यहाँ रोज कुछ बन रहा है — अच्युतानंद मिश्र

  

    आठवें दशक की कविता की केन्द्रीय संकल्पना क्या
है? वह कौन सी दृष्टि या परिकल्पना है, जिसके तहत आठवें दशक की कविता एक नया आयाम
रचती है. आठवें दशक की कविता का प्रस्थान आज हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों हो
गया है ? आठवें दशक के कवियों और कविताओं से गुजरते हुए ये प्रश्न सहज ही पाठक के
अतःकरण में आरोपित हो जाते हैं. एक तरफ तो यह स्पष्ट है कि पूरा काव्य परिदृश्य
अपने से ठीक पहले यानि साठोत्तरी कविता के प्रति एक आलोचनात्मक रुख के साथ विकसित
होता है. कहना न होगा कि आठवें दशक की कविता ने आरम्भ में ही कविता में मौजूद राजनीतिक
मुखरता और बाह्य आक्रामकता का विरोध किया. लेकिन क्या यह प्रवृत्ति सभी कवियों में
एक सी थी, या उनके विविध आयाम थे?

आज जब हम आठवें दशक की कविता को देखते हैं तो ऐसा
प्रतीत होता है कि बहुत सारे कवियों के वैशिष्ट्य को नकारते हुए ही हम इस तरह के सामान्यीकरण
की और उन्मुख होते है.
  यह भी संभव है कि किसी दौर
विशेष में इस तरह की परिकल्पना  इजाद करना
एक रणनीतिक मजबूरी हो लेकिन आज जब हम यानि आठवें दशक के तक़रीबन तीस वर्षों बाद इस
परिदृश्य का पुनरवलोकन करते हैं ,तो यह लगता है कि इस प्रश्न को बेहद गंभीरता के साथ
पूछा जाना चाहिए कि –आठवें दशक की कविता की केन्द्रीय संकल्पना क्या है? जो
लोग संकट के समय शरणार्थी शिविरों में रहते हैं, उसे हम उनका स्थायी घर नहीं मानते.
क्या यह बात आठवें दशक की कविता के संदर्भ में जरुरी नहीं लगती? अगर हम थोड़ी देर
के लिए उसे उपरोक्त आधारों पर स्वीकार कर भी लें तो यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है
कि इसमें अरुण कमल सरीखे कवियों को हम कहाँ रखे. प्रश्न यह भी कि आठवें दशक
के तमाम कवियों का समकालीन कविता से क्या सम्बन्ध है, या हम जिसे समकालीन कविता
कहते हैं, उससे हमारा तात्पर्य  क्या है.
हिंदी कविता में जो मौजूदा परिपाटी है, उसमें समकालीन कविता का संदर्भ आठवां दशक
ही है. थोडा पीछे मुड़कर देखें तो यह याद करना कठिन न होगा कि अकविता के बाद जो कविता
विकसित हुयी थी उसे समकालीन कविता के रूप में चिन्हित किया गया था. परन्तु आठवें
दशक की कविता तो इस कविता के विरोध में विकसित हुयी थी और जब हम पिछले चालीस
वर्षों की कविता को समकालीन कविता कहते हैं तो उसमें मौजूद सारी धाराएँ एवं
अंतर्धाराओं को नकार भी रहे होते हैं. इस तरह का सामान्यीकरण किसी दौर की आलोचना
की मजबूरी हो सकती है, परन्तु मुश्किल यह है कि लगातार विकसित होता कवि आलोचना के इस
तरह के सामान्यीकरण के लिए चुनौती प्रस्तुत करता है.

आठवें दशक के तमाम कवियों के बीच अरुण कमल एक ऐसे
कवि के रूप में सामने आते हैं जो नयेपन को विषयवस्तु के रूप में कविता में लाते
हैं. अगर हम अपनी केवल धार की कविताओं को देखें तो वहां  एक युवा कवि की ऐसी कविता से हमारा सामना होता
है जिसमें एक नये समय के आगमन एवं नये परिदृश्य को रचने की आकांक्षा तथा कविता और
मनुष्य के बीच की नई जमीन तलाशने की कोशिश नज़र आती है. हालाँकि आठवें दशक की तमाम
कविता अपनी पिछली कविता यानि साठोत्तरी कविता के साथ एक आलोचनात्मक सम्बन्ध बनाकर
ही विकसित होती है, लेकिन अरुण कमल की कविता आठवें दशक की सामान्यीकृत परिपाटी से
भिन्न एक अलग स्वर रचती है .

पर आज पहली बार जब देखा है

दाल पर पकते इस फल को

तभी जाना है असली
रंग-स्वाद-गंध

इस छोटे से फल के

धरती आकाश तक फैले सम्बन्ध

                       ( जाना है )

x x x    xx

अभी भी जिन्दगी ढूँढती है
धुरी

अभी भी जिंदगी ढूँढती है
मुक्ति

कहाँ अवकाश कहाँ समाप्ति

अभी ही तो शुरू हुयी
जिन्दगी

अभी ही तो चरखे में डाली है
पुनी

                     (मुक्ति)

ये उद्धरण 
अरुण कमल के पहले संग्रह अपनी केवल धार से लिए गये हैं. इन उद्धरणों में एक
बात जो बेहद प्रमुखता से नज़र आती है, वह है एक पुराने परिदृश्य को देखती हुयी दो
नई आँखें. इन कविताओं में जो भी नया है वह कवि की दृष्टि ही है. लेकिन दृष्टि की
यह नूतनता दृश्य को भी नया बना देती है. यानी विषय और द्रष्टा के बीच का नया
सम्बन्ध.  इन कविताओं में जो भाषा है वह
चमत्कृत करने की बजाय आश्वस्त अधिक करती है. कवि और पाठक के मध्य मौजूद यह आश्वासन
की भाषा, हिंदी कविता के इतिहास एक नई परिपाटी रचती है. आठवें दशक के मध्य एक नया
स्वर विकसित होता है.

खोलता हूँ खिड़की

और चारो और से दौड़ती है हवा

मानो इसी इंतज़ार में खड़ी थी
पल्लों से सट के

पूरे घर को जल भी तसली- सा
हिलाती मुझसे बाहर मुझसे अंजान

जारी है जीवन की यात्रा
अनवरत

बदल रहा है संसार

                  (उर्वर प्रदेश ).

अरुण कमल के यहाँ बदलाव यानि परिवर्तन और
क्रमिकता यानि निरंतरता, यह दोनों एक दूसरे के विरोध में नही बल्कि एक दूसरे के
विस्तार में मौजूद हैं. अगर जीवन की यात्रा अनवरत है, तो वह परिवर्तन को अनिवार्य
बनाएगा और परिवर्तन की आकांक्षा इसी नैरन्तर्य में अंतर्न्हित होगी.

आठवें दशक की कविता में अधिकांश कवियों ने जहाँ
परिवर्तन को क्रम भंग के रूप में लिया वहीं अरुण कमल
 की कविता उसे क्रमिक विस्तार के रूप में देखती
है. नयेपन का अर्थ महज़ परम्परा भंजन नहीं होता बल्कि अपनी परम्परा के नये संदर्भो
को विकसित करना भी होता है .

अगर हम आठवें दशक की कविता को चंद कवियों के
आयोजन के रूप में न देखकर इमरजेंसी के बाद के काव्य परिदृश्य के रूप में देखने का
प्रयत्न करें तो इस कविता की बहुस्वरता को समझा जा सकता है. आठवें दशक के कवियों
ने गाहे-बगाहे यह बात दुहरायी कि आठवें दशक से प्रगतिशील कविता की वापसी होती है
लेकिन अगर हम परिदृश्य को थोड़ी गहराई से देखने का प्रयत्न करें तो यह देखा जा सकता
है कि इस दौर की कविताओं में न सिर्फ प्रगतिशील कविता की वापसी होती है बल्कि नई
कविता का पुनरागमन भी होता है. केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण सरीखे नई कविता के
कवियों ने परिदृश्य में एक बार फिर अपनी जगह सुनिश्चित की. ऐसे में यह सवाल भी
महत्वपूर्ण हो उठता है कि केदारनाथ सिंह और अरुण कमल की कविताओं को क्या हम एक ही काव्य
परिपाटी के रूप में रख सकते हैं. अगर ऐसा है तो क्या आठवां दशक प्रगतिशील कविता और
नई कविता का संधि स्थल बनता है? परन्तु यह तभी संभव है जब हम आठवें दशक के कवियों
के भीतर जिन विविध काव्य परम्पराओं की अनुगूँज है, उसे दरकिनार कर मात्र देश काल
के आधार पर उसे एक परिपाटी के विकास के रूप में चिन्हित करें. आरम्भ में बहुत सारी
बिन्दुओं के बीच की दूरी नगण्य हो सकती लेकिन उत्तरोत्तर जब वे स्वतंत्र रेखाएं बन
जाती हैं, तो उनके बीच की दूरी को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता. कमोबेश आठवें दशक की
कविता पर भी यह बात लागू होती है.

वस्तुतः आठवे दशक की कविता में कम से कम तीन
अंतरवर्ती धाराओं की गूंज अनुगूँज को देखी जा सकती है. जहाँ एक तरफ वह प्रगतिशील
कवियों की काव्य परम्परा का विस्तार थी तो वहीँ दूसरी तरफ नई कविता का नये
संदर्भों के साथ पुनरागमन भी थी. 50’ के दशक में मुक्तिबोध ने नई कविता के आत्म
संघर्ष की बात कही थी. उसके बाद से नई कविता की दो धाराएँ मुक्तिबोध बनाम अज्ञेय
उत्तरोत्तर अलग होती गयी. एक तरफ मुक्तिबोध राजकमल चौधरी से होती हुयी नई कविता
रघुवीर सहाय तक पहुँची थी तो दूसरी और अज्ञेय के सप्तकों से होती हुयी सर्वेश्वर
, श्रीकांत वर्मा, केदार नाथ
सिंह और कुंवर नारायण तक पहुँची थी. इस तरह आठवें दशक की कविता में तीनों धाराओं  की मौजूदगी  देखी जा सकती है. नई कविता की दोनों धाराओं के
बीच तर्क और संवेदना का द्वंद्ध उसी तरह मौजूद था लेकिन अब वह मात्र आत्म संघर्ष न
रहकर दो धाराओं के परस्पर संघर्ष में बदल चूका था. आठवे दशक की कविता पर इन तीनो
ही धाराओं का प्रभाव था. असद जैदी , मंगलेश डबराल, विष्णु नागर, विजय कुमार और
नरेंद्र जैन जैसे कवियों के यहाँ अगर रघुवीर सहाय की परम्परा का विस्तार नज़र आता
है तो कहीं न कहीं उसके मूल में मुक्तिबोध की काव्य प्रेरणा की भी भूमिका थी, लेकिन
इन कवियों में नागार्जुन या त्रिलोचन की कविता का लोकवादी स्वर नहीं था. इसके समाजशास्त्रीय
कारण भी थे. गाँव और शहर का बदलता व्यकरण भी था .तकनीक और पूंजी के बदलते स्वरूप
की भूमिका भी थी. आरम्भ में अरुण कमल ,विनय दुबे, गोरख पाण्डेय ,राजेश जोशी,
ज्ञानेन्द्रपति, वीरेन डंगवाल सरीखे कवि मुक्तिबोध या रघुवीर सहाय के बनिस्पत
नागार्जुन, त्रिलोचन की प्रगतिशील धारा के अधिक निकट प्रतीत होते हैं. इन सबसे इतर
एक तीसरी धारा भी थी केदारनाथ सिंह की. जिसमें नई कविता को नये संदर्भों में विकसित
करने पर बल अधिक था. यहाँ अनुभव को काल्पनिकता का पर्याय बनाने की विचित्र सी
कोशिश थी. जाहिर है ऐसा करते हुए संवेदना के स्थान पर ज्ञान और तार्किकता को
स्थापित करने की कोशिश थी. कविता को युक्ति से निर्मित करने का प्रयत्न था और उसे
ढकने या ओझल करने के लिए काव्यात्मक आवरणों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल भी था.  विनोद कुमार शुक्ल या नरेश सक्सेना की कविताओं
में हम इसका विस्तार पाते हैं. ये विभाजन किसी भी रूप में अंतिम नहीं थे और आगे चलकर
बहुत सारे प्रगतिशील परम्परा से बद्ध दीखते कवि या मुक्तिबोध की काव्य संवेदना को विस्तार
देने वाले कवि नब्बे के दशक में केदारनाथ सिंह की और चले गए. विशेषकर उनके संग्रह जमीन
पक रही है
  के बाद.  यहाँ और अधिक विस्तार में न जाते हुए यह कहना ही
पर्याप्त होगा कि केदारनाथ सिंह की समूची कविता नई कविता की संवेदनात्मकता का
अतिक्रमण नहीं कर सकी. बावजूद इसके यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि आठवें दशक में
एकदम अनूठी काव्यभाषा लेकर केदारनाथ सिंह आये .

संभवतः अरुण कमल अपनी पीढ़ी के कवियों में अकेले
नज़र आते है जो प्रगतिशील काव्य परम्परा के इस हद तक निकट हो. उन्होंने पिछले तीस
वर्षों में प्रगतिशील कविता के नये विस्तार को रचा .

जैसे ही कौर उठाया

हाथ रुक गया

 

सामने किवाड़ से लगकर

रो रहा था वह लड़का

जिसने मेरे सामने

रक्खी थी थाली (होटल)

उस लड़के का रोना धीरेधीरे कवि के भीतर और फिर
कविता में फैलता जाता है. रोने की वैयक्तिक क्रिया एक सामूहिक प्रक्रिया की कोशिश
बनती है. प्रगतिशील कविता का अर्थ यह भी है कि वह वैयक्तिक
प्रक्रिया के सामूहिक रूपांतरण की चेतना निर्मित करने में भूमिका निभाए. ,तो क्या
यही वजह है कि अरुण कमल की कविताओं में निराशा या हताशा लगभग नहीं है. वहां रुलाई
है. पश्चाताप है. उदासी भी है, लेकिन निराशा नहीं है. आठवें दशक के अन्य कवियों
में वह पर्याप्त है जिसके विस्तार बाद के कवियों में भी नज़र आता है.

व्यवसायिकता ने निराशा को भी एक कलात्मक मूल्य
में बदल दिया है, लेकिन यह निराशा एक फैशनेबुल यथार्थ या कृत्रिम यथार्थ का ही रूप
बनती है. अगर यथार्थ का कोई भी निरूपण या प्रकटीकरण विकसित होती चेतना का रूप
अख्तियार न करे तो वह हमारे बहुत काम का नहीं होगा. यह बात सर्वप्रथम हम निराला के
यहाँ देखते हैं.

जब हम अरुण कमल की कविताओं के विकास क्रम को
देखते हैं ,तो यह जरुरी हो जाता है कि हम प्रगतिशील काव्य परम्परा को नये संदर्भों
में समझे. प्रगतिशील काव्य परम्परा से क्या तातपर्य है ? प्रगतिशील काव्य परम्परा
का अर्थ है स्व के आकर्षण से बाहर आकर सामूहिकता की तरफ उन्मुख होना. नागार्जुन,
त्रिलोचन या केदारनाथ अग्रवाल की बात करें तो वहां स्वयं का अतिक्रमण तो है ही साथ
ही स्वयं के भीतर एक सामूहिक पहचान निर्मित करने की कोशिश भी है . याद करें
त्रिलोचन की कविता-

वही त्रिलोचन है, वह जिसके तन
पर गंदे

कपडे हैं. कपड़े भी कैसे
फटे-लटे हैं,

यह भी फैशन है, फैशन से कटेकटे है-.

कौन कह सकेगा इसका जीवन चंदे

पर अवलंबित है

अगर हम इस कविता से कवि का नाम हटा दे तो भी यह कविता
किसी भारतीय साधारण जन के लिए उद्धृत की जा सकती है. ऐसे में पूछा जा सकता है कि
त्रिलोचन कविता में अपना नाम क्यों लिखते हैं? इसलिए कि आगे जो वर्णन है वह एक
समूह का बोध कराती है. कवि उसी का हिस्सा है. उसकी अभिव्यक्ति एकवचन न होकर बहुवचन
को इंगित करती है. यही प्रगतिशील कविता की जीवन दृष्टि थी. एकवचन से बहुवचन की और
प्रस्थान. यानि स्व का सामूहिकता में रूपांतरण. आठवें दशक के मध्य नागार्जुन और
त्रिलोचन ने दो लम्बी कवितायेँ लिखी  हरिजन
गाथा
और नगई महरा. ये दोनों कवितायेँ आज़ादी के बाद के परिदृश्य में
पहली बार कविता में जटिल समाजशास्त्रीय प्रश्न को सामने रखते हैं. लेकिन इसके लिए
दोनों ही कवि गतिशील जीवन से पल भर को भी निगाह ओझल नहीं करते. यह प्रगतिशील कविता
का नया सोपान था. अरुण कमल की कविता का प्रस्थान बिंदु भी वही है .परन्तु अरुण कमल
यहाँ से शुरू करते हुए एक बेहद सहज सी लगती संवादपरकता के बेहद करीब की भाषा में
एक नया समाजशास्त्र कविता के माध्यम से रचते हैं.

वह आ गयी

और मेरी बगल में बैठ गयी

धीरे से पीठ तख्ते से टिकाई

और लम्बी साँस ली

……… ………..
……….

कि सहसा मेरे कंधे से

लग गया

उस युवती का माथा

……… ………..
……….

काम से वापस घर लौट रही थी

एक डेली पैसेंजर (डेली
पैसेंजर)

यह कविता एक अद्भुत आत्मीय संसार का दरवाजा खोलती है.
मनुष्य आरम्भ में अकेला रहा होगा. इसी दौरान उसने धीरे -धीरे सम्बन्ध विकसित किये
होंगे. सम्बन्धों की दुनिया इतनी व्यापक और जटिल हो गयी होगी कि उसे नाम देना पड़ा
होगा. विवाह संस्था के विकास ने आधुनिक परिवार की नींव डाली होगी. संबंधो के विकास
एवं पहचान में नामों का वर्चस्व इतना अधिक हो गया होगा कि नामहीन संबंधो की दुनिया
खात्मे पर होगी. संबंधो के संकुचित व्याकरण के बाहर जो मनुष्य की अतृप्त संवेदना
है, वह हमारे व्यक्तित्व में अजनबियत को, रचती है. नई सदी ने जो क्रूरता का नया
शास्त्र रचा है उसमें इस अजनबियत की कितनी बड़ी भूमिका है यह बताने की आवश्यकता
नहीं है . यह कविता हमारी उसी बेकल संवेदना को चिन्हित करती है. मनुष्य और मनुष्य
के बीच मौजूद आदिम रागात्मकता की खोज वर्तमान संदर्भ में एक नया अर्थ रचती है. वह
क्रूरता का एक सार्थक प्रतिरोध तो निर्मित करती ही है अपने भीतर पनप रहे अजनबियत
का भी निषेध करती है. यह उस आदिम थकान का भी पुनर्सृजन करती है जो श्रम का प्रतिफल
है .

लगता है बहुत थकी थी

वह कामगार औरत

इस थकान को देखने की कवि की दृष्टि हमे किस तरलता से
भर देती है. हमे कितना उन्मुक्त कितना भारहीन और कितना सम्पूर्ण बना देती है. अंततः
कलाएं अपनी समग्रता में सम्पूर्ण को ही तलाशती हैं. सम्बन्धों को लेकर अरुण कमल के
यहाँ एक पैसन है. उनके नये संग्रह मैं वो शंख महाशंख  में सम्बन्ध शीर्षक से ही एक कविता है. यह
कविता एक विचित्र से वाकये को हमारे सामने लाती है. यहाँ भी नामों के वर्चस्व से
बाहर एक नामहीन सम्बन्ध की तलाश है. देवर और भाभी के बीच का सम्बन्ध.  उसे किस व्याकरण में रखा जाये. भाभी को पहला
बच्चा हुआ है. उसके स्तनों से दूध उतर नहीं रहा है. नवजात शिशु बेहाल है. स्तनों
में दूध उतर आये, इसके लिए देवर को बुलाया जाता है.

तुमने हुक खोले और

गाय की बड़ी बड़ी आँखों से मुझे
देखा

मैं काँप गया

दोनों स्तन इतने कठोर कैंता
के फल से

और बच्चा रो रह था एक ओर

 

नहीं कह सकता वह सुख था या
शोक

मैं तुमहरा देवर पति या पुत्र

मैंने कंठ में रोक लिया वह
दूध

हम अलग हो चुके हैं अब

अलग अलग चूल्हें हैं हमारे

और अलग अलग जीवन

वह बच्चा भी अब सयाना है

और तुम भी ढल गयी हो

फिर भी मैं कह नहीं सकता

यह कैसा सम्बन्ध है

मैं तुम्हारा देवर तुम्हारा
पति तुम्हारा पुत्र ?

यह है अरुण कमल का वैशिष्ट्य. उनकी भाषा में अमूर्तन का जबरदस्त नकार मौजूद है.
सिर्फ एक पंक्ति गाय की आँखों से भाभी का देखना.  मैं नहीं समझता कि यहाँ इन पंक्तियों में जितनी
तरलता और करुणा अरुण कमल पैदा करते हैं, उसका कोई विकल्प हो सकता है. अरुण कमल की
कविता पढ़ते हुए ऐसा कई बार महसूस होता है कि वे जिस बात को जिस तरह उसकी श्रेष्ठता
में कहना चाहिए, कह लेते है और इस हद तक कि उसमें कुछ और घटा या बढ़ा सकने की
मामूली गुंजाईश भी न बचे. कला जीवन की पुनर्चना न भी हो तो भी कला का आदर्श तो
जीवन ही होगा. अरुण कमल की कविता इसलिए उन विषयों के करीब पहुँचने की कोशिश करती
नज़र आती है जहाँ से जीवन के आदर्श को अधिक सूक्ष्मता से देखा व परखा जा सकता है.
करुणा का समूचा विस्तार
सम्बन्धों को उनके संकुचित दायरे से बाहर ला देता है. भाभी और देवर के संबंधो के
बीच मौजूद यह करुणा किसी भी संस्कृति या लोकजीवन की कितनी बड़ी थाती है इसकी
व्याख्या नहीं की जा सकती. इसे महज़ सामंती संस्कार कहकर नकारा नहीं जा सकता. यह
बात भी काबिले गौर है कि सामाजिक आधुनिकता का संदर्भ महज़ ज्ञान विज्ञान या तर्क
तकनीक से तय नहीं होता. वह तय होता हैं सभ्यताओं के लम्बे विकास क्रम से, सामाजिक
जीवन की विस्तृत परम्पराओं से, जीवन शैली में मौजूद करुणा से.

अरुण कमल का तीसरा संग्रह नये इलाके में पिछली
सदी के अंतिम दशक के मध्य आया. इस संग्रह के साथ ही अरुण कमल काव्य भाषा के नये
इलाके में प्रवेश करते हैं. नये इलाके में इसलिए भी कि जहाँ उनकी पीढ़ी के कई अन्य
कवि या तो अपने पिछले संग्रहों को दुहराते रहे या कलावाद की तरफ आकर्षित होने लगे वहीँ
अरुण कमल जीवन और लोकसंस्कृति की तरफ अधिक उन्मुख होते हैं. अरुण कमल के लिए लोक
संस्कृति का अर्थ है जीवन का प्रवक्ता होना. उनकी कविताओं में घर-परिवार भाई-बहन
कुटुंब -समाज अपनी जैविकता और जीवन्तता के साथ उपस्थित होने लगे. अनेक घटनाएँ
प्रसंगों का उल्लेख  उनकी कविताओं में
गतिशील दृश्य के रूप में होने लगा. यह नागार्जुन की कविताओं का नया क्षितिज विस्तार
था. अरुण कमल अपनी समग्रता में किसी भी हिंदी कवि की अपेक्षा नागार्जुन के अधिक
करीब नज़र आते हैं. साथ ही परम्परा के विस्तार के क्रम में आप एक नयी परम्परा भी
रचते हैं .कहना न होगा कि अरुण कमल के यहाँ परम्परा का विकास एक मौलिक धारा का रूप
ले लेती है क्योंकि उसमें अपने समय समाज की अंतर्भूत अनिवार्य पहचान नज़र आती है. इस
संग्रह में उनकी एक कविता है एक रात जब मैं सफ़र में था. इस कविता में एक व्यक्ति
ट्रेन के शयनयान में सफ़र कर रहा है. रात के वक्त जब सारा शयनयान सो रहा था वह
व्यक्ति दरवाजे के पास अपना सामान लिए अकेला खड़ा है . जाहिर सी बात है कि इस
यात्री की टिकट प्रतीक्षा सूची में है.  प्रतीक्षा
सूची में यात्रा करना एक अजीब और अमूर्त सी तकलीफ और हिकारत से हमें भर देती है. प्रतीक्षा
सूची में यात्रा कर रहा आदमी दुनिया को एक दार्शनिक एक चिन्तक की नज़र से देखता है.
जहाँ उसके चिंतन के केंद्र में उसकी असफलता है. ऐसी ही मनस्थिति में एक व्यक्ति
यात्रा कर रहा है. वह बेचैन है.  लेकिन उस
व्यक्ति के समक्ष टी.टी. अपने गुलुबुन्द के भीतर यानि अपने सुरक्षित दायरे के भीतर
बैठा है. ट्रेन से कटने की जो भिन्न आवाजें आ रही हैं -उनको पहचानते हुए वह उस
व्यक्ति को बताता है .

अच्च ! चला गया !-

क्या हुआ ?

कट गया ! आवाज़ वैसी ही थी

इतनी रात में निकला था लकड़ी
चुनने !

टी.टी के भीतर की अजीब सी निष्ठुरता एवं वर्गीय दायरे
सुरक्षित होने का संतोष, दोनों को अरुण कमल बहुत बारीकी से बगैर किसी अतिरिक्त
विस्तार के दिखाते हैं. लेकिन क्या आदमी का कटना सिर्फ इतनी सामान्य सी बात है!
क्या सियार बैल या आदमी के काटने के बीच महज़ आवाज़ों का ही फर्क है? क्या सिर्फ यह
आदमी का कटना भर है? क्या ये यह नहीं बताता है कि कुछ हमारे भीतर भी कट रहा है . बिना
आवाज़ के. क्या वह कटकर मर नही चुका है, टी.टी के भीतर. क्या वे सब जो शयनयान में
इस सबसे बेखबर, अपनी नींद की दुनिया में गोते लगा रहें हैं उनके भीतर कुछ कटकर मर
नही चुका है?  अरुण कमल की कविताओं में
अर्थ के कई स्तर हैं. यही वजह है कि सामान्य सी दिखती कविता भी एक आत्मीय पाठ की
मांग करती है.

अरुण कमल के यहाँ विषयों की बहु-आयामी श्रृंखला है. उसमें
तीज त्यौहार उत्सव हैं. वे एक ऐसी दुनिया सृजित करते हैं जिसमें लोगो के सचमुच के
चेहरे हैं. उसमें जीवन और मृत्यु का निरंतरता है. दरअसल अरुण कमल जीवन से बाहर कुछ
भी नही रचते. उनके लिए मृत्यु भी जीवन का ही अंग है , इसलिए श्राद्ध का अन्न
निगलते हुए वे मृत्यु के प्रति दार्शनिकता को नहीं लाते ,बल्कि संवेदना की
व्याकुलता को शब्द देते हुए कहते हैं –

 

कोई भीतर से दोनों हाथों से
ठेल रहा निबाला

अवरुद्ध है कंठ

मुंह चल नहीं पाता

बरौनियाँ हिल नहीं रहीं

पालथी में भर गयी जांघ –

सामने खड़ा है मृतक हँसता

पूछता है कैसी है बुंदिया
कैसा है रायता .

हम अगर इस विवरण पर गौर करें. कितनी तटस्थता है इस
पूरी शैली में. किसी की मृत्यु के शोक संतप्त वातावरण में, शोक के सामूहिक आयोजन
की उत्सवधर्मिता पर कितना बड़ा व्यंग्य ? इस पूरी कविता में एक तरफ डायरेक्ट होने
का खतरा था वहीँ दूसरी तरफ लाउड होने की भी संभावना थी. लेकिन अरुण कमल इन दोनों
अतियों से बचते हुए जिस निःसंगता से विवरण को रचते है, वह यह समझने के लिए
पर्याप्त है कि वे सचमुच भाषा के नये इलाके में प्रवेश करते हैं और ऐसा करने के
लिए वह जीवन प्रसंगों का एक विस्तृत कोलाज़ निर्मित करते हैं .

अरुण कमल की कविताओं में हत्यारे बार-बार आते हैं.
हत्यारे उनके समकालीन कवियों के यहाँ भी आते हैं. वहां वे मनुष्य की बजाय किन्हीं
संक्ल्पनाओं से आबद्ध नज़र आते हैं, लेकिन अरुण कमल के यहाँ वे किन्हीं जीवन प्रसंग
या परिस्थितियों की चोट खाए आदमी के रूप में नज़र आते हैं. इसलिए वे क्रूर या
आततायी नहीं हैं और न ही वे व्यवस्था के पोषक की तरह दिखते हैं. अरुण कमल के यहाँ
यह इसलिए हो पाता है कि वे अपनी कविता को संक्ल्पनाओं द्वारा स्वीकृत
सामान्यीकरणों के तहत नहीं रचते. वे उसे अधिक गतिशील और ताप से भरे जीवन से समृद्ध
करते हैं. इसी  संदर्भ में उनकी कविता एकालाप
देखी जानी चाहिए .

पर धीरे धीरे ऐसा समय आता है

जब सारे रास्ते पानी में डूब
जाते हैं

जब तुमहरा सोचा कुछ नहीं होता

बस अंधड़होता है और सेमल रुई
का फाहा

बस एक कोठरी बचती है पूरे शहर
में खाली

श्मशान के पास .

यही वह परिदृश्य है जो हत्यारे को रचती है. जीवन
परिस्थितियों का विलाप एकालाप में बदल जाता है. हत्यारे या अपराधी का अकेलापन.
उसकी मनःस्थिति और रोज़ रोज़ उसके भीतर छीजती मनुष्यता. जीवन अगर रौशनी न बन सके तो
उसे अंधकार भीं नहीं बनना चाहिए. अगर वह अंधकार है तो उससे लड़ने के लिए भीतर का
मनुष्य बचा रहे. बाहर का समाज अगर दिया न जलाता हो तो कम से कम अँधेरा तो न बढ़ाये.
आदमी अगर परिस्थितयों का गुलाम नज़र आता है, नियति के हाथों वह कठपुतली की तरह
नाचता रहता है तो इसके कारण किन्हीं ईश्वर या धर्म के ठेकेदारों के यहाँ नहीं
ढूंढे जाने चाहिए. इसके कारण मौजूद हैं समाज की व्यवस्था में राजनीति की गति में, संस्कृति
की दृष्टि में . अरुण कमल की कविता इसी नये इलाके का फेरा लगाती है.

 

अरुण कमल की कविताओं पर बात करते हुए पिछले दिनों
प्रकाशित उनकी कविता कविता-2013 की चर्चा करना उपयुक्त होगा. यह कविता एक
ही समय को कई तरह के विभाजनो और कई तरह की घटनाओं को एक ही के संयोजन में देखती
है. एक तरफ हमारा समय है जो हमसे छूट रहा है एक तरफ हम किसी समय को पकड़ने की कोशिश
में हैं. छूटता हुआ समय हमरा अतीत है. पकड़ में न आ सकने वाला समय भविष्य. दोनों ही
स्थितियों में हाथ कुछ भी नहीं आ रहा. लेकिन इस सबके दरम्यान जो वर्तमान है वह या
तो नियति है या फिर एक स्वप्न. वर्तमान आधा अतीत में आधा भविष्य में. लेकिन
वर्तमान में कोई वर्तमान नहीं. इस कविता में अरुण कमल एकदम नई जमीन पर नज़र आते हैं.
अपनी सुरक्षित कविता की जमीन से बहुत दूर. अरुण कमल की कविताओं में लम्बी साँस
नहीं है, कहने वालो को यह कविता देखनी चाहिए. इसको पढ़ते हुए आपका दम फूलने लगेगा.
सच को सच की तरह अब नहीं कहा जा सकता. इसलिए उसे कविता में कहा जाना चाहिए .

बोलना आसान है देवयानी के
पक्ष में

इस गरीब के पक्ष में तो बोल
कर देखो

बोलना आसान है ओबामा के खिलाफ

इस जमींदार ठेकेदार इजारेदार
के खिलाफ जुबान तो खोलो

इस कविता में मौजूद इंटेंसिटी उनकी नई विकास यात्रा
को इंगित करती है. जहाँ यथार्थ का पागलपन और समय की तेज़ अंधड़ दोनों को एक नई काव्य
भाषा में वे रचते हैं
. मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो अरुण कमल की इस कविता में एक
विश्व दृष्टि परिलक्षित होती है. वे तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों को एक युग,
एक विश्व, एक मानवजाति के विस्तार तक ले जाते हैं. अरुण कमल की कविताओं में आवेग
की बजाय एक तटस्थता या निःसंगता ही अधिक नज़र आती है लेकिन इस कविता में वे एक आवेग
रचते हैं. यह अरुण कमल की सुपरचित काव्य भूमि नहीं है. वे अपने कम्फर्ट जोन से बाहर
निकलते हैं .

अरुण कमल की कविताओं में यात्राओं का संदर्भ बार बार
आता है. यात्रायें संभवतः उनके जीवन में भी बहुत हैं. यात्रायें नागार्जुन के जीवन
में भी बहुत थी. मैथिली में तो नागार्जुन का उपनाम ही यात्री है. परन्तु नागार्जुन
के समय और अरुण कमल के समय में एक बुनियादी फर्क है . फर्क ये कि नागार्जुन के समय
में यात्राओं के पीछे न तो संस्थाओं की इस हद तक भूमिका थी और न ही साहित्य
संस्कृति के ऊपर इस तरह के व्यवसायिक दवाब थे. इन परिस्थितियों में खुद को बचाना
और कविता को बचाना दोनों ही एक बड़ी चुनौती है लेकिन सुखद है कि अरुण कमल की
रचनात्मक ऊर्जा बढती ही गयी है. अरुण कमल की कविताओं में एक लगातार विकास
क्रम देखा जा
सकता है. उनकी भाषा अधिक सहज और अधिक ग्राह्य हुयी है. लेकिन इसका अर्थ यह कतई
नहीं है कि जटिल यथार्थ या सामाजिक जटिलता उनकी कविताओं में नहीं है, बल्कि यह
कहना ज्यादा संगत है कि वे भाषा के स्तर पर जटिल सामाजिक, सांस्कृतिक परिदृश्य को
सरलता से कह सकने में अधिक सक्षम नज़र आते हैं.

आज की युवा कविता का एक बड़ा हिस्सा वस्तुगत जटिलता के
प्रश्न को शिल्पगत प्रयोगों के माध्यम से हल करने की कोशिश कर रहा है. यह तो
स्पष्ट है कि युवा कविता की इस कोशिश में कविता में मौजूद संकट को देखा जा सकता है
और यह सुखद भी है कि युवा कविता कविता के संकट को नये सिरे से समझने का प्रयत्न कर
रही है. युवा कविता का बड़ा दायरा परिदृश्य की जटिलता से आक्रांत भी है और इस वजह
से उसमें कई जगहों पर कविता की जगह कविता की मुद्राएँ ही अधिक नज़र आती है. लेकिन हर
पीढ़ी का संकट उसका अपना मौलिक संकट होता है किसी भी पिछले समय के संकट से उसका
स्थानापन्न संभव नहीं. बावजूद इसके यह कहना ठीक होगा कि अरुण कमल की कविताओं में
भी युवा कविता समय परिलक्षित होता है. किसी कवि की परिदृश्य में मौजूदगी
अगर नये लोगों के आत्मविश्वास को बढाती हो तो यह कवि और कविता की सार्थकता ही मानी
जाएगी.

 

 

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