अनुपम सिंह की कविताएं


 

 

 

 तुम्हारी कठोर प्रत्यञ्चा और मेरी हिरणी का दिल

 

तुम्हारी अर्ध रात्रि की बातें

मेरे सफेद विस्तर को लाल कर देती हैं

अतृप्ति कविता को जन्म देती है 

मेरी स्त्री को सिर्फ कविता नहीं

तृप्ति भी चाहिए

 

तुम्हारी कठोर सांसे

मेरा मछली का कलेजा

जिसे पिघलाते हैं तुम्हारे मर्दाने ख्याल

अपनी तृप्ति के लिए मैं

उत्तेजना में भी लड़ती हूँ तुमसे

मेरे घर में मेरे नियम होंगे लागू

 

अर्ध रात्रि जो अतृप्ति स्त्री को बुलाते हो

तो पूरा बुलाना

आते हो तो आना पूरा

मन-मन से ईद मनाएगा

देह-देह से होली खेलेगी

 

स्त्री के अर्ध रात्रि की उत्तेजना से

पराजित तो नहीं होगा न

तुम्हारा सदियों बूढ़ा अहम

यदि क्षण के लिए भुला सको अहम अपना

तभी छू पाओगे स्त्री का चरम

 

अर्ध रात्रि में आओ तो

बिना आईना देखे आना

एक मंत्र  सिखाऊंगी

तम्हें समुद्र बनाऊंगी

मैं नाव बन जाऊँगी।

 

उत्तेजना से कभी चिल्हकते हैं

तुम्हारे सीने

नदी की तेज धारा बहती है क्या

देह के किसी अंग में

स्त्री उत्तेजना में नदी होती जाती है

 

मेरी ,अपनी उत्तेजना में फर्क देखो

तुम उत्तेजित हुए

धूल उड़ाए ,राख बरसाए

मेरी उत्तेजना ने रचा है

'भुवन त्रय'

'भुवन त्रय' की स्थिति का कारण है

स्त्री की अतृप्ति उत्तेजना

और तृप्ति की कामना

 

कहा था न !चोटिल न हो अहम

तभी आना!

कहा था न !समझना हो स्त्री का चरम

तभी आना!

ये क्या !बींध डाला न

अपनी कठोर प्रत्यञ्चा से

मेरी हिरणी का दिल।

 

2- मैं किसी रपटीली प्रजाति में बदल जाना चाहती हूं

 

मैं, यहां एकांत में

जब तुम्हारी प्रतीक्षा खत्म होने का इंतजार कर रही हूं

मेरे दीवार पर दो छिपकलियाँ एक दूसरे का पीछा करती

धीरे-धीरे कसती जा रही हैं एक दूसरे को

खिड़की के पीछे,सीसे से दिखते दो कबूतर

जैसे खींच लेना चाहते हैं एक दूसरे की नाजुक जीभ

 

जब मेरी आँखें कैद हैं इस दीवार में

और खिड़की तक का ही दृश्य देखने में सक्षम हैं

तुम्हीं बताओ,

भला ! मैं अपनी आँखें कहाँ टांग दूँ।

 

मैं, तुम्हारी प्रतीक्षा में

इस बंद कमरे में दहक रही हूं सिगार की आग-सी

मैं, अपना घर फूंक भेंटना चाहती हूं तुम्हें

तुम मुझे आमंत्रित नहीं करोगे

कि हम साथ-साथ डाल सकें इस दहकती आग में

अपनी हविषा!

क्या नहीं स्वीकार करना चाहोगे मेरा आतिथ्य!

 

मैं, रात्रि के किसी पहर में मिलना चाहती हूं तुमसे

तुम मेरे लिए अपने मध्य कक्ष में

रसभरियाँ नहीं सजाओगे!

 

मैं छिपकलियों सरीखे

किसी रपटीली प्रजाति में बदल जाना चाहती हूं

यह औरत होने से अधिक सुखदायी है।  

 

3-वन्या

मेरे देह की तरलता और लौकिक कामनाएं

दिशा दिखा रही थीं

कामनाओं की जड़ें

कोसों तक फैली थी जंगल में

अपनी गहन सुगंध से माया रचती

जिद कर रही थीं भीतर उतरने को।

 

संभोग की उद्दाम कामना के बाद भी

मेरी आंखों में रुपहली लज्जा थी

और देह किसी अंतर प्रवाही विद्युत के समान

झंकृत हो रही थी

जंगल की हजार अतृप्त कहानियां धड़क रही थीं

अकेले इस हृदय में।

 

जंगल की बेतरतीब जड़ों के बीच

हमनें अपना आसन जमाया

अवनत हो खड़ी हो गईं थीं 'मुद्राएँ'

सृष्टि देखने के उल्लास में खिल गए आकाश के रोमछिद्र

भरभरा के निकल रहे थे तारागण।

 

देह की  घुमावदार नदी बह रही थी

चांद सिरहाने का तकिया बनने

उतर आया था जंगल की जड़ों में

नदी और चांद की आभा में डूब गई थी

प्रत्यंचा-सी तनी देह

जंगली फूलों के बीच

खिल उठी मेरी जंगली देह भी।

 

उस सांझ मैंने जड़ों में छुपा पाया बसंत

बसंत बीतता नहीं

जाकर छुप जाता है जड़ों में

जिसे खोजती है एक औरत की जंगली देह

(जंगली औरत की देह)

उस साँझ जंगल से एक-एककर निकल आयीं सभी ऋतुएं

समा गयीं थीं मेरी देह में

 

वह एक आकाशोंन्मुखी साँझ थी

न देह पर पर्दा था ,न साँझ पर

आकाश को सीधे भेद रहीं थीं  मेरी दो आंखें

जंगल का कोलाहल मेरी स्वरलहरियों पर

संगीत-सा बह रहा था

 

संभोग की चमक से पराजित एक बिच्छू

अपना डंक उठाए गुजर गया था मेरी नाभि प्रदेश से

आंखों में उजास लिए जंगल में उतर रही थी रात

शीतल करने मेरी देह

जंगल में उतरीं आकाश गंगाएँ

फिर दुग्ध मेखलाएँ।

 

मेरी तन्मयता ने तोड़ दिए थे करार के सारे नियम

बस!देह थी, जंगल था, साँझ थी।

 

 

4- जलदस्यु

एक दूसरे के साथ तैराकी के लिए हम उतर गए थे

खारे से खारे जल में

हमें जल का अवगाहन प्रिय था जलदस्यु

हमने डुबों दीं अपनी-अपनी नौकाएँ

फेक दिए चप्पू अपने

हमने एक दूसरे की पीठ पर तैराकी सीखी

 

 

जल बिंदु ,स्वेद बिंदु, और देह का वह अमर कण

हमने सभी को प्रणम्य मानकर

एक दूसरे को अधिक कामुक किया

वे सभी बूंदे और तुम्हारा प्रेम जलदस्यु

मेरे ललाट पर चमक रहा है

जल-सी शीतल किरण  फूट रही है मेरे आंखों से

और तृप्ति से प्रफुल्लित मेरी यह देह देखो!

 

एक दूसरे का जल चुराते और चखते हुए

हमने जल के बीज बोए

अब उस जल के अंखुए उगे हैं

देखों तो कैसे-कैसे तरंगित हो रहे हैं

 

जल की इस  सम्मिलित धारा में

न अहम था ,न इदम

फिर भी था जल का अलग-अलग स्वाद

दूर तक के इस उत्ताल तरंग में

हमारा ही तो जल है जलदस्यु

 

वही एक जल!

एक ही आग थी जो हमें ले आयी थी जल तक

एक ही मिट्टी जो मेड़ों को तोड़

मिल रही है जल में

हे जलदस्यु!

इस जल की कीमत हम अदा करेंगे।

 

 

5-मुझे माफ करना मेरे दोस्त!

 

जब तुम्हें समझ में नहीं आ रही थी मैं

और हर बात पर मेरी विस्मित हंसी

उन दिनों मैं किसी और के प्रेम में थी

तुम अपनी सारी मुलायमियत

अंगुलियों में भर छू रहे थे मुझे

तुम अव्वल प्रेमी थे,

तुम्हारी आँखों में शावक-सी कोमलता थी

फिर भी मैं भाग रही थी तितलियों के पीछे

बस! ओस से भीगे उनके पंख और मेरी पलके थीं

पराग से सनी हुई! सुगंधित पलकें!

 

 

मुझे माफ़ करना मेरे दोस्त!

 

मैं उस रात नहीं थी तुम्हारे साथ

जब बिलगा दिया था तुम्हारा हाथ अपनी पीठ से

करवट बदल कहा था कि आज जी ठीक नहीं

मैं बना रही थी एक नाव

आकाश गंगा में उतरने के लिए

बेरा का फूल ब्रम्हकमल-सा गूंथ रही थी

बैठ ब्रम्हपुत्र के किनारे

मैं खिला रही थी अपनी बत्तखों को चारा

मछलियां मेरे बगल बैठ सुना रही थीं

जल-वासिनी होने के किस्से

मछलियों की कहन बड़ी मीठी और दुःखभरी है

तुम भी सुनना कभी उन्हें

मैं मेंढकों का संभोग देख

अचानक मुड़ी थी तुम्हारी ओर

कि जलमुर्गियों का तैरना और उस तरह डूब जाना

मुझे प्रिय लगा

 

मुझे माफ़ करना मेरे दोस्त!

 

उस रात किसी बात का जवाब नहीं दे पायी

नहीं बता पायी तुम्हें कि कोई आंख,कोई चेहरा

किसी की बाजूबंद वाली बांहें

अपनी पूरी कोमलता और कठोरता में घेरे हुए हैं मुझे

कि आज रात डूबना चाहती हूं बस उसी के हृदय में

समझना, सहेजना चाहती हूं उसी का रहस्य

उसी की निधि।

 

मुझे माफ़ करना मेरे दोस्त!

 

कि तुम्हें विस्तर पर अकेला छोड़

भीतर का दरवाजा खोल मैं उतर गयी थी

फिसलन भरी सीढियां

की एक बार मिल सकूं उसे एकांत में

उन दिनों वह मेरी बंद आँखों में झांकता था

जैसे बंद दरवाजे से अंधेरे में झांकता है कोई ढींठ बच्चा

उसकी छोटी-छोटी भेंट-मुलाकातों के बाद

मेरी अंगुलियां अधिक अपनापे से फिरीं

तुम्हारे बालों में।

 

फिर भी मुझे माफ़ करना मेरे दोस्त!

 

उस दिन सिर्फ तुम्हारे लिए उल्टे पांव

लौट आयी थी मैं

तुम्हें नवजात- सा गोंद में भर

कराया था स्तनपान

वह रात सिर्फ तुम्हारे लिए थी

तुम्हें अपनी देह से अलगा नहीं पाई थी

सवेरा होने तक!

 

लेकिन मुझे माफ़ करना मेरे दोस्त!

 

शायद! तुम्हारे साथ भी घटित हुआ हो संयोग ऐसा

कि मेरे बालों से मेरी नाभि तक अंगुलियां फिराते -फिराते

याद करने लगे हो बिछड़ गयी प्रेमिका को

जिसकी गहरी रात-सी काली आखों के बीच

सफेद चाँद-सी पुतरियाँ तुम्हें प्रिय थीं!

जिसके बाल बरगद की जड़ों की तरह

नीचे की ओर अधिक बढ़ते गए थे!

उसके गर्दन की रोमावलियाँ तुम्हें हर बात के लिए उकसाती थीं!

 

 

जीवन में हो सकते हैं कुछ छिपे हुए राज

और रहस्य

कविता सारे रहस्यों को खोल देती है!

कि तुम्हारे अचानक गुदगुदी करने पर

हँसने के बजाय रोने लगी थी जिस दिन

उस दिन मैं किसी और के प्रेम में थी

और तुम बेकसूर होकर भी अचंभित थे!

 

मुझे माफ़ करना मेरे दोस्त!

 

 

6 - बेडसीन

 

रात को बेड पर आने से पहले सोचती हूँ कि

आज तुम्हें बिल्कुल भी निराश नहीं करूंगी

भले कुछ नाटक करना पड़े

आवाजें जो तुम्हें और उत्तेजक बनाएं

दृश्य जो पूरी रात को कामुक कर दे

हल्की रोशनी, 'सीक्रेट' परफ्यूम

टेबल पर बेपरवाही से रखा कंडोम

तुम समझ सको आज का मेरा मास्टर प्लान ।

 

आदत बस फोन स्क्रॉल करती जाती हूँ

कि तुम टेबल लैंप बुझा कर आ ही रहे होंगे।

 

फोन पर मैंने टीबी सभी चैनलों के ऑनलाइन वर्जन सब्सक्राइब किया है

कभी-कभी प्रिंट चैनलों पर भी जाती हूँ

जहाँ सस्पेंस से शुरू होती हैं बातें

 

जब लोग टीबी से भागे तब कहाँ सोचे थे कि

एक टीबी जेब में साथ घूमेगा

बज उठेगा सहवास के क्षणों में भी

 

फोन से वायरल हो जाएगी प्रेमी के गोद में अधलेटी किशोर लड़की की तस्वीर

फोन पर शुरू हुआ प्रेम पहली ही मुलाकात में टूट जाएगा

 

अपनी आखिरी फोन कॉल से ही पकड़ा जाएगा मर्डर

एक दलित लड़का अपने बॉस की जातीय हिंसा की टिप्पणियां

फोन पर रिकॉर्ड कर अन्याय के सबूत जुटायेगा

कहाँ सोचा था किसी ने

मुश्किल और आसान साथ होगी जिंदगी

 

एक चैनल पर बलत्कृत लड़की का चेहरा धुंधला कर

खबर गोली की तरह चल रही है

फिर भी लोग ढूंढ लाते हैं लड़की की पूरी तस्वीर

 

एक पर लडकी से छेड़खानी करने वाले शोहदों का वायरल वीडियो

अब सामने से कोई नहीं आता बीच बचाव करने

सब वायरल करते हैं वीडियो

 

अगले पर एक महिला ने मुख्यमंत्री दफ्तर के सामने

न्याय के लिए खुद को आग के हवाले कर दिया

आग को अनवरत सुलगाने वाली औरतें

इस तरह से भी हविषा बनेंगी

कहाँ सोचा था उन्होंने

 

मैं मन का चीत्कार किसी कोने में छुपा सोचती हूँ-

तुम्हारे आने पर फोन स्विच ऑफ कर दूंगी

तुम्हें निराश बिल्कुल भी नहीं करूंगी।

 

आदत बस अंगुलियां फोन पर घूम रही हैं

थोड़ी देर कॉमेडी देखती हूँ

दो-अर्थी बातें, दूसरे की शक्लों पर भद्दा कमेंट और

महिलाओं की प्रतिभा हीनता पर फूहड़ हंसी

देखती हूँ, और हंसती हूँ-

कि हम जैसे हैं वैसे होकर

खुश नहीं हो सकते क्या !

 

मैं जीवन और खुशी के मायिने में उतर जाती हूँ।

 

कैसा था पहला पुरुष मेरे साथ

मैं कैसे थी पहले के साथ

वह आकर्षक था...

मैंने कुछ दबे लहजे में प्रेम का इज़हार किया था उससे

वह करना चाहता था सिर्फ एक 'बेडसीन'

जिसके लिए तब मैं तैयार न थी

 

 

मैं स्थगित करना चाहती हूं उलूल-जुलूल का सोचना

कि तुम आ ही रहे होंगे टेबल लैम्प बुझाकर

लेकिन सब कुछ 'ऑटो पायलट' पर है यहाँ

हठात ही दूसरा पुरुष आता है ।

 

 

दूसरा पुरुष कैसे था मेरे साथ!

मैं कैसे थी ..... !!

 

तब मैं वासनाओं के हरे जंगल में थी

खट्टे-मीठे सभी फल चखती

प्रकृति का हर कलाप कोई जादुई छुअन लगता मुझे

उधर फूल खिलते, इधर मेरे रोएं भरभरा उठते

इस तरह मैंने दूसरे के साथ अपना

पहला बेडसीन किया

 

उसने कई बार दिया विवाह-प्रस्ताव

उसके प्रस्ताव पर गौर किये बिना

मैने चाहा कि इससे बाहर निकल 'कैरियर' का रास्ता लिया जाय

कहाँ पता था कि वह रास्ता भी कहीं खो जाएगा !!

 

मैं फोन पर खाना बनाने की विधियां देखती हूँ

फिर चेहरे पर चमक लाने के नुस्ख़े

एक चैनल पर लेडीज़ पैंटी टंगी है

उसकी व्यूअरशिप देखती हूँ

सोचती हूँ कि इस महादेश को या तो इलाज की जरूरत है

या फर्जी नैतिकता का चोला उतारने की

सोचती हूँ कि कविता को पाठक तक पहुंचने के लिए कितनी अश्लीलता चाहिए होगी

 

मध्यम रोशनी, मैं रात के नीले गाउन में

एक बेडसीन के लिए खुद को तैयार करती

 

सोचती हूँ उस वक्त क्या प्रतिक्रिया थी तुम्हारी

मेरी खो चुकी वर्जिनिटी के बारे में

जब मैंने तुम्हें बताया था

तुम्हारे साथ कई-कई बेडसीन के बाद

 

याद पड़ता है कि एकदम 'पुरुषोचित'

 

मैं सो गयी हूं और मेरी अंगुलियां गरम तवे से छू जाती हैं।

 

मेरे मुंह पर एक कबूतर पंख फड़फड़ा के उड़ जाता है

7-धरती पर हजार चीजें थीं जो काली और खूबसूरत थीं

लेकिन उनके मुँह का स्वाद

मेरा ही रंग देख बिगड़ता था

वे मुझे अपने दरवाजे से ऐसे पुकारते

जैसे किसी बहुत उपेक्षित को पुकार रहे हों।

 

उनके हजार मुहावरे मुँह चिढ़ाते थे

जैसे काली करतूतें, काली दाल, काला दिल

काले कारनामे।

 

 

बिल्लियों के बहाने से दी गई गालियां सुन

मैं खुद को बिसूरती जाती थी

और अकेले में छिपकर रोती थी।

 

पहली बार जब मेरे प्रेम की खबरें उड़ीं

तो माँ ओरहन लेकर गयी

उन्होंने झिड़क दिया उसे

कि मेरे बेटे को यही मिली हैं प्रेम करने को

मुझे प्रेम में बदनाम होने से अधिक यह बात खल गयी थी।

 

उन्होंने कच्ची पेंसिलों-सा

तोड़ दिया था मेरे प्रेम करने का पहला विश्वास

मैंने मन्नतें उस चौखट पर माँगी

जहाँ पहले से ही न्याय नहीं था।

 

कई -कई फिल्मों के दृश्य

जिसमें फिल्माई गयीं थीं काली लड़कियाँ

सिर्फ मजाक बनाने के लिए

अभी भी भर आँख देख नहीं पाती हूँ।

 

तस्वीर खिंचाती हूँ

तो बचपन की कोई बात अनमना कर जाती है

सोचती हूँ कितनी जल्दी बाहर निकल जाऊँ दृश्य से।

 

 

काला कपड़ा तो जिद्द में पहनना शुरू किया था

हाथ जोड़ लेते पिता

बिटिया! मत पहना करो काली कमीज।

 

वैसे तो काजल और बिंदी यही दो श्रृंगार प्रिय थे मुझे

अब लगता है कि काजल भी जिद्द का ही भरा है

उनको कई दफे यह कहते सुना था

कि काजल फबता नहीं तुम पर।

 

देवी देवताओं और सज्जनों ने मिलकर

कई बार तोड़ा मुझे

मैं थी उस टूटे पत्ते-सी जिससे जड़ें फूटती हैं।

 

 

 

8 -मैं बालों में फूल खोंस

धरती की बहन बनी फिरती हूं

मैंने एक गेंद अपने छोटे भाई

आसमान की तरफ उछाल दिया है

हम तीनों की माँ नदी है

हमारे बाप का पता नहीं

 

मेरा पड़ोसी ग्रह बदल गया है

कोई और आया है किरायेदार बनकर

अब से मेरी सारी डाक उसी के पते पर आएगी

 

मैंने स्वर्ग से बुला लिया है अप्सराओं को

वे इंद्र से छुटकारा पा खुश हैं

आज रात हम सब सखियां साथ सोयेंगीं

विष्णु की मोहिनी चाहे !

तो अपनी मदिरा लेकर इधर रुक सकती है।

 

9 -हमारे बीच आत्मा की साझेदारी नहीं

देह का लंबा चौड़ा पाट है

जहाँ लदे हैं काटों से भरे

झरबेर के दो पेड़।

 

देह भी उतना ही जोड़ती है

एक दूसरे को

जितना आत्मा का मिथक।

 

मेरी पाठशाला का प्राथमिक सच

प्राथमिक ज्ञान

मेरी तुम्हारी यह देह है।

 

 

10 -सफेद और स्याह दिनों में भी

खिलते हैं इच्छाओं के लाल फूल!

मेरे कवि की हजार कल्पनाओं के बाद भी

मेरी स्त्री की कुछ ठोस इच्छाएं हैं।

 

नित आकाश में विचरण के बाद भी

उसे चाहिए जमीन पर एक कच्चा घर

मछलियों-सी बेबाक तैराकी के बाद भी

तपती रेत पर चलने का रोमांचक क्षण

 

अपनी खाली रह गयी रात को

किसी राहगीर से मांगकर भरने का सुख

चाहिए।

 

बिल्ली अपने बच्चे को जिस सावधानी से मुंह में दबाए रखती है

उसे देख जुड़वा बच्चों की माँ बनना चाहती है मेरी स्त्री

बस! कोई न पूछे बच्चे के पिता का नाम ।

 

11-मैं उसकी जांघ पर कुहनी टिकाए

सिगार पी रही हूं।

मैंने अपना पतझड़ उसकी टोप में छुपा दिया है

मुझसे सभी नायिकाएं रश्क कर रही हैं

कि मैंने अपना पुरुष कैसे गढ़ा

 

 

मैंने कहा -वह पुरूष नहीं

एक मायबी है मायबी

बेणुवन में रहता है

सिंह की सवारी करता है

लेकिन मैं उसके जांघ पर कुहनी टिकाए

सिगार पीती हूँ

बस इतने से ही वह पराजित है

और कन्फेशन करने के लिए तैयार है।

 

वह कहता है कि बहुत औरतें सोई उसकी जांघ पर

लेकिन इतनी बेफिक्री और अड़ियलपन

किसी में नहीं देखा

वे डरी मिमियाती भेंड़ थीं

वे सब सत्ता की गाय थीं

 

मैं जब उठूंगी उसके जांघ से सिगार पीकर

तब उसे दूसरा कोई काम चाहिए होगा

 

मैंने अपने सारे अरबी घोड़े खोल दिए हैं

कि एक पुरूष को काम मिल सके।

 

12 -मेरी कस्तूरी

 

मेरी एकरंगी दुनिया की

बहुरंगी चाहतें

जिसके बीच न कोई डगर

न पुल

बस!घनी रात,घने जंगल

 

घर में अकेले रहती मौन आत्मा

बोलने-सुनने लगी थी कोई और बोली-बानी

 

मैं जिंदगी की खड़ी चढ़ाई चढ़ रही थी

फिर वह आया

लगा जैसे  तूफान आया हो

जैसे उखड़ जाएंगे अबकी सभी पेड़

बढ़ जाएगा शोर,  हाहाकार,

नदियों का जलस्तर

 

मैंने विस्तारित कर लीं अपनी आँखें

मैंने बिल्ली की माफ़िक

एक लंबी छलांग लगानी चाही उसके सीने पर।

तर्क सीखने के बाद बेतर्क होकर प्रेम करना चाही

लज्जा के बाद भी उसके सम्मुख बेपर्द होना चाही

 

सोचा ! कि परिचय के लिए कितना कम है यह जीवन

 

 

लेकिन उसकी जल्दबाजी से पता चला कि

बस !अपनी तृष्णा मिटाने के लिए आया है।

 

मैंने उसे इस तरह देखा कि वह समझ गया

कि हड़बड़ी में दीया बुझाना मुझे पसंद नहीं।

मैंने उसे अपनी कविता के रिक्त पंक्तियों में बैठाया

 

वह थोड़ा झेंपा

मैंने उसे थोड़ी-सी रियायत दे दी।

 

उसने फिर से वही हड़बड़ी दिखाई

जोर की फूंक मारी और दिया बुझा दिया

और इस बार बिल्कुल भी नहीं झेंपा

 

मेरे सभी भवन हो गए धरासायी

मेरी सभी नौकाएं जो थीं बच निकलने के लिए

डूब गई तूफान के बाद की बरसात में

शिशिर ने खड़-खड़ करते झाड़ दिए पत्ते

बिना किसी फल के खंडित हुई मेरी तपस्या

 

 

 

मेरी देह जलने लगी आरती सजी थाल की तरह

लेकिन वह अपने लिए आया था और लौट गया

जाने के बाद लगा कि उसने मेरी रात में सेंधमारी की

 

ढही हुई चीजों  के बीच मैं इतना खो गयी

कि भूल गयी अपने गांव के

सभी मौसम, सभी ऋतुएं।

कि कौन-सी ऋतु में बोई जाती है कौन फसल

सभी फूल मसले गए उसकी चट्टानी पीठ के नीचे

 

मैंने उन फूलों को सूखने या मुरझाने से बचाया।

मैंने उन्हें खूब शीतल जल से सींचा

खिलाया अपने घर का एक-एक कोना

कम उम्र नहीं खर्च हुई

पूरे पैंतीस साल लगे वह कोना खोजेने में

जो देह में था

जैसे की कस्तूरी।