मध्यकालीन कृषक और कबीर — प्रो. कृष्ण कुमार सिंह

 



क्रांतद्रष्टा कवि कबीर की विचारधारा का स्रोत मध्यकाल के मनुष्य के सामाजिक जीवन में निहित है। मध्यकालीन भारतीय समाज की ऐतिहासिक शक्तियों के विश्लेषण के बिना कबीर के साहित्य के अन्तःकरण का उद्घाटन नहीं किया जा सकता है। सामंती ढांचे पर आधारित मध्यकाल के भारतीय साहित्य की बुनियाद किसान थे। वे मुख्य उत्पादन-शक्ति थे। जमींदारी प्रथा भूमि-व्यवस्था का आधार थी।

ऐसी स्थिति में जमींदारों द्वारा किसानों का शोषण स्वाभाविक था। वस्तुतः सामंत वर्ग द्वारा किसानों का शोषण सामंतवाद का प्रमुख लक्षण है। प्रो. रामशरण शर्मा भारतीय संदर्भ में सामंतवाद को एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था मानते हैं जिसमें किसानों की जमीन और देह पर अपने उच्च अधिकारों के द्वारा सामंत वर्ग उपज का सारा अतिरिक्त हिस्सा हड़प लेता था और किसानों के पास उतना ही छोड़ता था जितना खा पहनकर वे उस वर्ग के लाभ के लिए आगे भी मेहनत मशक्कत करते रह सकें।”[1]

कबीर जुलाहे थे, किसान नहीं। किन्तु, वे किसानों से दूर नहीं थे। अपने समकालीन समाज से पूरी ईमानदारी से जुड़े रहने वाले कबीर बहुसंख्य किसान समुदाय से परिचित न होते, तो यह एक आश्चर्यजनक बात होती। निश्चय ही, यहाँ आश्चर्य की गुंजाइश नहीं है। कबीर अपनी जमीन से इतने घुले-मिले थे, इतने सराबोर थे कि उनकी रचनाओं में जमीन की महक बराबर मिलती है। उनका काव्य इस बात का साक्षी है कि वे किसानों के सुख-दुःख, उनकी मुसीबतों, विपत्तियों से परिचित नहीं, गहरे स्तर पर जुड़े भी हैं। एक कवि के रूप में कबीर और एक सामाजिक वर्ग के रूप में किसान का संबंध क्या है ? कबीर की रचनाओं में चित्रित किसान जीवन का स्वरूप क्या है? प्रस्तुत प्रसंग में यह हमारी मुख्य जिज्ञासा है। कबीर के काव्य में चित्रित किसान जीवन की चर्चा से पूर्व मध्यकालीन सामंती व्यवस्था में एक वर्ग के रूप में किसानों की स्थिति की चर्चा अपेक्षित है।

मध्यकालीन निर्गुण भक्ति आंदोलन के विकास में दस्तकारों की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्रो. इरफान हबीब ने उनकी भूमिका को रेखांकित करते हुए बतलाया है कि तेरहवीं – चौदहवीं शताब्दी में केंद्रीय सत्ता की स्थापना के बाद व्यापार में स्थिरता आई। शासक वर्ग की विलासिता संबंधी तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बड़े पैमाने पर दस्तकारों को पर्याप्त काम मिलने लगा। फलतः कई नए पेशे विकसित हुए और इसका अनुकूल असर उनकी आर्थिक स्थिति पर पड़ा। आर्थिक स्थिति में सुधार होने पर उन्होंने अपनी हीनतर सामाजिक स्थिति के प्रति गहरा असंतोष प्रकट करते हुए सामाजिक सम्मान प्राप्त करने का प्रयास किया। यह स्वाभाविक था। आकस्मिक नहीं है कि अधिकांश संत कवि तथाकथित निम्न जातियों से आए। स्पष्ट है कि निर्गुण भक्ति आंदोलन में दस्तकार वर्ग समान रूप से शामिल था। लेकिन प्रो. इरफान हबीब के अनुसार इस आंदोलन में किसानों की कोई व्यापक भूमिका नहीं थी।”[2] इसके कारण ऐतिहासिक हैं। आंदोलन में किसानों की व्यापक भूमिका हो भी कैसे सकती थी? दस्तकारों की आर्थिक स्थिति अवश्य सुधरी थी, जबकि किसानों की हालत और बिगड़ गई थी। उन पर शोषण का शिकंजा और मजबूत हो गया था।

पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में किसानों की हालत अत्यंत दयनीय थी। उनके उत्पादन के अधिकांश पर सामंत वर्ग का कब्जा था। उन पर लगान का भारी बोझ था। किसानों पर कई तरह के कर लगाए गए थे, जिनमें मुख्य था - खरज। उत्तर भारत के बहुत बड़े भाग में किसानों की कुल उपज का आधा हिस्सा खरज के रूप में वसूल किया जाता था। प्रो. इरफान हबीब ने लिखा है कि किसानों की पूर्ण तबाही ही खरज के परिणाम को कम कर सकती थी।[3] इसके अलावा किसानों के आवास तथा मवेशियों पर भी कर लगाए गए थे जो क्रमशः 'घरी' तथा 'चराई' कहलाते थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन करों से प्राप्त आय का इस्तेमाल सामंत वर्ग द्वारा अपनी विलासिता-संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा विशाल सेना के रख-रखाव के लिए किया जाता था।

मध्यकाल में किसानों की पीड़ा का अंत नहीं था । भारी भूमिकर ने उन्हें पीस डाला था। कर निर्धारण में राजस्व अधिकारी बहुत हेरफेर करते थे और किसानों से अधिकाधिक लगान की मांग करते थे। मोरलैंड ने लिखा है कि राजस्व अधिकारी और उनके सहायक गाँव के मुखिया से मिलकर, उनसे साँठ-गाँठकर किसानों को पीड़ित करते थे।[4] किसानों से लगान की वसूली अत्यंत सख्ती से की जाती थी। किसान यह सबकुछ सहने के लिए बाध्य थे। कर्मचारियों द्वारा किसानों का दमन इस कदर होता था कि वे चूँ तक नहीं कर सकते थे।[5] चौतरफा शोषण दमन के व्यूह में घिरे किसानों की दयनीयता का अनुमान लगाया जा सकता है। स्थिति इतनी भयंकर थी कि किसानों को अपने बीवी-बच्चों को बेचकर लगान चुकाना पड़ता था। यह बात अविश्वसनीय लग सकती है लेकिन इसके पर्याप्त ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं। मोरलैंड के शब्दों में राजस्व वसूली में बरती जाने वाली क्रूरता तथा छल कपट के कारण किसान अपनी पत्नियों तथा बच्चों को बेचने को विवश थे। बकाया लगान वसूलने का यह मान्य तरीका था।[6]

वस्तुतः मध्यकाल में कृषि पद्धति अधिकारों की नहीं, करों की पद्धति थी। मतलब यह कि खेत जोतना किसानों का अधिकार नहीं, बल्कि राज्य के प्रति कर्तव्य था। वे खेत जोतने को बाध्य थे, भले ही उन्हें फायदा हो या न हो। इतनी विपरीत परिस्थितियों में की जाने वाली खेती से किसानों के फायदे का सवाल ही कहाँ उठता है? ऐसी स्थिति में वे जमीन छोड़कर भागना चाहते थे, लेकिन इसकी इजाजत उन्हें नहीं थी। अगर वे भागने में सफल हो जाते तो उन्हें फिर से पकड़कर वापस लाया जाता था। यदि किसान किसी भी तरह लगान अदा नहीं कर पाते, तो वे दास बनने को अभिशप्त थे। सल्तनत काल तथा मुगल काल में बड़ी संख्या में दासों की मौजूदगी इस बात का प्रमाण है। प्रो. इरफान हबीब अधिकारों से वंचित मध्यकाल के किसानों को अर्धदास की संज्ञा देते हैं।[7]

प्रो. इरफान हबीब का विचार है कि मध्यकाल में “किसानों का सामाजिक परिप्रेक्ष्य शहरी दस्तकारों के सामाजिक परिप्रेक्ष्य से बिल्कुल भिन्न था। उन पर पड़ने वाले आर्थिक दबावों ने भिन्न-भिन्न रूप ग्रहण किया था।”[8] वस्तुतः जिन ऐतिहासिक कारणों से दस्तकारों की आर्थिक दशा सुधरी थी, उन्हीं कारणों से उस काल के किसानों की दशा बिगड़ी थी। संक्षेप में, उनकी चर्चा की जा चुकी है। यह बात निर्विवाद है कि शहरी दस्तकार और किसान दोनों एक ही वर्ग– शोषित वर्ग – के थे। पेशे से जुलाहे कबीर इसी शोषित वर्ग, श्रमजीवी वर्ग के हैं और उनकी विचारधारा की रचना में इस वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका है। स्वभावतः कबीर के हृदय में अपने वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति है।

साहित्यकार अपने समाज का सबसे भावुक और विचारशील प्राणी होता है। उसके हृदय पर समाज की हर गतिविधि, हर धड़कन का असर पड़ता है और यह गतिविधि, यह धड़कन उसकी लेखनी के जरिए अभिव्यक्त होती है। आगे हम देखेंगे कि कबीर की रचनाओं में मध्यकालीन सामंती व्यवस्था में जमींदार वर्ग द्वारा शोषित, पीड़ित किसान वर्ग की जीवन-स्थितियों विशेषकर उसकी पीड़ा, उसकी निस्सहायता की अत्यंत प्रामाणिक अभिव्यक्ति मिलती है। उनका एक पद लें -

अब   बसूं इहि  गाउँ  गुसाई ।

तेरे  नेवगी  खरे सयाने हो  राम ॥

  नगर एक तहं जीव धरम हत, बसै जु पंच किसाना ।

  नैनूं, नकटूं, श्रवनूं, रसनूं, इंद्री कहा न मानै हो राम ॥

      गाउ  कु  ठाकुर  खेत  कु  नेपै, काइथ  खरच   पारै ।

   जोरि जेवरी खेत पसारै, सब मिलि मोकौं मारै हो राम ।।

     खोटौ  महतौ  विकट  बलाही, सिर  कसदम  का  पारै ।

बुरौ  दिवांन दादि नहीं लागै, इक बांधै इक मारै हो राम ।।

     धरमराइ   जब  लेखा  मांग्या,  बाकी  निकसी  भारी ।

 पांच किसाना भाग गए हैं, जीव धर बांध्यो पारी हो राम ।।

     कहै  कबीर  सुनहु  रे  संतौ,  हरि  भजि  बांधौ  भेरा ।

 अबकी  बेर  बकसि  बंदे  कौ, बहुरि न भौजलि फेरा ।।[9]

यहाँ रूपक की भाषा में कबीर मानव शरीर को एक ऐसा गाँव बताते हैं जिसमें आत्मा के अतिरिक्त आँख, नाक, कान, जिह्वा तथा इंद्री रूपी किसान निवास करते हैं। लेकिन, ये सब आत्मा का कहना नहीं मानते हैं। भले ही इस पद में आए किसान, काइथ, दीवान आदि पदों का आध्यात्मिक संदर्भ में प्रतीकवत् प्रयोग हुआ क्यों न बताया गया हो, मध्यकालीन सामंती व्यवस्था से पीड़ित किसान वर्ग के जीवन से संबंधित कई महत्वपूर्ण तथ्य इसमें अभिव्यक्त हुए हैं। निश्चय ही, यह गहरे विश्लेषण की मांग करता है।

सामंत वर्ग द्वारा किसानों के व्यापक शोषण तथा उसके फलस्वरूप उनकी भयानक दुर्दशा की चर्चा की जा चुकी है। आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह पराधीन किसान गाँव छोड़कर भाग ही नहीं सकता था। इसके लिए कड़ी-से-कड़ी सजा का विधान था। कबीर के उपर्युक्त पद में किसान गाँव में रहने की अनिच्छा प्रगट करता है, वह गाँव छोड़कर भागना चाहता है। गाँव छोड़ने का कारण एकदम स्पष्ट है – तेरे नेवगी खरे सयाने हो राम।अर्थात् राज्य के कर्मचारी बहुत चतुर हैं, बहुत धूर्त हैं। लगान-निर्धारण में राजस्व कर्मचारियों द्वारा हेरफेर करके तथा मुखिया के साथ साठ-गांठ करके किसानों को लूटा जाता था। वस्तुतः वे बिचौलिये थे – जमींदार और किसानों के बीच के लोग। किसानों को लूटकर वे अपनी तिजौरी भरते थे। आकस्मिक नहीं कि प्रो. सतीशचन्द्र उस काल के राजस्व कर्मचारियों की गिनती समृद्ध वर्ग में करते हैं। उनके अनुसार “राजस्व कर्मचारियों की समृद्धि का आधार वेतन नहीं, बल्कि उनकी चालबाजी थी, जिसमें भूराजस्व का गबन तथा घूसखोरी शामिल थी।”[10] स्पष्ट ही, किसानों के उत्पीड़न में धूर्त राजस्व कर्मचारियों की भूमिका से कबीर अच्छी तरह परिचित हैं।

      कबीर गाँव के ठाकुर द्वारा खेत नापे जाने की चर्चा करते हैं। प्रो. बी. एन. एस. यादव के अनुसार ठाकुर “10वीं शताब्दी के बाद से शासक भूस्वामी अभिजात वर्ग की एक प्रसिद्ध उपाधि है।”[11] जहां तक जमीन की नाप-जोख का सवाल है, वह पूर्व मध्यकाल में ही आरंभ हो गई थी। इस संदर्भ में किसानों के साथ होने वाले अन्याय के बारे में प्रो. रामशरण शर्मा ने लिखा है “जब जमीन की पैमाइश की पद्धति का व्यापक प्रसार हुआ और उपज सावधानी के साथ निर्धारित की जाने लगी, किसानों के हितों को आघात पहुंचा। कारण, जमीन की पैमाइश करने और उसकी उपज निर्धारित करने में प्राकृतिक आपदाओं का ख्याल नहीं रखा जाता था और उन दिनों, मनुष्य के पास इन आपदाओं का सामना करने का साधन तो लगभग नहीं ही था। इस प्रकार नई लगान पद्धति से किसानों के बजाय राज्य को ही अधिक बचत होने की संभावना थी, क्योंकि पैदा न होने पर भी राज्य और सामंत किसानों से अपने हिस्से की मांग कर सकते थे।”[12] स्पष्ट है कि खेतों की पैमाइश में किसानों के साथ अन्याय होता था, मनमानी होती थी । देखें इस संदर्भ में कबीर क्या कहते हैं? उनका कहना है कि जमींदार खेत नापता है। जरीब अर्थात् जमीन नापने की रस्सी के द्वारा बेईमानीपूर्वक खेत की नाप अधिक बताई जाती है। इस नाप-जोख का हिसाब पटवारी रखता है। जमीन से प्राप्त होने वाले लगान में उसका भी हिस्सा बंधा होता था। अतः जमीन की नाप ज्यादा बतलाने में उसका स्वार्थ समझ में आता है। इस तरह गलत-सही उपायों से उसके पास इतनी संपत्ति हो जाती है कि कबीर के अनुसार वह उसे खर्च नहीं कर पाता था – “काइथ ख़रच न पारै।”

महतो शब्द का प्रयोग गाँव के मुखिया के अर्थ में मध्यकाल से हुआ है। कबीर की दृष्टि में वह खोटा है, क्योंकि उसकी मिलीभगत से ही राजस्व कर्मचारी किसानों को लूटते थे। बलाही अर्थात् लगान वसूल करने वाले अधिकारी ऐसे विकट हैं, कठोर हैं कि लगान न देने पर वो किसानों के बाल उखाड़ डालते हैं – “सिर कसदम का पारै।” प्रसंगात् कांबले ने लिखा है कि यदि किसान सामंतों की झोलियाँ भरने के लिए अनेक अन्याय पूर्ण कर न दे पाते थे, तो उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता था और उन्हें निर्दयता पूर्वक पीटा जाता था।[13] प्रस्तुत पद में अधिकारियों द्वारा किसानों का बाल उखाड़ना उसी निर्दयतापूर्वक पिटाई का एक नमूना है, प्रमाण है। आगे कबीर कहते हैं कि दीवान के पास इस घटना की शिकायत करने पर भी किसान को न्याय नहीं मिलता है। दीवान राजस्व विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी होता था। उससे न्याय न मिलने की जो बात कही गई है, वह बिलकुल सही है। उस अधिकारी से न्याय की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है जिसका इतिहास, मोरलैंड के शब्दों में, “भ्रष्टाचार का इतिहास” था।[14]

कबीर के इस पद में प्रयुक्त दीवान से एक अत्यंत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य का उद्घाटन होता है। इतिहासकार मानते हैं कि मुगलकाल से पूर्व दीवान से व्यक्ति नहीं संस्था का बोध होता था। मोरलैंड ने लिखा है -“तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में अरबी शब्द दीवान का अर्थ आधुनिक शब्द विभाग या मंत्रालय के सदृश था। पंद्रहवीं शताब्दी का उपलब्ध साहित्य अपर्याप्त है, इसलिए मुझे नहीं मालूम कि दीवान का अर्थ कब बदला, किंतु अकबर के समय तक दीवान से संस्था नहीं, व्यक्ति का बोध होने लगा था।”[15] कबीर के पद में दीवान शब्द का अधिकारी के अर्थ में प्रयोग हुआ है, जिसमें पंद्रहवीं शताब्दी तक उक्त अर्थ में इसके प्रचलन की पुष्टि होती है। इससे इतिहास में नया शब्द जुड़ता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि मोरलैंड को कबीर का उपर्युक्त पद मिला होता तो वे इस संदर्भ में पंद्रहवीं शताब्दी के साहित्य की अपर्याप्तता की चर्चा न करते।

“इक बांधै इक मारै हो राम” यह कथन किसानों की बेबसी और निस्सहायता को मूर्तिमान कर देता है। इसमें जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है। आगे धर्मराज द्वारा हिसाब किए जाने पर बकाया निकलने की बात कही गयी है। स्पष्ट ही, यह किसानों पर लगान का बकाया है, भारी बकाया। उसे अदा करने की क्षमता किसानों में नहीं है। उससे निकलने का एक ही रास्ता रह जाता है – पलायन। अतः किसान गाँव से भाग गए हैं। वे कामना करते हैं कि इस बार उन्हें माफ कर दिया जाए, तो फिर वो इस भौजलिमें नहीं आएँगे। कहने की आवश्यकता नहीं कि चौतरफा शोषण, उत्पीड़न के व्यूह में घिरा हुआ किसान राजा राम की शरण में जाता है और अपनी व्यथा बिना किसी लाग लपेट के उन्हें सुनाता है। इतने सारे कष्टों से घिरे हुए व्यक्ति के सामने कोई दूसरा मार्ग नहीं था। भक्ति आंदोलन का मूल कारण जनता का कष्ट है। प्रसंगात् मुक्तिबोध ने लिखा है कि “इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भक्ति भावना की तीव्र आर्द्रता और सारे दुःखों और कष्टों के परिहार के लिए ईश्वर की पुकार के पीछे जनता की भयानक दु:स्थिति छीपी हुई थी। भक्ति आंदोलन का आविर्भाव एक ऐतिहासिक सामाजिक शक्ति के रूप में, जनता के दुःखों और कष्टों से हुआ।[16] निश्चय ही, कबीर का उक्त पद मुक्तिबोध की इस स्थापना को पुष्ट करता है।

गाँव के लेखपाल, पटवारी तथा अन्य राजस्व अधिकारियों द्वारा किसानों के शोषण, उत्पीड़न की चर्चा निम्नलिखित पंक्तियों में भी मिलती है –

हरि के, लोगा मोकौ नीति डसे पटवारी ।

ऊपर भुजा करि मैं गुरु पहि पुकार तिन हौ लिया उबारी ।।

 तब डाडी दस मुंसफ धावहि रइयति बसन न देही ।।

       डोरी पूरी मापहि नाहीं बहु विष्टाला लेही ।।[17]

किसान पटवारी की नीति से परेशान है। ‘मोको’ पद किसान के लिए आया है क्योंकि पटवारी का संबंध किसानों से ही होता था, बुनकरों से नहीं। पटवारी के अत्याचारों से रक्षा करने वाला कोई नहीं, इसलिए किसान अपनी व्यथा किसी अधिकारी या जमींदार को नहीं, बल्कि हरि के लोगों अर्थात् भक्तों को सुनाता है और गुरु अर्थात् ईश्वर द्वारा अपने उबारे जाने की बात करता है। दु:खमोचन, त्राणकर्ता के रूप में ईश्वर की फैंटेसी उसे राहत देती है, यह स्पष्ट है। बाद की दो पंक्तियाँ काफी महत्वपूर्ण हैं। वे मध्यकालीन सामंती व्यवस्था में मौजूद उस पूरे तंत्र को बेनकाब करती हैं जो किसान को सब तरह से लूटता था। ‘नव डाडी दस मुंसफ धावहि में धावहि शब्द कितना व्यंजक है! डाडी वस्तुत: ‘डंडी से बना है, जिसका प्रयोग ‘सर्वेक्षक’ या ‘सर्वेयर’ के लिए होता था।[18] वह जमीन की पैमाइश की देख-रेख करने वाला अधिकारी होता था। पटवारी, सर्वेक्षक और मुंसफ-कार्यपालिका से न्यायपालिका तक के अधिकारियों की यह कैसी तिकड़ी है? छोटा कर्मचारी किसान का शोषक, सर्वेक्षक किसान का शोषक और जिसके पास किसान शिकायत लेकर जाता है वह ‘मुंसफ’ भी अन्याय का ही पक्षधर! अब कौन बचता है जिससे उम्मीद की जाए?

मध्यकाल में समूह रूप में किसान को रैयत कहा जाता था। एक तो राज्य द्वारा किसानों पर लादा गया अत्यधिक कर का बोझ, दूसरे पटवारी, सर्वेक्षक आदि अधिकारियों द्वारा जमीन की पैमाइश में गड़बड़ी और तीसरे न्याय नदारद। किसानों के कष्ट की कोई सीमा नहीं।डोरी पूरी मापहि नाही बहु बिष्टाला लेहि – इस पंक्ति से यह स्पष्ट है कि किसानों की जमीन की सही-सही माप नहीं की जाती थी। इससे यह पता चलता है कि कबीर के जमाने में जमीन की माप डोरी से ही की जाती थी। इसमें बेईमानी की गुंजाइश अधिक रहती थी। डोरी भींगी रहने अथवा सूखी रहने से छोटी अथवा बड़ी हो सकती थी। कबीर के किसान की शिकायत कितनी वाजिब है कि नापने वाला डोरी को उसकी पूरी लंबाई में नहीं खींचता, जिससे जमीन का रकबा ज्यादा निकल आता है। इस तरह जमीन की नाप उससे ज्यादा बताई जाती थी जितनी कि वास्तव में वह होती थी। जमीन की नाप अधिक होने से किसानों पर लगान का बोझ और बढ़ जाता था। इतना ही नहीं बहु बिष्टाला लेहि का मतलब यह है कि सर्वेक्षण अधिकारी किसानों से बेगार भी लेते थे। बिष्टालाशब्द संस्कृत के विष्टिशब्द से बना है जिसका अर्थ है मुफ्त का मजदूर।[19] ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक बेगार की प्रथा के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं।[20] लेकिन, कबीर की उपर्युक्त पंक्तियों में बिष्टालाशब्द इस बात का प्रमाण है कि उनके जमाने में भी कमोबेश बेगार की प्रथा थी। यह मध्यकालीन इतिहास के हमारे ज्ञान में इजाफा करता है।

रइयति बसन न देही” – कबीर की यह टिप्पणी कितनी यथार्थपरक है! स्पष्ट है कि वह किसानों के उजाड़ने के लिए उनके शोषक कर्मचारियों और अधिकारियों को जिम्मेदार मानते हैं।  किसान अपने खेत पर डटे हैं, गांव में बसे हैं लेकिन शासक सामंत वर्ग द्वारा पैदा की गई परिस्थितियाँ उन्हें उजाड़ देती हैं, कहीं भी स्थाई रूप से बसने नहीं देती हैं। वस्तुतः किसान गाँव छोड़कर भागने के लिए विवश थे। रूसी इतिहासकार अन्तोनोवा ने इस संदर्भ में लिखा है दमन और उत्पीड़न के खिलाफ उनका विरोध अक्सर पलायन का रूप ले लेता था।[21] ऐसी ही स्थितियों ने मध्यकाल में जनता को गुरुअर्थात् ईश्वर की शरण में जाकर फरियाद सुनाने को बाध्य कर दिया था।

कबीर ने मध्यकालीन भारतीय सामंती समाज में मौजूद न्याय-व्यवस्था की कलई खोल दी है। किसानों को न्याय न मिलना वस्तुतः मध्यकालीन समाज में कानून के वर्ग-आधार को सूचित करता है। सामंती या कि पूंजीवादी व्यवस्था में सत्ता के समान न्याय-व्यवस्था पर शासक वर्ग का ही कब्जा होता है। वस्तुतः असमानता और अन्याय की बुनियाद पर टिकी हुई व्यवस्था में न्याय की कामना तपती मरुभूमि में शीतल जल की कामना है। पंद्रहवीं-सोलहवीं  शताब्दी में कबीर के किसान को न्याय नहीं मिलता है, लेकिन क्या बीसवीं शताब्दी में प्रेमचंद के किसान को न्याय मिलता है? प्रसंगात् थोड़ा रुक कर देख लें।

गोदानका एक पात्र रामसेवक कहता है – यहाँ तो जो किसान है वह, सबका नरम चारा है। पटवारी को नजराना और दस्तूरी न दे, तो गांव में रहना मुश्किल। जमींदार के चपरासी और कारिंदों का पेट ना भरे तो निबाह न हो। थानेदार और कानिसिटेबुल तो  जैसे उसके दामाद हैं।  जब उनका दौरा गांव में हो जाए, किसानों का धरम है, वह उनका आदर-सत्कार करें, नगर-नयाज दें, नहीं एक रिपोर्ट में गांव का गांव बंध जाए। कभी कानूनगो आते हैं, कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी, कभी जन्ट, कभी कलक्टर, कभी कमिसनर। किसान को उनके सामने हाथ बाँधे हाजिर रहना चाहिए। उनके लिए रसद-चारे, अंडे-मुर्गी, दूध-घी का इंतजाम करना चाहिए। .... हाकिम भी जमींदार का ही पच्छ करते हैं।"[22] अन्यत्र पं. दातादीन से झिंगुरी सिंह कहता है – “कानून और न्याय उसका है, जिसके पास पैसा है।.... कचहरी-अदालत उसी के साथ है जिसके पास पैसा है।”[23] चौतरफा शोषण के शिकार प्रेमचंद के युग के किसान मध्यकाल के किसानों से कहाँ भिन्न हैं? क्या यह समानता आकस्मिक है? सच पूछा जाए तो मध्य काल के किसान शोषण के जिस शिकंजे में जकड़े थे उसका कसाव प्रेमचंद के युग तक भी बहुत ढीला नहीं हुआ था। दोनों ही युगों के किसान लगभग समान स्थितियों में जीने को विवश थे। दोनों ही न्याय के मुँहताज हैं। यहाँ किसान जीवन के प्रमुख चितेरे प्रेमचंद और मध्यकाल के भक्त कवि कबीर की तुलना का सवाल नहीं है। सवाल यह है कि कबीर ने अपने जिन कुछ पदों में अपने समय के किसानों की जीवन-स्थितियों का चित्र खींचा है वह कितना यथार्थपरक और प्रामाणिक है। कबीर की रचनाओं में मध्यकालीन किसान वर्ग की दयनीयता का मर्मस्पर्शी चित्रण हमें आधुनिक युग के भारतीय किसानों का स्मरण दिलाता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि वह चित्र जितना यथार्थपरक और प्रमाणिक है, उतना ही आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिक भी।

विपरीत परिस्थितियों में जीने को बाध्य मध्यकाल का किसान यदि अपने जीवन से तंग आ गया हो, और नहीं जीना चाहता हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। वह हाथ उठाकर ईश्वर से अपनी व्यथा और अपनी इच्छा निवेदित करने के अलावा कोई रास्ता नहीं पाता –

बाबू   ऐसा   है  संसार   तिहारो,  ईहै   कलि   ब्यौहारो ।

को  अब अनख सहत प्रतिदिन को, नाहिन रहनि हमारो ।।[24]

निश्चय ही, यह प्रतिदिन का 'अनख' या अन्याय सहने वाले किसान की व्यथा का मार्मिक अंकन है। इन पंक्तियों में उसकी वेदना मूर्तिमान हो उठी है। धर्म पीड़ित प्राणी की कराह है” – मार्क्स की इस प्रसिद्ध उक्ति को नकारने की हिमाकत कौन कर सकता है ?

किसान और कृषि-कर्म से संबंधित शब्दावली का प्रयोग कबीर की रचनाओं में अनेक स्थानों पर मिलता है। यह कृषि-कर्म से कबीर के अच्छी तरह परिचित होने का प्रमाण है।  निम्नांकित पंक्तियां देखें –

“सिंह सार्दूल हर एक जोतिन, सीकस बोइन धाना ।

    बन को भलुइया चाखुर फेरैं, छागर भये किसाना ॥”[25]

इन पंक्तियों को उलटबाँसी कहा जा सकता है। लेकिन, ये मध्यकाल के किसानों की दशा का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती है। पहले शाब्दिक अर्थ लें। सिंह ने सिकसअर्थात् ऊसर भूमि में हल चलाकर धान की बोआई की। जंगल के भालू ने उसमें उगे खर-पतवार की निराई-गुड़ाई की। चाखुर फेरना का मतलब है खर-पतवार निकालना। किसान छागर अर्थात् बकरा बन गया है। अब जरा इसमें निहित व्यंग्यार्थ को पकड़ने का प्रयास किया जाए। मध्यकाल के किसानों की दयनीय हालत से हम परिचित हैं। उनकी जमीन की पैमाइश में उनके साथ होने वाले अन्याय की चर्चा भी की जा चुकी है। शासक वर्ग द्वारा हर वर्ष खेती योग्य जमीन में वृद्धि के लिए फरमान जारी किए जाने के संबंध में ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं। मोरलैंड ने लिखा है - “साम्राज्य के क्षेत्रों की – सूखे या सिंचित, शहरी या ग्रामीण, मरुभूमि या जंगली, नदी और तालाब किनारे के – सबकी माप की गई जिससे कि सभी परती भूमि पर खेती की जा सके और, इस प्रकार, राजकोष की आमदनी बढ़ायी जा सके।”[26] खेती योग्य उर्वर भूमि पर खेती करके भी किसान वर्ग तबाह था। ऊपर से यह आदेश कि ज्यादा से ज्यादा जमीन में खेती की जाए, चाहे वह जमीन बंजर ही क्यों न हो। राजस्व विभाग के भ्रष्ट अधिकारियों के लिए सुनहरा अवसर होता था। ऊसर, बंजर जमीन की गलत सही पैमाइश करके वे किसानों के नाम दर्ज कर देते थे। इस प्रकार, किसान के पास जितनी वास्तविक खेती योग्य जमीन होती थी, उससे कहीं अधिक बताई जाती थी। ऐसी स्थिति में उन पर लगान का बोझ दुगुना हो जाता था। जिस जमीन में उन्होंने खेती नहीं की, उसका लगान भी उनसे वसूल किया जाता था। आज हमारे सामने ऐसे कई मामले आते हैं जिनमें सड़कें और पुल आदि भ्रष्ट अधिकारियों की फाइलों में बनकर तैयार हो जाते हैं, जमीन पर उनका कोई अस्तित्व नहीं होता। वस्तुतः उन पर खर्च न किया गया पैसा खर्च दिखाया जाता है। यह आधुनिक उलटबाँसी है, जो आसानी से समझ में नहीं आती। उसी तरह मध्य काल में किसानों द्वारा आबाद न की गई भूमि को भी आबाद मान लिया जाता था। सिंह और भालू, वास्तव में मध्यकालीन शासक वर्ग के भ्रष्ट राजस्व अधिकारी हैं जिनके बीच बेचारा किसान बकरा बना हुआ है। उस व्यवस्था में किसान के लिए छागरसे अधिक सार्थक संज्ञा और क्या हो सकती थी? प्रो. कमला प्रसाद उलटबाँसी को आज की शब्दावली में फैंटेसीकी संज्ञा देते हैं।[27] जरूरत है ऐतिहासिक संदर्भ में कबीर की उलटबाँसियों को डिकोड करने की।

कबीर की एक साखी में रहट की चर्चा है – “नैना नीझर लाइया रहट बसै निस धाम।[28] बात ईश्वर से जीव के बिछोह के प्रसंग में की गई है। इस वियोग में बराबर आँखों से आँसू गिरने का सादृश्य दिन रात कार्यरत रहट द्वारा पानी निकालने की क्रिया से स्थापित किया गया है। भले ही मात्र सादृश्य के लिए हो, लेकिन क्या रहट की चर्चा आकस्मिक है? सल्तनत काल में भारत में रहट के इस्तेमाल ने कृषि के क्षेत्र में क्रांति ला दी थी। उस समय यह सिंचाई का सबसे आसान और कारगर साधन था। हालांकि प्रो. इरफान हबीब भारत में रहट के प्रवेश का समय मोटे तौर पर तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में निर्धारित करते हैं।[29] लेकिन, साथ ही वे यह भी लिखते हैं कि “भारत में अपने सारे आधारभूत हिस्सों के स्पष्ट विवरण के साथ रहट का सबसे पहला वर्णन बाबर (1526-30) द्वारा किया गया शास्त्रीय वर्णन है।”[30] बाबर के हवाले से वे यह भी बताते हैं कि उस समय रहट का प्रचलन लाहौर, दीपलपुर और सरहिंद के इलाके में था।[31] लेकिन कबीर की उक्त साखी में रहट शब्द का प्रयोग इस बात का सूचक है कि उनके समय में रहटका प्रचलन न सिर्फ लाहौर आदि क्षेत्रों में, बल्कि मध्य भारत में भी रहा होगा। कबीर की रचना में प्रवेश करने से पहले रहट ने कबीर के आसपास के इलाकों में प्रवेश किया होगा। जिस सहजता से यह शब्द आया है वह इस बात का प्रमाण है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इससे मध्यकाल के इतिहास में एक नया तथ्य जुड़ता है।

कृषि कर्म से संबंधित अनेक छोटी-छोटी बातों की जानकारी कबीर को है जिनका इस्तेमाल सादृश्य विधान के कई प्रसंगों में हुआ है। उदाहरण के लिए एक जगह वे कहते हैं –

“बुधि मेरी किरषी, गुरु मेरो बिझुका, अक्सर दोई रखवारे ।”[32]

मध्यकाल में ही नहीं, आज भी किसान खेत में जानवरों को डराने के लिए पुतले खड़े कर देते हैं, जिन्हें बिजूखा कहा जाता है। यह बिझुका बिजूखा ही है। कबीर स्वयं किसान नहीं थे, लेकिन यह कहने से एक तरह का संतोष अनुभव करते हैं कि बुद्धि ही मेरी खेती है और गुरु ही बिझुका है जिसके भय से पाशविक वृत्तियाँ पास नहीं फटकतीं। अन्यत्र कबीर समय-समय पर रक्षा के लिए उपयुक्त साधन का उपयोग न करने वाले व्यक्ति को उस किसान के समान बतलाते हैं जो फसल कट जाने पर खेत में बाड़ लगाता है – लुणैं खेत हठि बाड़ि करै।[33]

कबीर अपने समाज से, खासकर शोषित, पीड़ित वर्ग से बहुत गहरे, आत्मीय स्तर पर जुड़े थे। उनकी रचनाओं में इस वर्ग के दुःख-दर्द की अभिव्यक्ति जगह-जगह मिलती है। आकस्मिक नहीं है कि वे भूख की चर्चा बार-बार करते हैं। उनका विचार साफ है –

भूखे भगति  न कीजै ।

  यह माला अपनी लीजै ॥[34]

कवि अपनी बात नहीं करता है, दूसरों को भूखे पेट भक्ति न करने की सलाह देता है। निश्चय ही, यह सलाह उन लोगों के लिए है जो भूखे हैं। इसी क्रम में कबीर भगवान के सामने जीवनरक्षक आवश्यकताओं की एक सूची प्रस्तुत करते हैं –

माधो कैसी बनी तुम संगे ।

आपि न देहु न लेवउ मंगे ॥

दुई  सेर   मांगउ   चूना ।

पाउ  घीउ  संग  लूना ।।

अध  सेर  मांगउ दाले ।

मोकउ दोनउ बखत जिवाले ।।

खाट  मांगउ   चउपाई ।

सिरहाना अवर तुलाई ।।

ऊपर कउ मांगउ खीधा ।

तेरी भगति करै जनु बीधा ।।[35]

सच पूछा जाए, तो जीवन रक्षा के लिए अनिवार्य वस्तुओं की यह सूची मध्यकाल में भयंकर शोषण से ग्रस्त किसान द्वारा प्रस्तुत की गई सूची है। इस बात की पुष्टि में यथेष्ट ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं।

यहाँ जिन वस्तुओं की मांग की गई है यदि वे उपलब्ध होतीं, तो उनकी मांग का सवाल ही नहीं उठता। मध्यकाल में किसानों की स्थिति इतनी खराब थी कि उन्हें दोनों शाम भोजन भी बराबर नहीं मिल पाता था। प्रो. सतीशचंद्र उस काल के किसानों के भोजन के बारे में लिखते हैं कि अपनी उपज में से सबसे घटिया किस्म का अनाज ही अपने परिवार के भोजन के लिए उनके पास बच पाता था। यहां तक कि गेहूं पैदा करने वाले किसानों को भी गेहूँ खाने को नहीं मिलता था।[36] इसलिए दो सेर चूनाअर्थात् गेहूँ के आटे की मांग कितनी वाज़िब है! इसके साथ पाव भर घी, आधा सेर दाल और नमक की मांग है। ध्यातव्य है कि उस जमाने में घी काफी सस्ता था और निम्न वर्ग के लोग रात में खिचड़ी के साथ घी खाते थे।[37] इसी तरह आज की तुलना में पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में नमक महंगा था। यहाँ तक कि उसकी कीमत गेहूं की कीमत से दूनी थी।[38] आगे दोनों वक्त भोजन की मांग की गई है। जहां लोगों को दोनों शाम का भोजन न मिलता हो, वहाँ उसकी मांग अत्यंत स्वाभाविक है। भोजन के साथ ही सोने के लिए तकिया और चारपाई की मांग की गई है। उस जमाने में किसानों के घर में चारपाई भी मुश्किल से मिलती थी। प्रायः वे चटाई पर सोते थे।[39] एक दोहे में कबीर मध्यकाल में उच्च तथा निम्न दोनों वर्गों की सामान्य जीवन – स्थितियों की तुलना करते हुए निम्न वर्ग द्वारा सोने के लिए सेज पयारा अर्थात् पुआल के इस्तेमाल की चर्चा करते हैं –

एकनि दीना पाट पटंबर, एकनि सेज निवारा ।

    एकनि दीना  गरै  गूदरी, एकनि  सेज  पयारा ।।[40]

सूची में अगली मांग है ‘खीधा’ अर्थात् कम्बल की। जब दोनों शाम भोजन के ही लाले पड़े हों, तब कम्बल उपलब्ध होने का सवाल ही नहीं था। उस काल में अधिकांश जनता के पास पहनने के लिए मात्र कमर के नीचे का वस्त्र होता था तथा ओढ़ने और बिछाने की एक ही चादर होती थी। वैसी हालत में न्यूनतम आवश्यकता कम्बल की मांग अत्यंत वाजिब है।

‘आलोचना’ (जनवरी-मार्च 87) में प्रकाशित अपने लेख में श्री अम्बादत्त पाण्डे ने लिखा है – “इरफ़ान हबीब का यह विश्वास कि 13वीं और 14वीं शताब्दी में उद्योग धंधों और दस्तकारी की जो प्रगति हुई थी, उससे उत्पादकता बढ़ी और दस्तकारों का जीवन स्तर भी सुधरा, कबीर के प्रत्यक्ष अनुभव से मेल नहीं खाता।”[41] मध्यकाल में दस्तकार वर्ग अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में था। यह तथ्य है, जिसे इरफान हबीब ही नहीं दूसरे इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं। किसानों की अपेक्षाकृत दयनीय दशा भी सर्वस्वीकृत तथ्य है। वास्तव में, पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी का भारत असंख्य कंगाल किसानों द्वारा आबाद था।[42] जनता के बहुसंख्यक भाग किसानों की भयंकर दुर्दशा अपने आप में कोई इस बात का सबूत नहीं है कि दस्तकारों की हालत भी उतनी ही खराब थी। मध्यकाल में किसानों का सामाजिक परिप्रेक्ष्य शहरी दस्तकारों से सामाजिक परिप्रेक्ष्य में बिलकुल भिन्न था। उन पर पड़ने वाले आर्थिक दबावों ने भिन्न-भिन्न रूप ग्रहण किया था। पूर्वोद्धृत इरफान हबीब के इस कथन को पुनः स्मरण कर लें। एक ही वर्ग से विभिन्न स्तरों में आर्थिक दृष्टि से फर्क हो सकता है, होता है। कबीर की उपरिउद्धृत भोजनादि की मांग संबंधी पंक्तियों को बहुसंख्यक किसान समुदाय से युक्त सामान्य शोषित वर्ग की जीवन-स्थितियों के संदर्भ में देखें तो सारी बात साफ हो जाती है। जरूरी नहीं कि उसमें दस्तकार भी शामिल हों। दस्तकार वर्ग से कबीर का संबंध होने का मतलब यह तो नहीं है कि वे दस्तकार वर्ग के जीवन का ही चित्रण करें। कवि के चिंतन का दायरा इतना संकीर्ण नहीं होता है। पाण्डे जी यह मानकर चलते हैं कि कबीर सिर्फ दस्तकार वर्ग के जीवन से ही अच्छी तरह परिचित हैं। यह अर्ध सत्य है। सच तो यह है कि किसानों के जीवन से भी कबीर का उतना ही अच्छा परिचय है।

कबीर के रचनाओं की व्याख्या कई तरह से की जाती रही है, की जा रही है। यह स्वाभाविक है। हर व्याख्याता या आलोचक कवि को अपनी दृष्टि से देखने के लिए स्वतंत्र है। कवि के विवेचन, मूल्यांकन के संदर्भ में नए दृष्टिकोण, नए विचार का स्वागत है, बशर्ते कि वह तथ्यपूर्ण और तर्कपूर्ण हो। अतिशय मौलिकता के दावे की कभी-कभी हास्यास्पद परिणति होती है। अंबादत्त पाण्डे जी के उस लेख की एकाध स्थापना इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। पाण्डे जी कबीर के संबंध में लिखते हैं “अल्ला, रहीम, राम, कान्हा, हरि और मुरारी को उन्होंने अदृष्ट भगवान के रूप में नहीं, अपितु इसी धरती पर किसी-न-किसी अधिकारी या शासक के रूप में देखा ताकि ईश्वरीय प्रेरणा प्राप्त करके ये अधिकारी निर्धनों की सेवा कर सकें।”[43] कबीर जिस अल्ला, राम, रहीम को बार-बार जोर देकर कण-कण में व्याप्त बतलाते हैं, बतलाते थकते नहीं है, वह इसी धरती का अधिकारी या शासक है। इससे अधिक मौलिक स्थापना और क्या होगी? पाण्डे जी कबीर को क्रांतिकारी और तुलसी को परंपरावादी मानते हैं। उनके शब्दों में “कबीर की क्रांतिकारिता से तुलसी का दूर का नाता नहीं था, क्योंकि दोनों के मार्ग अलग-अलग थे।”[44] स्पष्ट है कि पाण्डे जी कबीर की जिस निर्गुण भक्ति को क्रांतिकारी मानते हैं, उसका आराध्य, जिसके प्रति कबीर पूरी तरह समर्पित हैं, यही अधिकारी या शासक है। इसी धरती पर के अधिकारी या शासक को अपना आराध्य ईश्वर मानने वाले कबीर की निर्गुण भक्ति क्रांतिकारी किस अर्थ में हुई? तुलसी के राम जो कुछ हों, कम-से-कम प्राकृत जन तो नहीं ही हैं। पाण्डे जी आगे लिखते हैं समाज में हो रहे शोषण और अत्याचारों से कबीर दुःखी हैं, अतः उस एक ईश्वर (समर्थ राजा) को बार-बार पुकारते हैं। उनके पास यही विकल्प है क्योंकि सुल्तान के दरबार में वह पहुंच नहीं सकते।[45] कबीर की ऐसी दरबार व्याकुलछवि कितनी विश्वसनीय है, कबीर के अध्येताओं को बतलाने की जरूरत नहीं। सुलतान के दरबार में वह पहुंच नहीं सकते - इस वाक्यांश से ऐसा लगता है कि कबीर दिल्ली दरबार में जाने के लिए व्याकुल हों, लेकिन बेचारे को वहाँ जाने नहीं दिया जाता। अतः लाचार कबीर दूर से ही सुलतान से प्रार्थना, फरियाद करते हैं। इस हिसाब से कहै कबीर सरनाई आयौं, आन देव नहीं मानौं[46] इस पंक्ति का भाव तो यही होगा कि कबीर ने स्वयं को दिल्ली के सुलतान के चरणों में समर्पित कर दिया है। दूसरे छोटे-बड़े राजाओं, सामंतों को वे नहीं मानते, उन्हें कोई सरोकार नहीं क्योंकि उन्हें सुलतान की कृपा प्राप्त है।

वास्तव में, मध्यकाल का अदना भक्त कवि भी दरबार की उपेक्षा करने वाला कवि है। कवि कुंभनदास अकबर और उसके दरबार के प्रति घोर उपेक्षा भाव से कहते हैं -

संतन    को    कहाँ    सीकरी    सों   काम ।

आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम ।।

फिर कबीर जैसा अक्खड़ और जुझारू कवि दीवान या सुलतान से प्रार्थना करे – यह बात गले के नीचे नहीं उतरती। अंबादत्त पाण्डे जी कबीर के बारे में लिखते हैं - राजा या दीवान के प्रशासन के प्रति उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी।[47] चर्चा की जा चुकी है कि कबीर की नजर में उस समय का दीवान कैसा था। बुरौ दीवान दादि नहीं लागे - कबीर का यह कथन पाण्डे जी कि उक्त स्थापना को निर्मूल करने के लिए पर्याप्त है।

कविता में शब्दों के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। किस तरह कोई विशेष शब्द उचित स्थल पर मौजूद होकर पूरे प्रसंग को धारदार और तेवर युक्त बना देता है इसका श्रेष्ठ उदाहरण कबीर की ये पंक्तियां हैं -

मोको   कहां   ढूंढ़े   बंदे,   मैं  तो  तेरे  पास  में ।

ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलाश में ।।

.................................………………

 मैं तो  रहौं  सहर  के  बाहर, मेरी पुरी मवास में ।।[48]

इस प्रसिद्ध पद का भावार्थ यह है कि भगवान मंदिर, मस्जिद, तीर्थ स्थान आदि में नहीं रहते। उपर्युक्त अंतिम पंक्ति में कबीर भगवान का निवास मवासमें बतलाते हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इस संबंध में लिखते हैं - मवास का अर्थ सरनबताया जाता है। ... मेरी पुरी मवास मेंका मतलब यह है कि जो सब कुछ छोड़ कर मेरी शरण आ जाता है मैं उसको सुलभ होता हूं। मैं अर्थात् भगवान।[49]

कहने की आवश्यकता नहीं कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा मवास का अर्थ शरण लगाया जाना संगत नहीं लगता है। मेरी पुरी मवास में और इस प्रकार मेरा निवास शरण में है, यह इस पंक्ति का युक्तिसंगत अर्थ नहीं है। प्रो. इरफान हबीब ने अपने एक लेख में मवास का अर्थ बतलाया है दुर्दम, विद्रोही किसानों का गांव।[50] सल्तनत काल में शासक वर्ग द्वारा किसानों पर लादे गए अन्यायपूर्ण करों तथा उनकी वसूली में अधिकारियों द्वारा उनके साथ किए जाने वाले अत्याचार तथा दमन की चर्चा की जा चुकी है। स्वाभाविक है कि जहाँ अधिकांश किसान मूक रहकर अत्याचार सहते थे, वहीं कुछ साहसी किसान इसका विरोध करने में चूकते नहीं थे। वे संगठित रूप में ही शक्तिशाली शासक वर्ग का मुकाबला कर सकते थे। ऐसे दुर्जेय और विद्रोही किसानों का गांव ही मवास कहलाता था। सल्तनत काल में शासक वर्ग द्वारा बड़ी तैयारी के साथ मवासपर हमला किए जाने तथा विद्रोही किसानों को दास बनाए जाने के प्रमाण मिलते हैं।[51] अन्तोनोवा ने चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी के बीच बड़े पैमाने के किसान विद्रोह को दबाए जाने का उल्लेख किया है।[52] अब कबीर की पंक्ति को देखें। कबीर के आराध्य अपना निवास मवासमें बतलाते हैं। क्या यह कोई आकस्मिक बात है? शोषित, पीड़ित किसानों के प्रति सहानुभूति और संपूर्ण सामंती व्यवस्था के प्रति उपेक्षा तथा विरोध का भाव रखने वाले कबीर अपने आराध्य का निवास व्यवस्था विरोधी किसानों की बस्ती में बताएँ, यह एकदम स्वाभाविक है। सामंती व्यवस्था के प्रति विद्रोह तथा बेबस विद्रोही किसानों के प्रति कवि की सहानुभूति की अत्यंत कलात्मक व्यंजना मवासशब्द के द्वारा होती है।

स्पष्ट है कि संवेदना के गहरे स्तरों पर कबीर ने मध्यकाल के उस किसान वर्ग से तादात्म्य स्थापित किया जो तत्कालीन अन्यायपूर्ण सामंती व्यवस्था में छटपटा रहा था। कबीर को किसान वर्ग की गतिविधि और उसके दुःख-दर्द की गहरी पकड़ थी। किसान वर्ग के जीवन से संबंधित उनकी रचनाओं को पढ़कर आज सहसा विश्वास नहीं होता कि उनके जमाने में इतना दैन्य, इतना शोषण, इतनी पीड़ा थी। कबीर ने किसान की पूरी व्यथा को, उसकी निस्सहायता को मूर्तिमान कर दिया है। कबीर जैसा संवेदनशील और जागरूक कवि अपने समाज की कठोर वास्तविकता से उदासीन नहीं रह सकता था। उन्होंने उस वेदना को वाणी दी जो उस समय के समाज में रिस रही थी। उनकी विद्रोही चेतना का ताना-बाना इन्हीं परिस्थितियों से निर्मित हुआ था। कबीर ने पीड़ित, दलित लोगों का पक्ष लिया था। यह पक्षधरता उन्हें उच्च कोटि का मानवतावादी बनाती है। उनका काव्य मध्यकाल के किसान वर्ग की वास्तविक स्थिति को अत्यंत प्रामाणिकता के साथ चित्रित करता है। उसमें यदि तुलसी के काव्य की तरह किसान जीवन का समग्र चित्र नहीं मिलता, तो यह कहीं-न-कहीं उनके काव्य रूप की सीमा है। लेकिन, किसान जीवन के जितने चित्र उनके काव्य में मिलते हैं, वे बिल्कुल यथार्थपरक और प्रामाणिक हैं, इसमें संदेह नहीं। यह आकस्मिक नहीं है कि इतिहासकार भी कबीर के काव्य को मध्यकाल के इतिहास के संबंध में बहुमूल्य साहित्यिक स्रोत मानते हैं।



[1] रामशरण शर्मा, भारतीय सामंतवाद, दिल्ली, 1971, पृ. 279

[2] इरफान हबीब, हिस्टॉरिकल बैकग्राउण्ड ऑफ दि मोनोथिस्टिक मूवमेंट ऑफ दि फिफ्टींथ – सेवेंटींथ सेंचुरीज शीर्षक लेख, पृ. 5

[3] इरफान हबीब, इकॉनामिक हिस्ट्री ऑफ दि देलही सल्तनत : एन एसे इन इंटरप्रेटेशन शीर्षक लेख, इंडियन हिस्टॉरिकल रिव्यू, जनवरी 1978, पृ. – 295

[4] डब्लू. एच. मोरलैंड, एग्रेरियन सिस्टम ऑफ मुस्लिम इंडिया, दिल्ली, 1968 पृ. 105

[5] इरफान हबीब, इकॉनामिक हिस्ट्री ऑफ दि देलही सल्तनत, इंडियन हिस्टॉरिकल रिव्यू, जनवरी 1978, पृ. – 296

[6] डब्लू. एच. मोरलैंड, एग्रेरियन सिस्टम ऑफ मुस्लिम इंडिया, दिल्ली, 1968 पृ. 105-106

[7] इरफान हबीब, इकॉनामिक हिस्ट्री ऑफ दि देलही सल्तनत, इंडियन हिस्टॉरिकल रिव्यू, जनवरी 1978, पृ. – 298

[8] इरफान हबीब, टेक्नॉलॉजी एंड बैरियर्स टू सोशल चेंज इन मुगल इंडिया, इंडियन हिस्टॉरिकल रिव्यू, जुलाई 1978 – जनवरी 1979, पृ. 152

[9] जयदेव सिंह एवं वासुदेव सिंह, सं. सबद, वाराणसी, 1981, पृ. 11

[10] सतीशचन्द्र, कैम्ब्रिज इकॉनामिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया में संकलित लेख, खंड I, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1984, पृ. 466

[11] मध्यकालीन भारत, अंक 1, 1981, पृ. 5

[12] रामशरण शर्मा, भारतीय सामंतवाद, पृ. 243

[13] जे. आर. कांब्ले, पर्स्यूट ऑफ इक्वालिटी इन इंडियन हिस्ट्री, दिल्ली 1985, पृ. 68

[14] डब्लू. एच. मोरलैंड, इंडिया ऐट दि डेथ ऑफ अकबर, दिल्ली, 1974, पृ. 84

[15] डब्लू. एच. मोरलैंड, एग्रेरियन सिस्टम ऑफ मुस्लिम इंडिया, दिल्ली, 1968 पृ. 14-15

[16] मुक्तिबोध रचनावली, खंड 5, दिल्ली, 1980, पृ. 279

[17] श्यामसुंदर दास, सं. कबीर ग्रंथावली, काशी, 1979, पृ. 207

[18] इरफ़ान हबीब का लेख, साप्ताहिक हिंदुस्तान, 8 मई 1998, पृ. 25

[19] वही

[20] बी. एन. एस. यादव का लेख, मध्यकालीन भारत, अंक I, 1988, पृ. 9

[21] कां अ. अन्तोनोवा, भारत का इतिहास, दिल्ली, 1984, पृ. 279

[22] प्रेमचंद, गोदान, दिल्ली, 1979, पृ. 292

[23] वही, पृ. 205

[24] शुकदेव सिंह, सं. कबीर बीजक, इलाहाबाद, 1966, पृ. 142

[25] वही, पृ. 129

[26] एग्रेरियन सिस्टम ऑफ मुस्लिम इंडिया, दिल्ली, 1968 पृ. 101

[27] कमला प्रसाद, मध्यकालीन रचना और मूल्य, दिल्ली, 1984, पृ. 26

[28] श्यामसुंदर दास, सं. कबीर ग्रंथावली, काशी, 1979, पृ. 7

[29] मध्यकालीन भारत, अंक I,1981, पृ. 23

[30] वही, पृ. 21-22

[31] वही, पृ. 23

[32] कबीर ग्रंथावली, पृ. 166

[33] वही, पृ. 127

[34] रामकुमार वर्मा, सं. संत कबीर, इलाहाबाद, 1966, पृ. 11

[35] वही ।

[36] कैम्ब्रिज इकॉनामिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया में संकलित लेख, खंड I, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1984, पृ. 461

[37] डब्लू. एच. मोरलैंड, इंडिया ऐट दि डेथ ऑफ अकबर, दिल्ली, 1974, पृ. 271

[38] कैम्ब्रिज इकॉनामिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया में संकलित लेख, खंड I, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1984, पृ. 462

[39] वही, पृ. 461

[40] कबीर ग्रंथावली, पृ. 259

[41] आलोचना, जनवरी – मार्च 1987, पृ. 54

[42] इरफान हबीब का लेख, इंडियन हिस्टॉरिकल रिव्यू, जुलाई 1978 – जनवरी 1979, पृ. 153

[43] आलोचना, जनवरी-मार्च, 1987, पृ. 52

[44] वही, पृ. 46

[45] वही, पृ. 55

[46] सबद, पृ. 125

[47] आलोचना, जनवरी-मार्च 1987, पृ. 60

[48] हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, परिशिष्ट, दिल्ली, 1985, पृ. 195

[49] वही ।

[50] इंडियन हिस्टॉरिकल रिव्यू, जनवरी 1978, पृ. 293

[51] वही ।

[52] अन्तोनोवा,भारत का इतिहास, पृ. 291