भाषा में बारिश: प्रवीण कुमार की कविताएं

                                                                           चित्र: अतुल             


 भाषा में बारिश: प्रवीण कुमार की कविताएं
 (ऐसी होती है कविता में कहानी और कहानी में कविता की बारिश- तंग घेरेबन्दियाँ 
 लांघती, धार - कछार छोड़ती)  

(१.)
 मौसम
 पूछा था तुमने -
 क्या संभव नहीं कि
 इस बारिश के बाद भी बरसता रहे आकाश,

  या कि यह बरसों बरस बरसे
  हम इस सावन को रेशेदार कहते ?
  रेशेदार सावन  का पहला ख़याल
  अजीब थे न तुम्हारे सवाल ?
  भाषा के भीतर परेशान मैं
  ढूँढता रहा जवाब
  तब तुम्हारा मुझ पर रेशे की तरह खुलना
  मुश्किल है मेरी भाषा में
  उस रेशेदार सावन को भूलना ।
  तुम पूछती रही -रेशमी प्रकाश-मखमली बात..
  मैं नि:शब्द ,
  इसी तरह पूछा था तुमने -
  क्या संभव नहीं कि

  रुकी रहे यह जेठ की दुपहरी
  सूरज को न आए घर की याद

  लोग भूल जाएँ कहीं आना - जाना?
  हर मौसम पर तुमने पूछे थे जो सवाल
  उनके जवाब यूँ ही बाकी रह जाना,

  पर पूछा नहीं तुमने
  क्यों साथ रहते हो रोज़ाना ।

  बस छूता रहा तुम्हारे साथ
  मौसम-बेमौसम
  जेठ–जाड़ा-बरसात ।
  सचमुच अब भी रुकी है जेठ
  बारिश के बाद भी बरसता है आकाश
  गाती है गौरय्या अब भी आठों पहर गाना
  भाषा में खोजता रहा जिस मौसम को
  तुम्हारे जाने के बाद उसको जाना।

 (२)
       इतिहासकार

  लोग बेवजह लिखते हैं इतिहास
  गढ़ते हैं शब्द , दिखाते हैं युगांतर
  पुरापाषाण ! नवपाषाण !

  पत्थरों को फेंकने से पहले
  आदिम मनुष्य ने
  जरूर सूँघा होगा कोई फूल -फेंके होंगे गुलाब
  तरबतर हुई होगी प्रिया

  बेचने को पहले-
  उसने रगड़ी होगी शंख और सीपियाँ बनाया होगा हार
  उसपर दमकने के लिए ,
  रस्सियों को बुनने के पहले
  उसने गूँथे होंगे हौव्वा के बाल ,
  चाक बनने से सदियों पहले
  बनाया होगा उसका जूड़ा गोल ,
  मन ढुलका होगा तब तेज
  जब आई होगी उसकी याद ,
  डगर गया होगा उस ओर पहिए- सा
  तब हुआ यह अविष्कार ।
  आग जंगल से पहले देह में छिपी थी शायद
  दानों के पकने से पहले पका होगा प्रेम ,
  हथियारों की कल्पना से पहले
  चाहत के सपने आए होंगे
  जिस पर फूटे होंगे बोल और
  अंकुरित हुई होगी कविता बीजों से पहले ।

  सभ्यता की कोई मीनार छूने से पहले
  उसने चूमा होगा कोई भरोसे का मस्तक
  जरूर मूर्च्छित हुआ होगा  सोना देखने से पहले
  प्रेमिका के होंठ देखकर
  तब झरे होंगे पराग , उड़ी होंगी तितलियाँ ।
  अनारदाना कहते होंगे दाँतों को शायद
  फलों की खोज तो बाद में हुई ,
  सोना भी पहले पहल देह का रंग होगा
  और मोगरे की खूशबू को कहते होंगे सांस ।

  यह फूल , यह सीपी , यह जूड़ा , यह रंग
  खूशबू ,सांसें , चाहत , अनारदाना
  पहले पहल आए होंगे ।
  लोगो ने बेवजह
  नाम बदल दिए हैं शायद ।

 (३)

   (भरोसा)

  जैसे चिड़िया को होता है पंखों पर
  बूढ़े को लाठी पर ,
  बच्चा माँ का भरोसा लेता है
  वक़ील क़ानून का
  पार्टियां घोषणा-पत्रों का ।
  कोई लेता है भरोसा संविधान का
  जगह का भरोसा तो सभी लेते हैं
  हाथी भी टिड्डा भी
  पृथ्वी को भरोसा है घूर्णन पर
  आसमान तारों के भरोसे है
  चाँद चाँदनी के
  सूरज तपिश पर भरोसा करता है ।
  अब बचा पढ़ा-लिखा इंसान ,
  उसे तो सोचना ही होगा
  भरोसे पर टिकी यह दुनिया
  उसके भरोसे गुलज़ार होगी कभी ?
 
 (४)
  *छायावाद के सौ बरस पूरे होने पर कविता*

  (तुम उस पार)

  इस उम्र की
  जैसे आख़िरी बारिश
  मोती गिर रहे हैं -
  तुम उस पार ।
  सद्य:स्नाता, गीले बाल
  कसता है मन
  तुम बूँदों के पार ।
  हिलते होंठों पर गिरी स्वाति
  फूटी सीपी-सी मुस्कान,
  आह! 
  रूप का यह निर्मम उछाल !
  अब तेज हुई बरसात
  मन आहत मुद्रा तुम माघ स्नान
  कल चला जाऊँगा
  न आने को
  ओझल होंगे बारह मास ।
  इस उम्र की जैसे आख़िरी तेज बरसात 
  धुँधली होती तुम
  केवल आभा आकार ।
  तीर्था ! तो चलूँ मैं ?
  बस रख लो मेरा
  अंतिम नमस्कार।
 

          -प्रवीण कुमार(प्रख्यात युवा कथाकार)

          सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्व विद्यालय