते... " इच्छा हुई वापस घर लौट आए पर बहन छायावती की कट्टर विरोधी अपनी पत्नी को क्या जवाब दे, सो डगमगाते पांव को संभालता रामभरोसे आगे बढ़ता है, किन्तु वह देखता है की दलितों की आई अर्जियों को बहन छायावती बिना देखे-सुने ही कूड़े में डलवा देने का आदेश देती है. फिर भी उसे भरोसा है वह अपने साथ लाई तमाम अर्जियां... छायावती से पहली मुलाकात में ही उन्हें सौंप देगा. पर ऐसा होता नहीं. छायावती आगामी चुनाव योजना को लेकर दिल्ली उड़ान भर लेती हैं और इधर ट्रेन में खचाखच भीड़ होने के कारण वापसी में कई सौ कार्यकर्ता दुर्घटना ग्रस्त हो जाते है. कई असमय काल के गाल में समा जाते हैं तो कई अस्पताल में भर्ती हो जाते हैं. कहानी का अंत बेहद ही मार्मिक है-सांतवे दिन रामभरोसे अस्पताल में अंतिम सांसे गिन रहा होता है तो छायावती अस्पताल दौरे पर आ रही होती है और उधर रामभरोसे की पत्नी-रामकली(जिसे रामभरोसे रेडियो में बैटरी डलवा लखनऊ का समाचार सुनने का कह आया था) रेडियो से कान लगा लखनऊ का प्रादेशिक समाचार सुन रही होती है.
`शिष्या-बहू`(हंस, जून 2019) यह कहानी अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन देती हुई अम्बेडकरवादी मिशन-`जाति तोड़ो, समाज जोड़ों`से जुड़ती हुई गांधी जी के अस्पृश्यता उन्मूलन से भी सीधे आ जुड़ती है. कहानी ब्राह्मण सास(विद्या शर्मा) और तथाकथित निम्न जाति की बहू (गुल्लों)के विरोधाभास से अवगत कराती हुई गुल्लों के संघर्ष और सफलता को दिखाती है.
`आंच की जांच' ये कहानी हंस नवम्बर, 2019 में प्रकाक्षित हुई. ये कहानी जाति को ऊंचा मानने वालों काे बेनकाब करती है.
विशेष कहानियों की यह फेहरिस्त और भी लम्बी हो सकती है. नि:संदेह उपर्युक्त सभी कहानियां दलित चेतना और अम्बेडकरवादी मिशन से जुड़ती हैं. कहना न होगा, जब तक दुनिया में समता, स्वतंत्रता और न्याय जैसे मानवाधिकार बिना किसी भेदभाव के सभी को पूर्णत:नहीं मिल जाते, तब तक इन कहानियों की प्रासंगिकता बनी रहेगी.
सवाल यह उठता है, क्या ऐसा कहानीकार सूची से
निकाल बाहर करने योग्य है? जो 'मेरा' या 'मेरे जैसा नहीं', वह हिकारत या घृणा के
लायक तो नहीं हो जाता? अगर हां, तो इसे फासीवाद नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे?
कंवल भारती साहब आपसे विनम्रतापूर्वक पूछना चाहूँगा उपर्युक्त कहानियों के आलोक
में श्यौराज सिंह बेचैन जी को आप किस पीढ़ों के रचनाकारों में खड़ा करना चाहेंगे
जबकि रत्नकुमार सांभरिया जी को तो आप पहले ही दूसरी पीढी के रचनाकारों में खड़ा कर
चुके हैं?
खैर आपकी कुछ स्थापनाओं से भी मुझे असहमति है जिन्हें मैं बिन्दुवार रखना चाहूँगा. आप अपने आलेख, ‘दलित कहानी के विकास पर कुछ नोट्स’ के प्रथम कॉलम `नई कहानी बनाम दलित कहानी` के अन्तर्गत साठ-सत्तर साल पूर्व के आंदोलन `नई कहानी` की स्थापना को धता बताते हुए दलित कहानियों को नई कहानी कहने पर जोर देते हैं। स्वयं आपके ही शब्दों में देखा जाए , "वाल्मीकि से पहले हिन्दी में न पखाना साफ करने वाले मेहतरों की कहानी लिखी गयी थी और न मृतकों की. अतः कहना न होगा की नई कई कहानी अर्थात् दलित कहानी का युग ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों से शुरू होता है.” आपका यह कथन अगर उचित माना जाए तो क्या `थर्ड जेण्डर’ पर लिखी गयी कहानियों को नई कहानी कहना असंगत होगा? क्या इन्हीं कहानियों में सर्वप्रथम इनकी अस्मिता-अस्तित्व और अधिकार की बात नहीं की गयी? इनसे इतर तो इन्हें कभी मनुष्य भी नहीं समझा गया. असल में मेरा जोर न आपके द्वारा दलित कहानी को `नई कहानी` कहने के विरोध से है न `थर्ड जेण्डर` पर लिखी गयी कहानी को नई कहानी के रूप में स्थापित करने से। मैं तो केवल इतना ही कहना चाहता हूँ, दलित कहानियों की पहचान `दलित` कहने मात्र से ही हो जाती है इसके साथ `नई` या `पुरानी` जैसे विशेषण लगाना शब्दों का अपव्यय मात्र ही है। वैसे भी जहां एक ओर दलित शब्द का अर्थ- “टूटा, कटा, ढला, मर्दित या पीसा हुआ से लगाया जाता है, वहीं दूसरी ओर दलित शब्द व्यक्ति को अपनी अस्मिता, स्वाभिमान और अपने इतिहास पर दृष्टिपात करने को बाध्य करता है, वहीं अवगति, वर्तमान स्थिति और तिरस्कृत जीवन के विषय में सोचने के लिए... विवश करता है..... दलित शब्द...... चीख, वेदना, पीड़ा ... छटपटाहट का प्रतीक है।"
आप 'हिन्दी में दलित कहानी का उद्भव' नामक कॉलम के अंतर्गत लिखते हैं, “अस्सी के दशक में ही दलित समाज की कहानियां लिखी जाने लगीं थी” आपका यह कथन पूर्णतः संगत माना जाए तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है: दलित कहानियां अब तक पचास से साठ साल की यात्रा भी तय नहीं कर पायीं हैं। और अब भी दलित कहानीकारों की दूसरी पीढ़ी ही रचनारत है। इस तथ्य के आलोक में आपकी यह बात बिल्कुल समझ नहीं आती कि एक ही आलेख में आपको दलित कहानीकारों को दर्शाने के लिए ‘समकालीन कथाकार’ और ‘वर्तमान दलित कहानी’ नामक दो भिन्न कॉलम बनाने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी? जबकि `समकालीन कथाकार` के अंतर्गत `वर्तमान दलित कहानी` या `वर्तमान दलित कहानी` के अंतर्गत `समकालीन कथाकार` को दर्शाया जा सकता था.
आप आगे लिखते हैं, “नावरिया की कहानियों को पढ़ने वाला कोई भी संवेदनील व्यक्ति अपनी आंखों में गुस्सा उतार लेगा, उसकी नस-नस में सबकुछ जलाकर राख कर देने की बगावत भर जाएगी,” विनम्रतापूर्वक आपसे पूछना चाहूंगा, क्या अम्बेडकर ने भी अन्याय का प्रतिकार अन्याय ही चाहा था?
रत्नकुमार सांभरिया जी की कहानियों के संबंध में माताप्रसाद जी लिखते हैं, "रत्नकुमार सांभरिया की कहानियां दलित समाज में आत्मगौरव का संचार करती हैं और जातिभेद और छुआछूत मानने वाले को कठघरे में लाकर खड़ा करती है।”(साहित्य समर्था, संपा. नीलिमा टिक्कु, पृ.-68 अक्टू-दिसम्बर,2019) इतना ही नहीं वे `बीपर सूदर एक कीने` कहानी के संबंध में लिखते हैं, यह “कहानी डॉ.अम्बडेकर के शिक्षित बनो` के संदेश को कारगर करती है, क्योंकि......शिक्षा ही जाति-पाति की लोह-दीवार तोड़ सकती है। कहानी में उच्च शिक्षा और पद का महत्व बताया गया है, जो नई पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक है.” (वही पृ. 68) जबकि आप इससे इतर लिखते है, रत्नकुमार सांभारिया की “कहानियां जाति-चेतना की कहानियां नहीं है ...... ‘बीपर सूदर एक कोने’ कहानी पैतृक पेशे को प्रोत्साहित करती है इसलिए अम्बेडकर मिशन के भी खिलाफ है,” इतना ही नहीं रत्नकुमार सांभरिया की कहानियां दोषपूर्ण हैं, इसका प्रमाण आप सांभरिया जी की कहानियों से ही नहीं, पत्र-पत्रिकाओं (बैरवा ज्योति,1993) के भी लम्बे-लम्बे उद्धरण देकर करते हैं, किन्तु जिन पाँच कहानियों के आधार पर आप दलित साहित्य के इस दौर को ‘अजय नावारिया का युग’ तक घोषित करते हैं उनकी किसी भी कहानी का बाकायदा उद्धरण देना आप जरूरी नहीं समझते! आपके कुछ कथन आपकी ही जुबानी यहाँ देखें जाएं: “अजय नावरिया की कहानियां कलात्मक हैं ... दूसरे शब्दों में अजय नावरिया की कहानी से दलित कहानी में कलावादी युग का आरंभ होता है। यह कला उनका शिल्प है, किन्तु किसी-किसी कहानी में कला ने रहस्यात्मक रोमांच भी पैदा किया है...। मिसाल के तौर पर `एस धम्म सनंतनी` में पीपल का पेड़। कहानी कथन और उसके रूप-विधान को साधने में अजय नावरिया अद्वितीय हैं.....उनसे पहले इतनी मार्मिक और कलात्मक कहानी किसी ने नहीं लिखी... उपमहाद्वीप जैसी कहानी दलित कहानी में ही नहीं, बल्कि मुख्यधारा की कहानी में भी बेजोड़ है... उसकी टक्कर की कोई दूसरी कहानी अभी तक नहीं लिखी गई..।” खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आपके यह कथन सिर्फ जुमलों की पतंगबाजी के अलावा और कुछ नहीं लगते.
दो दलित कहानीकारों की कहानियों की आलोचना के
लिए दो तरह के मानदण्ड क्यों स्थापित किए जाएं? वह भी एक पर सिंहावलोकन दृष्टि और
दूसरे पर विहंगालोकन दृष्टि?
ध्यान
देनेवाली बात तो यह है; जिस कहानी को आप अम्बेडकरी मिशन के खिलाफ और दोषपूर्ण
बताते हैं वे न तो अम्बेडकरी मिशन के खिलाफ है और न ही दोषपूर्ण! जिसका तथ्यात्मक और
तर्कपूर्ण प्रमाण स्वयं रत्नकुमारी सांभरिया जी अपनी कहानी का उद्धरण देकर कर चुके हैं. (देखें, हंस, मार्च 2019, पृ.11-12)
विशेष जिन पांच कहानियों के आधार पर आप दलित कहानी के इस दौर को अजय नावरिया का नाम देते हैं फिलहाल उनकी एक कहानी-‘चीख’ देखी जाए:
पिता की मृत्यु के बाद मेरे आरंभिक पंद्रह बरस ननिहाल में ही बीते. पर जब भी अपनी अम्मा के पास(पैतृक गांव) लौटता, रात अम्मा की गोदी में अपना सिर रख उससे लाख जी हजूरी करता, कुछ सुनाने की. अम्मा, देर रात ढीबरी की जोत में कथरी सिलती-बुनती जाती और कई किस्से कहावतों के साथ बीच-बीच में लगती सुनाने पंचतंत्र की कहानियां. जो अक्सर मेरी सुनी हुई हुआ करतीं। और अंततः कहानी खत्म होते ही मेरी आठवीं नवीं जमात अम्मा लगती शिक्षिका-सी एक साथ कई प्रश्न मेरे मुंह बाएं खड़ा करने,`बतौ की बुझलीं? या `ई कहानी से की शिक्षा या पिरेरणा मिललौ?` अर्थात `क्या समझे? या `इस कहानी से क्या शिक्षा या प्रेरणा मिली? `झूठ मत बोलो!`, `अपनी बड़ाई आप मत करो!` `सच ज्यादा दिनों तक नहीं छिपता!` `एकता में ही बल है!` जैसी तमाम शिक्षाएं उनकी कहानियों के अंतिम निष्कर्ष... होते.
आज
अजय नावरिया जी की ‘चीख’ कहानी पढ़ने के बाद कोई मुझसे पूछे,`इस कहानी से तुम्हें
क्या शिक्षा मिली? या `क्या प्रेरणा मिली?’ तो निश्चित ही मेरा उत्तर होगा: शिक्षा
– संघर्ष... के नाम पर युवक हो या युवती गांव छोड़ शहर आओ और प्रभु ईसा या ईश्वर-अल्लाह
या कुलीन देवी – देवता के नाम पर जो भी काली-गोरी देह मिली है उसका उपयोग चारागाह
के रूप में खूब करो, खूब करो और खूब पैसा कमाओ। गले में चेन हाथ मे अंगूठियां चमकाते
हुए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से वही करने के लिए लोगों को प्रेरित करो जो
करकर कहानी का नायक- टायसन रईसजादा बना घूमता-फिरता है। और हां, एक बात और पछताओ
तो बिल्कुल नहीं, क्योंकि लेखक- अजय नावरिया जी के कथनानुसार, “पछतावा इन्सान की
ताकत को ग्रहण लगा देता है। " (चीख,
अजय नावरिया, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण: 2013 पृ.110) कहनी का
मुख्य पात्र या नायक “कुप्पी की रोशनी में रात-भर पढ़ने” वाला एक दलित बालक है
जिसके पिता, `पशुओं की खाल खींचते..... शहद के छत्ते तोड़ते...... ताड़ी बनाते,
पटेल( तथाकथित ऊंची जाति) के खेतों में मजदूरी करते थे” (वहीं पृ.55) एक दिन
दलित बालक टायसन (शहर में बदला हुआ नाम) को स्कूल से घर की ओर आने वाला एकमात्र
रास्ता- जंगल से अकेले आता देख पटेल के बेटे- विनायक और उसके गांव के कुछ लड़कों ने
उसके साथ वो किया जिसको लेकर उसके भीतर शर्मिंदगी-ग्लानि इस कदर बढ़ गयी है की वह
एकबारगी आत्महत्या करने की सोचता है. और किसी तरह दसवीं पास होते ही अपने स्कूली-फादर
से कहता है, "फादर मैं यहां नहीं रहना चाहता। मुझे कहीं भेज दो!` फादर उसे अपनी
पहचान के किसी नागपुर के स्कूल के प्रिंसिपल के पास भेज देते हैं जहां बारहवीं तक
पढ़ाई करने के बाद उसे फादर से मिलने वाली स्कॉलरशिप बंद हो जाती है। फादर उसे यीशू
की शरणागत आने की सलाह देते हैं, किन्तु उसे धर्म से ज्यादा अपनी रोटी और इज्जत की
परवाह होती है इसलिए वह बी.ए तक की पढ़ाई ट्यूशन पढ़ाकर करता है और अंत में मुंबई
चला जाता है। जहां शारदा नामक लड़की के संपर्क में आता है जो उसे मसाज पार्लर में
एक वर्कर के रूप में यह कहकर रखवा देती है, "जबतक कोई काम नहीं तब तक करने का।` वही
मसाज पार्लर के मालिक- मिस्टर सुनैजा द्वारा उसके साथ एक बार फिर वही घटित होता है जिसको
लेकर यह दलित नायक गांव में मरा जाता था। जिसको लेकर वह पटेल के बेटे-विनायक और
गांव के उन पाँच लड़कों से प्रतिशोध की भावना लिए शहर आया था। अंतर बस इतना है
गांव में जिस बलात्कार की घटना को स्मरण कर वो शर्मिंदा और ग्लानिपूर्ण जीवन जीने को
विवश था इतना ही नहीं आत्महत्या करने को विवश था! पर वही काम करते-करवाते यहाँ उसे कोई
आत्मग्लानि या शर्मिंदगी नहीं, क्यों? तो इसका उत्तर मिस्टर सुनैजा के शब्दों में
देखा जाए: “मैं एक्स्ट्रा पै करेगा..वन मिनट।” और उसने “सौ-सौ के नोटों की
गड्ड़ियां... हाथों मे रख दी...तीसरे दिन मेरे पास काफी रुपया था।”
यह
कथन दलित नायक टायसन का है जिसकी आगे की बेशर्मी का तो कोई जवाब ही नहीं, “क्या
यह तीसरा दिन मेरा तीसरा था?”(वही पृ.-92) यहां `तीसरा` शब्द पर जोर देना यह सिद्ध
करता है की टायसन उस पेशे को आगे भी इतनी बार जारी रखता है कि उसे भी स्वयं ध्यान
नहीं कि कितनी बार अपनी देह का इस्तेमाल उसने चारागाह के रूप में किया! इतने पर भी
उसका रुपयों का लोभ समाप्त नहीं होता कारण इसे दलित नायक टायसन के शब्दों में
देखा जाए, “मैं और पैसा कमाना चाहता था।” जिस पेशे से मानवता शर्मसार हो जाए वह
घृणित पेशा वह नहीं छोड़ता. पहली बार मिस्टर सुनैजा द्वारा मिले रुपयों से ही वह
कोई छोटा-मोटा रोजगार खोल सकता था(नैतिकता तो इसे भी गलत ही करार देगी) क्योंकि वह
उतने पैसे थे जितने उसने पहली बार सिनेमा में देखे थे। पर इसके बावजूद दलित नायक
टायसन ऐसा नहीं करता. खैर आज की कहानियों के दलित नायकों की बात तो जाने ही दें
अगर दलित नायिकाओं को ही देखा जाए तो वे भी इतनी साहसी हो गयी हैं, क्या मजाल जो
कोई उनकी आस्मिता को कलंकित करे या उनके साथ कोई जबरदस्ती कर ले. वह उनका अंडकोष तक
पचका देने का जज्बा रखती हैं इतना ही नहीं वे उनका पुरुषांग तक काट उसे पुरुष
श्रेणी से भी बाहर करने का जज्बा रखती हैं. अन्य कहानीकारों या उपन्यासकारों की
बात तो जाने ही दें आप मेरी ही कविता की अंतिम पंक्ति देखें जहां जरा सा अपने
स्वाभिमान पर ठेस लगते ही दलित नायिका अपना काम-वाम छोड़ अपनी तथाकथित अभिमानी मालकिन
को आईना दिखाने से बाज नहीं आती:
“चलती हूँ बिलरड़ी बास्टेड
बाई–बाई।”
पर अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है की नावरिया जी की उक्त कहानी का दलित नायक पढा-लिखा है, एम.ए ही नहीं सिविल सर्विस की परीक्षा भी वह उत्तीर्ण कर चुका है। रुपये-पैसों की भी तत्काल कमी नहीं, फिर भी वह अपनी देह का इस्तेमाल रिश्वत या चारागाह के रूप में लगातार करता है. अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है की मर्द होकर भी दलित नायक इस घृणित पेशे को बजाए त्यागने के उसे पल्लवित करने पर अमादा दिखता है। कैसे कोई दलित या अन्य इस दलित नायक से प्रेरणा ग्रहण करेगा?
पिता
और फादर के लिए महंगी शराब और कपड़े गांव देकर आने के बाद टायसन मिस्टर सुनैजा के बताए
पते पर मुंबई पहुंचता है जहाँ वह औरतों का धंधा देशभर में करने वाली मिसिज देशमुख
से मिलता है। वह उसे अपने पास ही रख लेती है और एक दिन, “देशमुख(वृद्ध पति) को
दिखाते हुए मिसिज देशमुख ने मेरा गुप्तांग हथेली में भरकर ऐसे उठाया जैसे भाला
उठाते हैं फेंकने से पहले।” दलित साहित्य के नाम पर ऐसी पंक्तियां या वाक्य पढ़कर
किसे ना उबकाई आ जाए? मैं अजय नावरिया जी से ही पूछना चाहूँगा कि क्या स्वयं वे
अपने बच्चों को ऐसी कहानी पढ़ने देंगे? या ऐसे वाक्य वे अपने बच्चों के साथ बैठकर
पढ़ पाएंगे? खैर मिसिज देशमुख के यहां पार्टी में डी.सी.पी वरुण की पत्नी- शुचिता(गुण के विपरीत नामों
वाली) को टायसन उसके घर ड्रॉप करने के लिए जाता है और यह उसकी पहली मुलाकात कई
मुलाकातों से होती हुई इस कदर बढ़ जाती है कि शुचिता टायसन से कहती है, “तुम्हारे सामने
वरुण बहुत हल्का है.... वेला(मिसिज देशमुख) ने कई बार तुम्हारी ताकत के किस्से
सुनाए---!” यहाँ हल्का या ताकत का मतलब सेक्स पॉवर से है। “तुम वरुण को
तलाक क्यों नहीं दे देती?” यह कथन टायसन का शुचिता से है!.. पर मिसिज देशमुख का
कथन टायसन के लिए देखें, “तुम... सुबह
जल्दी उठकर पढ़ो और रात को टाइम पर सो जाओ!” इतना ही नहीं यह जानकर की उसकी परीक्षा
समीप है वह पिछले पच्चीस दिन से उसे अपने कमरे में नहीं बुलाती। यह बातें साबित
करती है कि मिसिज देशमुख कहीं न कहीं टायसन को चाहती है इतना ही नहीं वह चाहती है
कि वो पढे, अपने सपने साकार करे। पर टायसन तो जैसे पैदा ही हुआ हो `दलित` शब्द के
अर्थ को अनर्थ करने, दलित कौम को अपमानित करने! इसलिए तो यह जानकर की शुचिता का
पति आस्ट्रिया गया है वह शुचिता के साथ होटल में रंगरेलियां मनाता है। पर सुबह
किसी की आवाज सुन शुचिता दरवाजा खोलती है तो एक नकाबपोश व्यक्ति कमरे में
प्रवेश करता है...कि अचानक गोलियां चलतीं हैं और एक लंबी चीख के साथ टायसन के मुख
से मरते-मरते तीन प्रश्न निकलते हैं!
कहानी की शुरुआत संतोषप्रद है, किन्तु कहानी
जैसे-जैसे आगे बढ़ती है दलित चेतना या अम्बेडकरवादी चेतना से इतनी दूर होती जाती है
कि उसे यथार्थवादी कहानी मानकर भी संतोष कर पाना स्वयं को धोखा देने जैसा लगता है,
जैसे- शुचिता का पति जो आस्ट्रिया गया था वह आ चुका होता है यह जानकर भी शुचिता
रातभर टायसन के साथ होटल में रंगरेलिया मनाती है जबकि कहानी में आए संवाद यह साबित
करते है कि उसे अपने पति का डर भी है. इसी प्रकार टायसन के मिसिज देशमुख को धोखा देने पर
मिसिज देशमुख उसे तत्काल ठिकाने लगवा सकती थी फिर वह अपनी आंखों के सामने उसे कैसे
शुचिता के साथ रंगरेलिया मनाते देखती जबकि उसके देह का धंधा पूरे देश में
दावानल - सा फैला हुआ है। इसी से उसकी पहुंच और पॉवर का अंदाजा लगाया जा सकता
है। इस आधार पर उक्त कहानी को दोषपूर्ण
ठहराना असंगत ना होगा! पर सवाल उठता है ये दोष कंवल भारती जी को क्यों नजर नहीं आया? तो इसका
उत्तर अजय नावरिया जी के शब्दों से उधार लेकर कहूं
तो यह होगा की कंवल भारती अजय नावरिया जी के ‘यार दोस्त साथी’ जो ठहरे (देखें
नवरिया जी का 3 नवंबर 2019 का फ़ेसबुक पोस्ट ). कहानी का `नायक` पाठकों की नजर में
अपनी कोई आदर्श छवि पेश नहीं कर पाता: ना तो वह एक आदर्श बेटा बन पाता है, ना ही
आदर्श छात्र, ना आदर्श सौदागर, ना आदर्श प्रेमी और ना ही आदर्श मित्र. `जैसे को तैसा`
की नीति का अवलंबन करता दलित नायक- टायसन चरित्रहीन, लालची, महत्वाकांक्षी और अवसरवादी पुरुष ही नहीं पशु कहने लायक भी नहीं! उसके लिए पैसा ही सबकुछ है,सबकुछ, हाँ, सबकुछ !
कहानी
के अंत में कहानी के नायक टायसन के मुख से एक लम्बी चीख के बाद जो तीन प्रश्न
निकलते है वे प्रश्न देखें जाए:
“हमारे लोग कैसे ताकतवर होंगे?” “हम कहां जाए?” “क्या करें?”
कहते हैं मरने वाले की अंतिम इच्छा अवश्य पूरी की जानी चाहिए, अन्यथा मरने वाले की आत्मा को शांति नहीं मिलती! इस आधार पर टायसन के प्रश्नों का उत्तर देना आवश्यक हो जाता है, पर सवाल उठता है ऐसे- लोभी, कामी, प्रतिशोधी, दायित्वहीन, अवसरवादी व्यक्ति को जवाब देने की खासी दिलचस्पी क्या खाकर कोई दूजा दिखाए? किन्तु घृणा पाप से की जाती है पापी से नहीं! इस तर्ज पर एक उपाय सूझा क्यों ना टायसन के बुजुर्ग पिता से ही उनके नालायक बेटे की अंतिम इच्छा पूरी कारवाई जाए, पहले तो उन्होंने वार्ता करने से साफ इनकार करते हुए कहा,`हम नहीं जानते कौन है टायसन-वायसन!’ किन्तु जिद करने पर वे मान गए. और उन्होंने बिना आँसू गिराए जो भी टूटी-फूटी अपनी ग्रामीण भाषा में उत्तर दिया उसे मैं यहाँ अपनी भाषा में प्रस्तुत करना चाहूँगा:
बेटे
टायसन!
तुम भी चौंक रहे होगे, तुम्हारी मृत्यु के बाद भी मैं तुम्हें तुम्हारे असली नाम से संबोधित क्यों नहीं कर रहा, असल में तुम्हारा जन्मदाता मैं नहीं तुम्हारा कहानीकार है. और तुम जैसे दलित बालक का पिता कोई ‘दलित’ पिता हो भी कैसे सकता है? इसी को ध्यान में रखते हुए कहानीकार ने शायद तुम्हें तुम्हारे असली नाम से वंचित ही रखा (गौरतलब हो टायसन शहर में बदल हुआ नाम है)! यह अलग बात है की तुमने शहर जाकर आपना नाम स्वयं ही रख लिया- टायसन. ताकी शहर में तुम्हारी असल पहचान छिपी रहे! अधिक कहने की तुम्हारे सम्बंध में इच्छा नहीं हो रही इसलिए सीधे-सीधे तुम्हारे प्रश्नों पर ही आता हूँ. तुम्हारा पहला प्रश्न है- हमारे लोग ताकतवर कैसे होंगे? तो सुनो: मुक्ति कोई खुल जा सिम-सिम का जाप तो है नहीं, किया और मुक्ति मिल गयी। दुनिया के जितने भी अस्मितावादी आंदोलन सफल हुए वे क्रमिक और शनै: - शनै: ही संभव हो पाए. तुम पैसे से ताकत तो ला सकते हो पर वह स्वाभिमान नहीं जो दलितों को खून-पसीने की मेहनत से मिलती है। जरूरत आज दलितों को अपने स्वाभिमान को पहचानने की है. अन्याय के प्रति विरोध का स्वर तो स्वतः उठ आएगा, लेकिन ध्यान रहे रक्त का एक कतरा भी बहाए बिना, तभी दलितों की मुक्ति या क्रांति सफल मानी जाएगी. अन्याय का प्रतिकार अन्याय नहीं होता यह तो अम्बेडकर भी मानते थे.
तुम्हारा दूसरा प्रश्न है: हम कहां जाए? इसका सीधा-सा उत्तर होगा: चाहे जहां जाएं पर वहां नहीं जिस गर्त में तुम गए संघर्ष के नाम पर! कोशिश तो होनी चाहिए बिना पलायन के अपनी जड़-जमीन से जुड़कर समस्याओं से लड़ने की. पर कभी-कभी व्यक्तित्व और सामूहिक विकास के लिए पलायन जरूरी हो जाता है, लेकिन पलायन होते ही तुम्हारे जैसा खुदगर्ज तो नहीं हो जाना चाहिए.
तुम्हारा
तीसरा प्रश्न है: दलित-क्या करें? इसका उत्तर देते मुझे शर्म आती है की लेखक ने
तुम्हें एक दलित नायक के रूप में क्यों सृजित किया जबकि तुम्हें इतनी सी बात भी
पता नहीं, दलितों के मसीहा कहे जाने वाले अम्बेडकर ने कहा था: संगठित हो, शिक्षित
बनो, संघर्ष करो!..........तुम्हारी आत्मा को शांति मिले!
एक
दलित बुजुर्ग
आदरणीय सतीस खनगवाल जी,
बड़े हर्ष के साथ कहना पड़ रहा है कि आपने विगत हंस के दलित विशेषांक में प्रकाशित अपने लेख- `हिन्दी
दलित कहानी का शिल्प` में की गयी छेड़छाड़ या काटछांट की सूचना दे अजय नावरिया जी की
तानाशाही का भांड़ा फोड़ तो किया।
आप
अपने आलेख के संबध में लिखते है, “इसके छपने के प्रति अधिक आशावान नहीं था" वैसे सच कहा जाए तो यह लेख वाकयी ही प्रकाशनार्थ नहीं था- कुल पैंतीस कहानियों के
शिल्प पर बात करने के लिए महज ‘हंस’ हो या कोई अन्य पत्रिका मात्र तीन पन्ने
पर्याप्त नहीं। पर इसके बावजूद भी यह हंस जैसी पत्रिका में इसलिए प्रकाशित की जाती
है, क्योंकि इसमें हंस के ही अतिथि संपादक- अजय नावरिया जी को आप निराधार ‘महान’
और ‘अद्वितीय’ बना देते हैं।
सुशीला टाकभौरे जैसी जानी-मानी लेखिका को स्वीकृति मिलने के बाद भी प्रकाशित न करना इसी बात को इंगित करता है!
किसी भी कहानी का शिल्प कितना उन्नति और कितना अवनति की ओर अग्रसर है? इसके प्रमाण के लिए उस कहानी के कुछ प्रमुख तत्व, जैसे- कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, देशकाल, भाषा और भाषा-शैली इत्यादि तमाम बिन्दुओं पर चर्चा अनिवार्य होती है, खेद के साथ कहना पड़ रहा है, जिस कहानी के आधार पर आप अजय नावरिया जी को दलित कहानिकारों की प्रथम पंक्ति में खड़ा करते हैं. उस कहानी के किसी भी बिन्दु अथवा तत्व पर आप बात नहीं करते, करते हैं तो केवल और केवल भाषणबाजी, उदाहरण दृष्टव्य है: `उपमहाद्वीप अजय नावरिया की लेखनी से निकली एक अद्वितीय कहानी है, कहानी की खूबी है उसका शिल्प, भाव, शैली के आधार पर कह सकता हूँ कि यह कहानी अजय नावरिया की अपनी सब कहानियों पर भारी पड़ती है। अपनी इस एकमात्र कहानी के दम पर भी नावरिया अपने आपको ना केवल एक कथाकार के रूप में स्थापित करते हैं, अपितु कथाकारों में प्रथम पंक्ति में आकर खड़े हो जाते हैं।” ऐसे कई निष्कर्षात्मक किन्तु निराधार कथन आपके लेख में भरे पड़े है, फिलहाल आपका एक दिलचस्प, किन्तु निराधार(संदर्भ रहित) कथन देखा जाए: “अजय नावरिया दु:ख, पीड़ा और संघर्ष में भी रोमान्स की सृष्टि करते हैं।” मैं पाठकों से पूछना चाहूँगा कि क्या ऐसे निराधार कथन प्रमाण की अपेक्षा नहीं रखते? अगर मैं कहूँ फलाना या ढिमाका कहानीकार की कहानियां स्त्री और दलित-मुक्ति विरोधी हैं या राजद्रोहात्मक हैं तो क्या पाठक, लेखक आलोचक मुझसे प्रमाण नहीं मांगेंगे? मुझे सिरफिरा या बदमिजाजी नहीं कहेंगे? अवश्य कहेंगे, क्योंकि जानना ही मानना की तरह `कहना ही होना` नहीं हो जाता. कहना न होगा हबड़–तबड़ हड़बड़िया पाठक या दर्शक की तरह किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा कृति की आलोचना करना उतना ही बड़ा जघन्य अपराध है जितना की बिना अनुमति के किसी के शरीर का जबरन स्पर्श.
आदरणीय अजय नावरिया जी,
आपकी संपादकीय दृष्टि से मुझे कुछ शिकायत है..... चर्चा अपरिहार्य होने के साथ अनिवार्य
इसलिए भी हो जाती है ताकी सनद रहे!
·
हंस के नवम्बर, 2019 के अंक में
बतौर अतिथि संपादक आप अपने संपादकीय में लिखते हैं: “इस विशेषांक में जो कुछ अच्छा
है वह मित्रों के सहयोग के कारण और जो कुछ कमी रह गई है, वह मेरी मानिए।” इस आधार
पर हंस के दलित विशेषांक में जो कुछ अच्छा लगा उसके लिए आपके मित्रों को बधाई, किन्तु
क्या सतीश खनगवाल जी के आलेख से रत्नकुमार सांभारिया और उनकी पाँच कहानियों के
शिल्प पर की गयी चर्चा के गायब होने का जिम्मेदार आपको ही माना जाए जबकि स्वयं
सतीश खनगवाल जी भी यह स्वीकार चुके हैं की उनके आलेख में कुल सात कहानीकारों की कुल पैंतीस कहानियों के
शिल्प पर बात की गई थी। इतना ही नहीं कंवल जी के आलेख में पच्चीस से अधिक
कहानीकारों की चर्चा की गई किन्तु ‘बेचैन’ जी जैसे प्रमुख कहानीकार का गौण किया
जाना बतौर अतिथि संपादक आपको क्यों रास आया?
· राजेन्द्र यादव जी लंबे समय तक
हंस का संपादन आर्थिक और शारीरिक
दुरावस्था में भी लगातार करते रहे, किन्तु क्या कभी उन्होंने अपनी ही पत्रिका में
अपनी ही प्रशंसा के लेख, अथवा टिप्पणी प्रकाशित किये जबकि हंस के संपादक से पूर्व
वे बतौर कहानीकार, उपन्यासकार, आलोचक और अनुवादक प्रतिष्ठित हो चुके थे?
·
हंस के दलित विशेषांक का अतिथि
संपादन अजय नावरिया जी कर रहे हैं यह जानकर भी कंवल जी अपने लेख में नावरिया जी की
प्रशंसा के पुल बांधते तनिक नहीं सकुचाते। तिस पर नावरिया जी सगर्व उसे अपनी ही पत्रिका
में प्रकाशित कर फूले नहीं समाते हैं। क्या यह बात एक कुशल और स्थापित कहानीकार के लिए
शोभनीय और न्यायोचित लगती है? आप स्वयं जिस पत्रिका का संपादन करते है वहां स्वयं
को `प्रथम`, `अद्वितीय` ,`कलावादी`, अंतर्राष्ट्रीय कथाकारों में प्रथम`,`कहानी के
इस दौर को दलित साहित्य के इतिहास में अजय नावरिया का युग.......,`प्रकाशित करना अपनी
ही पूजा या वंदना करना अथवा करवाना नहीं तो और क्या है? जबकि आप स्वयं अपने संपादकीय
में लिखते हैं, “मैं व्यक्ति पूजा का विरोधी हूँ।” आपकी कथनी और करनी में ऐसा विरोधाभास
क्यों?
·
आज हंस के दलित विशेषांक को प्रकाशित हुए अरसा बीत
गया। इतना तो स्पष्ट हो गया की दलित साहित्य को पढ़ने वालों में गंभीर पाठकों का
भी अभाव है. शायद इसका बड़ा कारण यह भी हो कि यहां दलित साहित्यकारों-चिंतकों में एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति कुछ ज्यादा ही
बढ़ गई है वरना कंवल जी की आलोचना और नावरिया जी की तानाशाही की निन्दा के अनेक पत्र
हंस में ही छपे होते न कि स्वयं लेखकों को ही आगे आना पड़ता, जैसे की स्वयं रत्नकुमार
सांभरिया या खनगवाल जी को आना पड़ा(और कोई चारा भी नहीं था)। मैं इस संबंध में
बेचैन जी की सदाशयता मानता हूँ कि यह जानकर भी की उन्हें कंवल साहब ने दलित कहानी
के इतिहास में नेपथ्य में धकेल दिया है, नेस्तानेबूत कर दिया है वे आज भी अपनी
चुप्पी बनाए हुए हैं और एक तरफ कंवल भारती साहब हैं जो यह जानकर भी कि उन्होंने गलती
की है, उनसे गलती हुई है बजाय माफी या भूल स्वीकार करने के अपनी दर्पी और
अभिमानी चुप्पी बनाए हुए हैं। जैसे दलित साहित्य जगत उनकी इस भर्त्सनावादी आलोचना से पूर्णतः बेखबर हो!
एक
बार में तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि उठा-पठक की यह राजनीति उन लेखकों ने खेली है
जिसका मैं आरंभ से ही कायल रहा, विशेषकर कंवल भारती साहब का जिन्होंने गोरख पांडे
की कविता से इतना सार्थक अंतःपठीय संवाद साधा था:
‘चिड़िया
जाल में फंसी, क्योंकि
वह
भूखी थी।’ -गोरख पांडे
‘चिड़िया
जाल में फंसी, क्योंकि
वह
चिड़िया थी।’ -कंवल भारती
विचारणीय है- चिड़ियों का यह दल अगर पंख से पंख मिलाकर नहीं उड़ेगा तो निश्चित ही एक नए जाल में फंस जाएगा, उस जाल का नाम होगा- वाग्जाल.
‘भूख’, ‘चिड़ियापन’ और ‘वाग्जाल’, तीन महाजाल हम शावकों को डराते हैं और अंततः दलित चिंतकों से उम्मीद करते हैं की वे चिड़िमार ना बने, मिलकर साथ रहें...!
एक साधारण पाठक और शोधार्थी
ऋत्विक भारतीय