“’एसे ऑफ एलिया’ पर जो होमवर्क दिया था, कर लिया पूरा?” सूजन ओ लेेरे ने कहा।
“पूरा किया न!”
“चार्ल्स लैम अच्छे लगते हैं?”
“बहुत!”
“पर क्यों भला?”
“इसलिए कि वे सपनीले हैं!”
“आज तो तुम फटापट जवाब दे रही हो! लेरे हंस पड़ी। अच्छा चलो, शेक्सपियर का सरल पाठ पढें!” कल्याणी की पीठ पर रूलर कसमसा तो रही थी, पर वह उठी और शेल्फ से ‘टेल्स फ्रॉम शेक्सपियर’ निकालकर टीचर को पकड़ा दिया। गोल फ्रेम का चश्मा लगाकर लेरे ने किताब खोली।
“ओ माँ, ये क्या है किताब के भीतर, इतना आकर्षक?“ खिड़की से आते प्रकाश-वृत्त में मोर पंख के झिलमिलाते हुए रेशे वे मुग्ध भाव से देखती रहीं, देखती रही उसके सतरंगी वितान का वैभव-गाढ़ा नी ला-हरा-तूतिया-फीरोजा-सब रंग गले- गले मिलते गये थे वहां।
“तुम लोग किताबों में मोरपंख रखते हो! किताबों में तो ज्यादातर फूल ही रखे जाते हैं न!” लेरे ने कहा, “यह तुम्हें मिला कहां, बच्ची?”
“स्कूल की एक पुरानी सहेली ने दिया मोरपंख!”
मिस ओ लेरे की आंखों पर फ्रेम की चमक कल्यांणी को मंत्रमुग्ध करती थी। गाढ़ा-नीला-भूरा, स्वच्छ प्रेम! सरोवर थीं वे आंखें! जब भी वे हंसती, वे और तेज झिममिलाती। कल्याणी का जी करता कि वह उनमें डूब जाएं! उसका जी करता वह उनकी झुर्रियां तब तक सहलाती रहे जब वे सीधी न हो जाए! पर इन झुर्रियों के बिना तो मिस सूजन ओ लेरे की पहचान ही मिट जाती।
“पुराने स्कूल की याद आती है, कल्याणी?”
“ओ मिस--- मैं---मैं---
क्या कहूं।“ कल्याणी बात पूरी न कर पायी।
सुबकती हुई लड़की को बांहों में समेटना जरूरी था। मिस लेरे कुर्सी से उठ खड़ी हुई और धीरे-धीरे उसकी पीठ सहलाने लगी, हां-इसका ध्यान रखा कि उस जगह हाथ न पड़े जहां रूलर था।
हिम्मत नहीं हारनी है, मेरी बच्ची! मैं हूं न! अंगरेजी के लिए मैं, गणित के लिए तुम्हारे पिता--और तुम्हारी बुआ-- नाम क्या है उनका?”
“अलाई।“
“हाँ, अलाई! वे तुम्हें तमिल पढ़ाती है और भारतीय महाकाव्य! हो सकता है कि तुम्हारा पति भी तुम्हें पढ़ाए-जब तुम उसके साथ रहो!”
कल्याणी ने उसकी छातियों में अपना चेहरा छुपा लिया और ओ लेरे अथिर रही; उसकी पीठ सहलाती हुई!
“पढ़ाई-लिखाई या स्कूल की याद उतना विचलित नहीं करती जितनी दोस्तों की। और घोड़ा-गाड़ी पर स्कूल तक का सफर भी बहु
कितने खेल खेला करते थे---“
लैवेण्डर फूलों की गंध जो मिस लेरे के फ्रॉक से उठती, कल्याणी को कहीं गहरे आश्वस्त कर जाती! उनकी गोदी में सर रखने से चैन घिर आता!
“अब तो मैं घर पर अकेली खेलने को अभिशप्त हूं! अकेले खेलने में वो मजा कहां? सहेलियों आती भी हैं तो कभी--कभी-वह भी त्योहारों पर, उनके भी खेलों पर प्रतिबन्ध-सा लग गया है।“
“मानती हूं, खेल का रंग चोखा तो संगी-साथियों के साथ ही होता है! इसमें क्या शक कि ये दिन दोस्तों के साथ खेलने-कूदने के थे!” अब तक कल्याणी भी कुछ संभलकर बैठ गयी थी, ध्यान से उसने आगे की बात सुनी-
“‘आयरलैण्ड या इंग्लैण्ड में तो यों खाली बैठना लोलो देवी बन जाना ही माना जाता! अभी नहीं खेलोगी तो क्या तीस बरस की उम्र में उछलोगी कहीं जाकर?” बात करती-करती वे उद्विग्न होकर बार-बार देखने लगीं। बड़ी खिड़की के बाहर चमकीली बयार में सुकुमार तम्बई आम्रपलव झिर-झिर झूम रहे थे।
“यह सचमुच भयानक है- गुड़िया खेलती बच्चियों का विवाह-बंधन, पढ़ाई-लिखाई छुड़वाकर घर-गृहस्थी के चक्करों में उन्हें फंसा देना! वीभत्स!” आत्मालाप करते हुए उनकी निगाह करौटन के पत्तों पर थी!
“पहले मैं नौकरों के साथ या उनके बच्चों के साथ खेला करती, पर सास और चाची सास उखड़ गयी कि नौकरों के साथ खेलते फिरना बहू की गरिमा से बाहर है! पता है, मिस, बहुत दिन पहले की बात है, एक बार हमारे यहां एक बहू ने नौकरों के साथ कौड़ियाँ खेली!”
“तो?”
“वह मेरी चाची थी- परिअम्मा-सब औरतों से ज्यादा सुन्दर--- आठ की उमर में ब्याह हो गया था। एक दिन घर के काम-काज निबटाकर खाली बैठी थी! मन नहीं लग रहा था तो ब्राह्मण रसोइए के बेटे के संग कौड़ियां लगी खेलने। तभी पति महोदय घर लौट आए, आव देखा न ताव, बाप-मां से शिकायत लगा दी कि ऐसी पत्नी उनको नहीं चलेगी, अब दूसरा ब्याह रचाया जाए!”
“लाहौलविला कुव्वत!”
“और उन्होंने दूसरी शादी कर भी ली!”
“तो क्या उस पहली बच्ची को माता-पिता के पास भेज दिया गया?य्
“अरे नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता!”
“ऐसा कैसे?”
मां कहती है कि मां-बाप की त्यागी हुई ऐसी बहुओं को वापस घर नहीं आने देते, खासकर वैसे मां-बाप जिन्हें और बेटियां ब्याहनी हो, इससे इनका उनका नाम खराब होता है! परिअम्मा के मां-बाप भी उसके पति ने आगे गिड़गिड़ाए कि उन्हें बड़ी पत्नी की तरह घर के किसी कोने में पड़े रहने दें।–पति भी इस शर्त पर माने कि दुबारा वे उनके सामने नहीं पड़ेगी तो चौके के अंधेरे कोने में रसोइए की ही तरह उन्होंने अपनी बाकी दिन गुजारे। छोटी पत्नी के बच्चे पाले, छोटी पत्नी और बच्चे उसकी इज्जत भी करते रहे---“
ओ लेरे ने हथेलियों में चेहरा छुपाकर डेस्क पर रख लिया- उनके खिचड़ी बाल हर ओर बिखर गये! कुछ देर बाद जब चेहरा उठाया तो वह खासा उदास था!
“अब ध्यान से सुनो, कल्याणी-चाहे जो हो जाए, अपनी बात पर कायम रहना। तुम्हारा वजूूद तुम्हारा अपना है, यह देह भी तुम्हारी अपनी है! इसे अपनी रौ में बढ़ने दो! इस देह में भीतर पूरे सम्मान से रहो जैसे कि देह एक मन्दिर हो!”
“मन्दिर?”
हां, यह देह अपनी देह की इज्जत करना सीखो! यह तुम्हारा इकलौता शरीर है, तुम्हारी आत्मा का एकलौता घर! तुम्हें इसकी इज्जत करनी है, कोई और करे न करे!”
कल्याणी के पल्ले पूरी बात पड़ी नहीं, लेकिन उसने मुस्कुराकर सिर हिला दिया।
“चलो, तुम मुस्कराई तो! अब वापस पाठ पर आते हैं! आओ, मस्तवाला पाठ पढ़ें-‘ऐज यू लाइक इट!’
ओ लेरे धीरे-धीरे पाठ पढ़ने लगी ताकि कल्याणी हर शब्द आत्मसात कर पाए! पूरे कौशल से वे पात्रानुकूल लरज-तरज संवादों में भर रही थी! पंद्रहेक मिनट के लिए कल्याणी सब झमेले बिसर गई- वह स्कूल जो उसे छोड़ना पड़ा था, वे खेल जिन्हें खेलने की मनाही थी, वह खूबसूरत बड़ी माँ परिअप्पा जिसकी औकात उनके दूल्हे ने दिखा दी थी। वह बिल्कुल खो गई उस डयूक की कहानी में जिसका राज-पाट छीनकर उसके अपने ही भाई, फ़रडीनेण्ड ने उसे वनवास दे दिया था! मजे की बात यह थी कि इन दोनों भाइयों की बेटियों, रोजलिन और सीलिया को घरेलू पचड़ों से कोई वास्ता नहीं था, उनकी आपसी दोस्ती बरकरार रही! उन दोनों बहनों के साथ कल्याणी भी वन के चक्कर लगाती रही- कभी रोजलीन की तरह मर्द-वेष में, कभी सीलिया की तरह चरवाहिन के भेष में! उसे खूब मजा आया ये सोचकर कि दोनों बहनों ने क्या खूब उल्लू बनाया सबको! सुधी विदूषक टचस्टोन और उसकी लड़की भी कितने दिलचस्प थे। लेरे ने अपने बाचन से एक-एक दृश्य में प्राण डाल दिए! एक कमरे के भीतर पूरा नाटक उसकी आंखों के आगे उजागर था! गानों और कविता के वाचन में तो उनकी संगीतात्मकता अद्भुत रूप से उभरकर सामने आ रही थी।
“ये दो सरल गाने तो तुम हृदयगम की कर लो! देखो, ये वाले--- ओ लेरे ने कहा!” मैं धीरे-धीरे इनका वाचन करूंगी-तुम मेरे पीछे गाना!”
“जी, मिस!”
“इन हरियल पेड़ों के नीचे लेटेगा कौन आंखें मीचे?”
“बहुत अच्छा! अब आगे का हिस्सा याद करो- नाटक में इसे, जेक्स आदि गाते हैंः
सब गोरख-धंधे बिसारे,
लेटे नदी के किनारे—“
“बड़ी होने पर तुम मूल शेक्सपियर पढ़ना-वह एक विराट् अनुभव होगा”- पंक्तियां रेखांकित करती हुई ओ मेरे बोली!
“जी, मिस!”
“बोलो, बहुत अच्छा!”
“बहुत अच्छा!”
“कल्याणी, जाने में पहले क्या मैं तुम्हारे पिता से मिल सकती हूं?”
“जरूर, मिस! मैं उनके पास लिए चलती हूं, आइए!”
ओ लेरे को लम्बे बरामदे से गुजारकर कल्याणी शीशे के रंगीन मोतियों और रंगीन ट्यूबों की जिस गझिनक बुनावट के सामने खड़ा कर गई- उस पर छत से आती हुई दोपहरी की धूप कुछ ऐसे पड़ रही थी कि वे दंग रही गयीं , इंद्रधनुषी वैभव के कई झिलमिल वृत्त उनकी आंखों में अद्भुत चकाचौंध-सी भर रहे थे! दरवाजे पर ऊपर से नीचे तक लहलहाता हुआ वह पर्दा इतना जरा-सा खिसकाया कल्याणी ने ओर फिर पूरा कमरा मीठी रूनझुन से भर गया!
इन शीशे के कमरों से छनकर आती हुई धूप कल्याणी औ ओ लेरे के चेहरों पर तरह-तरह की धूपछांही आकृतियां रच गयी थी!
कल्याणी ने अंदर आने का इशारा किया पर विस्मयविमुग्ध ओ लेरे के कदम ठहर ही गये थे! ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं से वह पर्दा निहारती हुई
वे रुकीं!
उनके रामकूप के मोतियों की रलमल का अद्भुत संगीत पी रहे थे। भीनी-भीनी उँगलियों की छुअन एक अद्भुत संगीत बन कर शीशे के मोतियों के उस मायावी पर्दे के चित्त से ही उठ रही थी!
“कल्याणी! यह तो अनूठी चीज है! कहां मिली?”
“घर पर ही बनी है मिस!”
“इतना लम्बा पर्दा--- किसने तैयार किया?”
“हम सबने मिलकर-मेरी मां, अथाई और दादी-सबकी उंगलियों का कमाल है यह!”
“बना कैसे?”
“सारा का सारा काम हम जमीन पर साघते हैं! डिजाइनों की एक किताब है, उसमें से डिजाइन छांटते हैं, फिर शीशे के मोती-मनके और ट्यूब। उस डिजाइन के अनुसार इन्हें जमीन पर सजाकर हम तार से उन्हें गूंथ लेते हैं आपस में!”
ओ लेरे ने ध्यान से देखा कि ऐंठी हुई, लगभग मदमाती ग्लास की टोलियां घटती-बढ़ती नील वल्लरियों में दीवार पर, फर्श पर, चेहरों पर कैसी अद्भुत कलाकृतियां रचती जा रही थी, कई छोटी-बड़ी लहरिल आकृतियां! नीली लहरें हरी लहरों में घुल रही थी, फिर लाल में मग्न हुई जा रही थी! सूर्य की नौ रश्मियों का शीशे के मनकों से दिलकश विलास! ओ लेरे ने ऐसा अद्भुत दृश्य देखा नहीं था।
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“आप मेरे पिता से मिलना चाहती थी न, मिस?” कल्याणी ने धीरे से उनका ध्यान तोड़ा! ओ लेरे की भाव-तंद्रा टूटी तो हां-हां हुई करती हुई वे उस कृत्रिम बरामदे में प्रवेश कर गयी जहां एक नीची गोलमेज के एक तरफ बेंत की नई कुर्सियां पड़ी थी! कमरे के बीचों-बीच विशालकाय कड़ियों से छत पर जड़ा हुआ महोगनी का एक झूला लगा था! बरामदे के अंत में वह कक्ष था जहां कल्याणी ‘अप्पा-अप्पा’ पुकारती खड़ी हो गयी!
“ऐसे पुकारो नहीं, बेटी हथेली पलटकर उंगलियों के पोहों से धीरे-धीरे दस्तम दो और प्रतीक्षा करो!
ओ लेरे ने खटखटाकर बताया!
“कौन?” भीतर से गूंजती हुई एक आवाज बाहर आयी।
“अप्पा, मैं कल्याणी!”
“अच्छा-अच्छा, क्या चाहिए तुम्हें?”
“अप्पा, मेरे साथ मिस ओ लेरे आयी हैं! वे आपसे मिलना चाहती हैं!”
यह सुनते ही दरवाजा एकदम से खुल गया।
“गुड ऑफ्टरनून, मिस ओ लेरे! आइए न!”
विनयपूर्वक स्वामीनाथ अÕयर दरवाजा खोलकर खड़े हो गये ताकि उन्हें प्रवेश में कोई दिक्कत न हो।
“धन्यवाद, अय्यर साहब, आपको थोड़ी फुर्सत हो तो कुछ देर बात कर लूं!”
उन्हें सोफे पर बैठने का इशारा कर अय्यर साहब बोले, “आपसे बात करना अपना सौभाग्य समझता हूं।“
विस्तृत बैठक के एक कोने में सहमी खड़ी कल्याणी की ओर देखकर ओ लेरे ने कहा, “आपकी बच्ची का अंगरेजी-ज्ञान संतोषजनक प्रगति कर रहा है, अय्यर साहब!”
“यह तो आपकी कृपा का प्रसाद है, आपने उसके साथ बहुत धैर्य बरता है!” यह कहते हुए कल्याणी पर उनकी आंख पड़ी।
“दौड़कर जाओ, देखो, भाई किस चक्कर में हैं!” उन्होंने कहा और ओ लेरे बोल पड़ी,
“हां, जाओ, कुछ देर तो खेल लो!”
चैन की सांस भर कल्याणी फरार!
“खुलकर बात कर ले, मिस लेरे! चिंतातुर भवें सिकोड़कर अय्यर साहब बोले।
“कल्याणी बहुत तेजस्वी है, अंगरेजी सीखने की उसकी त्वरा से मैं साफ अनुमान लगा सकती हूं कि कोई भी भाषा वह जल्दी सीख सीखती है! उसका सामान्य ज्ञान भी बहुत भी बहुत अच्छा है---।“
अय्यर साहब का तनाव बना हुआ था।
“मुझे घुसपैठी न समझें तो एक बात कहूं?”
“मैं कान खोले बैठा हूं-- घुसपैठिया और आप?”
“कल्याणी बहुत छोटी है, अभी तो बारह की भी नहीं हुई!”
“जी?”
“मैं उसे पढ़ाने बैठती हूं तो यह बात मुझे खाए जाती है कि उसका ब्याह हो चुका है-- यह उम्र और ब्याह!”
“जी-- पर करूं क्या! हमारी परम्पराएं, हमारे रिवाज हमें चारों ओर से जकड़े हैं! परिवर्तन की गति बहुत धीमी है, पर कल्याणी आपसे तब तक अंगरेजी पढ़ती रहेगी जब तक वह हमारे यहां है!” उन्होंने आश्वस्त किया।
“यानी कि तब तक जब तक वह रजस्वला नहीं हो जाती---“
इस बेबाकी पर अय्यर साहब सकते में आ गये! उनका चेहरा एकदम लाल हो गया! किसी औरत ने, खासकर घर के बाहर की औरत ने उनसे इस बेबाकी से बात करने की हिम्मत नहीं की थी!
महोगनी के डेस्क पर रखी कलम-दावत पर आंखें गड़ाए बैठे रहे तो ओ लेेरे ही आगे बोलीं-
“जानती हूं कि आपके देश की यह प्रथा है, पर पति के घर जाने पर कल्याणी की शिक्षा तो अधूरी रह जाएगी।“
“मुझे पूरा विश्वास है कि उसकी ससुराल उसकी शिक्षा में बाधक नहीं होगी! उसके ससुर, जस्टिस रामस्वामी मेेरे साथ ही विलायत में वकालत पढ़े और मेरे भावी दामाद, नटराजन ने भी अच्छे अंकों से अंगरेजी (प्रतिष्ठा) की परीक्षा पास की है, वह भी प्रेसिडेंसी कॉलेज, मद्रास से!”
“आपका रुतबा कम नहीं, अय्यर साहब। वह दिन मेरी स्मृति में अच्छी तरह बैठा है जब मैं आपके यहां नौकरी की बातचीत करने आयी थी! तीन सड़क छोड़कर मेरा घर था। वहां से साइकिल चलाती हुई आयी और जैसे आपका पता पूछा तो लोग गेट तक पहुंचाने को उत्सुक हो गये। एक ने गेट तक छोड़ा भी! सबको आपका घर मालूम था।“ मोहक मुस्कान के साथ ओ लेरे बोलीं तो अय्यर साहब भी मुस्कराए बिना न रह सके।“
“आपके जैसे पढ़े-लिखे वकील के यहां भी बाल-विवाह?
वह भी तब जब पूरी वकील मण्डली बाल विवाह बिल के समर्थन में उमड़ पड़ी है? आप कानून की अवहेलना करें- यह आश्चर्यजनक है!”
“मिस लेरे, इस विडम्बना से मैं अवगत हूं!” अय्यर साहब के चेहरे पर उदासी की एक लकीर खिंच गयी।
दावत में स्याही थी! बैठे-बैठे महोगनी की लकीरें लगे गिनने।
“आपकी विवशता मुझे झटका दे गयी। कानून तोड़ने वालों में आपकी गिनती मुझे अटपटी जान पड़ती है।“
अय्यर साहब मेज की सतह पर आंख गड़ाए बैठे रहे! वहां से दावात तक पांच लकीरें उठ गई थी!
“आपने गलती तो की है पर कानूनी बिरादरी के सम्मुख इसका औचित्य आप ‘कस्टमरी लॉ’ के तहत प्रतिपादित करते होंगे। इस ‘कस्टमरी लॉ’ का दूसरा नाम’ सर्वसम्पत्ति से फरमाई गयी क्रूरता भी हो सकता है। रिवाज क्रूर हों, तब भी निभाए जाने चाहिए? दबा हुआ गुस्सा अब ओ लेरे भी आंखों में अंगार बनकर चमकने लगा।
बड़े जंगले के पीछे धूप में चिड़ियों का कलरव गूंज रहा था। भाग्यवान है चिड़ियां! ये अपने बच्चों की शादी बचपन में नहीं करतीं।
“अय्यर साहब?”
“ओ बाबा! आंसू न गिराएं! प्लीज। पुरुष को रोते देखना आसान नहीं। मैंने आपको चोट पहुंचायी है तो मुझे माफ कर दें!”
ओ लेरे परेशान होकर इधर-उधर टहलने लगी, फिर इधर-उधर देखती हुई कुर्सी पर बैठ गयी! क्या करें? किससे मदद मांगे? कैसे इस स्थिति से उबरें?
जेब से एक सफेद रूमाल निकालकर अय्यर साहब ने अपनी आंखें पोंछीं।
“क्षमाप्रार्थी हूं, अय्यर साहब! आपको चोट पहुंचाने का मेरा कोई इरादा न था! कल्याणी